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Class 10 भूगोल Chapter 1 संसाधन एवं विकास Notes in Hindi
Class 10 Social Science [ Geography ] Bhugol Chapter 1 Resources and Development Notes In Hindi
Class 10 geography Chapter 1 Resources and Development Notes PDF in Hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 10 |
Subject | भूगोल Geography |
Chapter | Chapter 1 |
Chapter Name | संसाधन एवं विकास Resources and Development |
Category | Class 10 भूगोल Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
अध्याय = 1
संसाधन एवं विकास
Class 10 सामाजिक विज्ञान
संसाधन एवं विकास
संसाधनों के प्रकार
संसाधन शब्द से तात्पर्य- मानव द्वारा प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं से है। इनको दो भागों में विभाजित किया जाता है। प्राकृतिक संसाधन और साँस्कृतिक संसाधन अर्थात् संसाधन वह स्त्रोत है। जिसका प्रयोग मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करता है। जिसे बनाने के लिए हमारे पास प्रोद्योगिकी उपलब्ध है।
संसाधनों के प्रकार:-
उत्पत्ति के आधार पर संसाधनों का विभाजन:-
- जैव संसाधन:– ऐसे संसाधन जो सजीव अवस्था में पाए जाते हैं तथा साँस ले सकते हैं, जैव संसाधन कहलाते हैं। जैसे:- मनुष्य, वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी इत्यादि।
- अजैव संसाधन:– अजैव संसाधन उन संसाधनों को कहा जाता है जो निर्जीव वस्तुओं से बने है जैसे-चट्टाने, पत्थर, मृदा, जल, वायु धातु, अधातु, इत्यादि।
समाप्यता के आधार पर संसाधनों का विभाजन:-
- नवीकरणीय संसाधन:– नवीकरणीय संसाधन उन संसाधनों को कहते हैं, जिनका फिर से निर्माण किया जा सकता है। जैसे- पानी, जल, वायु, सौर ऊर्जा, और पवन ऊर्जा।
- अनवीकरणीय संसाधन:- अनवीकरणीय संसाधन उन संसाधनों को कहते हैं, जिनका एक बार प्रयोग करने के बाद निर्माण नहीं किया जा सकता है तथा इन्हे बनने में लाखों-करोड़ों वर्ष लगते हैं। उदाहरण-जीवाश्म ईंधन का निर्माण एक लम्बे भू-वैज्ञानिक अंतराल में होता है। समाप्त हो जाने के बाद किसी भौतिक या रसायनिक क्रिया द्वारा इनका निर्माण नहीं किया जा सकता जैसे- पेट्रोल, कोयला इत्यादि।
स्वामित्व के आधार पर संसाधनों का विभाजन:-
स्वामित्व के आधार पर संसाधनों का चार भागों में वर्गीकरण किया जा सकता है:-
- व्यक्तिगत संसाधन:– वह संसाधन जिनका उपयोग व्यक्तियों के निजी स्वामित्व में किया जाता है, व्यक्तिगत संसाधन कहलाते हैं जैसे- मकान, निजी चरागाह इत्यादि।
- सामुदायिक संसाधन:– वह संसाधन जो गाँवों या शहरों में सभी व्यक्तियों के लिए उपलब्ध हो, सामुदायिक संसाधन कहलाते हैं। जैसे- सामुदायिक पार्क, सामुदायिक चरागाह, सामुदायिक नदियाँ आदि।
- राष्ट्रीय संसाधन:- वह संसाधन जो राष्ट्र की संपदा है, राष्ट्रीय संसाधन कहलाते हैं। जैसे- सरकारी जमीन, नदियाँ, तेल उत्पादित क्षेत्र इत्यादि।
- अंतर्राष्ट्रीय संसाधन:– तटरेखा से 200 समुद्री मील के बाद खुले महासागर एवं उसके अंतर्गत आने वाले संसाधन अंतर्राष्ट्रीय संसाधन कहलाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संसाधनों का प्रयोग बिना अंतर्राष्ट्रीय संसाधनों की अनुमति के नहीं किया जा सकता क्योंकि इनके प्रबंधन का अधिकार इन्ही संस्थाओं को दिया गया है।
विकास के आधार पर संसाधनों का विभाजन:-
विकास के आधार पर संसाधनों का चार भागों में वर्गीकरण किया जाता है:-
- सम्भावी संसाधन:– वह संसाधन जो विद्यमान तो है, लेकिन उनके प्रयोग की तकनीक का सही तरीके से विकास न होने के कारण इनका प्रयोग नहीं किया गया है, ऐसे संसाधन सम्भावी संसाधन कहलाते हैं। जैसे- राजस्थान और गुजरात में पवन और सौर ऊर्जा की सम्भावना है। लेकिन इनका प्रयोग पूरी तरह से नहीं किया जा रहा है।
- विकसित संसाधन:– वह संसाधन जिनके प्रयोग के लिए प्रभावी तकनीकी उपलब्ध है एवं उनके प्रयोग के लिए सर्वेक्षण, गुणवत्ता, तथा मात्रा निर्धारित की जा चुकी है, विकसित संसाधन कहलाते हैं।
- भंडार:- वह संसाधन जो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तो है, लेकिन सही तकनीकी के विकसित न होने कारण इनका प्रयोग नहीं हो पा रहा है, भंडार कहलाते हैं। जैसे- वायुमंडल में हाइड्रोजन गैस उपलब्ध है जो कि ऊर्जा का एक अच्छा स्त्रोत हो सकता है। लेकिन सही तकनीकी उपलब्ध न होने के कारण इनका प्रयोग नहीं हो पा रहा है।
- संचित संसाधन:– वह संसाधन जिनके प्रयोग के लिए तकनीकी तो उपलब्ध है, लेकिन उनका प्रयोग अभी तक आरंभ नहीं किया गया है तथा वे भविष्य में प्रयोग के लिए सुरक्षित रखे गए है, संचित संसाधन कहलाते हैं। जैसे- भारत कई नदियाँ जल का भंडार है। लेकिन उनसे विद्युत का उत्पादन अभी तक आरंभ नहीं किया गया है। भविष्य में इनके प्रयोग कि सम्भावना है।
सतत पोषणीय विकास:
– संसाधनों का ऐसा विवेकपूर्ण प्रयोग ताकि न केवल वर्तमान पीढ़ी की अपितु भावी पीढ़ियों की आवश्यकताएँ भी पूरी होती रहें, सतत् पोषणीय विकास कहलाता है।
ऐसे उपाय अथवा तकनीक जिसके द्वारा संसाधनों का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है, संसाधन नियोजन कहलाता है।
1992 में ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन के तत्वाधान में राष्ट्राध्यक्षों ने एजेंडा 21 पारित किया जिसका उद्देश्य समान हितों, पारस्परिक आवश्यकताओं एवं सम्मिलित जिम्मेदारियों के अनुसार विश्व सहयोग के द्वारा पर्यावणीय क्षति, गरीबी और रोगों से निपटना है।
महात्मा गाँधी ने कहा था:- हमारे पास व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति के लिए बहुत कुछ है, लेकिन किसी के लालच की संतुष्टि के लिए नहीं। अर्थात् हमारे पास पेट भरने के लिए बहुत कुछ है लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं।
Class 10 Geography Notes In Hindi – Class 10 भूगोल Notes
Class 10 सामाजिक विज्ञान
संसाधन एवं विकास
भू-उपयोग
भू-उपयोग के प्रकार:-
पृथ्वी के किसी क्षेत्र का मनुष्यो द्वारा प्रयोग करना ही भू-उपयोग कहलाता है।
इसके निम्नलिखित प्रकार है:- वन-वनों का हमारे जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को वृक्ष लगाने चाहिए। इसके अनेक लाभ है। जैसे:- अधिक मात्रा में बाढ़ के पानी को सोखकर जल निकासी करके घाटियों की ओर उसका मार्ग बदलकर बाढ़ को कम करना, उत्सर्जन को सोखकर वायु के शुद्धिकरण में मदद करना तथा वन प्रकृति की सुंदरता में भी योगदान देते है।
- कृषि के लिएअनुपलब्ध भूमि:- कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि को दो वर्गों में बांटा गया है:-
1. गैर कृषि प्रयोजनों में लगाई जाने वाली भूमि- इसमें भूमि का वह भाग आता है। जिसका प्रयोग कृषि के अतिरिक्त अन्य कार्यो के लिए किया जाता है जैसे-कारखानों, सड़कों, नगरों, रेलमार्गों, आदि के विकास में।
2. बंजर भूमि- यह भूमि का वह भाग है। जो कृषि के अयोग्य है। - परती भूमि:- यह भूमि का वह भाग है। जिस पर पहले से खेती की जाती थी परन्तु अब इस भूमि पर खेती नहीं की जाती है। ऐसी भूमि पर लगातार खेती करने से भूमि का उपजाऊपन समाप्त हो जाता है और यह भूमि आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं रहती। इसलिए भूमि को कुछ समय के लिए खाली छोड़ देना चाहिए। जिससे भूमि में फिर से उर्वरा शक्ति का विकास हो सके तथा यह खेती के लिए उपयुक्त हो जाए।
- परती भूमि के अतिरिक्त अन्य कृषि योग्य भूमि:- कृषि योग्य भूमि उस भूमि को कहते है जिसका उपयोग फसलों के उत्पादन में किया जाता है। इसके अंतर्गत वह सब भूमि आती है। जिसमें वार्षिक फसलें उगाई जाती है। उदाहरण- नदियों ओर समुद्रों द्वारा जमा की गई मृदा सर्वाधिक उर्वर कृषि योग्य भूमि है।
- शुद्ध बोया गया क्षेत्र:- भूमि का वह हिस्सा जिस पर फसलें उगाई व काटी जाती है, उसे शुद्ध बोया गया क्षेत्र अथवा निवल बोया गया क्षेत्र कहते है।
भू-निम्नीकरण के कारण:-
पेड़-पौधों एवं फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक प्राकृतिक तत्वों की कमी होना ही भूमि निम्नीकरण कहलाता है तथा इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी है:-
- खनन:- खनन के पश्चात खदानों को कचरों के साथ छोड़ दिया जाता है। जिससे जब वर्षा होती है या तेज हवा चलती है। तो यह कचरा बहकर भूमि में फैल जाता है और भूमि को प्रदूषित कर देता है। जिससे भूमि निम्नीकृत हो जाती है।
- अतिचारण:- पशुओं द्वारा एक ही स्थान पर चरने से घास की जड़ें कमजोर हो जाती है। जिससे भारी वर्षा एवं तेज हवा आने से मृदा अपरदित हो जाती है तथा अत्यधिक पशुचारण भूमि निम्नीकरण का कारण बनता है।
- अतिसिंचाई:- अधिक सिंचाई करने से भूमि सूखती नहीं है और न ही उस पर ठीक से जुताई होती है। जिससे मृदा निम्नीकृत हो जाती है। इसे जलाक्रांता भी कहां जाता है।
- औद्योगिक प्रदूषण:– उद्योगों से निकलने वाला कचरा नालियों के द्वारा नदियों और भूमि में फैल जाता है। जिससे भूमि प्रदूषित हो जाती है जो भूमि निम्नीकरण का कारण बनता है।
- वनोन्मूलन:– शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण वृक्षों का कटाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। जिस कारण मृदा अपरदन की समस्या सामने आयी है क्योंकि पेड़-पौधे अपनी जड़ों से भूमि को पकड़कर रखते है। साथ ही इनकी पत्तियाँ भूमि में मिलकर भूमि को उर्वर बना देती है। परन्तु वृक्षों के कटाव से भूमि निम्नीकरण में वृद्धि हुई है।
भूमि संरक्षण के उपाय:-
उन सभी उपायों एवं तरीकों को अपनाना जो भूमि की उत्पाकता को बनाये रखे।
- वनारोपण:- वृक्षों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। हम सभी को वृक्ष लगाने चाहिए। तथा शहरीकरण के कारण निरंतर बढ़ रहे। वृक्षों के कटाव को रोकना चाहिए क्योंकि वृक्ष अपनी जड़ों से मृदा को पकड़कर रखते है। जिसके कारण भूमि की प्रचुरता बनी रहती है।
- पशुचारण नियंत्रण:– पशुओं के निरंतर एक ही स्थान पर चरने से घास की जड़ें कमजोर हो जाती है। जिससे मृदा अपरदन की संभावना में वृद्धि होटी है। इसलिए हमें पशुचारण पर नियंत्रण करना चाहिए।
- रक्षक मेखला:- वृक्षों को एक कतार में लगाकर रक्षक मेखलाएँ बनाई जाती है। जिसके कारण हवा की तीव्रता को कम किया जा सकता है। इससे मिट्टी की ऊपरी सतह हवा में कम उड़ती है। तथा मृदा अपरदन की संभावना कम हो जाती
है। - खनन नियंत्रण:– जमीन के नीचे से धातुओं, अयस्कों, तथा अन्य खनिजों को खुदाई करके बाहर निकालना खनन कहलाता है। इससे मृदा अपरदित हो जाती है। खनन को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है- तेलीय खनन, जलोढ़ खनन, भूमिगत खनन।
- औद्योगिक जल का परिष्करण:– फैक्ट्रियों से निकलने वाला जल नदियों और भूमि को प्रदूषित कर देता है। अतः इसको रोकने के लिए हमें प्रभावी कानूनी कदम उठाने चाहिए।
मृदा के प्रकार:-
जमीन की ऊपरी परत पर मोटे, मध्यम, बारीक कार्बनिक तथा अकार्बनिक कणों को मृदा कहा जाता है। मृदा
को अनेक प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है।
- वन मृदा:– ये मृदाएँ आमतौर पर पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ पर्याप्त वर्षा-वन उपलब्ध हैं। इन मृदाओं के गठन में पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार बदलाव आता है। नदी घाटियों में ये मृदाएँ दोमट और सिल्टदार होती है परंतु ऊपरी ढालों पर इनका गठन मोटे कणों का होता है। हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का बहुत अपरदन होता है और ये अधिसिलिक (acidic) तथा ह्यमस रहित होती हैं। यह मृदा प्राकृतिक परिस्थितियों में विकसित होती है। अन्य मृदाओं के मुकाबले अधिक उपजाऊ है।
- लाल एवं पीली मृदा:- लाल मृदा दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में रवेदार आग्नेय चट्टानों पर कम वर्षा वाले भागों में विकसित हुई है। लाल और पीली मृदाएँ ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट में पहाड़ी पद पर पाई जाती है। इन मृदाओं का लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लौह धातु के प्रसार के कारण होता है। इनका पीला रंग इनमें जलयोजन के कारण होता है। ये मृदाएँ कपास, गेहूँ, दाल, तम्बाकू, मूंगफली की फसल के लिए सबसे उपयोगी मानी जाती है।
- जलोढ़ मृदा:- भारत में सबसे ज्यादा क्षेत्रफल में पायी जाने वाली जलोढ़ मिट्टी है। इसे दोमट मिट्टी भी कहा जाता है। इसका निर्माण बलुई एवं चिकनी मिट्टी के मिलने से हुआ है। वास्तव में संपूर्ण उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बना है। यह मृदाएँ हिमालय की तीन महत्त्वपूर्ण नदी तंत्रों सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा लाए गए निक्षेपों से बनी हैं। एक सँकरे गलियारे के द्वारा ये मृदाएँ राजस्थान और गुजरात तक फैली हैं। यह गेहूँ, धान, आलू की फसल के लिए सबसे उपयोगी मृदा मानी जाती है।
- काली मृदा:- भारत में जलोढ़ मृदा के बाद सबसे अधिक उपयोग काली मृदा का किया जाता है। इसका निर्माण ज्वालामुखी के उदगार एवं बेसाल्ट चट्टान के निर्माण से हुआ है। इन मृदाओं का रंग काला है और इन्हें रेगर मृदाएँ भी कहा जाता है। काली मृदा कपास की खेती के लिए उचित समझी जाती है। काली कपास मृदा के नाम से भी जाना जाता है।
- लेटराइट मृदा:– लेटराइट शब्द ग्रीक भाषा के शब्द लेटर (Later) से लिया गया है जिसका अर्थ है ईंट। लेटराइट मृदा का निर्माण उष्णकटिबंधीय तथा उपोषण कटिबंधीय जलवायु क्षेत्रों में आर्द्र तथा शुष्क ऋतुओं के एक के बाद एक आने के कारण होता है। यह भारी वर्षा से अत्यधिक निक्षालन (leaching) का परिणाम है। लेटराइट मृदा अधिकतर गहरी तथा अम्लीय (pH < 6.0) होती है। यह चाय,कॉफी,और काजू की फसल के लिए सबसे उपयोगी मृदा है।
- मरुस्थलीय मृदा:- मरुस्थली मृदाओं का रंग लाल और भूरा होता है। ये मृदाएँ आम तौर पर रेतीली और लवणीय होती हैं। कुछ क्षेत्रों में नमक की मात्रा इतनी अधिक है कि झीलों से जल वाष्पीकृत करके खाने का नमक भी बनाया जाता है। ज्वार, तिलहन, बाजरा, और रागी की फसल के लिए उपयोगी मानी जाती है।
संसाधन और विकास Notes || Class 10 Social Science
Class 10 सामाजिक विज्ञान
संसाधन एवं विकास
मृदा का वर्गीकरण
मृदा का वर्गीकरण:
मृदा अथवा मिट्टी सबसे महत्वपूर्ण नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन है।
• यह पौधों के विकास का माध्यम है जो पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के जीवों का पोषण करती है।
मृदा का वर्गीकरण
मृदा बनने की प्रक्रिया को निर्धारित करने वाले तत्वों, उनके रंग, गहराई, गठन, आयु व रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर भारत की मृदाओं को निम्नलिखित प्रकारों में बाँटा जा सकता है-
• जलोढ़ मृदा:
→ संपूर्ण उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बना है।
→ पूर्वी तटीय मैदान विशेषकर महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टे भी जलोढ़ मृदा से बने हैं|
→ अधिकतम उपजाऊ होने के कारण जलोढ़ मृदा वाले क्षेत्रों में गहन कृषि की जाती है जिससे यहाँ जनसँख्या घनत्व भी अधिक है।
→ अधिकतर जलोढ़ मृदाएँ पोटाश, फास्फोरस और चूनायुक्त होती हैं, जो इसे गन्ने, चावल, गेंहूँ और अन्य अनाजों और दलहन फसलों की खेती के लिए उपयुक्त बनाती हैं।
• काली मृदा:
→ इन मृदाओं का रंग काला है और इन्हें ‘रेगर’ मृदाएँ भी कहा जाता है।
→ काली मृदा कपास की खेती के लिए उचित समझी जाती है और इसे काली कपास मृदा के नाम से भी जाना जाता है।
→ ये मृदाएँ महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पत्थर पर पाई जाती हैं और दक्षिण-पूर्वी दिशा में गोदावरी और कृष्णा नदियों की घाटियों तक फैली है।
→ काली मृदा बहुत महीन कणों अर्थात् मृत्तिका से बनी हैं।
→ इनकी नमी धारण करने की क्षमता बहुत होती है।
→ ये मृदाएँ कैल्सियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूने जैसे पौष्टिक तत्वों से परिपूर्ण होती हैं।
• लाल और पीली मृदा:
→ लाल मृदा दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में रवेदार आग्नेय चट्टानों पर कम वर्ष वाले भागों में विकसित हुई हैं।
→ लाल और पीली मृदाएँ उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट क्षेत्रों में पहाड़ी पद पर पाई जाती है।
→ इन मृदाओं का लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लौह धातु के प्रसार के कारण होता है।
• लेटराइट मृदा:
→ लेटराइट मृदा उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है।
→ ये मृदाएँ मुख्य तौर पर कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और उड़ीसा तथा असम के पहाड़ी क्षेत्र में पाई जाती है।
→ इस मृदा पर अधिक मात्रा में खाद और रासायनिक उर्वरक डालकर ही खेती की जा सकती है।
→ इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा कम पाई जाती है क्योंकि अत्यधिक तापमान के कारण जैविक पदार्थों को अपघटित करने वाले बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं।
• मरूस्थली मृदा:
→ ये मृदाएँ मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान में पाई जाती हैं।
→ इस मृदा को सही तरीके से सिंचित करके कृषि योग्य बनाया जा सकता है।
→ शुष्क जलवायु और उच्च तापमान के कारण जलवाष्प दर अधिक है और मृदाओं में ह्यूमस और नमी की मात्रा कम होती है।
→ नमक की मात्रा अधिक पाए जाने के कारण झीलों से जल वाष्पीकृत करके खाने का नमक भी बनाया जाता है।
• वन मृदा:
→ ये मृदाएँ आमतौर पर पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ पर्याप्त वर्षा-वन उपलब्ध है।
→ इन मृदाओं के गठन में पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार बदलाव आता है।
→ नदी घाटियों में ये मृदाएँ दोमट और सिल्टदार होती हैं, परन्तु ऊपरी ढालों पर इनका गठन मोटे कणों का होता है।
→ नदी घाटियों के निचले क्षेत्रों, विशेषकर नदी सोपानों और जलोढ़ पंखों, आदि में ये मृदाएँ उपजाऊ होती हैं।
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Class 10 सामाजिक विज्ञान
संसाधन एवं विकास
मृदा अपरदन
मृदा अपरदन तथा इसके कारण:-
भूमि की ऊपरी परत जो जल या वायु के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान पर चली जाती है उसे मृदा अपरदन या मिट्टी का कटाव कहते हैं। ऐसा रेगिस्तान में बहुत अधिक होता है वहाँ पर मिट्टी वायु के साथ बहुत अधिक मात्रा में एक स्थान से दूसरे स्थान पर चली जाती है।
समाधान:-
मृदा अपरदन को रोकना बहुत आवश्यक है तथा अनेक तरीके अपनाकर मृदा अपरदन या मिट्टी के कटाव को रोका जा सकता है। ताकि मिट्टी की प्रचुरता बनी रहे।
- ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के समानंतर हल चलाने से:– ढाल वाली जमीन पर समोच्च रेखाओं के समानांतर हल चलाने से ढाल के साथ-साथ पानी के बहाव की तीव्रता कम हो जाती है। जिससे मृदा अपरदन या मिट्टी का कटाव कम होता है ऐसी जुताई को समोच्च रेखीय जुताई कहा जाता हैं। यह जुताई मुख्यतः हिमालय के क्षेत्रों एवं आंतरिक पहाड़ी भागों में की जाती है।
- ढाल वाली भूमि पर सीढी बना कर कृषि करने से:- ढाल वाली जमीन पर सीढ़ी बनाकर कृषि करने से जल के बहाव की तीव्रता को कम किया जा सकता है। जिससे मृदा का अपरदन या मिट्टी का कटाव कम होता है। यह कृषि मुख्यतः हिमालय के क्षेत्रों में की जाती है।
- बड़े खेतों को पट्टिटयों में बांट कर फसलों के बीच में धास की पट्टी उगाकर:– निचले इलाकों में जहाँ पर तेज पानी के बहाव की सम्भावना होती है। वहाँ पर फसलों के बीच में घास लगायी जाती है। इसी घास कि पट्टी से तेज पानी के बहाव को कम किया जा सकता है इस कारण मृदा का अपरदन या मिट्टी के कटाव को कम किया जा सकता है। यह युक्ति पहाड़ी क्षेत्रों एवं मैदानी इलाकों में अधिक लाभकारी है।
- खेत के चारों तरफ वृक्षों को कतार में लगातार एक मेखला बनाना:– वृक्षों को एक कतार में लगाकर मेखला बनाई जाती है। इस मेखला से हवा की तीव्रता को कम किया जा सकता है। जिससे मिट्टी की ऊपरी सतह हवा से कम उड़ती है अर्थात मृदा अपरदन कम होता है। वृक्षों द्वारा बनी यह मेखला शुष्क एवं मरुस्थलीय इलाकोंं में बहुत ही कारगर रही है।
- वृक्षारोपण:- जैसा कि हम जानते हैंं वनों के कटाव के कारण मृदा अपरदन में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। इसे रोकने के लिए सरकार को अनेक कानून बनाने चाहिए और वनों के कटाव पर रोक लगा देनी चाहिए ताकि मृदा अपरदन को रोका जा सके।
- अति पशुचारण को नियंत्रित करना:- पशुओं को किसी स्थान पर सीमित मात्रा में चराना चाहिए। ताकि वहाँ पर उगी घास कि जड़ें मृदा में बनी रहे लेकिन बहुत से राज्यों और शहरो में इस प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है और वह जमीन की सारी घास चर जाते हैं। जिसके कारण घास की जड़ें कमजोर हो जाती है तथा जमीन जल और वायु के साथ बहकर आगे चली जाती है।
कारण:- मृदा अपरदन के लिए अनेक कारण उत्तरदायी है:-
- अति पशुचारण:– पशुओं को एक ही स्थान पर लगातार चराने से घास की जड़ें कमजोर हो जाती है जिसके कारण मृदा अपरदन होता है।
- निर्माण व खनन प्रक्रिया:- सड़कों, रेल मार्गों, इमारतों, भवनों और खनिज को जमीन से निकालने के लिए खुदाई की जाती है। इन सब मानवीय कारकों के द्वारा भी मृदा अपरदन होता है।
- प्राकृतिक तत्व जैसे, पवन, हिमनद और जल कृषि के गलत तरीकें (जुताई के तरीके):- प्राकृतिक कारकों के कारण भी मृदा का अपरदन होता है।
पवन- बंजर या वनस्पति विहीन इलाकों में पवन की गति तीव्र होती है। जिसके कारण मृदा का अपरदन होता है। राजस्थान में इस प्रकार का अपरदन देखने को मिलता है।
हिमनद- बर्फीली नदियाँ अपने मार्ग में या आस-पास के इलाकों में मिट्टी का कटाव करती है। ऊँचे पर्वतीय इलाकों में इस प्रकार का अपरदन होता है।
जल- जल मृदा अपरदन का महत्वपूर्ण कारक है। भारी मात्रा में वर्षा तथा मिट्टी के द्वारा नदियों के द्वारा मिट्टी का कटाव हो जाता है। जिससे भूमि अपरदित हो जाती है।
कृषि- गलत तरीके से जुताई एवं कृषि के वैज्ञानिक तरीकों के कारण भी मृदा अपरदन होता है। - पवन द्वारा मैदान अथवा ढालू क्षेत्र में मृदा को उड़ा ले जाना:- पवन द्वारा मैदानी इलाकों एवं ढालू क्षेत्रों में मिट्टी को आसानी से उड़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने से भी मृदा का अपरदन होता है। राजस्थान में इस प्रकार का अपरदन अक्सर देखने को मिलता है।
भू-उपयोग:-
पृथ्वी के जिस भाग का मनुष्यो द्वारा प्रयोग किया जाता है, उसे भूमि उपयोग कहते हैं। यह भूमि पर होने वाले आर्थिक क्रियाकलापों को सूचित करते हुए वन भूमि, कृषि भूमि, परती भूमि, चरागाह भूमि,आदि वर्गों में बाँटा जाता है।
- शुद्ध बोया गया क्षेत्र:- भूमि का वह क्षेत्र जिस पर फसलें उगाई और काटी जाती है, उसे शुद्ध बोया गया क्षेत्र कहते हैं।
- परती भूमि: भूमि का वह भाग जिस पर पहले खेती की जाती है। उसके बाद उपजाऊ भूमि की उपजाऊ शक्ति कम होने के कारण इसे खाली छोड़ दिया जाता है, ऐसी भूमि को परती भूमि कहते हैं।
- अन्य कृषि अयोग्य भूमि:– जिस भूमि के सभी पोषक तत्व समाप्त हो चुके हो, उसे बंजर भूमि कहते हैं। कारण- पानी के निकास की समुचित व्यवस्था का न होना,बरसात कम तथा तापमान का ज्यादा होना, भूमिगत जल का ऊँचाई पर होना, वनों का कटाव, भूमि को काफी समय तक परती छोड़ना।
- कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि:– गैर कृषि प्रयोजनों में प्रयोग की जाने वाली भूमि कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि कहलाती है। जैसे- सड़कें, इमारतें आदि।
- वन:- वह स्थान जहाँ पर वृक्ष भारी मात्रा में लगाए जाते हैं।
भारत में सबसे अधिक कौन सी मृदा पाई जाती है ? इसका निर्माण किस प्रकार हुआ ?
उत्तर- जलोढ़ मृदा | इसका निर्माण दीयों द्वारा लाए गए अवसादों से हुआ है |
महाराष्ट्र, सौराष्ट्र और मालवा में कौन सी मृदा पाई जाती है ? इस मृदा का निर्माण किस प्रकार हुआ ?
उत्तर- काली मृदा! इसका निर्माण ज्वालामुखी के मैग्मा तथा आग्नेय शैलों के द्वारा हुआ है |
मृदा निर्माण की प्रक्रिया में किन्हीं दो महत्वपूर्ण कारक लिखी ?
उत्तर-
उच्चावच
जनक शैल
जलवायु
वनस्पति
संस्तर शैलें
ह्यूमस
समय
भारत में पाई जाने वाली विभिन्न मृदाओं में किन्हीं दी के नाम लिखी।
उत्तर-
जलोढ़ मृदा
काली मृदा
लाल व पीली मृदा
लैटेराइट मृदा
मरूस्थलीय मृदा
वन मृदा
वन मृदा की दो विशेषताएँ लिखी?
उत्तर-
नदी घाटियों में मृदा दोमट तथा सिल्टदार परंतु ऊपरी ढलानों पर इनका गठन मोटे कणों द्वारा।
हिमालय के हिम क्षेत्रों में ये अधिसिलिक तथा हयूमस रहित
मरूस्थलीय मृदा की दो विशेषताएँ बताइए?
उत्तर-
रंग लाल और भूरा
रेतीली और लवणीय
हयूमस और नमी की मात्रा कम।
पृथ्वी सम्मेलन 1992 का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर- पर्यावरण संरक्षण तथा सामाजिक आर्थिक विकास की समस्याओं का हल दूढ़ना।
एजेंडा 21 क्या है ?
उत्तर- एक कार्यसूची है, जिसका उद्देश्य समान हितों, पारस्परिक आवश्यकताओं एवं सम्मिलित जिम्मेदारियों के अनुसार विश्व सहयोग के द्वारा पर्यावरणीय क्षति, गरीबी और रोगों से निपटना।
किन्हीं दो राज्यों के नाम बताइए जहाँ सोपानी कृषि (सीढ़ीदार कृषि) की जाती है ?
उत्तर- जम्मू व कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम।
ऐसी दो मानवीय क्रियाएँ लिखें जिनके द्वारा भूमि का निम्नीकरण होता है ?
उत्तर-
अति पशुचारण
वनोन्मूलन
खनन
अत्यधिक भौमजल का निष्कासन
Class 10 Geography Notes In Hindi – Class 10 भूगोल Notes
NCERT Class 6 to 12 Notes in Hindi
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Author: NCERT
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