प्राचीन भारत पर विदेशी यात्रियों के वृत्तांत इतिहास को समझने का एक स्रोत हैं। कक्षा 12 NCERT इतिहास के अध्याय 5′यात्रियों के नजरिए‘ में आप इसी विषय में गहराई से जा सकते हैं।
मेगास्थनीज, फ़ाहियान, ह्वेन त्सांग, इब्नबतूता, और अल बरुनी जैसे यात्रियों के आंखों से भारत की तत्कालीन सामाजिक स्थिति, धर्म, संस्कृति, और यहां तक कि राजनीतिक परिदृश्य की झलक मिलती है। इन विदेशी वृत्तांतों को पढ़ने से हम भारत के गौरवशाली अतीत को एक नए दृष्टिकोण से देख सकते हैं।
Table of Contents
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 5 |
Chapter Name | यात्रियों के नज़रिए |
Category | Class 12 History |
Medium | Hindi |
12 Class History Notes In Hindi Chapter 5 यात्रियों के नजरिए
विभिन्न लोगों द्वारा यात्राओं के करने का उदेश्य
- रोजगार: बेहतर जीवन की तलाश में लोग नयी जगहों की यात्रा करते हैं।
- सुरक्षा: प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए लोग सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन करते हैं।
- व्यापार: व्यापारी लाभ कमाने के लिए विभिन्न देशों की यात्रा करते हैं।
- धर्म: तीर्थयात्री धार्मिक स्थलों की यात्रा करते हैं और सैनिक युद्ध के लिए जाते हैं।
- सामाजिक: पुरोहित धार्मिक कार्यों के लिए यात्रा करते हैं।
- साहस: साहसिक लोग नई खोजों और रोमांच के लिए यात्रा करते हैं।
प्राचीन दौर में यात्राएं करने की समस्याएं
लंबा समय: यात्रा करने में लंबा समय लगता था, क्योंकि प्राचीन काल में यातायात के साधन अत्यंत धीमे और स्थायी थे।
सुविधाओं का अभाव: यात्रा के दौरान सुविधाओं का अभाव भी एक बड़ी समस्या थी, जैसे कि अच्छे आवास, पोषण और मेडिकल सुविधाएं।
समुद्री लुटेरो का भय: समुद्री यात्राओं में समुद्री लुटेरों का डर भी एक महत्वपूर्ण समस्या था, जो यात्रियों को सुरक्षित रहने के लिए चुनौती प्रदान करता था।
प्राकृतिक आपदाएं: प्राकृतिक आपदाएं जैसे भूकंप, बाढ़ आदि भी यात्रा के दौरान जोखिमपूर्ण होती थीं।
बीमारियां: यात्रा के दौरान बीमारियों का सामना भी आम था, जिससे यात्री अस्वस्थ हो जाते और इलाज की सुविधा उपलब्ध नहीं होती।
रास्ता भटकने का भय: बगीचीदार रास्ते, गंभीर भू-रोग, और अज्ञात क्षेत्रों में रास्ते भटकने का भय भी यात्रा करने वालों को परेशान करता था।
भारत की यात्रा करने वाले मुख्य यात्री
भारत की यात्रा करने वाले मुख्य यात्री भारतीय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर के लिए महत्वपूर्ण योगदान देने वाले कई प्रमुख व्यक्तित्वों से भरे हैं। इनमें से कुछ प्रमुख यात्री निम्नलिखित हैं:
- अल-बिरूनी: अबु रेहान अल-बिरूनी, एक उत्कृष्ट पर्सियन ज्योतिषी, गणितज्ञ, और भूगोलज्ञ थे। उन्होंने 11वीं शताब्दी में भारत की यात्रा की और भारतीय संस्कृति, विज्ञान, और दर्शन को अध्ययन किया।
- इब्न बतूता: इब्न बतूता, मोरक्कन खलजी यात्री, ने 14वीं सदी में भारत की यात्रा की। उनकी यात्राओं का वर्णन उनकी प्रसिद्ध किताब “रिहला” में मिलता है, जिसमें उन्होंने भारत के समाज, संस्कृति, और जीवन का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया।
- फ्रांस्वा बर्नियर: फ्रांस्वा बर्नियर, एक फ्रेंच साहित्यकार और यात्री, ने 19वीं सदी में भारत की यात्रा की। उनका विवरण उनकी पुस्तक “भारतीय यात्रा” में उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने भारतीय समाज, संस्कृति, और लोगों के जीवन का विस्तृत अध्ययन किया।
इन प्रमुख यात्रियों ने अपनी यात्राओं के दौरान भारतीय समाज और संस्कृति को गहराई से समझा और उनके विचार और विवरण ने आज भी हमें भारत के प्राचीनतम धरोहर के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं।
कुछ अन्य यात्री जिन्होंने भारत की यात्रा की
भारत की यात्रा करने वाले यात्री के श्रृंगार और अनुभव से भरे कई अन्य व्यक्तित्व भी हैं, जिन्होंने इस भूमि को अपने आद्यात्मिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक संदर्भों से अन्यत्रित किया है। उनमें से कुछ विशेष यात्री निम्नलिखित हैं:
- मार्कोपोलो: 13वीं सदी के इतालवी यात्री मार्कोपोलो ने अपनी भारतीय यात्रा के दौरान दक्षिण भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का विवरण दिया।
- निकितिन: 15वीं सदी के रूसी यात्री निकितिन ने भारत की यात्रा की, जिसने उसके भौगोलिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक पहलुओं को समझने में मदद की।
- सायदि अली रेइस: 16वीं सदी के तुर्की यात्री सायदि अली रेइस ने भारत की यात्रा की, जिसने उसके राजनीतिक और सांस्कृतिक विवरणों को प्रस्तुत किया।
- फादर मांसरेत: स्पेन से आए 17वीं सदी के यात्री फादर मांसरेत ने अकबर के दरबार में गए और भारतीय संस्कृति को अनुभव किया।
- पीटर मुंडी: 17वीं सदी के इंग्लिश यात्री पीटर मुंडी ने भारत की यात्रा की और उसके समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का अध्ययन किया।
- अब्दुर रज्जाक: 15वीं सदी के अब्दुर रज्जाक समरकंदी ने भारत की यात्रा की, जिसमें उन्होंने कालीकट और विजय नगर का विवरण दिया।
- शेख आली हाजिन: 18वीं सदी के शेख आली हाजिन ने अपनी यात्रा के दौरान भारत को एक घृणित देश के रूप में वर्णित किया।
- महमूद वली वल्खी: 17वीं सदी के महमूद वली वल्खी ने अपनी यात्रा के दौरान इतना प्रभावित होकर कुछ समय के लिए सन्यासी बन गए।
- दुआर्ते बरबोसा: 16वीं सदी के पुर्तगाली यात्री दुआर्ते बरबोसा ने दक्षिण भारत की यात्रा की।
- वैपटिस्ट तैवेनियर: 17वीं सदी के फ्रांसीसी जोहरी वैपटिस्ट तैवेनियर ने कम से कम 6 बार भारत की यात्रा की और इसे अपने काम के लिए प्रेरित किया।
अल – बिरूनी का जीवन / Life of Al-Biruni
जन्म और शिक्षा: अल-बिरूनी का जन्म 973 ई० में ख्वारिज्म (आधुनिक उजबेकिस्तान) में हुआ। उनके प्रारंभिक जीवन का अध्ययन ख़्वारिश्म में हुआ, जो शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। अल-बिरूनी ने वहाँ सबसे अच्छी शिक्षा प्राप्त की और विभिन्न भाषाओं में माहिर हो गए।
भाषाओं का ज्ञान: वह कई भाषाओं का ज्ञाता था, जैसे कि सीरियाई, फारसी, हिब्रू, और संस्कृत। इसके अतिरिक्त, वे अरबी अनुवादों के माध्यम से प्लेटो और अन्य यूनानी दार्शनिकों के कार्यों को पढ़ कर उनसे पूरी तरह परिचित थे।
विज्ञान में योगदान: अल-बिरूनी ने विभिन्न क्षेत्रों में अपने योगदान के लिए प्रसिद्ध हैं, विशेष रूप से गणित, भूगोल, खगोल शास्त्र, और भौतिकी में। उनकी एक अनुपम कृति ‘तहकीकी मासिरा’ विज्ञान के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान को दर्शाती है।
संस्कृत और धार्मिक अध्ययन: अल-बिरूनी के विशेष रूप से संस्कृत और धार्मिक अध्ययन में भी अद्वितीय महत्त्व था। उन्होंने हिन्दू, बौद्ध, और जैन धर्म की संगीता की और भारतीय धर्मशास्त्र के कई पहलुओं का अध्ययन किया।
अन्तर्राष्ट्रीय पहचान: अल-बिरूनी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रमुख विज्ञानी और स्कॉलर के रूप में मान्यता प्राप्त है, जो अपने शिक्षा, अनुसंधान, और समाज में अपने योगदान के लिए प्रसिद्ध हैं।
अल – बिरूनी भारत कैसे आया ? / How did Al-Biruni come to India?
महमूद गजनवी के साथ: सन् 1017 ई० में ख़्वारिश्म पर आक्रमण के पश्चात सुल्तान महमूद गजनवी ने अपनी राजधानी गजनी ले जाने के लिए कई विद्वानों और कवियों को साथ लिया, जिसमें अल-बिरूनी भी शामिल थे।
बंधक के रूप में: अल-बिरूनी उज्बेकिस्तान से गजनवी साम्राज्य में बंधक के रूप में आये थे। उत्तर भारत का पंजाब भी उस सम्राज्य का हिस्सा था।
भारतीय रूचि का विकास: धीरे-धीरे अल-बिरूनी को भारत की ओर रुचि बढ़ने लगी, और उन्होंने अपने बाकी जीवन का अधिकांश समय भारत में ही बिताया।
विद्वान और अनुवादक: अल-बिरूनी ने कई भाषाओं में दक्षता हासिल की थी, जिससे उन्हें ग्रन्थों के अनुवाद करने में सक्षमता मिली। उन्होंने पतंजलि का व्याकरण ग्रंथ और युकिल्ड के कार्यों का अरबी और संस्कृत में अनुवाद किया।
अल-बिरूनी की भारतीय यात्रा उनके विद्यानुसारी और सांस्कृतिक अद्यतन के लिए महत्वपूर्ण रही और उन्होंने अपने अनुसंधानों से भारतीय संस्कृति और विज्ञान के विशेष पहलुओं का अध्ययन किया।
अल – बिरूनी की यात्रा / Al-Biruni’s journey
यात्रा का कार्यक्रम: अल-बिरूनी की यात्रा का कार्यक्रम स्पष्ट नहीं है, लेकिन उन्होंने प्राचीन पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की। उन्होंने ब्राह्मण पुरोहितों और विद्वानों के साथ बहुत समय व्यतीत किया और संस्कृत, धर्म, और दर्शन के गहरे ज्ञान को प्राप्त किया।
साहित्यिक योगदान: उनके लिखे गए यात्रा वृत्तांत अरबी साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गए थे। ये वृत्तांत पश्चिम में सहारा रेगिस्तान से लेकर उत्तर में वोल्गा नदी तक फैले क्षेत्रों से संबंधित थे।
अल-बिरूनी की यात्रा ने उन्हें भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं के विविधता को समझने में मदद की और उनके लेखन ने अरबी साहित्य को उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ाया।
किताब (उल – हिन्द) / Book (ul-hind)
लेखक और भाषा: “उल – हिन्द” एक अरबी में लिखी गई पुस्तक है जो अलबरुनी द्वारा रची गई थी। इसकी भाषा सरल और स्पष्ट है, जिससे पाठकों को समझने में आसानी होती है।
विषय विस्तार: यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो विभिन्न विषयों पर आधारित है। इसमें 80 अध्याय हैं जो धर्म और दर्शन, त्योहार, खगोल – विज्ञान, सामाजिक जीवन, भार – तौल और मापन विधियों, मूर्तिकला, कानून, और मापतंत्र विज्ञान जैसे विषयों पर विभाजित है।
गणितीय सरंचना का महत्व: अनेक इतिहासकारों के मानने के अनुसार, अलबरुनी की “उल – हिन्द” की ज्यामितीय सरंचना में गणित का महत्वपूर्ण योगदान था। इससे ग्रंथ की स्पष्टता और विवरण में वृद्धि हुई और विषयों के संबंध में गहराई बढ़ी।
“उल – हिन्द” एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कीर्तिमान है जो भारतीय संस्कृति, विज्ञान, और समाज के विविध पहलुओं को समझने में मदद करती है। इसके माध्यम से पढ़ने वालों को एक व्यापक और समृद्ध ज्ञान का संचार होता है।
भारत को समझने में आई बाधाएँ (अल – बिरूनी) / Obstacles in understanding India (Al-Biruni)
भाषा की भिन्नता: अलबरुनी को भारत को समझने में विभिन्न भाषाओं की भिन्नता का सामना करना पड़ा। संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के बीच इतनी अधिक भिन्नता थी कि अनुवाद करना कठिन था।
धार्मिक और प्रथागत भिन्नता: भारतीय समाज में धार्मिक और प्रथागत भिन्नता के कारण अलबरुनी को समझने में कठिनाई हुई।
अभिमान का विषय: अलबरुनी ने भारतीय समाज में अभिमान का भी जिक्र किया है, जो उन्हें समझ में आने वाली बाधा बना।
अलबरुनी की प्रयासों की महत्वपूर्णता:
- अलबरुनी के लिए समस्याओं की स्पष्टता भी उन्हें भारतीय समाज को समझने के लिए एक मार्गदर्शक बनाई।
- वे वेद, पुराण, भगवद्गीता, पतंजलि की कृतियों और मनुस्मृति जैसी कई प्रमुख पुस्तकों पर निर्भर रहे, जो भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को अध्ययन करने में मदद की।
- उनकी विशेषज्ञता और उनके लेखन का ध्यान रखने योग्य है, जैसे कि उन्होंने संस्कृत की विशेषताओं को उजागर किया, जो उसकी विस्तृतता और विविधता को दर्शाते हैं।
अल – बिरूनी के लेखन कार्य की विशेषताएँ / Features of Al-Biruni’s writing work
भाषा का प्रयोग: अल – बिरूनी ने अपने लेखन कार्य में अरबी भाषा का प्रयोग किया, जो उनके दृष्टिकोण को और भी प्रभावशाली बनाता है।
विषय संबंधितता: उनके ग्रंथों में विविधता की भरपूरता थी। उन्होंने दंतकथाओं से लेकर खगोल – विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियों तक कई विषयों को शामिल किया।
शैली की विविधता: प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया गया था। उन्होंने आरंभ में एक प्रश्न प्रस्तुत किया, फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन किया, और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना प्रस्तुत की।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण: उनकी लेखन – सामग्री शैली का दृष्टिकोण आलोचनात्मक था, जिससे उनके ग्रंथों में विचारों की गहराई और विवरण का अध्ययन करने में मदद मिलती है।
अल – बिरूनी के लेखन कार्य में विशेषताएँ उनके व्यक्तित्व और उनकी विचारधारा की प्रतिबिम्बिति करती हैं, जिससे उन्होंने भारतीय संस्कृति और विज्ञान को एक नए और संवेदनशील दृष्टिकोण से समझने का माध्यम प्रदान किया।
अल – बिरूनी की जाति व्यवस्था का विवरण / Description of Al-Biruni’s caste system
चार सामाजिक वर्ण: अलबरुनी ने अपने ग्रंथों में भारत की जाति व्यवस्था का विवरण किया। उनके अनुसार, भारत में चार प्रमुख सामाजिक वर्ण थे – घुड़सवार तथा शासक, भिक्षु, पुरोहित तथा चिकित्सक, खगोलशास्त्री व अन्य वैज्ञानिक, और कृषक तथा शिल्पकार।
समानता का प्रचार: अलबरुनी ने अपने लेखों में इस्लामी समाज में समानता के मूल्यों की महत्वपूर्णता को उजागर किया। उन्होंने इस्लामी धर्म में सभी को समान मानने के सिद्धांत को प्रमुखत: उजागर किया।
अपवित्रता के खिलाफ: अलबरुनी ने जाति व्यवस्था में अपवित्रता की मान्यता को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने लिखा कि इसे प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध मानना चाहिए और उसने इसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध भी ठहराया।
विवाद का स्थान: अलबरुनी के विचार जाति व्यवस्था के विवादपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और उनकी विवरण करने की प्रेरणा संस्कृत ग्रंथों से लिया गया है।
अलबरुनी का जाति व्यवस्था का विवरण उनके लेखन के माध्यम से समाज में सामाजिक न्याय और समानता के प्रति उनकी संवेदनशीलता का प्रतिबिम्बित करता है।
इब्नबतूता का जीवन / Life of Ibn Battuta
जन्म और शिक्षा: इब्न बतूता ने अपने जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण यात्राओं के माध्यम से भारतीय समाज और संस्कृति को अध्ययन किया। उनका जन्म तेजियर (मोरक्को) में हुआ था, जो कि इस्लामी कानून और शरिया के लिए प्रसिद्ध था। उन्होंने अपने परिवार की परंपरा के अनुसार कम उम्र में ही साहित्यिक और शास्त्रीय शिक्षा प्राप्त की।
यात्राओं का प्रेम: इब्न बतूता को पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता था। उनका दृष्टिकोण यात्राओं से ज्ञान की प्राप्ति के प्रति प्रेरित करता था।
अन्वेषणात्मक यात्राएं: इब्न बतूता को यात्राएँ करने का बहुत शौक था। उन्होंने नए-नए देशों और लोगों के विषय में जानने के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों तक यात्राएँ की। उनकी रिह ला यात्रा वृत्तांत भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के बारे में बहुत ही प्रचुर और रोचक जानकारी प्रदान करता है।
इब्न बतूता की यात्रा / Ibn Battuta’s journey
अकेले भारत की यात्रा: इब्न बतूता ने बिना किसी सहयात्री या करवा के अकेले ही भारत की यात्रा पर निकल पड़ा। इससे पहले उन्होंने मक्का, सीरिया, फारस, यमन, ओमान, और पूर्वी अफ्रीका के कई तटीय बदरगहों की यात्रा की थी।
दिल्ली का काजी: मोहम्मद बिन तुगलक ने इब्न बतूता को दिल्ली का काजी नियुक्ति किया। वह अनेक वर्षों तक रहे, लेकिन बाद में उन्हें सुल्तान का विश्वास खो दिया गया और उन्हें कैद कर लिया गया।
अविस्मरणीय यात्राएं: इब्न बतूता ने अपने जीवन में कई अद्भुत यात्राएं कीं। उन्होंने मालावार तट, मालदीव, श्रीलंका, बंगाल, असम, सुमात्रा, और चीन के बंदरगाहों को अपने कदमों में रखा।
जिद्दी यात्री: इब्न बतूता एक जिद्दी यात्री थे और अक्सर अपने साथियों के साथ यात्रा करते थे। उन्होंने डाकुओं के हमलों का सामना किया, जिससे उन्हें सुरक्षित रहने के लिए साथी की आवश्यकता महसूस हुई।
विचारपूर्वक लेखन: इब्न बतूता के यात्रा समरणों को स्थानीय शासक ने दर्ज किया और उनकी कहानियों को लिखने के लिए इबनजुजाई को नियुक्त किया गया।
इब्नबतूता द्वारा नारियल का वर्णन / Description of coconut by Ibn Battuta
इब्नबतूता विष्मयकारी वृक्ष: इब्नबतूता ने नारियल को एक आश्चर्यजनक वृक्ष के रूप में वर्णन किया। उन्हें इसकी अद्भुतता और विशेषता से प्रभावित होने का अनुभव हुआ।
उपयोगिता: इसके अलावा, उन्होंने नारियल की उपयोगिता का भी जिक्र किया। उन्होंने बताया कि भारतीय लोग इसके फलों से रस्सी बनाते थे और इससे जहाजों को सीला जाता था।
विविधता का स्तर: इब्नबतूता का नारियल के विविधता के स्तर का विवरण भी उनके वर्णन में था। वे इसे भारत के अन्य वृक्षों के साथ तुलना करते हुए उसकी विशेषताओं का उल्लेख किया।
इब्नबतूता द्वारा पान का वर्णन / Description of betel leaf by Ibn Battuta
अनोखा वृक्ष: इब्नबतूता ने पान को एक अनूठे वृक्ष के रूप में वर्णन किया है। उनके विवरण से पान की अनूठीता और उसकी विशेषताएँ प्रकट होती हैं।
केवल पत्तियों के लिए: इसके अलावा, उन्होंने बताया कि पान की बेल पर कोई फल नहीं होता। इसे केवल पत्तियों के लिए उगाया जाता है, जो कि उसकी उपयोगिता को दर्शाता है।
नवीनता की खोज: इब्नबतूता के लिखावट से स्पष्ट होता है कि वह पान को उसके विषय में नवीनता की खोज में भारत में पहुंचे थे, जो कि उस समय उनके लिए अजनबी था।
इब्नबतूता द्वारा शहरों का वर्णन / Description of cities by Ibn Battuta
- दिल्ली: इब्नबतूता के अनुसार, दिल्ली भारत का सबसे बड़ा और अग्रणी शहर था।
यह धनवानी और आध्यात्मिकता से ओतप्रोत था, जिसकी प्राचीरें और द्वारों का विवरण विशेष रूप से महत्वपूर्ण था।
इसमें 28 द्वार थे, जिनमें सबसे प्रसिद्ध ‘बदायूं दरवाजा’ था, जो सबसे बड़ा था।
दिल्ली शहर में एक शानदार कब्रगाह भी थी, जिसमें चमेली और गुलाब के फूल उगाए जाते थे।
- दौलताबाद: दौलताबाद (महाराष्ट्र) भी एक प्रमुख शहर था, जो दिल्ली को भी चुनौती देता था।
इसका स्थानिक विवरण भी इब्नबतूता के यात्रा वृत्तांत में महत्वपूर्ण था।
अन्य शहर: इब्नबतूता ने अन्य शहरों का विवरण भी दिया, जहां मस्जिद और मंदिर का समन्वय देखा जा सकता था।
इन शहरों में नर्तकों, संगीतकारों और गायकों के प्रदर्शन के लिए स्थान भी था, जो कि उस समय की सांस्कृतिक शानदारी को प्रकट करता था।
इब्न बतूता द्वारा संचार प्रणाली का वर्णन / Description of communication system by Ibn Battuta
- सराय और विश्रामशाला: इब्नबतूता ने दिल्ली सल्तनत की डाक प्रणाली का विवरण दिया।
सभी व्यापारिक मार्गों पर सराय और विश्रामशालाएं स्थापित की गई थीं, जो यात्रियों के लिए आराम की सुविधा प्रदान करती थीं।
- कार्य कुशलता: इब्नबतूता ने डाक प्रणाली की कुशलता को चकित होकर देखा।
इस प्रणाली ने लंबी दूरियों तक सूचना भेजने के साथ-साथ अल्पसूचना पर माल भेजने की संभावना भी प्रदान की।
- तेज डिलीवरी: इस प्रणाली की कुशलता इतनी थी कि जहाँ सिंह से दिल्ली की यात्रा में 50 दिन लगते थे, वही गुप्तचरों की खबरें सुल्तान तक इस डाक व्यवस्था के माध्यम से मात्र 5 दिनों में पहुंच जाती थीं।
भारत में डाक व्यवस्था / Postal System in India
भारतीय डाक व्यवस्था एक प्राचीन और प्रमुख संचार प्रणाली रही है। इसका आरंभ ब्रिटिश शासन के समय से हुआ था जब डाक का प्रबंधन भारत सरकार के द्वारा किया जाता था। भारतीय डाक व्यवस्था ने देशभर में संचार को सुगम बनाया और लोगों को आपस में जोड़ा। यह व्यवस्था आज भी अपने विभिन्न प्रकारों में उपलब्ध है।
- अश्व डाक व्यवस्था: अश्व डाक व्यवस्था भारतीय सम्राटों द्वारा स्थापित की गई थी और इसे “उल्लुक” के नाम से भी जाना जाता था। यह व्यवस्था राजकीय घोड़ों द्वारा संचालित होती थी और इसका मुख्य उद्देश्य लंबी दूरी की सूचनाओं को तेजी से पहुंचाना था। अश्व डाक व्यवस्था में, पाठकों द्वारा लिखित संदेशों को एक शहर से दूसरे शहर या स्थानों तक पहुंचाने के लिए राजकीय घोड़े का प्रयोग किया जाता था। यह एक प्राचीन और प्रभावशाली संचार प्रणाली थी जो व्यापार, राजनीति और समाज के बीच संचार को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।
- पैदल डाक व्यवस्था: पैदल डाक व्यवस्था एक और प्रमुख तरीका था जिसका उपयोग सूचनाओं को तेजी से और सुरक्षित ढंग से पहुंचाने के लिए किया जाता था। इस व्यवस्था में, विशिष्ट स्थानों पर स्थापित पोस्ट ऑफिसों या स्थानीय आधिकारिकों द्वारा नियुक्त व्यक्तियों या पैदल डाकवालों के माध्यम से संदेशों को पहुंचाया जाता था। इन पैदल डाकवालों की प्रमुख कार्यक्षेत्र स्थानीय इलाकों या छोटे-छोटे गाँवों में थी, जहां उन्हें संदेशों को सही समय पर सही व्यक्तियों तक पहुंचाने का कार्य सौंपा जाता था। पैदल डाक व्यवस्था का उद्देश्य अपराह्न के समय में संदेशों को दिनांक तक पहुंचाना था, जिससे संचार का विश्वासीयता और विश्वास बढ़ाया जा सकता था।
फ्रांस्वा बर्नियर (एक यात्री) / François Bernier (a traveller)
फ्रांस्वा बर्नियर, एक प्रमुख फ्रांसीसी चिकित्सक, राजनीतिक विचारक, और इतिहासकार थे। उन्होंने मुग़ल साम्राज्य में 1656 ई0 से 1668 ई0 तक 12 वर्ष बिताए। पहले, उन्होंने शाहजहाँ के जेष्ठ पुत्र दाराशिकोह की चिकित्सा की थी, और बाद में वे मुग़ल दरबार के एक अमीर दानिशमंद खान के साथ एक बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक के रूप में रहे। उनकी यात्रा के अनुभवों को उन्होंने “ट्रेवल इन द मुग़ल एंपायर” नामक पुस्तक में विवरणित किया।
बर्नियर के लेखनी की विशेषताएँ / Features of Bernier’s writing
राजस्वांतरण: उन्होंने अपनी प्रमुख कृति को फ्रांस के शासक लुई 14 वें को समर्पित किया।
परिप्रेक्ष्या का विवेचन: प्रत्येक दृष्टांत में बर्नियर भारत की स्थिति को यूरोप से निन्म दिखता है, जिससे वे अपनी लेखनी में विशेषता प्रदर्शित करते हैं।
अनुवाद: उनके कार्य फ्रांस में 1670 ई0 – 1671 ई0 में प्रकाशित हुए और अगले 5 वर्षों के भीतर ही अग्रेजी, डच, जापानी और इतावली भाषा में इसका अनुवाद किया गया।
यात्राएँ: बर्नियर ने कई बार मुग़ल सेना के साथ यात्रा की, और एक बार वह कश्मीर भी गए। उनकी कृति “ट्रेवल इन द मुग़ल एंपायर” मुग़ल बादशाहों के साथ यात्रा के अनुभवों का विवरण करती है।
बर्नियर द्वारा भू – स्वामित्व का वर्णन / Description of land ownership by Bernier
यूरोप और भारत का विपरीत भूमि – स्वामित्व:
- बर्नियर के अनुसार, यूरोप के विपरीत भारत में निजी भूमि – स्वामित्व का अभाव था।
- मुगल सम्राट सारी भूमि का स्वामी था, जिसे वे अपने अमीरों के बीच बाँट देते थे।
प्रभाव की बाधा:
- इस राजकीय भू – स्वामित्व के कारण, खेती के लिए या भूधारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे।
- इससे खेती में सुधार और निवेश की कमी आई, जिससे कृषि का मार्ग रुक गया।
बर्नियर द्वारा भारतीय समाज का वर्णन / Description of Indian society by Bernier
मध्यवर्ग और खेती की स्थिति: बर्नियर के अनुसार, भारत में मध्यवर्ग की अभाव थी। उनके अनुसार, भारतीय समाज में सामान्य लोगों के बीच मध्यवर्ग की कमी थी।
उनके अनुसार, भारत की खेती भी अच्छी नहीं थी। कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा कृषकों और श्रमिकों के आभाव में कृषि विहीन था।
भारतीय समाज की समस्याओं की जड़ें: बर्नियर की चेतावनी है कि यदि यूरोपीय शासकों ने मुगलों का अनुसरण किया तो यूरोप तबाह हो जाएगा।
वह भारत की अधिकांश समस्याओं की जड़ें निजी भू – स्वामित्व के आभाव में मानते हैं।
विचारकों की धारणाएं: फ्रांसीसी दार्शनिक मांटेस्क्यु ने उनके विचारों का प्रयोग निरकुंशवाद की धारणा को विकसित करने में किया।
उनकी चिंता के आधार पर, माकर्स ने एशियाई उत्पादन पध्दति का सिद्धांत दिया।
भूमि – स्वामित्व की अनूठी दृष्टि: अद्वितीय बात यह है कि बर्नियर का कोई भी सरकारी मुगल दस्तावेज यह इंगित नहीं करता कि राज्य की भूमि का एक मात्र स्वामी था।
बर्नियर द्वारा शिल्पकारों का वर्णन / Description of craftsmen by Bernier
आलसी शिल्पकार: बर्नियर के अनुसार, शिल्पकार मूल रूप से आलसी होता था। उनका निर्माण अपनी आवश्यकताओं या बाध्यताओं के कारण होता था।
शिल्पकारों की प्रेरणा केवल अपने उत्पादों को बेहतर बनाने की नहीं थी, क्योंकि मुनाफे का अधिग्रहण राज्य द्वारा किया जाता था।
धातुओं का महत्व: बर्नियर के अनुसार, भारत में बहुमूल्य धातुएं बड़ी मात्रा में आती थीं।
यह धातुएं शिल्पकारों के उत्पादों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
बर्नियर का विशेष उल्लेख: बर्नियर एकमात्र इतिहासकार था जो राजकीय कारखानों की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है।
उनके अनुसार, भारतीय शिल्पकारों की उत्पत्ति और कार्यप्रणाली को समझने में धातुओं का महत्वपूर्ण योगदान था।
बर्नियर द्वारा नगरों का वर्णन / Description of cities by Bernier
नगरीय जीवन की चित्रण: बर्नियर विवरण करते हैं कि सत्रहवीं सदी में लगभग 15% भारतीय जनसंख्या नगरों में रहती थी।
यह उन दिनों का आनुपात था, जो यूरोप से अधिक था, लेकिन फिर भी बर्नियर ने भारतीय नगरों को ‘सिविर नगर’ कहा।
राजकीय सिविरों की भूमिका: इन नगरों का जीवन राजकीय सिविरों पर निर्भर था।
यहाँ लोगों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन की गतिविधियों को संचालित किया जाता था।
भारतीय नगरों का विशेषता: इन नगरों में रहने वाले लोगों का जीवन बहुतायत विभिन्न प्रकार की व्यवसायिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से भरा हुआ था।
ये नगर भारतीय समाज के संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
दास और दासियाँ / Slaves and maids
मध्यकाल का व्यापारिक प्रथा: मध्यकाल के बाजार में दास और दासियाँ खुले में खुलेआम बेचे और खरीदे जाते थे।
इस समय, दासों को खरीदना और बेचना व्यापारिक गतिविधि के रूप में सामान्य था।
दासों का उपयोग: सुल्तान और अमीरों के द्वारा दासों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता था।
वे संगीत, घरेलू श्रम, और पालकी चलाने के लिए नियुक्त किए जाते थे।
दासों की मूल्यवान सेवाएँ: सुल्तानी दरबारों में, कुछ दासियाँ संगीत में निपुण थीं और दासों को पालकी और डोले में यात्रा के लिए नियुक्त किया जाता था।
हालांकि, घरेलू श्रम के लिए नियुक्त किए जाने वाले दासों की कीमत अन्य दासियों की तुलना में कम होती थी।
सती प्रथा / Tradition of Sati
प्राचीन भारतीय समाज में एक धार्मिक प्रथा: सती कुछ पुरातन भारतीय समुदायों में प्रचलित थी, जहां एक पत्नी अपने पति के मृत्यु के बाद उसकी चिता में स्वयं को आत्मत्याग करती थी।
बर्नियर का विवरण: बर्नियर ने सती प्रथा को विस्तृत रूप से वर्णित किया।
उनके अनुसार, कुछ महिलाएं आनंदपूर्वक मृत्यु को गले लगा लेती थीं, हालांकि अन्यों को मरने के लिए बाध्य किया जाता था।
प्राचीन समाज में व्याप्ति: इस प्रथा की उत्पत्ति प्राचीन काल में हुई थी और यह प्राथमिक रूप से उच्च वर्णों द्वारा अनुसरित की जाती थी।
यह एक धार्मिक मान्यता और समाज की अटूट परंपरा के रूप में देखी जाती थी, जिसमें महिलाओं को उनके पति के अनुज्ञान के बिना जीने की अनुमति नहीं थी।
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स्वतंत्र भारत में, कांग्रेस पार्टी ने 1952 से 1967 तक लगातार तीन आम चुनावों में जीत हासिल करके एक प्रभुत्व स्थापित किया था। इस अवधि को 'कांग्रेस प्रणाली' के रूप में जाना जाता है। 1967 के चुनावों में, कांग्रेस को कुछ राज्यों में हार का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 'कांग्रेस प्रणाली' को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
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Author: NCERT
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