NCERT Class 10 science Chapter 6 जैव प्रक्रम Notes in Hindi

10 Class Science Chapter 6 जैव प्रक्रम notes in hindi

Class 10 science Chapter 6 जैव प्रक्रम notes in hindi जिसमे हम पौधों और जन्तुओ में पोषण, श्वसन, परिवहन और उत्सर्जन आदि के बारे में पढेगे ।

TextbookNCERT
ClassClass 10
Subjectविज्ञान
ChapterChapter 6
Chapter Nameजैव प्रक्रम
CategoryClass 10 Science Notes
MediumHindi
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☘️जैव प्रक्रम☘️
(Life Process)

वे सभी प्रक्रम जो संयुक्त रूप से जीव के अनुरक्षण का कार्य करते है , जैव प्रक्रम कहलाते हैं ।

जैव प्रक्रम :- वे सभी क्रियाएँ जो आपस में मिलकर शरीर के अंगों की मरम्मत का कार्य करते है, उसे जैव प्रक्रम कहा जाता है।

अथवा

वे सभी प्रक्रियाएँ जो संयुक्त रूप से जीव के अनुरक्षण का कार्य करती है उसे जैव प्रक्रम कहा जाता है।

 सजीव और निर्जीव में अंतर :-

निर्जीवसजीव
ये पोषण नहीं करते है ।ये पोषण करते है । 
इनमें श्वसन नहीं होता है ।इनमें श्वसन होता है ।
ये जनन नहीं करते है । ये जनन करते है ।
इनमें वृद्धि नहीं होता है ।इनमें वृद्धि होता है । 
ये स्थान परिवर्तन नहीं करते है ।ये स्थान परिवर्तन करते है ।

जैव प्रक्रम में होने वाली क्रियाएँ –

♦️ पोषण :- “भोजन को अन्तर्ग्रहण करने की प्रक्रिया”।

परिभाषा:- संजीवों द्वारा भोजन को ग्रहण करना भोजन का अवशोषण करना व शरीर के अंगों के मरम्मत व अनुरक्षण का कार्य करना, पोषण कहलाता है।

अथवा

सजीवों में जैव रासायनिक प्रक्रिया के दौरान भोजन के जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल कार्बनिक पदार्थो में रूपान्तरित करके ऊर्जा का निर्माण करना तथा शरीर के अंगो के मरम्मत व अनुरक्षण का कार्य करना, पोषण कहलाता है।

पोषण जीवों में दो प्रकार का होता हैं-
1. स्वपोषी पोषण
2. विषमपोषी पोषण

❖ स्वपोषी पोषण :-

  • स्वपोषी पोषण :- पोषण की वह प्रक्रिया जिसमें जीव वायुमंडल में उपस्थित सरल कार्बनिक पदार्थों की सहायता से अपना भोजन स्वयं बनाते है तथा किसी अन्य जीवों पर निर्भर नहीं रहते हैं, उसे स्वपोषण कहा जाता है तथा उन जीवों को स्वपोषी कहते है।

उदाहरण:- हरे पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण की उपस्थिति में अपना भोजन स्वयं बनाते है।

  • ♦️ प्रकाश संश्लेषण :-
  •  पेड़ – पौधे सूर्य  के प्रकाश की उपस्थिति में वायुंडमल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों (CO2 व जल) की सहायता से क्लोरोफिल में अपना भोजन बनाते हैं जिसमें ऊर्जा संचित होती है।
Photosynthesis in hindi
Photosynthesis

प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री

  • सूर्य का प्रकाश
  • क्लोरोफिल
  • कार्बनडाई ऑक्साइड (CO2)
  • जल (H2O)

प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में होने वाली घटनाएँ –

  • क्लोरोफिल द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना।
  • प्रकाशीय ऊर्जा को रासायनिक ऊजार में रूपान्तरित करना ।
  • जल के अणुओं का हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन में विघटित होना।
  • कॉर्बनडाई ऑक्साइड CO2 का कार्बोहाइड्रेड  में अपचयन ।

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♦️ रन्ध्र :-


पेड़ पौधें में पत्तियों की सत्तह पर छोटे-छोटे छिद्र पाये जाते है, जिसे रन्ध्र कहा जाता है।

stoma रन्ध्र
रन्ध्र

कार्य :-

  1. प्रकाश-संश्लेष्ण की प्रक्रिया के दौरान इन छोटे-छोटे छिद्रों से गैसों का आदान – प्रदान होता है।
  2. वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया के दौरान जल का बूंदों के रूप में अवशोषित करना।

❖ विषमपोषी पोषण :-

विषमपोषी पोषण :-

 वह पोषण जिसमें जीव अपने भोजन के लिए दूसरों जीवों पर निर्भर रहते है अर्थात् अपना भोजन खुद नहीं बना सकते, उसे “विषमपोषी पोषण” कहा जाता है।

heterotrophic nutrition विषमपोषी पोषण
विषमपोषी पोषण
  • विषमपोषी पोषण ( इसके तीन प्रकार होते हैं )
    • मृतजीवी पोषण जैसे :- कवक , बैक्टीरिया , प्रोटोजोआ
    • परजीवी पोषण जैसे :- गोलकृमि , मलेरिया परजीवी
    • प्राणिसम पोषण जैसे :- अमीबा , मेंढ़क , मनुष्य

1. प्राणीसम पोषण:-
 वे जीव जो सम्पूर्ण भोज्य पदार्थों का अन्तर्ग्रहण करते है तथा उनका पाचन शरीर के भीतर होता है, उसे प्राणीसम पोषण कहा जाता है।
उदाहरण :-

Animal nutrition 1. प्राणीसम पोषण:-

2. मृतजीवी पोषण :-
 वे जीव जो अपना भोजन मृतजीवों तथा सडे-गले पदार्थों से प्राप्त करते है, उसे “मृतजीवी पोषण” कहा जाता है। उदाहरण – फफूंद, कवक ।

3. परजीवी पोषण :- 
वे जीव जो अपने भोजन के लिए दूसरे जीवों पर निर्भर रहते है परन्तु ये जीवों को मारकर अपना भोजन नहीं ग्रहण करते है, ये जीव अन्दर या बाहर से अपना भोजन ग्रहण करते है, उसे परजीवी पोषण कहा जाता है। उदाहरण – जूँ , अमरबेल आदि।

i. अमीबा में पोषण :-
 अमीबा एक कोशिकीय प्राणी समपोषी जीव है जो प्रोटोजोआ संघ का सदस्य है। यह अनिश्चित आकार का होता है जो नदियों, तालाबों तथा झीलों में पाया जाता है।

nutrition in amoeba अमीबा में पोषण

❇️ पैरामीशियम :-

🔹 पैरामीशियम भी एककोशिक जीव है , इसकी कोशिका का एक निश्चित आकार होता है तथा भोजन एक विशिष्ट स्थान से ही ग्रहण किया जाता है । भोजन इस स्थान तक पक्ष्याभ की गति द्वारा पहुँचता है जो कोशिका की पूरी सतह को ढके होते हैं ।

स्वयंपोषी पोषणविषमपोषी पोषण
यह पोषण हरे पौधे में पाया जाता है।यह पोषण कीटों तथा जन्तुओं में पाया जाता है।
इस पोषण में कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल से कार्बनिक पदार्थों का निर्माण होता है।जंतु अपने भोजन हेतु पौधों एवं शाकाहारी प्राणियों पर निर्भर करते हैं।
पौधे प्रकाशसंश्लेषण में पर्ण हरित तथा सूर्य के प्रकाश को प्रयोग करते है।विषमपोषी पोषण में भोजन का निर्माण नहीं होता है।
पौधों को भोजन के निर्माण के लिए अकार्बनिक पदार्थों की आवश्यकता होती है।जन्तुओं को अपने भोजन हेतु कार्बनिक पदार्थों की आवश्यकता होती है।

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पाचन तंत्र :- 
भोजन के जटिल पोषक पदार्थो व बड़े अणुओं को विभिन्न रासायनिक क्रियाओं और एंजाइम की सहायता से सरल, छोटे व घुलनशील अणुओं में परिवर्तित करना पाचन कहलाता है तथा जो तंत्र यह कार्य करता है, पाचन तंत्र कहलाता है।

❇️ मनुष्य में पोषण :-

🔹 पोषण के चरण :- मुखगुहा → अमाशय → क्षुद्रांत्र / छोटी आत → बृहद्रां / बड़ी आत

nutrition in humans  मनुष्य में पोषण
nutrition in humans मनुष्य में पोषण
मनुष्य में पोषण

आहारनाल के कार्य –

  • भोजन को सरलीकृत करना
  • भोजन का पाचन व अवशोषण
  • भोजन को मुख से गुदा तक गति प्रदान करना

पाचन कार्य में प्रयुक्त होने वाले अंग

1. मुख व मुखगुहा-


 इसमें एक जोडी होठ पाये जाते है। मुख की संरचना कटोरेनुमा होती है।

buccal cavity- मुखगुहा-
buccal cavity-
  • जीह्वा :- स्वाद अनुभव का कार्य करती है।
  • दाँत :-  भोजन को चबाने का कार्य करता है।
  • जबड़े :- यह कठोर मांसपेशियाँ होती है।

एक व्यस्क मनुष्य के मुखगुहा में कुल 32 दाँत होते है ।

🔹 दाँत चार प्रकार के होते है :-

कर्तनक या इनसाइजर ,
भेदक या कैनाइन ,
अग्रचर्वणक या प्रीमोलर ,
चर्वणक या मोलर ।

मनुष्य के दाँतो की निम्न विशेषताएँ होती है –

1. मनुष्य के दाँत गर्तदंती होते है अर्थात दाँत जबड़े या मसूडे के साँचे में फिट रहते है
2. मनुष्य के दाँत द्विबारदंती होते है अर्थात् जीवन काल में दाँत  दो बार आते है।
3. मनुष्य के दाँत विषमदंती होते है।

human teeth मनुष्य के दाँत
मनुष्य के दाँत
  • कृतंक :- भोजन को कुतरना, काटना  (प्रत्येक जबडे मे 4-4 होते है)
  • रदनक :- भोजन को चीरना और फाड़ना (प्रत्येक जबडे मे 2-2 होते है)
  • अग्रचवर्णक :- भोजन को चबाना (प्रत्येक जबडे मे 4-4 होते है)
  • चवर्णक :- भोजन को चबाना (प्रत्येक जबडे मे 6-6 होते है)

2. ग्रसनी :-

 
मुखगुहा का पिछला भाग कुप्पीनुमा आकार का होता है जो ग्रसनी में खुलता है।

3. ग्रासनली या ग्रासनाल या ग्रसिका  

                 
वक्षगुहा से होती हुई तनुपट में से उदरगुहा के आमाशय में खुलती है।

  • संकरी पेशीय नली
  • 25 cm लम्बी नलिका
  • श्लेष्मा ग्रन्थि – भोजन को लसलसा बनाती है
  • भोजन को क्रंमाकुंचन गति प्रदान करती है
  • ग्रासनली के शीर्ष पर ऊत्तकों का एक पल्ला होता है, जिसे घाटी ढक्कन या एपिग्लॉटिस कहलाता है।

4. आमाशय

stomach आमाशय
आमाशय

मुहँ से आमाशय तक भोजन ग्रसिका या इसोफेगस द्वारा क्रमाकुंचक गति द्वारा ले जाया जाता है । आमाशय की पेशीय भित्ति भोजन को अन्य पाचक रसों के साथ मिश्रित करने मे सहायता करती है । अमाशय के भित्ति में उपस्थित जठर ग्रंथि जो हाइड्रोक्लोरिक अम्ल ( HCL ) , प्रोटीन पाचक एंजाइम पेप्सिन तथा श्लेमा का स्रावण करती है ।

  • J आकार की पेशीय संरचना है।
  • तनुपट के नीचे कुछ बांयी और एक थैलेनुमा संरचना है। (1-3 लीटर आहार धारित)
  • भोजन पाचन को रोक कर रखता है।

आमाशय में भोजन लगभग 3-4 घण्टे तक रूकता है। इसमें जठर रस में (HCl) पेप्सीन, रेनिन, श्लेष्मा होती है।

  • पेप्सीन – प्रोटीन का पाचन
  • रेनिन – दुध का पाचन
  • श्लेष्मा – आमाशय की दीवार पर रक्षात्मक आवरण बनाती है।
stomach आमाशय
आमाशय

आमाशय में दो अवरोधिनी पायी जाती है-

1. जठरागम अवरोधिनी

  • ग्रसिका व आमाशय को विभाजित करती है।
  • अम्लीय भोजन को ग्रसनी में जाने से रोकने का कार्य करती है।

2. जठरनिर्गमी अवरोधिनी

  • आमाशय व छोटी आंत को विभाजित करती है।
  • छोटी आंत में भोजन निकास का नियंत्रण का कार्य करती है।

3. छोटी आँत(क्षुदांत्र)
• सर्वाधिक पाचन व अवशोषण होता है। इसमे दो ग्रन्थियों द्वारा रस आता है    
(1) यकृत   
(2) अग्न्याशय

आहारनाल का सबसे लम्बा भाग (लगभग 7 मीटर)

. बडी आँत (वृहदांत्र)– 

कुछ विशेष जीवाणु पाये जाते हैं। छोटी आँत से शेष बचे अपचित भोजन को किण्वन क्रिया द्वारा सरलीकृत कर पाचन में मदद करते हैं।
इसमें पाचन क्रिया नही होती है केवल जल व खनिज लवणों का अवशोषण होता है। अपचित भोजन मलद्वार के द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।

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पाचन ग्रन्थियाँ

1. लार ग्रन्थियाँ :-

 मनुष्य मे तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ पाई जाती है। लार की प्रकृति हल्की अम्लीय होती है।
तीन जोड़े :- कर्णपूर्ण ग्रन्थि, अधोजभ, अधोजिह्वा

लार मे लार एमाइलेज या टायलिन एन्जाइम पाया जाता है। यह एन्जाइम कार्बोहाइड्रेड (स्टार्च) का 30% पाचन करता है।

. अग्न्याशय :-

  • शरीर में रक्त शर्करा को नियंत्रित करना।
  • आंतो में प्रोटीन, वसा व कार्बोहाइड्रेड का पाचन

(1) प्रोटीन के पाचन के लिए
ट्रिप्सिन    ⟶    प्रोटीन    ⟶   पेप्टाइड
काइमोट्रिप्सिन   ⟶    प्रोटीन    ⟶    पेप्टाइड

(2) कार्बोहाइड्रेड के पाचन के लिए
एमाईलेज   ⟶     स्टॉर्च    ⟶    माल्टोज

(3) वसा के पाचन के लिए
लाइपेज   ⟶   वसा के जटिल कण    ⟶   सरल कणआन्त्रीय रस –

अग्न्याशय एक मिश्रित ग्रंथि है। बहि: स्त्रावी भाग अग्न्याशयी रस का स्त्राव करता है। इसके क्षारीय माध्यम में कार्य करने वाले एंजाइम प्रोटीन, वसा व कार्बोहाइड्रेड के पाचन में मदद करते है।

अग्न्याशयी रस के एन्जाइम :-

  • ट्रिप्सीन – प्रोटीन का पाचन
  • एमाईलेज – कार्बोहाइड्रेड का पाचन
  • लाईपेज – वसा का पाचन

3. यकृत :-

 सबसे बड़ी ग्रन्थि जो पित का निर्माण करती है। पिताशय में सग्रंहित पित वसा के पायसीकरण तथा एंजाइमों के लिए क्षारीय माध्यम बनाने का कार्य करता है। यह मध्यपट के नीचे स्थित लगभग त्रिकोणाकार अंग है। यकृत दो भागों – दायीं और बायीं पालियों में विभाजित नजर आता है।

श्वसन ( Respiration system) :- 


कोशिकाओं में ऑक्सीजन की उपस्थिति में खाद्य पदार्थ का ऑक्सीकरण जिसमें ऊर्जा उत्पन्न होती है, श्वसन कहलाता है। ऊर्जा प्राप्त करने हेतु कोशिकाएँ पोषक तत्वों का O2 द्वारा ऑक्सीकरण करती हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप ATP का निर्माण होता है तथा हानिकारक CO2 गैस उत्पन्न होती है।
ऊर्जा  (ATP)   – भोजन   +   O2

श्वसन क्रिया :-
यह एक जटिल जैव रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें पाचित (पचा हुआ) भोजन का ऑक्सीकरण होता है।
ग्लुकोज + ऑक्सीजन  – ऊर्जा

  • यह प्रक्रिया माइट्रोकान्ड्रिया में होती है।
  • इसमें ऊर्जा का निर्माण होता है।

श्वास लेना

  • O2 ग्रहण करना व कॉर्बन डाई ऑक्साइड (CO2) को छोड़ना ।
  • यह प्रक्रिया (फेफड़ों) में होती है।
  • इसमें ऊर्जा का निर्माण नहीं होता है।
  • यह रक्त को ऑक्सीजन युक्त करता है व CO2 को मुक्त करता है।
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स्थलीय जीव व जलीय जीव –
जलीय जीव जल में घुली हुई ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन प्रक्रिया के दौरान करते हैं। जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा उपयोग करते है। जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा वायुमण्डल में उपस्थित ऑक्सीजन की मात्रा से बहुत कम है।

जलीय जीवों की श्वसन दर स्थलीय जीवों की श्वसन दर के अपेक्षा बहुत तेज होती है। जलीय जल मुंह की सहायता से जल को ग्रहण कर बलपूर्वक क्लोम तक पहुँचाने का कार्य करता है।

स्थलीय जीवजलीय जीव
वायुमण्डल में उपस्थित ऑक्सीजन को ग्रहण करते है।(1) श्वसन के दौरान जल में घुली हुई ऑक्सीजन का उपयोग करते है।
मनुष्य(2) जलीय जीव- मछलियाँ आदि
श्वसन दर कम होती है।(3) श्वसन दर अधिक होती है।
(4) O2पर्याप्त मात्रा में(4) जल में घुली O2 कम
(5) फेफड़ों से(5) क्लोम से
 वायवीय श्वसन (ऑक्सी श्वसन)अवायवीय श्वसन (अनॉक्सी श्वसन)
1.यह श्वसन वायु (ऑक्सीजनकी उपस्थिति में होता हैं।यह श्वसन वायु (ऑक्सीजनकी अनुपस्थिति में होता हैं।
2.यह क्रिया कोशिकाद्रव्य एवं माइटोकॉण्डिया में घटित एवं पूर्ण होती हैं।यह क्रिया केवल कोशिकाद्रव्य में घटित एवं पूर्ण होती हैं।
3.इस क्रिया में CO2 एवं H2उत्पन्न होते हैं।इस क्रिया में COएवं ऐल्कोहॉल उत्पन्न होते हैं।
4.इस श्वसन में बहुत अधिक ऊर्जा मोचित होती हैं। (38 ATP)इस श्वसन में वायवीय श्वसन की अपेक्षा बहुत कम ऊर्जा मोचित होती हैं । (2 ATP)

                                       जीवों के द्वारा ऑक्सीजन का ग्रहण करना तथा कॉर्बनडाई ऑक्साइड को बाहर निकालने की प्रक्रिया श्वसन कहलाती है।

श्वसन ( Respiration system)
श्वसन ( Respiration system)

इस हेतु बाह्य ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जो श्वास की प्रक्रिया में फेफड़ों में पहुँचती है तथा रक्त के माध्यम से कोशिकाओं तक ले जायी जाती है।

नोट :- कोशिकीय श्वसन द्वारा निकली ऊर्जा ATP के रूप में संचित हो जाती है , जिसे कोशिका ईंधन के रूप उपयोग होता है ।ATP :- एडिनोसीन ट्राई फास्फेट ।
कोशिकीय श्वसन आंतरोष्मि या उष्माक्षेपी अभिक्रिया है ।

नासाद्वार → ग्रसनी → कंठ → श्वास नली → श्वसनी → श्वसनिका → फुफ्फुस ( फेफड़े ) → कूपिका कोश → रुधिर वाहिकाएं

मानव श्वसन तंत्र की क्रियाविधि :-

मनुष्य के शरीर के अंदर वायु नासाद्वार द्वारा जाती है ।
नाक में उपस्थित महीन बाल व श्लेष्मा वायु के साथ अंदर जाने वाली अशुद्धियों को रोक लेते हैं । यह अशुद्धियाँ परागकण , धूल मिट्टी , जीवाणु राख आदि हो सकती हैं । इस शुद्धि के पश्चात् ही श्वाँस वायु फेफडों में प्रवेश करती है।
नासाद्वार से अंदर आ चुकी वायु ग्रसनी व कंठ से होते हुए श्वास नली में प्रवेश करती है ।


🔶 ग्रसनी :

– यह श्वसन व पाचन तंत्र के लिए समान मार्ग है । ग्रसनी एक पेशीय चिमनीनुमा संरचना है जो नासिका गुहा के पृष्ठ भाग से आहारनली के ऊपरी भाग तक फैली हुई है।

🔶 कंठ या स्वर यंत्र :-

स्वर यंत्र/लेरिग्स :- यह कंठ ग्रसनी व श्वाँसनली को जोड़ने वाली एक छोटी सी संरचना है । यह नौ प्रकार की उपास्थि से मिल कर बना है। भोजन को निगलने के दौरान एपिग्लॉटिस स्वर यंत्र के आवरण के तौर पर कार्य करती है तथा भोजन को स्वर यंत्र  में जाने से रोकती है ।  स्वर यंत्र में स्वर –रज्जु  नामक विशेष संरचनाएँ पाई जाती है। स्वर – रज्जु श्लेष्मा झिल्लियाँ होती हैं जो हवा के बहाव से कंपकपी पैदा कर अलग-अलग तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न करती हैं।

यह श्वास नली के ऊपर व ग्रसिका के सामने उपस्थित एक नली है , जिसकी लंबाई वयस्कों में लगभग 5 cm होती है ।

कंठ में उपास्थि के वलय उपस्थित होते हैं । यह सुनिश्चित करता है कि वायु मार्ग निपतित न हो ।
श्वास नली से होकर वायु श्वसनी के माध्यम से फुफ्फुस में प्रवेश करती हैं ।


फुफ्फुस के अंदर मार्ग छोटी और छोटी नलिकाओं में विभाजित हो जाता है जो अंत में गुब्बारे जैसी रचना में अंतकृत हो जाता है जिसे कूपिका कहते हैं ।


कूपिका एक सतह उपलब्ध कराती है जिससे गैसों का विनिमय हो सकता है । कृपिकाओं की भित्ति में रुधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है ।
जब हम श्वास अंदर लेते हैं , हमारी पसलियाँ ऊपर उठती हैं और हमारा डायाफ्राम चपटा हो जाता है , इसके परिणामस्वरूप वक्षगुहिका बड़ी हो जाती है ।


इस कारण वायु फुफ्फुस के अंदर चूस ली जाती है और विस्तृत कूपिकाओं को भर लेती है ।
रुधिर शेष शरीर से कार्बन डाइऑक्साइड कूपिकाओं में छोड़ने के लिए लाता है । कूपिका रुधिर वाहिका का रुधिर कूपिका वायु से ऑक्सीजन लेकर शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाता है ।

human respiratory system
human respiratory system
human respiratory system
human respiratory system

गैसों का आदानप्रदान दो स्थानों पर सम्पन्न होता है।

  1. बाह्य श्वसन – गैसों का आदान-प्रदान वायु से भरी कूपिका तथा केशिकाओं के रक्त के बीच गैसों के  आंशिक दबाव के अन्तर के कारण होता है।
  2. आंतरिक श्वसन – इसमें गैसों का विनिमय केशिकाओं में प्रवाहित रक्त तथा ऊतकों के मध्य विसरण द्वारा होता है।
अंतः श्वसन 
अंतः श्वसन के दौरान :- 
उच्छवसन 
वृक्षीय गुहा फैलती है ।वृक्षीय गुहा अपने मूल आकार में वापिस आ जाती है । 
पसलियों से संलग्न पेशियां सिकुड़ती हैं ।पसलियों की पेशियां शिथिल हो जाती हैं । 
वक्ष ऊपर और बाहर की ओर गति करता है ।वक्ष अपने स्थान पर वापस आ जाता है । 
गुहा में वायु का दाब कम हो जाता है और वायु फेफड़ों में भरती है ।गुहा में वायु का दाब बढ़ जाता है और वायु ( कार्बन डाइऑक्साइड ) फेफड़ों से बाहर हो जाती है ।
  • अंत श्वसन : सांस द्वारा वायुमंडल से गैसों को अंदर ले जाना है।
  • उच्छवसन : फेफड़ों से वायु या गैसों को बाहर निकालना ।
  • स्थलीय जीव : श्वसन के लिए वायुमंडल से ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं।
  • जो जीव जल में रहते है: वे जल में विलेय ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं।

संवहन :-


मनुष्य में भोजन, ऑक्सीजन व अन्य आवश्यक पदार्थों की निरंतर आपूर्ति करने वाला तंत्र, संवहन तंत्र कहलाता है।

convection संवहन
संवहन

रक्त

रक्त एक तरल संयोजी ऊत्तक है, जो जीवों में कोशिकाओं तक ऑक्सीजन पोषक पदार्थो को पहुँचाता है तथा उपापचयी अपशिष्ट पदार्थो व CO2 के उत्सर्जन में मदद करता है ।

  • प्रकृति – हल्की क्षारीय
  • PH – 7.4
  • रक्त का निर्माण – लाल अस्थि मज्जा
  • भ्रूण अवस्था व नवजात शिशुओं में रक्त का निर्माण – प्लीहा
  • सामान्य व्यक्ति में रक्त की मात्रा – 5 लीटर
blood रक्त
         लाल रक्त कणिकाश्वेत रक्त कणिकाबिम्बाणु
1इसको RBC कहा जाहा हैँ।इसको WBC कहते हैं।इसको प्लेटलेट्स कहते हैं।
2रक्त कोशिकाओं का 99% होती हैं।रक्त कोशिकाओं का 1% होती हैं।रक्त में संख्या 3 लाख प्रतिधन मिमी
3औसत आयु – 120 दिनऔसत आयु – 2-4 दिनऔसत आयु – 10 दिन
4हीमोग्लोबिन पाया जाता हैं अत: इनका रंग लाल होता हैं।प्रतिरक्षा का कार्य करती है, इसलिए अर्द्धसैनिक भी कहा जाता है।रक्त का थक्का जमाने में मदद करती है।

रक्त का कार्य –

  1. O2 व CO2 का वातावरण तथा ऊत्तकों के मध्य विनिमय करना ।
  2. पोषक तत्वों का विभिन्न स्थानों तक परिवहन ।
  3. शरीर का PH नियंत्रित करना ।
  4. शरीर का ताप नियंत्रण ।
  5. प्रतिरक्षण के कार्यो को संपादित करना ।
  6. हार्मोन आदि को आवश्यकता के अनुरूप परिवहन करना ।

उत्सर्जी उत्पादों को शरीर से बाहर करना ।

blood group  रक्त समूह
  • मानव रक्त को चार समूहों में विभक्त किया जाता हैं- A, B, AB तथा O
  • A – A रक्त समूह वाले व्यक्ति की लाल कणिकाओं पर A प्रतिजन
  • B – B रक्त समूह वाले व्यक्ति की लाल कणिकाओं पर B प्रतिजन
  • AB – AB रक्त समूह वाले व्यक्ति की लाल कणिकाओं पर A व B प्रतिजन दोनों ।
  • O – O रक्त समूह वाले व्यक्ति की लाल कणिकाओं पर कोई प्रतिजन उपस्थित नहीं होता ।
  • O – सर्वदाता रक्त समूह
  • AB – सर्वग्राही रक्त समूह

रक्त के इन समूहों को ABO रक्त समूह कहा जाता है । AB प्रतिजन के अलावा लाल कणिकाओं पर एक और प्रतिजन पाया जाता है, जिसे आर एच (Rh) प्रतिजन कहते है।

Rh antigen आर एच (Rh) प्रतिजन
आर एच (Rh) प्रतिजन

 रक्त परिसंचरण :-


मनुष्यों में बंद परिसंचरण तंत्र पाया जाता है । जिसमें रक्त, ह्रदय तथा रक्त वाहिनियाँ सम्मिलित होती हैं।

रक्त के अलावा एक अन्य द्रव्य लसिका भी इस परिवहन का हिस्सा है। लसिका एक विशष्ट तंत्र – लसिका तंत्र द्वारा गमन करता हैं। यह एक खुला तंत्र है।

blood circulation रक्त परिसंचरण
रक्त परिसंचरण
  • हृदय एक पेशीय अंग है जो हमारी मुट्ठी के आकार का होता है ।
  • ऑक्सीजन प्रचुर रुधिर को कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रुधिर से मिलने को रोकने के लिए हृदय कई कोष्ठों में बँटा होता है ।
  • हृदय का दायाँ व बायाँ बँटवारा ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को मिलने से रोकने में लाभदायक होता है ।
  • मानव हृदय एक पम्प की तरह होता है जो सारे शरीर में रुधिर का परिसंचरण करता है ।
  • हृदय में उपस्थित वाल्व रुधिर प्रवाह को उल्टी दिशा में रोकना सुनिश्चित करते हैं ।

ह्दय में चार कक्ष पाए जाते है- ऊपरी दो अपेक्षाकृत छोटे होते हैं। जिसे आलिन्द कहते है तथा निचले दो कक्ष अपेक्षाकृत बडे होते हैं जिसे निलय कहते है


🔶 रक्तदाब :- रुधिर वाहिकाओं की भित्ति के विरुद्ध जो दाब लगता है उसे रक्तदाब कहते हैं ।

human heart  मानव हृदय
मानव हृदय

ह्दय की गतिविधियों की गति निर्धारित करने वाले यंत्र को पेसमेकर (गति प्रेरक) कहते है।

दोहरा रक्त परिसंचरण


इस प्रक्रिया में रक्त दो बार ह्दय से गुजरता है पहले शरीर से ह्दय में अशुद्ध रूधिर तथा फिर शुद्ध तथा फिर शुद्ध रूधिर फेफडों से ह्दय में प्रवेशित होता है। शुद्ध रूधिर तत्पश्चात् बायें निलय से महाशिरा द्वारा शरीर में वापस भेज दिया जाता है। इस प्रकार के परिसंचरण को द्विसंचरण या दोहरा रक्त परिसंचरण कहा जाता है ।

double circulation  दोहरा रक्त परिसंचरण
दोहरा रक्त परिसंचरण

रक्त वाहिकाएँ :-


शरीर में रक्त का परिसंचरण वाहिनियों द्वारा होता है। ये दो प्रकार की होती है।
1. धमनी
2. शिरा

1. धमनी :- वे वाहिकाएँ जिनमें शुद्ध रूधिर प्रवाहित होता है, धमनी कहलाती हैं। ह्दय से रक्त को विभिन्न अंगो तक पहुंचाती है।

2. शिरा :- वे वाहिकाएँ जिनमें अशुद्ध रूधिर प्रवाहित होता हैं, शिरा कहलाती है। ये रक्त को ह्दय तक वापस लेकर आने का कार्य करती है।

धमनीशिरा
(1) हृदय से रक्त को शरीर के अन्य भागों तक पहुँचाने वाली नलिका को धमनी कहते है(1) रक्त को शरीर के सभी अंगों से हृदय तक लेकर आने वाली अंगों से हृदय तक लेकर आने वाली नलिका को शिरा कहते है ।
(2) धमनी को मोटाई पतली होती है(2) शिराओं की मोटाई अधिक होती है।
(3) आन्तरिक गोलाई कम होती है(3) आन्तरिक गोलाई अधिक होती है।
(4) धमनी में शुद्ध रुधिर प्रवाह प्रवाहित होता है (फुफ्फुसीय धमनी को छोड़कर)(4) शिराओं में अशुद्ध रूधिर प्रवाहित होता है (फुफ्फुसीय शिरा को छोड़कर)

रक्तदाब (Blood Pressure) –


रक्त वाहिकाओं के विरूद्ध जो दाब (Pressure) लगता है, उसे रक्तदाब कहते है।

रक्तदाब (Blood Pressure)
रक्तदाब (Blood Pressure)

रक्तचाप –
सामान्य व्यक्ति का रक्तचाप 120/80 mm Hg होता है अथवा 120 mm पारा से 80mm पारा तक
मापक यंत्र (मापने वाले यंत्र) :- रक्तचाप मापी यंत्र (स्फाईग्मोमैनोमीटर)

लसीका:- 
लसीका एक द्रव तरल कोशिकाओं से मिलकर ऊत्तक है जो रूधिर में प्लाज्मा की तरह ही होता है परन्तु इसमें अन्यमात्रा में प्रोटीन होते हैं। जो लसीका वहन में सहायता करते है।

लसीका के कार्य :-

  • यह शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करता है तथा वहन में सहायता करता है।
  • पचा हुआ तथा क्षुद्रान्त्र (छोटी आंत) द्वारा अवशोषित वसा का परिवहन ।
  • अतिरिक्त तरल को रक्त तक ले जाने का कार्य करता है।
  • लसीका में पाए जाने लिम्फोसाइट संक्रमण के विरूद्ध लड़ते हैं।

रूधिर व लसीका में अन्तर :-

         क्र.सं.रूधिर (Blood)लसीका (Lymph)
1.इसका रंग लाल होता है।यह रंगहीन होता है।
2.इसमें लाल रक्त कणिकाएँ, श्वेत रक्त कणिकाएँ व प्लेट- लेट्स उपस्थित होती है।इसमें लाल रक्त कणिकाएँ व प्लेट्लेट्स अनुपस्थित होती हैं।
3.इसमें श्वेत रक्त कणिकाएँ (WBCs) अपेक्षाकृत कम होती हैं।इसमें श्वेत रक्त कणिकाओं (WBCs) की संख्या अधिक होती है।
4.इसमें ऑक्सीजन (O2) अधिक कार्बन-डाईऑक्साइड (CO2)  कम होती है।इसमें ऑक्सीजन (O2) कम व कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) की मात्रा अधिक होती है।
5.इसका प्रवाह हृदय से अंगों व अंगों से पुन: हृदय की ओर होता है।यह केवल अंगों से हृदय की ओर जाता है।
6.पोषक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है।पोषक पदार्थों की मात्रा कम होती है।
7.उपापचयी उत्सजी पदार्थों की मात्रा कम होती है।उपापचयी उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा अधिक होती है।
8.यह रक्त वाहिनियों (Blood Vessels) में बहता हैयह लसिका वाहिनियों (LympH Vessels) में बहता है।

पादपों में परिवहन

transport in plants  पादपों में परिवहन
पादपों में परिवहन

जायलम और फ्लोएम में अन्तर –

क्र.सं.जायलमफ्लोएम
1.पादप तंत्र का एक अवयव है जो मृदा द्वारा अवशोषित खनिज लवण व जल का वहन करते है।पत्तियों द्वारा प्रकाश संश्लेषित उत्पादों को पादपों के अन्य भागों तक पहुँचाना ।
2.यह निर्जीव ऊत्तक है।यह सजीव ऊत्तक है।
3.इसमें मुख्यत: संवहन नलिकाएँ होती है। इसमें मुख्यत: चालनी नलिकाओं द्वारा सेवहन
4.इसकी भित्ति मोटी होती हैइसकी भित्ति मोटी नहीं होती है

जायलम:- पादप तंत्र का एक अवयव है, जो मृदा से प्राप्त जल और खनिज लवणों का वहन करता है जबकि फ्लोएम पत्तियों द्वारा प्रकाश संश्लेषित उत्पादों को पौधे के अन्य भागों तक वहन करता है।

जड़ व मृदा के मध्य आयन साद्रण में अंतर के चलते जल मृदा से जड़ों में प्रवेश कर जाता है तथा इसी के साथ एक जल स्तंभ निर्माण हो जाता है, जो कि जल को लगातार ऊपर की ओर धकेलता है। यही दाब जल को ऊँचे वृक्ष के विभिन्न भागों तक पहुचाता है।
यही जल पादप के वायवीय भागों द्वारा वाष्प के रूप में वातावरण में विलीन हो जाता है, यह प्रकम वाष्पोत्सर्जन कहलाता है।

इस प्रक्रम द्वारा पौधों को निम्न रूप से सहायता मिलती है।

  • जल के अवशोषण एवं जड़ से पत्तियों तक जल तथा विलेय खनिज लवणों के उपरिमुखी गति में सहायक।
  • पोधों में ताप नियमन में भी सहायक है।

भोजन तथा दूसरे पदार्थों का स्थानान्तरण –

  • प्रकाश संश्लेषण के विलेय उत्पादों का वहन स्थानांतरण कहलाता है। जो कि फ्लोएम ऊतक द्वारा होता है।
  • स्थानांतरण पत्तियों से पौधों के शेष भागों में उपरिमुखी तथा अधोमुखी दोनों दिशाओं में होता है।
  • फ्लोएम द्वारा स्थानातरण ऊर्जा के प्रयोग से पूरा होता है। अत: सुक्रोज फ्लोएम ऊतक में ए.टी.पी. ऊर्जा से परासरण बल द्वारा स्थानांतरित होता है।

उत्सर्जन तंत्र :-


उत्सर्जन तंत्र का अर्थ है – 
शरीर से अपशिष्ट पदार्थो को बाहर निकालने की व्यवस्था अत: उत्सर्जन शरीर की वह व्यवस्था हैं जिसमें शरीर की कोशिकाओं द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट को बाहर निकाला जाता हैं।
कोई भी प्राणी उपापचयी क्रियाओं द्वारा अपशिष्ट पदार्थो जैसे अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल, कॉर्बन डाई ऑक्साइड आदि का संचय करता रहता है । इन अपशिष्ट पदार्थो को बाहर निकालना अत्यन्त आवश्यक हैं अन्यथा ये नाइट्रोजनी अपशिष्ट प्राणी शरीर में विष समान कार्य करते हैं।

Excretory system: -  उत्सर्जन तंत्र

नाइट्रोजनी अपशिष्ट तीन प्रकार के होते हैं –

  1. अमोनिया – अमोनिया उत्सर्जन अमोनियोत्सर्ग प्रक्रिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है। जैसे अस्थिल मछलियाँ, उभयचर तथा जलीय कीट इस प्रक्रिया द्वारा अमोनिया का उत्सर्जन करते है।
  2. यूरिया – मुख्यत: यूरिया उत्सर्जन स्तनधारी, समुद्री मछलियाँ आदि करते हैं। इन जीवों को यूरिया उत्सर्जी कहा जाता है ।
  3. यूरिक अम्ल – पक्षियों, सरीसृपों, कीटों आदि में अमोनिया को यूरिक अम्ल में परिवर्तित कर यूरिक अम्ल का निर्माण किया जाता है।

मानव उत्सर्जन तंत्र

मानव उत्सर्जन तंत्र के मुख्य अंग निम्न है –

  1. वृक्क
  2. मूत्राशय
  3. मूत्र वाहिनी
  4. मूत्र मार्ग
human excretory system  मानव उत्सर्जन तंत्र
मानव उत्सर्जन तंत्र

❇️ वृक्क में मूत्र निर्माण प्रक्रिया :-

🔹 वृक्क की संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई वृक्काणु कहलाती है ।

🔹 वृक्काणु के मुख्य भाग इस प्रकार हैं ।

केशिका गुच्छ ( ग्लोमेरुलस ) :- यह पतली भित्ति वाला रुधिर कोशिकाओं का गुच्छा होता है ।
बोमन संपुट
नलिकाकार भाग
संग्राहक वाहिनी


❇️ वृक्क में उत्सर्जन की क्रियाविधि :-

🔶 केशिका गुच्छ निस्यंदन :- जब वृक्क – धमनी की शाखा वृक्काणु में प्रवेश करती है , तब जल , लवण , ग्लूकोज , अमीनों अम्ल व अन्य नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थ , कोशिका गुच्छ में से छनकर वोमन संपुट में आ जाते हैं ।

🔶 वर्णात्मक पुन :- अवशोषण :- वृक्काणु के नलिकाकार भाग में , शरीर के लिए उपयोगी पदार्थों , जैसे ग्लूकोज , अमीनो अम्ल , लवण व जल का पुनः अवशोषण होता है ।

🔶 नलिका स्रावण :- यूरिया , अतिरिक्त जल व लवण जैसे उत्सर्जी पदार्थ वृक्काणु के नलिकाकार भाग के अंतिम सिरे में रह जाते हैं व मूत्र का निर्माण करते हैं । वहां से मूत्र संग्राहक वाहिनी व मूत्रवाहिनी से होता हुआ मूत्राशय में अस्थायी रूप से संग्रहित रहता है तथा मूत्राशय के दाब द्वारा मूत्रमार्ग से बाहर निकलता है ।

mechanism of renal excretion  वृक्क में उत्सर्जन की क्रियाविधि
mechanism of renal excretion

1. बोमेट सम्पुट :-
 यह नेफ्रॉन के ऊपरी भाग में पाए जाने वाला कप के आकार का थैला होता हैं। बोमेन संपुट में शाखा अभिवाही धमनियों की कोशिकाओं का एक गुच्छ पाया जाता है, जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं। ग्लोमेरूलस का एक शिरा जो बोमेन संम्पुट में अपशिष्ट युक्त गंदा रक्त लाता है तथा दूसरा हिस्सा स्वच्छ रक्त को ले जाने हेतु वृक्क शिरा से जुडा होता हैं।

2. वृक्क नलिका :- 
प्रत्येक वृक्क नलिका मे समीपस्थ नलिका, हेनले लूप, दूरस्थ नलिका जैसे भाग होते है जो अंत में संग्रह नलिका में खुलते है।

3. मूत्राशय – वृक्क से मूत्र मूत्रवाहिनी के द्वारा मूत्राशय में आता हैं। यह एक थैलीनुमा संरचना होती हैं।

4. मूत्र वाहिनी – यह एक जोड़ी के रूप में पाई जाती हैं जो मूत्र को वृक्क से मूत्राशय तक पहुचाने का कार्य करती हैं।

5. मूत्र मार्ग – इस मार्ग के द्वारा मूत्र शरीर से बाहर निकलता हैं।

urine production  मूत्र निर्माण

मूत्र निर्माण तीन प्रक्रियाओं द्वारा सम्पादित होता है ­-

  1. गुच्छीय निस्यंदन
  2. पुन: अवशोषण
  3. स्त्रावण

ये सभी कार्य वृक्क के विभिन्न हिस्सों में होते हैं। वृक्क में लगातार रक्त प्रवाहित होता रहता हैं। यह रक्त वृक्क धमनी के द्वारा लाया जाता हैं। यह रक्त अवशिष्ट पदार्थो से युक्त होता हैं। इस धमनी की शाखा नेफ्रोन में बोमेन संपुट में जाकर कोशिकाओं के गुच्छ के तौर पर परिवर्तित होती हैं।

1. गुच्छीय निस्यंदन – रक्त का निस्पंदन कार्य पूर्ण किया जाता हैं। प्रति मिनट करीब 1000-1200ml रक्त का निस्पंदन कार्य पूर्ण किया जाता हैं। यहाँ रक्त में से ग्लूकोज, लवण, एमीनो अम्ल, यूरिया आदि तत्व निस्पंदित होकर बोमेन सपुंट में एकत्र हो जाते हैं। यह निस्यंदन फिर वृक्क नलिका में से गुजरता हैं।

2. पुन: अवशोषण – वृक्क नलिका की दीवारें घनाकार उपकला कोशिकाओं से बनी होती हैं। ये कोशिकाएँ निस्यंदन में से लगभग पूर्ण ग्लूकोज, अमीनों अम्ल तथा अन्य उपयोगी पदार्थो का पुन: अवशोषित कर लेती हैं।

तत्पश्चात् इन पदार्थो को रक्त प्रवाह में पुन: प्रेषित कर दिया जाता हैं। करीब 99 प्रतिशत निस्यंदन वृक्क नलिकाओं द्वारा पुन: अवशोषित कर लिया जाता हैं। नेफ्रोन द्वारा पुन: अवशोषण पश्चात् साफ रक्त को अपवाही धमनिका संग्रहित करती हैं।

पुन: अवशोषण किए जाने वाले पदार्थो में यूरिया जैसे अपशिष्ट पदार्थ शामिल नहीं होते । ये पदार्थ वृक्क नालिकाओं में ही रहते हैं। ऐसे अपशिष्ट युक्त तरल पदार्थ ही मूत्र निर्माण करते हैं।

urine production  nephron नेफ्रोन

कृत्रिम वृक्क :- (Artificial Kidney)


कृत्रिम वृक्क (अपोहन) :- यह एक ऐसी युक्ति है जिसके द्वारा रोगियो के रुधिर में से कृत्रिम वृक्क की मदद से नाइट्रोजन युक्त अपशिष्ट पदार्थों का निष्कासन किया जाता है।

प्राय: एक स्वस्थ व्यस्क में प्रतिदिन 180 लीटर आरंभिक निस्यंदन वृक्क में होता है। जिसमें से उत्सर्जित मूत्र का आयतन 1.2 लीटर है। शेष निस्यंदन वृक्कनलिकाओं में पुनअवशोषित हो जाता है।

पादप में उत्सर्जन

  • वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया द्वारा पादप अतिरिक्त जल से छुटकारा पाते हैं।
  • बहुत से पादप अपशिष्ट पदार्थ कोशिकीय रिक्तिका में संचित रहते हैं।
  • अन्य अपशिष्ट पदार्थ (उत्पाद) रेजिन तथा गोंद के रूप में पुराने जाइलम में संचित रहते हैं।
  • पादप कुछ अपशिष्ट पदार्थों को अपने आसपास मृदा में उत्सर्जित करते हैं।
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Chapter 1 रासायनिक अभिक्रियाएँ एवं समीकरण
Chapter 2 अम्ल क्षारक एवं लवण
Chapter 3 धातु एवं अधातु
Chapter 4 कार्बन एवं उसके यौगिक
Chapter 5 तत्वों का आवर्त वर्गीकरण
Chapter 6 जैव प्रक्रम
Chapter 7 नियंत्रण एवं समन्वय
Chapter 8 जीव जनन कैसे करते हैं
Chapter 9 आनुवंशिकता एवं जैव विकास
Chapter 10 प्रकाश परावर्तन तथा अपवर्तन
Chapter 11 मानव नेत्र तथा रंगबिरंगा संसार
Chapter 12 विद्युत
Chapter 13 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव
Chapter 14 ऊर्जा के स्रोत
Chapter 15 हमारा पर्यावरण
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