उपनिवेशवाद और देहात |NCERT Class 12 History Notes In Hindi

यह अध्याय उपनिवेशवाद और देहात छात्रों को ग्रामीण भारत के इतिहास के बारे में एक गहन समझ प्रदान करता है और औपनिवेशिक शासन के विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन करने में उनकी मदद करता है।

यह महत्वपूर्ण अवधारणाओं जैसे कि ‘किसान’, ‘जमींदार’, ‘राजस्व प्रणाली’, ‘औपनिवेशिक न्याय व्यवस्था’, और ‘ग्रामीण विद्रोह’ का भी परिचय देता है।

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 9
Chapter Nameउपनिवेशवाद और देहात
CategoryClass 12 History
MediumHindi

12 Class History Notes In Hindi Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहातः सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

इतिहास अध्याय-1: उपनिवेशवाद और देहात

उपनिवेशवाद और देहात का अर्थ

परिचय: यह शब्दों का महत्वपूर्ण संयोजन है, जो विभाजन और समाज में नियंत्रण के संदर्भ में उत्तेजित करता है।

उपनिवेशवाद का अर्थ:

  • उपनिवेशवाद शब्द का अर्थ है गुलामी या उपनिवेश शासन।
  • इस विचारधारा का मुख्य उद्देश्य गुलाम बनाना होता है, जिसमें एक समाज या व्यक्ति को दूसरे के नियंत्रण में लाने का प्रयास होता है।

देहात का अर्थ:

  • देहात शब्द का अर्थ है गांव या ग्रामीण जीवन का संबंध।
  • यह संदर्भ ग्रामीण भूमि, संस्कृति, और समाज के विकास को समझने में महत्वपूर्ण है।

प्रभाव: उपनिवेशवाद के अंतर्गत शासन का प्रभाव देहाती जीवन पर क्या होता है, यह विषय गहराई से विचार करता है।

अंग्रेजी शासन के आगमन के समय ग्रामीण समाज पर कैसा प्रभाव पड़ा, यह विषय चर्चा के लिए उपयुक्त है।

निष्कर्ष: उपनिवेशवाद और देहात के संबंध में विचार करते समय, हमें इन दोनों के बीच के संबंध को समझने की जरूरत है।

गुलामी और ग्रामीणता के संदर्भ में शिक्षा और जागरूकता को बढ़ावा देना आवश्यक है ताकि समाज में समानता और स्वतंत्रता की भावना बढ़ सके।

प्लासी का युद्ध

परिचय:

  • प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को लड़ा गया था, जो ब्रिटिश और बंगाल के बीच लड़ा गया था।
  • यह युद्ध ब्रिटिश के भारत पर अधिकार और सत्ता को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण कदम था।

प्रमुख व्यक्तित्व:

  • युद्ध के प्रमुख व्यक्तित्वों में रॉबर्ट क्लाइव, सिराज-उद्दौला, और मीर जाफर शामिल थे।
  • क्लाइव की प्रतिष्ठा इस युद्ध के संग्राम को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण थी।

घटनाक्रम:

  • प्लासी के युद्ध में सिराज-उद्दौला की सेना और ब्रिटिश सेना के बीच महासंग्राम हुआ।
  • ब्रिटिश ने अचानक हमला किया और सिराज की सेना को हरा दिया।
  • मीर जाफर ने ब्रिटिश के साथ मिलकर सिराज को हराने में मदद की और उन्हें बाद में बंगाल के नए नवाब के रूप में ठहराया गया।

परिणाम:

  • प्लासी के युद्ध के बाद, ब्रिटिश की सत्ता बढ़ गई और वे बंगाल, बिहार, और उत्तर प्रदेश के अधिकारी बन गए।
  • यह युद्ध ब्रिटिश के पूर्वांचल के प्रमुख अधिकारी बनने का मार्ग साफ करता है।

उत्तरदायित्व:

  • प्लासी के युद्ध का महत्व भारतीय इतिहास में उच्च है, क्योंकि इसने ब्रिटिश के प्रभाव को भारत में मजबूत किया।
  • इस युद्ध ने भारतीय समाज के राजनीतिक और सामाजिक परिणामों को भी प्रभावित किया।

कर व्यवस्था :-

परिचय:

  • ब्रिटिश शासन के समय में भारत पर कर व्यवस्था को महत्वपूर्ण धारणा मिली।
  • यह कर व्यवस्था न केवल आर्थिक संरचना का निर्माण किया, बल्कि समाज के अंदर भी परिवर्तन लाया।

प्रमुख प्रकार:

  • अंग्रेजों के समय में तीन प्रमुख प्रकार की कर व्यवस्थाएं थीं।
  • इस्तमरारी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी व्यवस्था, और महालवाड़ी व्यवस्था।

इस्तमरारी बंदोबस्त:

  • 1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त की शुरुआत हुई, जो बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, और बनारस क्षेत्र में लागू हुआ।
  • इसमें 19% भूभाग पर स्थाई बंदोबस्त की गई।

रैयतवाड़ी व्यवस्था:

  • 1792 में रैयतवाड़ी व्यवस्था का आरंभ हुआ, जो असम, मद्रास, और मुंबई क्षेत्र में लागू किया गया।
  • इसमें आधिकांश भूमि का 51% भाग शामिल था।

महालवाड़ी व्यवस्था:

  • 1822 में महालवाड़ी व्यवस्था की शुरुआत हुई, जो उत्तर प्रदेश के मध्य प्रांत और पंजाब में लागू किया गया।
  • यह व्यवस्था भारत के औपनिवेशिक क्षेत्र का 30% भाग सम्मिलित करता था।

परिणाम:

  • यह कर व्यवस्थाएं ब्रिटिश शासन के अधिकार को और भी मजबूत बनाने में मदद करती थीं।
  • साथ ही, इन व्यवस्थाओं ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के बीच असंतोष भी उत्पन्न किया।

इस्तमरारी बंदोबस्त (जमींदारी व्यवस्था , स्थाई बंदोबस्त)

प्रारंभिक प्रयास:

  • भारत में औपनिवेशिक शासन के आरंभ में, बंगाल प्रांत में प्रथम इस्तमरारी बंदोबस्त का प्रारंभ किया गया।
  • यहाँ पर पहले ग्रामीण समाज को पुनर्व्यस्थित करने और भूमि संबंधी अधिकारों की नई व्यवस्था और राजस्व प्रणाली का प्रयास किया गया।

कार्रवाई की प्रारंभिक धारा:

  • 1793 में, इस्तमरारी बंदोबस्त को बंगाल के राजाओं और ताल्लुकदारों के साथ लागू किया गया।
  • इस बंदोबस्त के अंतर्गत, जमींदारों को ‘जमींदार’ कहा गया और उनसे निर्धारित कर का संग्रह किया गया।

नियमन और व्यवस्था:

  • ईस्ट इंडिया कम्पनी ने राजस्व की राशि का निर्धारण किया, जो प्रत्येक जमींदार को अदा करनी थी।
  • अगर किसी जमींदार ने अपना कर नहीं चुकाया, तो उसकी संपत्ति को नीलाम किया जाता था ताकि कर का भुगतान हो सके।

परिणाम: इस्तमरारी बंदोबस्त के लागू होने के बाद, 75% से अधिक जमींदारियाँ हस्तांतरित की गईं, जिससे भूमि का स्वामित्व और नियंत्रण ब्रिटिश कम्पनी के हाथों में चला गया।

इस्तमरारी बंदोबस्त को लागू करने के उद्देश्य :-

  • बंगाल के नवाबों और तालुकदारों के साथ समझौते का साधन: ब्रिटिश कंपनी ने बंगाल में इस्तमरारी बंदोबस्त को लागू करके अपनी बड़ी उद्देश्यों को पूरा करने का प्रयास किया।
  • स्थिर राजस्व की राशि का प्राप्त करना: इस बंदोबस्त के माध्यम से, कंपनी को नियमित रूप से राजस्व की राशि निर्धारित करने का अवसर प्राप्त हुआ।
  • सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान: बंगाल विजय के समय, कृषि और व्यापार संकट की स्थिति से जूझ रहे थे। इस बंदोबस्त के माध्यम से, इन समस्याओं का समाधान किया गया।
  • कृषि और व्यापार की स्थिति में सुधार: बंगाल में कृषि निवेश के अभाव के कारण अस्थाई रूप से राजस्व संसाधन का भाव हो गया था।
  • जमींदारों को संग्रहक बनाना: इस व्यवस्था में, जमींदारों को भूस्वामी नहीं बल्कि कर संग्राहक बनाया गया, जो कंपनी के नियंत्रण को मजबूत किया।
  • व्यवस्था का संविधानिकीकरण: इस बंदोबस्त के द्वारा, कंपनी ने अपने विशेष अधिकार, सैन्य अधिकारी, स्थानीय न्याय अधिकार और सीमा शुल्क अधिकारों को समाप्त कर दिया।

स्थाई बंदोबस्त से जमीदारों को लाभ :-

  • अधिकार की स्थिरता: जमीदारों को भूमि के वास्तविक स्वामी बनाया गया, जिससे उनका यह अधिकार वंशानुगत हो गया।
  • अंग्रेजों की सहायता: जमीदारों ने अंग्रेजों की जड़ें भारत में मजबूत करने में सहायता की।
  • उत्पादन में वृद्धि: जमीदारों के भूमि के मालिक बनने से भारत में कृषि में रुचि और उत्पादन में वृद्धि हुई, जिससे अंग्रेजों को अधिक राजस्व मिलने लगा।
  • आय की प्राप्ति: कंपनी को प्रतिवर्ष निश्चित आय की प्राप्ति होने लगी।
  • लगान की दरों का स्थायीकरण: लगान की दरें निर्धारित करने का झंझट खत्म हो गया।
  • लगान वसूल करने की सुविधा: कंपनी को अब अधिकारियों की आवश्यकता नहीं रही और धन स्वयं जमीदार इकट्ठा करके कंपनी तक पहुंचाने लगे।

स्थाई बंदोबस्त के किसानों पर बुरे प्रभाव :-

  • दया के बिना छोड़ा जाना: किसानों को जमींदारों की दया पर छोड़ दिया गया, जिससे उन्हें अपने हक का लाभ नहीं मिला।
  • शोषण का शिकार: जमींदार किसानों का बेरहमी से शोषण करने लगे, जिससे किसानों की स्थिति और भी बदतर हो गई।
  • जमीन के अधिकार की हानि: किसानों का जमीन पर कोई हक नहीं रहा, जिससे वे सिर्फ जमीन पर मजदूर बनकर रह गए।
  • लगान की अत्यधिकता: लगान की दरें बहुत अधिक थीं, जिससे किसानों की आर्थिक स्थिति और भी दयनीय हो गई।
  • कानूनी अधिकारों की कमी: किसानों के पास अपनी जमीन बचाने के लिए कोई कानूनी अधिकार नहीं रहा, जिससे उनकी स्थिति और भी कठिन हो गई।
  • आर्थिक और सामाजिक शोषण: समाज में आर्थिक और सामाजिक शोषण बढ़ा, जिससे किसान गरीब और जमींदार धनवान बने।

जमींदार ठीक समय पर राजस्व क्यों नहीं दे पाते थे ? एव उनकी जमीने क्यों नीलम कर दी जाती ?

  • बड़ी लगान की दरें: स्थाई बंदोबस्त में लगान की रकम अत्यधिक थी, जिसके चलते जो राजा या जमींदार इसे चुका नहीं पाता था, उनकी संपत्तियों को नीलाम कर दिया जाता था।
  • भूमि सुधार की अनदेखी: जमींदारों ने भूमि सुधारों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, जिससे उनकी बकाया राशि बढ़ती गई और उन्हें अपनी जमींनों को नीलाम करना पड़ता था।
  • राजस्व की दरों का उचित निर्धारण: राजस्व की दरें और मांगें अत्यधिक रखी जाती थीं, जिससे जमींदारों को अधिक राशि चुकानी पड़ती थी।
  • परिस्थितियों की अवस्था: कई बार अनुकूल परिस्थितियों में भी, जैसे की सूखा, अकाल या अधिक वर्षा के कारण फसलें बर्बाद हो जातीं, लेकिन राजस्व वैसा ही बना रहता था, जिससे जमींदारों को कई बार अत्यधिकता का सामना करना पड़ता था।

जमींदारों की शक्तियों पर नियंत्रण / Control over the powers of landlords

  • सैन्य टुकड़ों का भंग: जमीदारों की सैन्य टुकड़ियों को भंग कर दिया गया, जिससे उनकी सत्ता पर नियंत्रण हासिल हुआ।
  • सीमा शुल्क का खत्म: सीमा शुल्क को खत्म कर दिया गया, जो जमीदारों की लाभकारी राशि था, जिससे उन्हें अधिक लाभ हुआ।
  • कलेक्टरों का दबदबा: जमीदारों की कचहरीओं को कंपनियों द्वारा चयनित कलेक्टरों की देखरेख में रखा गया, जिससे उनकी सत्ता पर नियंत्रण हासिल हुआ।
  • स्थानीय पुलिस का अधिकार का समापन: स्थानीय पुलिस का अधिकार समाप्त किया गया, जिससे जमीदारों के अत्याधिक शासन पर रोक लगी।
  • कलेक्टर का अधिकार: कलेक्टरों को सभी प्रशासनिक कार्य करने का अधिकार प्राप्त हुआ, जिससे जमीदारों को समय पर राजस्व अदा करने का दबाव महसूस हुआ।

ईस्ट इंडिया कंपनी के समय जमीदार की स्थिति :-

  • अर्थव्यवस्था का नियंत्रण: ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में, जमीदारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर कंपनी का भारी प्रभाव था।
  • सत्ताधारी रूप में कमी: जमीदारों को सत्ताधारी रूप में कमी हो गई और उनका अधिकार कम्पनी के हाथों में आ गया।
  • कंपनी के अधीन राजनीतिक स्थिति: जमीदारों की सत्ता को कंपनी ने सीमित कर दिया और उन्हें अपने नियंत्रण में किया।
  • कानूनी और प्रशासनिक अधिकारों में कमी: कंपनी ने जमीदारों के कानूनी और प्रशासनिक अधिकारों को कम किया और अपनी स्थिति को मजबूत किया।
  • व्यापार और आर्थिक लाभ: कंपनी ने जमीदारों को व्यापार और आर्थिक लाभ में हिस्सा लेने का मौका दिया, जिससे उनकी स्थिति में सुधार हुआ।

जमीदारों की स्थिति में गिरावट के कारण ?

  • अधिक राजस्व और उनकी असमर्थता: जमीदारों को अधिक राजस्व का भुगतान करना पड़ता था, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह इसे नियमित रूप से जमा कर सकें। इसके परिणामस्वरूप, उनकी जमीन नीलाम कर दी जाती थी, जिससे उन्हें हानि होती थी।
  • कम उपज के भाव: कई बार कृषि उत्पादों के भाव निम्न होते थे, जिससे जमीदार नियत कर वसूल नहीं कर पाते थे।
  • फसल के नुकसान और राजस्व का दबाव: जब भी किसानों की फसल खराब होती थी, तो भी जमीदारों को राजस्व जमा करना पड़ता था, जिससे उन्हें या तो घाटा उठाना पड़ता था या उनकी जमीन नीलाम कर दी जाती थी।
  • किसानों के अवसाद और कर न मिलने की समस्या: किसानों से कर ना मिलने पर, जमीदारों को केवल मुकदमा करने के सिवाय कुछ भी करने का विकल्प नहीं बचता था। यह सिचाई उनकी आर्थिक स्थिति को और भी कमजोर बनाती थी।

राजस्व राशि के भुगतान में जमीदार क्यों चूक जाया करते थे ?

  • 1770 का आकाल: एक भयानक आकाल ने 1770 में कृषि क्षेत्र को प्रभावित किया, जिससे किसानों की आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर हो गई।
  • अत्यधिक राजस्व दरें: 1793 में राजस्व की दरें निर्धारित की गई थीं, जो कि बहुत अधिक थीं, और जमीदारों को इसे अदा करने में कठिनाई होती थी।
  • स्थाई राजस्व दरें: राजस्व की दरें स्थाई थीं, चाहे फसल खराब हो या ठीक हो, उन्हें कभी बदला नहीं जा सकता था, जिससे जमीदारों को भुगतान करने में मुश्किलाएँ होती थीं।
  • ऊंची लगान दरें: राजस्व की दरें काफी ऊंची थीं, जिससे जमीदारों को अधिक राशि देनी पड़ती थी।
  • समय की कमी: राजस्व चुकाने के लिए जमीदारों के पास समय की कमी होती थी, जिससे वे सूर्य अस्त विधि का प्रयोग करते थे।
  • लगान का कौन एकत्रित करेगा: कई स्थानों पर यह स्पष्ट नहीं था कि लगान कौन एकत्रित करेगा, जिससे जमीदारों को भुगतान करने में कठिनाई होती थी।
  • अमीर किसानों का अनुदान: अमीर किसान जमीदारों को लगाना देने के लिए उत्तेजित करते थे, जिससे छोटे किसानों को कई बार भुगतान नहीं कर पाने की समस्या होती थी।

सूर्यास्त विधि / Sunset method

यह विधि एक प्रकार का आधिकारिक तंत्र था, जो ब्रिटिश शासनकाल में भारत में लागू किया गया था। इसके अनुसार, जब जमींदार निश्चित तिथि में अपना राजस्व नहीं चुका पाते थे, तो उनको विभाजित धारों में धनराशि का दोगुना कर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त, कई स्थितियों में जमींदारों की संपत्ति को नीलाम भी कर दिया जाता था, जिससे उन्हें आर्थिक हानि होती थी।

इसके मुख्य विशेषताएँ:

  • तिथि की महत्वता: सूर्यास्त के समय तक राजस्व का भुगतान करना आवश्यक था, अन्यथा धनराशि में दोगुनी की जाती थी।
  • धनराशि का वृद्धि: अगर जमींदार ने अपना कर समय पर नहीं चुकाया, तो उन्हें आर्थिक दण्ड के रूप में धनराशि में वृद्धि की जाती थी।
  • जमींदारों की संपत्ति का नीलाम: कई मामलों में, अगर जमींदार का राजस्व समय पर नहीं चुकाया जाता, तो उनकी संपत्ति को नीलाम कर दिया जाता, जिससे उन्हें आर्थिक और सामाजिक नुकसान होता।

तालुकदार / Talukdar

  • अर्थिक और प्रशासनिक प्रभाव: तालुका और दार: तालुकदार शब्द तालुका और दार के मेल से बना है, जिसका अर्थ है जिला का स्वामी।
  • कार्यक्षेत्र: राजस्व का संग्रह: उनका मुख्य कार्य किसी निश्चित क्षेत्र से राजस्व का संग्रह करना होता था।
  • प्रशासनिक कार्य: क्षेत्रीय प्रशासन: वे अपने क्षेत्र में प्रशासनिक कार्यों का प्रबंध करते थे, जैसे कि कर वसूली, जमीन का आदान-प्रदान, और कई अन्य कार्य।
  • विशेषताएँ: प्रभावशाली स्थानीय अधिकारी: तालुकदार स्थानीय स्तर पर प्रभावशाली अधिकारी थे, जो अपने क्षेत्र में न्याय का प्रमुख स्रोत थे।
  • राजस्व का प्रबंधन: अनुशासन और न्याय: वे अपने क्षेत्र में राजस्व का नियमित व्यवस्था करके समाज में अनुशासन और न्याय की स्थापना में मदद करते थे।

रैयत / Raiyat

अर्थ:

कृषि प्रणाली का हिस्सा: रैयत शब्द का अर्थ होता है “किसान”।

कार्यक्षेत्र:

भूमि का उपयोग: रैयत अपनी जमीन को स्वयं नहीं खेती थे। वे अक्सर अशुद्ध जमीन को भूमिहीन किसानों को पट्टे पर देते और उनसे खेती करवाते थे।

आर्थिक अनुप्रयोग:

भूमिहीन किसानों की मदद: रैयत का प्रयोग भूमिहीन किसानों को भूमि का उपयोग करने में मदद करने के लिए किया जाता था।

समर्थन:

कृषि उत्पादन: रैयत की सहायता से अधिक भूमिहीन किसान भूमि पर खेती करके कृषि उत्पादन में सहायक होते थे।

बर्दवान में की गई एक नीलामी की घटना / Incident of an auction held in Burdwan

  • आवाज उठाने की प्रेरणा: ब्रिटिश कंपनी के नियमों के अनुसार, स्त्रियों से संपत्ति नहीं ली जाती थी। इसलिए, बर्दवान के राजा ने अपनी जमीन का कुछ हिस्सा माता जी के नाम पर कर दिया, जिससे राजस्व भुगतान से बचा। इससे कंपनी ने उनकी भूमि की नीलामी आरंभ की।
  • नीलामी की प्रक्रिया: राजा के लोगों ने ऊंची बोली लगाकर भूमि को खरीद लिया। कंपनी के अधिकारी ने राशि देने के लिए स्वीकार किया, लेकिन बाद में उन्होंने इसे अस्वीकार किया। पुनः नीलामी की प्रक्रिया में राजा के लोगों ने भूमि को खरीद लिया, जिससे उन्हें भूमि कम कीमत में मिली।
  • फर्जी बिक्री का परिणाम: बंगाल में 1793-1801 के बीच, बड़े जमींदारों की नीलामी में बेनामी खरीद की गई, जिसमें अधिकांश बिक्री फर्जी थी। इस घटना ने उन जमींदारों की आर्थिक स्थिति को धीरे-धीरे कमजोर किया।

जमीदार अपनी संपत्ति को नीलाम होने से कैसे बचाते थे ?

  • फर्जी बिक्री: जमीदार अपनी जमीन को नीलाम होने से बचाने के लिए फर्जी बिक्री के द्वारा अपनी संपत्ति को बचा लिया करते थे।
  • महिलाओं के नाम पर कर देना: कुछ जमीदार अपनी जमीनों को घर की महिलाओं के नाम पर कर देते थे, क्योंकि इस तरह की संपत्तियों को इस्तमरारी बंदोबस्त कानून के माध्यम से नीलाम नहीं किया जा सकता था।
  • नीलामी एजेंटों के साथ समन्वय: कुछ जमीदार नीलामी एजेंटों के साथ मिलकर जोड़-तोड़ कर अपनी संपत्ति को बचा लिया करते थे।
  • अधिक बोली लगाना: वे अपनी नीलामी में अपने आदमियों से अन्य लोगों की तुलना में बहुत अधिक बोली लगाकर नीलामी को प्रभावित किया करते थे।
  • कब्जा नहीं करने देना: जमीदार अपनी नीलामी जमीन पर अन्य लोगों को कब्जा नहीं करने देते थे, जिससे उनकी संपत्ति को सुरक्षित रखा जा सकता था।
  • लटियाल वर्ग का उपयोग: कई बार वे नए खरीदारों को धमकाकर भागा देते थे, जिससे उनकी नीलामी को प्रभावित किया जा सकता था।
  • पुराने रैयतों को प्राथमिकता देना: कुछ जमीदारों ने बाहरी लोगों को पुराने रैयत जमीदारों की संपत्तियों में घुसने नहीं दिया, जिससे उनकी संपत्ति को सुरक्षित रखा जा सकता था।

पांचवी रिपोर्ट : भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन / Fifth Report: An important change in Indian history

1813 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्रिटेन की संसद में पेश की गई पांचवीं रिपोर्ट ने भारत में उसके शासन के बारे में गंभीर विवाद को जन्म दिया। इस रिपोर्ट ने कई महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला, जो इंग्लैंड में कंपनी के शासन का संदेह उत्पन्न करते थे।

पांचवी रिपोर्ट की विशेषताएं :-

  • ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार का विरोध: रिपोर्ट में कंपनी के व्यापारिक और शासनिक अधिकारों को लेकर विरोध जताया गया।
  • राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप: अन्य राजनीतिक दलों ने भी रिपोर्ट के दबाव में कंपनी के शासन पर सवाल उठाए।
  • निजी व्यापारियों का भारतीय बाजारों में आकर्षण: रिपोर्ट ने भारतीय व्यापार में निजी व्यापारियों के प्रवेश के लिए सुझाव दिया।
  • कुप्रशासन और भ्रष्टाचार के आरोप: कंपनी पर कुप्रशासन और भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए गए।

पांचवी रिपोर्ट की आलोचना :-

  • विवाद और विरोध: पांचवीं रिपोर्ट ने विवाद और विरोध को जन्म दिया, जो भारत में कंपनी के शासन के खिलाफ उठे।
  • विवादित शासन: रिपोर्ट ने बंगाल में कंपनी के शासन की कार्यवाहियों को विवादित किया।
  • संसदीय नियंत्रण का आदेश: ब्रिटिश संसद ने कंपनी पर अंकुश लगाने के लिए 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट पास किया।

पांचवीं रिपोर्ट ने ब्रिटिश भारतीय शासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए।

रैयतवाड़ी व्यवस्था : भारतीय कृषि के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण / Ryotwari system: an important phase in the history of Indian agriculture

  • प्रारंभिक लागूणी: 1792 में, मद्रास प्रेसिडेंसी के बार-महल जिले में रैयतवाड़ी व्यवस्था का प्रारंभ हुआ। इस व्यवस्था का उद्दीपन सन् 1820 में कैप्टन मुनरो द्वारा प्रयोग किया गया, जिसमें कंपनी और रैयतों के बीच सीधे संबंध थे।
  • किसानों का स्वामित्व: कैप्टन रिड और मुनरो ने प्रत्येक किसान को भूमि का स्वामी माना। राजस्व सीधे कंपनी को दिया जाता था, लेकिन किसानों को उनके हक का सम्मान भी किया गया।
  • राजस्व और आधार: इस व्यवस्था में, लगान का आधार उत्पादन की बढ़ती मांग के आधार पर किया जाता था। इसके बावजूद, किसानों को लगाना अदा करने में कई बार मुश्किलाएं आती थी।
  • व्यवस्था का समापन: यह व्यवस्था 30 वर्षों तक चली, और इसे 1820 में उन क्षेत्रों में लागू किया गया जहां कोई भू-सर्वेक्षण नहीं हुआ था।
  • किसानों के अधिकारों की सुरक्षा: किसानों को उनकी इच्छा के अनुसार भूमि दी जाती थी, लेकिन उन्हें कंपनी के अधिकारियों की अत्याचार से बचाने के लिए भी सुनिश्चित किया जाता था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था ने भारतीय कृषि तथा समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया, जो कि इसके विकास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था का मद्रास में प्रभाव :-

  • कृषकों की हानि: रैयतवाड़ी व्यवस्था ने मद्रास के कृषकों के लिए हानिकारक साबित हुई, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में गिरावट आई।
  • अर्थव्यवस्था में गिरावट: इस व्यवस्था के प्रभाव से मद्रास की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी गिरावट आई, जिसने समाज के अनेक वर्गों को प्रभावित किया।
  • कृषकों का गरीबी और ऋण: रैयतवाड़ी व्यवस्था के कारण कृषक गरीब और ऋणग्रस्त हो गए, जो कि उन्हें अधिक कठिनाई में डाल दिया।
  • जमीन की परती रहना: मद्रास में लगभग 1,80,00000 एकड़ जमीन परती रह गई, जो आम जनता के लिए संकट की स्थिति बन गई।
  • कृषि में गिरावट: इस व्यवस्था के कारण कृषि की स्थिति में भी काफी गिरावट आई, जिसने कृषकों को और अधिक मुश्किलाएं प्राप्त कराई।

रैयतवाड़ी व्यवस्था ने मद्रास के कृषकों और जनता की जीवनशैली पर असर डाला, जिसने उन्हें अधिक संघर्ष और कठिनाई का सामना करना पड़ा।

मुंबई में रैयतवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था :-

  • गवर्नर एलफिंस्टन का कार्यकाल: सन् 1819 से 1827 ई° तक मुंबई में गवर्नर एलफिंस्टन के कार्यकाल में पेशवा के राज्यों को अपने अधीन कर लिया गया और उन्होंने वहां रैयतवाड़ी बंदोबस्त लागू की।
  • भूमि का सर्वे: साथ ही, 1824-28 तक पिंगल नामक अधिकारी ने भूमि का सर्वे किया, जिसमें उन्होंने भूमि की उपज का आकलन किया। हालांकि, इस सर्वेक्षण के त्रुटिपूर्ण होने के कारण उपज का आकलन सही नहीं था।
  • भूमि का कर निर्धारण: भूमि के कर का निर्धारण होने के बाद, कई किसानों ने भूमि योजना बंद कर दी, जिससे काफी क्षेत्र बंजर हो गए। इससे कृषि उत्पादन में भी गिरावट आई।

गवर्नर एलफिंस्टन के कार्यकाल में मुंबई में रैयतवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था के लागू होने से कृषि और भूमि संबंधित कार्यक्रमों में बदलाव आया, लेकिन इसकी निष्पादन में आई त्रुटियों के कारण किसानों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

महालवाड़ी व्यवस्था / Mahalwadi system

  • कार्यान्वयन और परिभाषा: सन् 1822 ई° में लोर्ड वेलेजली द्वारा उत्तर प्रदेश और मध्य प्रान्त में महालवाड़ी व्यवस्था की शुरुआत की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत, जमींदारों को निश्चित राजस्व देना पड़ता था, और शेष भूमि उन्हें स्वामित्व में रहती थी।
  • परिभाषा का स्पष्टीकरण: “महालवाड़ी” शब्द का अर्थ है गाँव के प्रतिनिधि या जमींदार या उनके पास अधिक भूमि होने वाले।
  • कार्यविधि: इस व्यवस्था के अंतर्गत, जमींदारों द्वारा निर्धारित राजस्व रकम का भुगतान करने का कार्य मुकद्दम प्रधान करते थे। इसके जरिए, सरकार को राजस्व एकत्रित करने और सम्पूर्ण भूमि का कर वसूल करने की सुविधा मिलती थी।
  • महालवाड़ी व्यवस्था के माध्यम से, जमींदारों को निश्चित राजस्व देने का कार्य सौजन्यपूर्ण और पारदर्शी ढंग से संपन्न होता था, जिससे सरकार को नियमित रूप से आवश्यक राजस्व प्राप्त होता और कृषि और अन्य विकास कार्यक्रमों को संचालित करने की संभावना बनी रहती।

महालवाड़ी व्यवस्था के प्रभाव :-

  • ग्रामीण जमींदारों की स्थिति में गिरावट: महालवाड़ी व्यवस्था के लागू होने से, ग्रामीण जमींदारों की आर्थिक स्थिति में कठिनाईयां आई।
  • राजस्व की जाल में फंसना: कंपनी द्वारा निर्धारित राजस्व की जाल में फंसने के कारण, जमींदारों को राजस्व नहीं चुकाने की स्थिति में आना पड़ा, जिससे उनकी भूमि का ज़रा भी अनादर किया नहीं गया।
  • गरीबी और मजदूरी: राजस्व की रकम पूरा न करने के कारण, जमींदार और किसान गरीबी और मजदूरी की स्थिति में आ गए।
  • 1857 के विद्रोह की उत्पत्ति: गरीबी, अकाल, और मंदी के समय में जमींदारों और किसानों की स्थिति में गिरावट ने उनमें रोष उत्पन्न किया। यह रोष आगे चलकर 1857 के विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ।

इन प्रभावों के कारण, महालवाड़ी व्यवस्था ने ग्रामीण समाज को आर्थिक और सामाजिक दुश्चिन्ता में डाल दिया, जो अंततः भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में प्रकट हुआ।

पहाड़ी लोगों का जीवन: एक नजर / Life of hill people: a look

  • जीवन का संघर्ष: पहाड़ी लोगों का जीवन राजमहल की पहाड़ियों के आसपास कठिन था। वे अभेद्य पहाड़ियों में निवास करते थे, जो आम यात्रियों को डरा देती थी।
  • आजीविका की खोज: इन लोगों की आजीविका झूम खेती, महुआ के फूल, रेशम के कीड़ों, और कोयले के लिए जंगल से निर्भर थी।
  • प्राकृतिक संपदा का उपयोग: वे पेड़ों के नीचे छोटे पौधों को पशुओं के चारागाह के रूप में प्रयोग करते थे और जंगल की उपज का उपयोग भोजन के लिए करते थे।
  • आभा काल की भूमिका: आभा काल के समय, वे शांति स्थापित करने के लिए अपने क्षेत्रों पर हमला करते थे और इसके लिए एक निर्धारित कर भी चुका करते थे।
  • आधुनिकीकरण का प्रभाव: जंगलों की कटाई और खेती की वृद्धि के साथ, उनका जीवन भी बदल गया। इससे उनकी आजीविका पर असर पड़ा और उनका इलाका छोटा होता गया।
  • खाने की फसलें: इन लोगों की प्रमुख फसलें दाल, ज्वार, और बाजरा थीं, जिन्हें उन्होंने पूरी तरह से उपजाऊ बनाने के लिए कुछ समय की खाली भी दी।

पहाड़ी लोगों का जीवन संघर्षपूर्ण और साहसिक था, जो उन्हें प्राकृतिक संपदाओं के साथ जुड़ा रखने के लिए अपनी आजीविका बनाए रखने के लिए उन्हें प्रेरित करता था।

संथालों का आगमन : एक नजर / Arrival of Santhals: A look

  • समस्या का उभरना: 18 वीं सदी के दशक में, पहाड़ियों के समक्ष एक समस्या उत्पन्न हुई जो संथाल लोगों के आगमन का कारण बना।
  • कृषि का प्रयास: संथाल लोग जमीन को जोत कर चावल और कपास की खेती करते थे, और जंगलों को काटकर इमारती लकड़ी निकालते थे।
  • बसेरा बदलना: वे राजमहल के निचले क्षेत्रों में बस गए, जिससे पहाड़ियों को आगे जाना पड़ा, जो इस क्षेत्र में निवास करते थे।
  • खेती का फर्क: दोनों जातियां झूम खेती करती थीं, लेकिन पहाड़िया लोग कुदाल का प्रयोग करते थे जबकि संथाल लोग हल का प्रयोग करते थे। इससे दोनों जातियों के बीच संघर्ष होता रहा।

संथालों का आगमन पहाड़ियों के समक्ष नई समस्याओं का संज्ञान कराता है, जो उनके और पहाड़ियों के बीच संघर्ष का कारण बने।

संथालों की बसावट / Settlement of Santhals

  • ध्यान का फोकस: सर्वप्रथम, कंपनी अधिकारियों ने संथालों की ओर ध्यान दिया। उन्होंने राजमहल की पहाड़ियों को जंगल साफ करने के लिए संथालों को आमंत्रित किया।
  • कृषि का ध्यान: संथाल लोग स्थाई कृषि और हल चलाने का अभ्यास करते थे, जिसे कंपनी ने ध्यान में रखा।
  • बसावट का आरंभ: सन् 1832 ई० में, कंपनी ने राजमहल की पहाड़ियों के निचले भाग में संथालों को बसने के लिए “दामिन ए कोह” क्षेत्र का प्रस्ताव दिया।
  • सीमाएं और भूमि का घोषणापत्र: इस जगह को संथालों का भूमि घोषित किया गया और कथा सीमाओं की सीमांकन कर दिया गया।

इस नई दिशा में, संथाल लोगों को जमींदारों के नियंत्रण से मुक्त करने का प्रयास शुरू हुआ और उन्हें आजादी और स्वतंत्रता की एक नई किरण मिली।

संथाल विद्रोह : एक समाजिक रोंग / Santhal rebellion: a social disease

  • अत्याचार और शोषण: जब सरकारी अधिकारियों, जमींदारों और व्यापारियों ने संथालों पर अत्याचार और शोषण किया, तो संथालों ने उत्तर देने के लिए विद्रोह का रास्ता अपनाया।
  • आरंभ और नेतृत्व: 1855 से 1846 तक, सिद्धु और कान्हू ने संथाल विद्रोह का नेतृत्व किया।
  • संघर्ष और प्रतिक्रिया: संथालों का विद्रोह अधिकारियों और जमींदारों की धार को हिला दिया। लूट, छीना, और मारपीट के जवाब में संथाल और अधिक उग्र हो गए।
  • मांगें और धमकी: संथाल नेताओं ने अंग्रेजों और जमींदारों को तीन मांगों के साथ धमकाया: शोषण की बंदी, जमींन वापसी, और स्वतंत्रता।
  • अंतिम उधारण: चेतावनियों का ध्यान न देने के कारण, संथाल ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सशस्त्र विद्रोह का आरंभ किया।
  • संथाल विद्रोह ने एक विशाल सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन की धारा को आरंभ किया, जो आज भी उन्हें एक महत्वपूर्ण और अभिन्न भाग के रूप में याद किया जाता है।

विद्रोह का दमन : अंग्रेजों का प्रतिसाद / Suppression of the rebellion: British response

  • अपराधिक घोषणा: संथाल विद्रोह के तीव्र फैलाव के समय, गैर-संथाली जनसंख्या भी उसके साथ उत्साह से जुड़ी।
  • हाथियार की अधिकता: हालांकि, अंग्रेज कंपनी के पास आधुनिक हथियार और योजना की अधिकता थी, जिससे वे विद्रोह को तत्काल दबा सके।
  • संथालों को संतुष्ट करने का प्रयास: विद्रोह के उत्तराधिकारी रूप में, अंग्रेज सरकार ने कुछ विशेष कानून लागू किए ताकि संथालों को शांति की गारंटी दी जा सके।
  • संथाल परगना का निर्माण: विद्रोह के बाद, संथाल परगना की पुनर्निर्माण की गई, जिसमें भागलपुर और बीरभूम जिले शामिल थे। यह एक प्रयास था कि संथालों को संतुष्ट किया जाए और उनकी आत्माओं को पुनः स्थायी रूप से स्थापित किया जाए।

फ्रांसिस बुकानन :- एक अनूठा व्यक्तित्व / Francis Buchanan:- A unique personality

  • योगदान का महत्व: भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम – फ्रांसिस बुकानन, जिन्होंने 1794 से 1815 तक के दौरान अपनी जानकारी साझा की।
  • एक समृद्ध व्यक्तित्व: फ्रांसिस बुकानन न केवल एक इतिहास-कार थे, बल्कि एक प्रख्यात चिकित्सक भी। उन्होंने कोलकाता में एक चिड़ियाघर स्थापित किया और वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में भी अपने योगदान दिया।
  • सरकारी सेवा: उनका योगदान बंगाल सरकार की सेवा में भी था, जहां उन्होंने कंपनी के क्षेत्राधिकारी के रूप में काम किया और भूमि का सर्वे किया।
  • वंश परिचय: उनकी मां की मौत के बाद, उन्होंने अपनी मां की वंश का नाम हैमिल्टन को अपनाया और अपना नाम फ्रांसिस बुकानन हैमिल्टन किया।
  • व्यक्तित्व की अद्वितीयता: उनके योगदान और अनूठे व्यक्तित्व ने उन्हें इतिहास की गहरी नींव बना दी।

दक्कन दंगा : एक ऐतिहासिक पल / Deccan riots: a historic moment

  • आंदोलन की उत्पत्ति: 12 मई 1875 को, महाराष्ट्र के पुणे जिले के सुपा नमक गांव में एक महत्वपूर्ण घटना हुई थी। यहां रहने वाले रैयतों ने साहूकारों के खिलाफ अपना आक्रोश प्रकट किया।
  • आंदोलन के प्रकार: रैयतों ने अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए साहूकारों के लेखा खातों को जला दिया और उनके घरों में आग लगा दी। इसके अलावा, अनाज की दुकानों को लूटा गया।
  • आंदोलन का महत्व: दक्कन दंगा एक महत्वपूर्ण उदाहरण था जिसमें किसानों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया। इसने समाज में अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन की शुरुआत की।

दक्कन दंगा आयोग (1875) :- एक महत्वपूर्ण जांच की शुरुआत / Deccan Riots Commission (1875):- Beginning of an important investigation

  • आंदोलन की अध्ययनरत प्रतिक्रिया: 1857 के विद्रोह के बाद, दक्कन में हुए विद्रोह को समझने और जांचने के लिए मुंबई सरकार ने सन् 1875 में दक्कन दंगा आयोग की स्थापना की।
  • विद्रोह के प्रमुख मामलों की जांच: आयोग ने विद्रोह के मुख्य कारणों और प्रमुख मामलों की जांच की, जिसमें रैयतों के अत्याचार, उनकी आत्मसम्मान की उत्पीड़न, और ऋण दाताओं के खिलाफ शोषण शामिल था।
  • पार्लियामेंट को सिफारिश: आयोग द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को 1875 में पार्लियामेंट को सौंपा गया। इस रिपोर्ट में विद्रोह के प्रमुख आंदोलनिक मामलों के विस्तृत विश्लेषण तथा समाधान के सुझाव दिए गए।
  • ऐतिहासिक महत्व: दक्कन दंगा आयोग की रिपोर्ट ने समाज में न्याय के प्रति लोगों के अधिकारों की उपेक्षा की चिंता को उजागर किया। यह आयोग उस समय की सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक स्थिति को समझने में महत्वपूर्ण योगदान किया।
NCERT Notes

स्वतंत्र भारत में, कांग्रेस पार्टी ने 1952 से 1967 तक लगातार तीन आम चुनावों में जीत हासिल करके एक प्रभुत्व स्थापित किया था। इस अवधि को 'कांग्रेस प्रणाली' के रूप में जाना जाता है। 1967 के चुनावों में, कांग्रेस को कुछ राज्यों में हार का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 'कांग्रेस प्रणाली' को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

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Author: NCERT

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