NCERT Class 10 अर्थशास्त्र Chapter 2 भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक Notes in Hindi

NCERT 10 Class अर्थशास्त्र Chapter 2 भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक Notes in hindi

Ncert Class 10 अर्थशास्त्र Chapter 2 भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक Notes in hindi. जिसमे आर्थिक गतिविधि , प्राथमिक क्षेत्रक , द्वितीयक क्षेत्रक , तृतीयक क्षेत्रक , सकल घरेलू उत्पादक , दोहरी गणना ,

प्रच्छन्न बेरोज़गारी , शिक्षित बेरोज़गारी , ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम 2005 , संगठित क्षेत्रक , असंगठित क्षेत्रक , सार्वजनिक क्षेत्र , निजी क्षेत्र आदि के बारे में पढ़ेगे।

TextbookNCERT
ClassClass 10
Subjectअर्थशास्त्र Economics
ChapterChapter 2
Chapter Nameभारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक
CategoryClass 10 अर्थशास्त्र Notes in Hindi
MediumHindi
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NCERT Class 10 Economics Chapter 2 भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक Notes in hindi

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📚 अध्याय = 2 📚
💠 भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक 💠

आर्थिक कार्यों के क्षेत्रक :-

  • प्राकृतिक संसाधनों के प्रत्यक्ष उपयोग पर आधारित अनेक गतिविधियाँ हैं।
  • जैसे कपास के पौधों की वृद्धि के लिए हम मुख्यत:, न कि पूर्णतया, प्राकृतिक कारकों जैसे – वर्षा, सूर्य का प्रकाश और जलवायु पर निर्भर हैं।
  • अत: कपास एक प्राकृतिक उत्पाद है।
  • इसी प्रकार, डेयरी उत्पादन में हम पशुओं की जैविक प्रक्रिया एवं चारा आदि की उपलब्धता पर निर्भर होते हैं।
  • अत: इसका उत्पाद दूध भी एक प्राकृतिक उत्पाद है।
  • इसी प्रकार, खनिज और अयस्क भी प्राकृतिक उत्पाद है।
  • ऐसे क्रियाकलाप जिनको करके जीवनयापन के लिए आय की प्राप्ति की जाती है।
  • किसी भी अर्थव्यवस्था को तीन क्षेत्रक या सेक्टर में बाँटा गया है –
    1. प्राथमिक या प्राइमरी सेक्टर (कृषि क्षेत्र)
    2. द्वितीयक या सेकंडरी सेक्टर (विनिर्माण औद्योगिक क्षेत्र)
    3. तृतीयक या टरशियरी सेक्टर (सेवा क्षेत्र)

प्राथमिक सेक्टर (क्षेत्रक) :-

  • जब हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं, तो इसे प्राथमिक क्षेत्रक की गतिविधि कहा जाता है।
  • इस सेक्टर में होने वाली आर्थिक क्रियाओं में मुख्य रूप से प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल से उत्पादन किया जाता है। उदाहरण: कृषि और कृषि से संबंधित क्रियाकलाप, खनन, आदि।
  • प्राकृतिक उत्पाद कृषि, डेयरी, मत्स्यन और वनों से प्राप्त करते हैं, इसलिए इस क्षेत्रक को कृषि एवं सहायक क्षेत्रक भी कहा जाता है।

द्वितीयक सेक्टर (क्षेत्रक) :-

  • यह प्राथमिक क्षेत्रक के बाद अगला कदम है यहाँ वस्तुएँ सीधे प्रकृति से उत्पादित नहीं होती हैं, बल्कि निर्मित की जाती हैं।
  • विनिर्माण की प्रक्रिया किसी कारखाना, किसी कार्यशाला या घर में हो सकती है।
  • जैसे कपास के पौधे से प्राप्त रेशे का उपयोग कर हम सूत कातते और कपड़ा बुनते हैं, गन्ने को कच्चे माल के रूप में उपयोग कर हम चीनी और गुड़ तैयार करते हैं।
  • हम मिट्‌टी से ईट बनाते हैं और ईटों से घर और भवनों का निर्माण करते है।
  • यह क्षेत्रक संवर्धित विभिन्न प्रकार के उद्योगों से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसे औद्योगिक क्षेत्रक भी कहा जाता है।

तृतीयक सेक्टर (क्षेत्रक) :-

  • आर्थिक गतिविधियों की एक तीसरी कोटि भी है जो तृतीयक क्षेत्रक के अन्तर्गत आती है और उपर्युक्त दो क्षेत्रकों से भिन्न है।
  • ये गतिविधियाँ प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के विकास में मदद करती हैं।
  • यह गतिविधियाँ स्वत: वस्तुओंका उत्पादन नहीं करती हैं। जैसे प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित वस्तुओं को थोक एवं खुदरा विक्रेताओं को बेचने के लिए ट्रकों और ट्रेनों द्वारा परिवहन करने की जरूरत पड़ती है।
  • हमें उत्पादन और व्यापार में सुविधा के लिए टेलीफोन पर दूसरों से वार्तालाप करने या पत्राचार (संवाद) या बैंकों से कर्ज लेने की भी आवश्यकता होती है।
  • परिवहन, भण्डारण, संचार, बैंक सेवाएँ और व्यापार तृतीयक गतिविधियों के कुछ उदाहरण हैं।
  • इस सेक्टर में होने वाली आर्थिक क्रियाओं के द्वारा अमूर्त वस्तुएँ प्रदान की जाती है।
  • उदाहरण: यातायात, वित्तीय सेवाएँ, प्रबंधन सलाह, सूचना प्रोद्योगिकी, आदि।

सार्वजनिक क्षेत्रक :-

  • सार्वनजिक क्षेत्र जिसमें अधिकांश परिसम्पतियों पर सरकार का स्वामित्व होता है और सरकार ही सभी सेवाएँ उपलब्ध करवाती है।

निजी क्षेत्रक :-

  • वह क्षेत्र जिसमें परिसम्पत्तियों का स्वामित्व और सेवाओं का वितरण एक व्यक्ति या कम्पनी के हाथों में होती है।
  • सकल घरेलू उत्पाद किसी विशेष वर्ष में प्रत्येक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित अंतिम वस्तुओं ओर सेवाओं का मूल्य उस वर्ष में देश के कुल उत्पादन की जानकारी प्रदान करता है।
  • सेवा क्षेत्रक में कुछ ऐसी अपरिहार्य सेवाएँ भी हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं के उत्पादन में सहायता नहीं करती हैं। जैसे हमें शिक्षकों, डॉक्टरों, धोबी, नाई, मोची एवं वकील जैसे व्यक्तिगत सेवाएँ उपलब्ध कराने वाले और प्रशासनिक एवं लेखाकरण कार्य करने वाले लोगों की आवश्यकता होती है।
  • वर्तमान समय में सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ जैसे, इंटरनेट कैफे, ए.टी.एम. बूथ, कॉल सेंटर, सॉफ्टवेयर कम्पनी इत्यादि भी महत्वपूर्ण हो गई हैं।
  • तीनों क्षेत्रकों के उत्पादनों के योगफल को देश का सकल घरेलू उत्पाद (सकल घरेलु उत्पाद) कहते हैं।
  • यह किसी देश के भीतर किसी विशेष वर्ष में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य है।
  • भारत में सकल घरेलु उत्पाद मापन जैसा कठिन कार्य केन्द्र सरकार के मंत्रालय द्वारा किया जाता है।
  • यह मंत्रालय राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों के विभिन्न सरकारी विभागों की सहायता से वस्तुओं और सेवाओं की कुल संख्या और उनके मूल्य से संबंधित सूचनाएँ एकत्र करता है और तब जी.डी.पी. का अनुमान करता है।

क्षेत्रकों में ऐतिहासिक परिवर्तन :-

  • सामान्यतया, अधिकांश विकसित देशों के इतिहास में यह देखा गया है कि विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में प्राथमिक क्षेत्रक ही आर्थिक सक्रियता का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रक रहा है।
  • कृषि – प्रणाली परिवर्तित होती गई और कृषि क्षेत्रक समृद्ध होता गया, वैसे-वैसे पहले की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन होने लगा।
  • अब अनेक लोग दूसरे कार्य करने लगे। शिल्पियों और व्यापारियों की संख्या में वृद्धि होने लगी।
  • क्रय-विक्रय की गतिविधियाँ कई गुना बढ़ गई।
  • इसके अतिरिक्त अनेक लोग परिवहन, प्रशासक और सैनिक कार्य इत्यादि से जुड़े थे।
  • इस अवस्था में अधिकांश उत्पादित वस्तुएँ, प्राकृतिक उत्पाद थी, जो प्राथमिक क्षेत्रक में आती थीं और अधिकांश लोग इसी क्षेत्रक में आती थीं और अधिकांश लोग इसी क्षेत्रक में रोजगार करते थे।
  • लम्बे समय (सौ वर्षों से अधिक) के बाद और विशेषकर विनिर्माण की नवीन प्रणाली के प्रचलन से कारखाने अस्तित्व में आए और उनका प्रसार होने लगा।
  • जो लोग पहले खेतों में काम करते थे, उनमें से बहुत अधिक लोग अब कारखानों में काम करने लगे।
  • उन्हें कारखानों में काम करने के लिए मजबूर किया गया ।
  • कारखानों में सस्ती दरों पर उत्पादित वस्तुओं का लोग इस्तेमाल करने लगे।
  • कुल उत्पादन एवं रोजगार की दृष्टि से द्वितीयक क्षेत्रक सबसे महत्वूपूर्ण हो गया।
  • इस कारण अतिरिक्त समय में भी काम होने लगा। इसका अर्थ है कि क्षेत्रकों का महत्त्व परिवर्तित हो गया।
  • विकसित देशों में द्वितीयक क्षेत्रक से तृतीयक क्षेत्रक की ओर पुन: बदलाव हुआ है।
  • कुल उत्पादन की दृष्टि से सेवा क्षेत्रक का महत्व बढ़ गया। अधिकांश श्रमजीवी लोग सेवा क्षेत्रक में ही नियोजित हैं।
  • विकसित देशों में यही सामान्य लक्षण देखा गया है।
  • भारत में तीनों क्षेत्रकों का कुल उत्पादन और रोजगार कितना है?

उत्पादन में तृतीयक क्षेत्रक का बढ़ता महत्व :-

  • वर्ष 1973-74 और 2013-14 के बीच भारत में पिछले चालीस वर्षों में सबसे अधिक वृद्धि तृतीयक क्षेत्रक में हुई है।
  • इस तीव्र वृद्धि के कई कारण हैं जैसे सेवाओं का समुचित प्रबंधन, परिवहन, भंडारण की अच्छी सुविधाएँ व्यापार का अधिक विकास, शिक्षा की उपलब्धता आदि।
  • वर्ष 2013-14 में भारत में प्राथमिक क्षेत्रक को प्रतिस्थापित करते हुए तृतीयक क्षेत्रक सबसे बड़े उत्पादक क्षेत्रक के रूप में उभरा।
  • किसी भी देश में अनेक सेवाओं जैसे अस्पताल, शैक्षिक संस्थाएँ, डाक एवं तार सेवा, थाना, कचहरी, ग्रामीण प्रशासनिक कार्यालय, नगर निगम, रक्षा, परिवहन, बैंक, बीमा कंपनी इत्यादि की आवश्यकता होती है।
  • किसी विकासशील देश में इन सेवाओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी सरकार उठाती है।
  • द्वितीय, कृषि एवं उद्योग के विकास मे परिवहन व्यापार भण्डारण जैसी सेवाओं का विकास होता है।
  • प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक का विकास जितना अधिक होगा, ऐसी सेवाओं की माँग उतनी ही अधिक होगी।
  • तृतीय क्षेत्रक आय बढ़ने से कई सेवाओं जैसे रेस्तरा, पर्यटन, शापिंग निजी अस्पताल तथा विद्यालय आदि की मंग शुरू कर देते है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ महत्वपूर्ण एवं अपरिहार्य हो गई है।

अल्प बेरोजगारी :-

  • देश में आधे से अधिक श्रमिक प्राथमिक क्षेत्रक, मुख्यत: कृषि क्षेत्र, में काम कर रहे हैं जिसका स. घ. उ. में योगदान लगभग एक-छठा भाग है।
  • इसकी तुलना में द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक का स.घ.उ. में बाकी हिस्सा है।
  • किसी अर्थव्यवस्था में कुल उत्पादन और रोजगार की दृष्टि से एक या अधिक क्षेत्रक प्रधान होते हैं, जबकि अन्य क्षेत्रक अपेक्षाकृत छोटे आकार के होते हैं।
  • जब किसी काम में जितने लोगों की जरूरत हो उससे ज्यादा लोग काम में लगे हो और वह अपनी उत्पादन क्षमता कम योग्यता से काम कर रहे है। प्रच्छन्न तथा छुपी बेरोजगारी भी कहते है।
  • किसी विशेष वर्ष में प्रत्येक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य, उस वर्ष में क्षेत्रक के कुल उत्पादन की जानकारी प्रदान करता है।
  • इस प्रकार की अल्प बेरोजगारी को छिपी हुई कहते हैं क्योंकि यह उन लोगों की बेरोजगारी, जिनके पास कोई रोजगार नहीं है और बेकार बैठे हुए हैं, से अलग है (खुली बेरोजगारी)। इसलिए इसे प्रच्छन्न बेरोजगारी भी कहा जाता है।

अतिरिक्त रोजगार का सृजन कैसे हो?

  • कृषि क्षेत्र में अल्प बेरोजगारी की गंभीर स्थिति बनी हुई है।
  • कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें बिल्कुल रोजगार नहीं मिला है। लोगों के लिए रोजगार की वृद्धि कैसे की जा सकती है?
  • लोगों के लिए रोजगार की वृद्धि कैसे की जा सकती है? हम कुछ तरीकों को देखते हैं।
  • भूमि की सिंचाई हेतु एक कुएँ का निर्माण करने के लिए सरकार कुछ मुद्रा व्यय कर सकती है या बैंक ऋण प्रदान कर सकती है।
  • खेतों की सिंचाई के लिए एक नये बाँध का निर्माण किया जाता है अथवा एक नहर खोदी जाती है।
  • इससे कृषि क्षेत्र में रोजगार के अनेक अवसर सृजित हो सकेंगे और अल्प बेरोजगारी की समस्या अपने आप कम हो जाएगी।
  • उत्पादन अधिक होने पर कुछ उत्पाद बेचने की भी आवश्यकता होगी ।
  • सरकार परिवहन और फसलों के भण्डारण पर अथवा बेहतर ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर कुछ पैसा निवेश करती है तो छोटे ट्रक सब जगह पहुँच जाते हैं।
  • इससे अनेक किसान जिन्हें अब पानी की सुविधा उपलब्ध है, फसलों की उपज और विक्रय कर सकते हैं।
  • इस कार्य से केवल किसानों को ही उत्पादक रोजगार उपलब्ध नहीं हो सकता है, बल्कि परिवहन और व्यापार जैसी सेवाओं में लगे लोगों को भी रोजगार प्राप्त हो सकता है।
  • खेती करने के लिए बीजों, उर्वरकों, कृषिगत उपकरणों और पानी निकालने के लिए पम्पसेटों की भी जरूरत होती है।
  • पानी के साथ-साथ कृषि मे सुधार के लिए किसानों को सस्ते कृषि साख भी प्रदान करने की जरूरत है।
  • अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में उन उद्योगों और सेवाओं की पहचान करना और उन्हें बढ़ावा देना, जहाँ बहुत अधिक लोग नियोजित किए जा सकें।
  • शीत भण्डारण गृहों के खुलने से किसानों को एक अवसर मिलेगा की वे अपने उत्पादों का भण्डारण कर सके और अच्छी कीमत मिलने पर बेच सकें।
  • सब्जियों और कृषिगत उत्पादों, जैसे आलू, शकरकंद, चावल, गेहूँ, टमाटर और फल इत्यादि, जिसे बाहरी बाजारों में बेचा जा सके, के लिए प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना की जा सकती है।
  • यह अर्द्ध ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित उद्योगों में रोजगार प्रदान करेगा।
  • शिक्षित बेरोजगारी – जब शिक्षित, प्रशिक्षित व्यक्तियों को उनकी योग्यता के अनुसार काम नहीं मिलता।
  • भारत में 60 प्रतिशत जनसंख्या 5-29 वर्ष आयु की है। इनमें से 51 प्रतिशत के लगभग ही विद्यालय जाते हैं। शेष खास करके 18 वर्ष या उससे कम आयु के बच्चे विद्यालय नहीं जाते हैं।
  • अधिकतर बाल श्रमिक के रूप में काम कर रहे होंगे। यदि ये बच्चे भी विद्यालय जाने लगें तो हमें और अधिक भवनों, अध्यापकों और अन्य कर्मचारियों की आवश्यकता होगी।
  • अकेले शिक्षा क्षेत्र में लगभग 20 लाख रोजगारों का सृजन किया जा सकता है।
  • हमें स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना है तो हमें ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले और अधिक डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ेगी।
  • कुशल श्रमिक – जिसने किसी कार्य के लिए उचित प्रशिक्षण प्राप्त किया है।
  • अकुशल श्रमिक – जिन्होंने कोई प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है।
  • प्रत्येक राज्य य प्रदेश में वहाँ के निवासियों की आय और उनके रोजगार में वृद्धि करने की संभावना होती है।
  • पर्यटन अथवा क्षेत्रीय शिल्प उद्योग अथवा सूचना प्रौद्योगिकी जैसी नवीन सेवाओं के माध्यम से हो सकता है।
  • इनमें से कुछ के लिए समुचित योजना एव सरकारी सहायता की आवश्यकता होगी।
  • भारत के लगभग 625 जिलों में काम का अधिकार लागू करने के लिए एक कानून बनाया है।
  • इसे महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम – 2005 कहते है।
  • इसके अन्तर्गत उन सभी लोगों जो काम करने में सक्षम है और जिन्हें काम की जरूरत है, को सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष में 100 दिन के रोजगार की गांरटी दी गई है।
  • यदि सरकार रोजगार उपलब्ध कराने में असफल रहती है तो वह लोगों को बेरोजगारी भत्ता देगी।
  • अधिनियम के अन्तर्गत उस तरह के कामों को वरीयता दी जाएगी, जिनसे भविष्य में भूमि से उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी।

संगठित क्षेत्रक – इसमें वे उद्यम या कार्य आते हैं, जहाँ रोजगार की अवधि निश्चित होती है। ये सरकार द्वारा पंजीकृत होते हैं तथा निर्धारित नियमों व विनियमों का अनुपालन करते हैं।

  • इन नियमों एवं विनियमों का अनेक विधियों, जैसे, कारखाना अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, सेवानुदान अधिनियम, दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम, इत्यादि में उल्लेख किया गया है इसे संगठित क्षेत्रक कहते है।
  • इसकी कुछ औपचारिक प्रक्रिया एवं कार्यविधि है कुछ लोग किसी के द्वारा नियोजित नहीं होते बल्कि वे स्वत: कार कर सकते हैं।
  • परन्तु वे भी अपने को सरकार के समक्ष पंजीकृत कराते हैं और नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करते हैं।
  • संगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों को रोजगार-सुरक्षा के लाभ मिलते हैं।
  • उनसे एक निश्चित समय तक ही काम करने की आशा की जाती है। यदि वे अधिक काम करते हैं तो नियोक्ता द्वारा उन्हें अतिरिक्त वेतन दिया जाता है।
  • सवेतन छुट्‌टी, अवकाश काल में भुगतान, भविष्य निधि, सेवानुदान इत्यादि पाते हैं।
  • वे चिकित्सीय लाभ पाने के हकदार होते हैं और नियमों के अनुसार कारखाना मालिक को पेयजल और सुरक्षित कार्य-पर्यावरण जैसी सुविधाओं को सुनिश्चित करना होता है।

असंगठित क्षेत्रक – संगठित क्षेत्रक के विपरीत, काम करता है छोटी-छोटी और बिखरी इकाइयों, जो अधिकांशत: सरकारी नियंत्रण से बाहर होती हैं, से निर्मित होता है।

  • इस क्षेत्रक के नियम और विनियम तो होते हैं परन्तु उनका अनुपालन नहीं होता है।
  • वे कम वेतन वाले रोजगार हैं और प्राय: नियमित नहीं हैं।
  • यहाँ अतिरिक्त समय में काम करने,सवेतन छुट्‌टी, अवकाश, बीमारी के कारण छुट्‌टी इत्यादि का कोई प्रावधान नहीं है।
  • इसमें रोजगार सुरक्षित नहीं है श्रमिकों को बिना किसी कारण काम से हटाया जा सकता है।
  • इस क्षेत्रक में काफी संख्या में लोग अपने – अपने छोटे कार्यो, जैसे – सड़कों पर विक्रय अथवा मरम्मत कार्य में स्वत: नियोजित हैं।
  • इसी प्रकार किसान अपने खेतों में काम करते हैं और जरूरत पड़ने पर मजदूरी पर श्रमिकों को लगाते हैं।

असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों का संरक्षण

  • संगठित क्षेत्रक अत्यधिक माँग पर ही रोजगार प्रस्तावित करता है।
  • लेकिन संगठित क्षेत्रक में रोजगार के अवसरों में अत्यंत धीमी गति से वृद्धि हो रही है।
  • संगठित क्षेत्रक, असंगठित क्षेत्रक के रूप में काम करते हैं।
  • वे ऐसे रणनीति, कर वंचन एवं श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करने वाली विधियों के अनुपालन से बचने के लिए अपनाते हैं।
  • बहुत से श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम करने के लिए विवश हुए हैं, जहाँ बहुत कम वेतन मिलता है।
  • उनका प्राय: शोषण किया जाता है और उन्हें उचित मजदूरी नहीं दी जाती है। उनकी आय कम है और नियमित नहीं है।
  • सन् 1990 से संगठित क्षेत्रक के बहुत अधिक श्रमिक अपना रोजगार खोते हैं।
  • ये लोग असंगठित क्षेत्रक में कम वेतन पर काम करने के लिए विवश हैं।
  • असंगठित क्षेत्रक में और अधिक रोजगार की जरूरत के अलावा श्रमिकों को संरक्षण और सहायता की भी आवश्यकता है।
  • ये लोग भूमिहीन कृषि श्रमिकों, छोटे और सीमांत किसानों, फसल बँटाईदारों और कारीगरों (जैसे बुनकरों, लुहारों, बढ़ई और सुनार) से रचित होता है।
  • भारत में लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण परिवार छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं।
  • इन किसानों को समय से बीज, कृषि-उपकरणों, साख, भण्डारण सुविधा और विपणन केन्द्र की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध कराने की जरूरत है।
  • बहुसंख्यक श्रमिक अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों से हैं, जो असंगठित क्षेत्रक में रोजगार करते हैं।
  • ये श्रमिक अनियमित और कम मजदूरी पर काम करने के अलावा सामाजिक भेदभाव के भी शिकार हैं। अत: आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को संरक्षण और सहायता अनिवार्य है।

स्वामित्व आधारित क्षेत्रक – सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक :-

  • आर्थिक गतिविधियों को क्षेत्रकों में वर्गीकृत करने का एक अन्य तरीका हो सकता है।
  • परिसंपत्तियों का स्वामी और सेवाओं की उपलब्धता के लिए जिम्मेदार व्यक्ति कौन है।
  • स्वामित्व आधारित क्षेत्रक :- परिसंपत्तियों का स्वामी और सेवाओं की उपलब्धता के लिए जिम्मेदार व्यक्ति है।
  • सार्वजनिक क्षेत्रक :- अधिकांश परिसंपत्तियों पर सरकार का स्वामित्व होता है और सरकार ही सभी सेवाएँ उपलब्ध कराती है।
  • निजी क्षेत्रक :- परिसंपत्तियों पर स्वामित्व और सेवाओं के वितरण की जिम्मेदारी एकल व्यक्ति या कंपनी के हाथों में होता है।
  • रेलवे अथवा डाकघर सार्वजनिक क्षेत्रक के उदाहरण हैं, जबकि टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (टिस्को) अथवा रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड जैसी कम्पनियाँ निजी स्वामित्व में है।
  • निजी क्षेत्रक की गतिविधियों का ध्यये लाभ अर्जित करना होता है। इनकी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए हमें इन एकल स्वामियों और कंपनियों को भुगतान करना पड़ता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्रक का ध्येय केवल लाभ कमाना नहीं होता है।
  • सरकार सेवाओं पर किए गए व्यय की भरपाई करों या अन्य तरीकों से करती है।
  • आधुनिक दिनों में सरकार सभी तरह की गतिविधियों पर व्यय करती है।
  • ये गतिविधियाँ क्या हैं? सरकार ऐसी गतिविधियों पर व्यय क्यों करती है।
  • जिनकी आवश्यकता समाज के सभी सदस्यों को होती है, परन्तु जिन्हें निजी क्षेत्रक उचित कीमत पर उपलब्ध नहीं कराते है।
  • इनमें से कुछ चीजों पर बहुत अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं, जो निजी क्षेत्रकों की क्षमता से बाहर होती हैं।
  • इन चीजों का इस्तेमाल करने वाले हजारों लोगों से पैसा एकत्र करना भी आसान नहीं है।
  • सड़कों, पूलों, रेलवे, पत्तनों, बिजली आदि का निर्माण और बाँध आदि से सिचांई की सुविधा उपलब्ध करना ।
  • इसीलिए सरकार ऐसे भारी व्यय स्वयं उठाती है औ सभी लोगों के लिए इन सुविधाओं को सुनिश्चित करती है।
  • कुछ गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिन्हें सरकारी समर्थन की जरूरत पड़ती है।
  • निजी क्षेत्रक उन उत्पादनों अथवा व्यवसयों को तब तक जारी नहीं रख सकते, जब तक सराकर उन्हें प्रोत्साहित नहीं करती है।
  • उत्पादन – मूल्य पर बिजली की उत्पादन-लागत में वृद्धि हो सकती है।
  • अनेक इकाइयाँ, विशेषकर लघु इकाईयाँ बन् हो सकती है।
  • यहाँ सरकार उस दर पर बिजली उत्पादन और वितरण के लिए कदम उठाती है जिस पर ये उद्योग बिजली खरीद सकते हैं।
  • सरकार लागत का कुछ अंश वहन करती है।
  • इसी प्रकार भारत सरकार किसानों से उचित मूल्य पर गेहूँ और चाव खरीदती है।
  • इसे अपने गोदामों में भण्डारित करती है और राशन-दुकानों के माध्यम से उपभोक्ताओं को कम मूल्य पर बेचती है।
  • सरकार लागत का कुछ भाग वहन करती है। इस प्रकार, सरकार किसानों ओर उपभोक्ताओं दोनों को सहायता पहुँचाती है।
  • अधिकतर आर्थिक गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिनकी प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार पर है।
  • इन पर व्यय करना सरकार की अनिवार्यता है।
  • सभी के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
  • हमने पहले अध्याय में कुछ गतिविधियों पर विचार किया है।
  • समुचित ढंग से विद्यालय चलाना और गुणात्मक शिक्षा, विशेषकर प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का कर्त्तव्य है।
  • भारत में निरक्षरों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है।
  • भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और उनमें से एक-चौथाई गंभीर रूप से बीमार हैं।
  • हमने शिशु मृत्यु दर के बारे में पढ़ा है। ओडिशा (41) अथवा मध्य प्रदेश (47) का शिशु मृत्यु दर विश्व के कुछ निर्धनतम भागों में अधिक है।
  • सरकार को भी मानव विकास के पक्षों, जैसे सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता, निर्धनों के लिए आवासीय सुविधाएँ और भोजन एवं पोषण पर ध्यान देने की जरूरत है।
  • सरकार का यह भी कर्त्तव्य है कि वह बजट बढ़ाकर अत्यन्त निर्धनों की और देश के पूर्णतया उपेक्षित भागों की देखभाल करे।
  • प्राचीन सभ्यताओं में सभी आर्थिक क्रियाएँ प्राइमरी सेक्टर में होती थीं।
  • समय बदलने के साथ ऐसा समय आया अब भोजन का उत्पादन सरप्लस होने लगा।
  • ऐसे में अन्य उत्पादों की आवश्यकता बढ़ने से सेकंडरी सेक्टर का विकास हुआ।
  • उन्नीसवी शताब्दी में होने वाली औद्योगिक क्रांति के बाद सेकंडरी सेक्टर का तेजी से विकास हुआ
  • सेकंडरी सेक्टर के विकसित होने के बाद ऐसी गतिविधियों की जरूरत होने लगी जो औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा दे सके।
  • उदाहरण के लिये ट्रांसपोर्ट सेक्टर से औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है।
  • औद्योगिक उत्पादों को ग्रहाकों तक पहुँचाने के लिये हर मुहल्ले में दुकानों की जरूरत पड़ती है।
  • लोगों को अन्य कई सेवाओं की आवश्यकता होती है, जैसे कि एकाउंटेंट, ट्यूटर, मैरेज प्लानर, सॉफ्टवेयर डेवलपर, आदि की सेवाएँ। ये सभी टरशियरी सेक्टर में आते हैं।
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