#2024 Class 10 Science Chapter 12 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव Notes PDF in Hindi

प्रिय विद्यार्थियों आप सभी का स्वागत है आज हम आपको सत्र 2024-25 के लिए Class 10 Science Chapter 12 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव Notes PDF in Hindi कक्षा 10 विज्ञान नोट्स हिंदी में उपलब्ध करा रहे हैं |Class 10 Vigyan Ke Notes PDF Chapter 11 Vidyut Dhaaraa Ke Chunbakiiy Prabhaava Notes

10 Class Science Chapter 12 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव notes in hindi

📚 Chapter = 12 📚
💠 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव 💠
सत्र 20
24-25

Table of Contents

TextbookNCERT
ClassClass 10
Subjectविज्ञान
ChapterChapter 12
Chapter Nameविद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव
CategoryClass 10 Science Notes
MediumHindi

अध्याय एक नजर में Class 10 Science Chapter 12

Class 10 विज्ञान
पुनरावृति नोट्स
विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव


सारांश

  • दिक्सूची एक छोटा चुंबक होता है। इसका एक सिरा जो उत्तर की ओर संकेत करता है उत्तर ध्रुव कहलाता है, तथा दूसरा सिरा जो दक्षिण की ओर संकेत करता है दक्षिण ध्रुव कहलाता है।
  • किसी चुंबक के चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र होता है जिसमें उस चुंबक के बल का संसूचन किया जा सकता है।
  • किसी चुंबकीय क्षेत्र के निरूपण के लिए चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का उपयोग किया जाता है। चुंबकीय क्षेत्र रेखा वह पथ है जिसके अनुदिश कोई परिकल्पित स्वतंत्र उत्तर ध्रुव गमन करने की प्रवृत्ति रखता है। चुंबकीय क्षेत्र के किसी बिंदु पर क्षेत्र की दिशा उस बिंदु पर रखे उत्तर ध्रुव की गति की दिशा द्वारा दर्शायी जाती है। जहाँ चुंबकीय क्षेत्र प्रबल होता है, वहाँ क्षेत्र रेखाएँ एक-दूसरे के निकट दिखाई जाती हैं।
  • किसी विद्युत धारावाही धातु के तार से एक चुंबकीय क्षेत्र संबद्ध होता है। तार के चारों ओर क्षेत्र रेखाएँ अनेक संकेंद्री वृत्तों के रूप में होती हैं जिनकी दिशा दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम द्वारा ज्ञात की जाती है।
  • विद्युत चुंबक में नर्म लौह-क्रोड होता है जिसके चारों ओर विद्युतरोधी ताँबे के तार की कुंडली लिपटी रहती है।
  • कोई विद्युत धारावाही चालक चुंबकीय क्षेत्र में रखे जाने पर बल का अनुभव करता है। यदि चुंबकीय क्षेत्र तथा विद्युत धारा की दिशाएँ परस्पर एक-दूसरे के लंबवत हैं तब चालक पर आरोपित बल की दिशा इन दोनों दिशाओं के लंबवत होती है, जिसे फ्लेमिंग के वामहस्त नियम द्वारा प्राप्त किया जाता है।
  • विद्युत मोटर एक ऐसी युक्ति है जो विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतरित करती है।
  • वैद्युतचुंबकीय प्रेरण एक ऐसी परिघटना है जिसमें किसी कुंडली में, जो किसी ऐसे क्षेत्र में स्थित है जहाँ समय के साथ चुंबकीय क्षेत्र परिवर्तित होता है, एक प्रेरित विद्युत धारा उत्पन्न होती है।
  • चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन किसी चुंबक तथा उसके पास स्थित किसी कुंडली के बीच आपेक्षित गति के कारण हो सकता है। यदि कुंडली किसी विद्युत धारावाही चालक के निकट रखी है तब कुंडली से संबद्ध चुंबकीय क्षेत्र या तो चालक से प्रवाहित विद्युत धारा में अंतर के कारण हो सकता है अथवा चालक तथा कुंडली के बीच आपेक्षित गति के कारण हो सकता है। प्रेरित विद्युत धारा की दिशा फ्लेमिंग के दक्षिण-हस्त नियम द्वारा प्राप्त की जाती है।
  • विद्युत जनित्र यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित करता है। यह वैद्युतचुंबकीय प्रेरण के आधार पर कार्य करता है।
  • हम अपने घरों में प्रत्यावर्ती विद्युत शक्ति 220 V पर प्राप्त करते हैं जिसकी आवृत्ति 50 Hz है। आपूर्ति का एक तार लाल विद्युतरोधन युक्त होता है जिसे विद्युन्मय तार कहते हैं।
  • दूसरे पर काला विद्युतरोधन होता है जिसे उदासीन तार कहते हैं। इन दोनों तारों के बीच 220 V का विभवांतर होता है। तीसरा तार भूसंपर्क तार होता है जिस पर हरा विद्युतरोधन होता है।
  • यह तार भूमि में गहराई पर दबी धातु की प्लेट से संयोजित होता है। भूसंपर्कण एक सुरक्षा उपाय है जो यह सुनिश्चित करता है कि साधित्र के धात्विक आवरण में यदि विद्युत धारा का कोई भी क्षरण होता है तो उस साधित्र का उपयोग करने वाले व्यक्ति को गंभीर झटका न लगे।
  • विद्युत परिपथों की लघुपथन अथवा अतिभारण के कारण होने वाली हानि से सुरक्षा की सबसे महत्वपूर्ण युक्ति फ़्यूज़ है।

Chapter 12 – Magnetic Effects of Electric Currentin Notes In Hindi

CBSE कक्षा 10 विज्ञान
पाठ-12 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव

Science | Class 10th | विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव

इस अध्याय में हम पढ़ेगे कि विद्युत धारा के अन्य प्रभाव क्या हो सकते है।

हैंस क्रिश्चियन आँस्टेंड (1777-1851)
आँस्टेड ने यह प्रमाणित किया कि विद्युत तथा चुम्बकत्व एक दूसरे से संबंध रखते हैं। उनकी इस खोज का उपयोग अनेक प्रौद्योगिक जैसे रेडियो, टेलीविजन में किया गया।
उन्ही के सम्मान में चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता का मात्रक आँस्टेंड (Oersted) रखा गया।

XY ताँबें का सीधा मोटा तार (चालक) है।
इस ताँबे के तार के निकट एक छोटी दिक्सूचक रखिए। जब परिपक्ष में विद्युत धारा प्रवाहित होती है और जैसे ही विद्युत धारा XY ताँबे की तार में से प्रवाहित होगी वैसे ही पास में रखे दिक्सूचक की सुई विक्षेपित हो जाती है। अगर हम विद्युत धारा की दिशा बदल दे, तो दिक्सूचक की सुई की दिशा भी बदल जाएगी। अगर प्लग में कुंजी हटाकर परिपथ में विद्युत धारा प्रवाहित न की जाए, तो दिक्सूचक की सुई भी विक्षेपित नहीं होगी।
अर्थात हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि विद्युत तथा चुम्बकत्व एक दूसरे से संबंधित होते है। किसी चालक तार में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर, तार के चारों और चुम्बकीय क्षेत्र स्थापित हो जाता है।

चुम्बकीय क्षेत्र– किसी चुम्बक के चारो और का वह क्षेत्र जहाँ उसके कारण चुम्बकीय आकर्षण या प्रतिकर्षण होता है उसे चुम्बक का चुम्बकीय क्षेत्र कहते है। यह एक सदिश राशि है। जिसकी दिशा और परिणाम दोनों होता है।

दिक्सूचक यह एक छोटी सी चुम्बकीय छड़ है। जिसकी सूई का उत्तर, पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव और दक्षिण, पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव की और दर्शाता है।

चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ: जब एक छड़ चुम्बक को ड्राइगबोर्ड पर रखेंगे और उसके चारो और लोह-चूर्ण फैलाएगें। तो लौह चूर्ण स्वयं को दर्शाए गए पैटर्न में व्यवस्थित कर लेता हैं।
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वह रेखाएं जिनके अनुदिश लौह चूर्ण स्वयं सरिखित होता है, चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं को दर्शाती हैं। या किसी स्थान पर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा वह दिशा है जिसमें एक छोटी चुम्बकीय सुई को रखने पर सुई उत्तरी ध्रुव पर निशान लगाएँ, इस प्रकार चुम्बकीय क्षेत्र को रेखाओं में निरूपित किया जा सकता है।

चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं के गुण:- Chumbakiiy Kshetr Rekhaaon Ke Guṇ

परिपाटी के अनुसार चुम्बक के बाहर चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएं चुम्बक के उत्तर धुव्र से प्रकट होती हैं तथा दक्षिण ध्रुव पर विलीन हो जाती है चुबंक के भीतर ये रेखाएं दक्षिण ध्रुव से उत्तर ध्रुव की और जाती है। अतः चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएं एक बंद वक्र होती है।

चुम्बकीय क्षेत्र की प्रबलता, रेखाओं की निकटता पर निर्भर करता है। जहाँ चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ अधिक निकट होती हैं वहाँ चुम्बकीय क्षेत्र प्रबल होगा और निकटता कम होगी वहाँ चुम्बकीय क्षेत्र दुर्बल होता है।

दो चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ कही भी एक दूसरे को प्रतिच्छेद (काटा) नहीं करती। अगर वे ऐसा करे तो प्रतिच्छेद बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र को दो दिशाएँ होगी, जो कि असंभव है।

किसी विद्युत धारावाही चालक के कारण चुम्बकीय क्षेत्र

एक सरल विद्युत परिपथ जिसमें किसी लंबे ताँबे के तार को किसी दिक् सूची के ऊपर तथा उसकी सुई के सामांतर रखा गया है।
हम देखेगे कि जब तार में विद्युत धारा की दिशा उत्क्रमित होती है तो दिसुची सुई का विक्षेपन विपरीत दिशा में होता है।
अर्थात किसी धातु के चालक में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर उसके चारों और एक चुम्बकीय क्षेत्रा उत्पन्न हो जाता

दक्षिण हस्त अंगुष्ठ नियम- Dakshiṇ Hast AmgushṬH Niyama


किसी विद्युत धारावाही चालक से सम्बन्ध चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा ज्ञात करने का एक सरल उपाय हैं। अपने दाहिने हाथ का अंगुठा इस प्रकार पकड़े कि वह विद्युत धारा की दिशा दिखाए और अंगुलियां चालक के चारों और चुम्बकीय क्षेत्र की रेखाओं को दर्शाती हैं।

इसे मैक्सवेल का कॉर्क स्क्रू नियम भी कहते हैं।

सीधे चालक से विद्युत धारा प्रवाहित होने के कारण चुम्बकीय क्षेत्र-

चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा दक्षिण दिशा हस्त अगुष्ण नियम से पता लगाई जा सकती है।

विद्युत धारावाही वृत्ताकार पाश के कारण चुम्बकीए क्षेत्र



सीधी रेखा वृताकार पाश का आगे का हिस्सा हैं और ऐसी ……………. रेखा पाश का पीछे का हिस्सा दर्शाता हैं।
विद्युत धारावाही तार के प्रत्येक बिंदु से उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएं पाश के केन्द्र पर सरल रेखा जैसी प्रतीत होती है। दक्षिण हस्त अंगुष्ठ का नियम लगाकर हम तार के प्रत्येक भाग पर चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा ज्ञात कर सकते है।

परिनालिका :- पास-पास लिपटे विद्युतरोधी तांबे के तार की बेलन की आकृति की अनेक फेरों वाली कुंडली को परिनालिका कहते है।

परिनालिका में प्रवाहित विद्युत धारा के कारण चुम्बकीय क्षेत्र


दक्षिण हस्त अंगुष्ठ नियम के द्वारा हम परिनालिका में प्रवाहित विद्युत धारा के कारण उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा ज्ञात कर सकते हैं।
वास्तव में परितालिका का एक सिरा उत्तर ध्रुव तथा दूसरा सिरा दक्षिण ध्रुव की भाँति व्यवहार करता है।
परिनालिका के भीतर चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ समांतर सरल रेखाओं की भाँति होती हैं। अर्थात परिनालिका के अंदर एक समान चुम्बकीय क्षेत्र होता है।

विद्युत चुम्बक: परिनालिका के भीतर उत्पन्न प्रबल चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग किसी चुम्बकीय पदार्थ जैसे नर्म लोहे को परिनालिका के भीतर रखकर चुम्बक बनाने में किया जा सकता है। इस प्रकार चुम्बक को विद्युत चुम्बक कहते है।

चुम्बकीय क्षेत्र में किसी विद्युत धारावाही चालक पर बल


आंद्रे मैरी एम्पियर (1775-1836) ने विचार प्रस्तुत किया कि चुम्बक को भी विद्युत धारावाही चालक पर परिमाण में समान परंतु विपरीत दिशा में बल आरोपित करना चाहिए।
प्रयोग-
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विद्युत धारावाही छड़ AB अपनी लंबाई तथा चुम्बकीय क्षेत्र के लंबवत् एक बल अनुभव करती है। अगर धारावाही छड़ में विद्युत धारा की दिशा बदल दी जाए तो आरोपित बल की दिशा भी बदल जाती है।
अगर चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा उनके ध्रुव बदल कर बदल दी जाए, तो भी आरोपित बल की दिशा बदल जाएगी।
अर्थात आरोपित बल की दिशा निर्भर करती हैं।

विद्युत धारा की दिशा पर

चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा पर

फ्लेमिंग का वामहस्त नियम Phleming Kaa Vaamahast Niyama

अंगूठा (Th)umb

तर्जनी उंगली (F)ore Finger

मध्यमा उंगली (M)iddle Finger

Thrust (बल)

Field (चुम्बकीय क्षेत्र)

Motion विद्युत धारा

  • से तीनों राशि एक दूसरे के लम्बवत् होती हैं।
    इस नियम के अनुसार अपने बांए हाथ की तर्जनी मध्यमा तथा अंगूठे को इस प्रकार फैलाए, कि ये एक-दूसरे के परस्पर लंबवत हो। जिसमें-
    तर्जनी उंगली – चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा बताती है।
    मध्यमा उंगली- चालक में प्रवाहित विद्युत धारा की दिशा बताती है।
    तो अंगूठा – चालक पर आरोपित बल की दिशा बताता है।
    विद्युत मोटर- एक ऐसी घुर्णन युक्ति, जो फ्लेमिंग वाम हस्त नियम के अनुसार कार्य करता है। यह विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित करता है।
    माइकेल फैराडे- ने विद्युत चुंबकीय प्रेरण का नियम दिया।
    गैल्वनोमीटर- यह एक ऐसा उपकरण है जो किसी परिपथ में विद्युत धारा की उपस्थिति दर्शाता है। यदि धारा शून्य है तो संकेतन (needle) शून्य पर होती है। यदि धारा प्रवाहित होती है तो संकेतन दांए या बांए दिशा में विक्षेपित हो सकता हैं, धारा की दिशा के अनुसार। इसका चिन्ह

    विद्युत चुम्बकीय प्रेरण- इस नियम को हम दो क्रियाकलापों द्वारा समझा सकते हैं।
    प्रथम क्रियाकलपा-

    इस प्रयोग में अगर चुम्बकीय छड़ का उत्तरी ध्रुव कुंडली के पास लाते हैं या दूर ले जाते हैं, तो हमें गैल्वनोमीटर के संकेतन में विक्षेपण दिखाई देगा जो शून्य के इधर-उधर होगा। पहले दाएं तो बाद में बाएं।
    इसी प्रकार, अगर हम छड़ को स्थिर रखें और कुंडली को चुम्बक की तरफ या उसे दूर करें तो भी हमें संकेतन विक्षेपित होता दिखेगा। परन्तु अगर दोनों को न हिलाएं अर्थात स्थिर रखें तो गैल्वैनोमीटर का संकेतन शून्य पर रहेगा।
    यह प्रयोग छड़ चुम्बक के दक्षिणी ध्रुव से भी दोहराया जा सकता है। परन्तु अब संकेतन की दिशा पहले प्रयोग की तुलना में बदल जाएगी।
    इसी प्रयोग से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जब चुम्बक को या कुंडली को, किसी एक को दूसरे की तुलना में गति प्रदान की जाए तो चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की प्रबलता पर प्रभाव पड़ेगा, जिससे चुम्बकीए क्षेत्र परिवर्तित हो रहा हैं। इस परिवर्तन के कारण कुंडली के परिपथ में विद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। जिसे गैल्वेनोमीटर की सुई के विक्षेपण द्वारा दर्शाया जाता है। द्वितीय क्रियाकलाप-

    इस प्रयोग में प्राथमिक कुंडली में प्रवाहित विद्युत धारा को परिवर्तित किया जा सकता (कुंजी बंद करके या खोल कर), जिसके कारण चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होता है। इसके कारण द्वितीयक कुंडली के चारों ओर की चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएं भी परिवर्तित होती है। जिसके कारण द्वितीयक कुंडली में विद्युत धारा प्रेरित होती है। इसे विद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहते हैं।
  • विद्युत चुम्बकीय प्रेरण- वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी (प्राथमिक) चालक के परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र के कारण अन्य (द्वितीयक) चालक में विद्युत धारा प्रेरित होती है, विद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहलाता है।
    जब कुंडली (चालक) की गति की दिशा चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत् होती है तब कुंडली में उत्पन्न प्रेरित विद्युत धारा अधिकतम होती हैं।
  • विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी (प्राथमिक) चालक के परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र के कारण अन्य (द्वितीयक) चालक में विद्युत धारा प्रेरित होती है, विद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहलाता है।
    जब कुंडली (चालक) की गति की दिशा चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत् होती हैं तब कुंडली में उत्पन्न प्रेरित विद्युत धारा अधिकतम होती हैं।
  • फ्लैंमिंग का दक्षिण हस्त नियम

अंगूठा

तर्जनी उंगली

मध्यमा उंगली

चालक की गति

चुम्बकीय क्षेत्र

चालक में प्रेरित विद्युत् धारा

  • ये तीनों राशि एक दूसरे के लंबवत् होती है।
  • इस नियम के अनुसार-
    अपने दाहिने हाथ की तर्जनी, मध्यमा तथा अंगुठे को इस प्रकार फैलाइए कि ये तीनों एक-दूसरे के परस्पर लंबवत् हो। यदि
    तर्जनी उंगली- चुंबकीय क्षेत्र की दिशा बताती है तथा अंगुठी- चालक की गति की दिशा की ओर संकेत करता हैं तो मध्यमा उंगली- प्रेरित विद्युत धारा की दिशा बताती हैं।
    विद्युत जनित्र- की कार्य प्रणाली इस नियम पर आधारित है। जनित्र यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है।
  • विद्युत धारा
    • प्रत्यावर्ती विद्युत धारा- ऐसी विद्युतधारा जो समान काल अंतरालों के पश्चात् अपनी दिशा बदलती है।
    • दिष्ट विद्युत धारा- यह धारा सदैव एक ही दिशा में बहती है।

      आवर्ती – OHz
      आवर्ती (भारत में) 50Hz, (अमेरिका में) 60Hz

विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव नोट्स PDF

दिष्ट धारा की तुलना में प्रत्यवर्ती धारा का लाभ


विद्युत शक्ति को सुदूर स्थानों पर बिना अधिक ऊर्जा क्षय के प्रेषित किया जा सकता है।
भारत में AC की आवर्ती 50Hz है यानि हर 1/100s के पश्चात् प्रत्यावर्ती धारा अपनी दिशा बदलती हैं।


घरेलू विद्युत परिपथ


हमारे घरों में जो विद्युत शक्ति प्राप्त होती है। उसका विभवांतर 220V है और आवर्ती-50Hz है। विद्युत शक्ति की आपूर्ति के तीन तारों का उपयोग होता है।

विद्युन्मय तार (जिस पर लाल विद्युतरोधी आवरण होता है) इसका विभव उच्च होता है 220V (धनात्मक तार)

उदासीन तार (जिस पर काला विद्युतरोधी आवरण होता है, इसका विभव निम्न होता है। 220V (ऋणात्मक तार)
हमारे देश में इन दोनों तारों के बीच का विभवांतर 220V है।

भूसंपर्क तार(जिस पर हरा विद्युत रोधी आवरण होता है) यह तार घर के निकट भूमि के भीतर बहुत गहराई पर स्थित तांबे की प्लेट से जुड़ी हुई है।
इस तार का उपयोग विद्युत इस्त्री, टोस्टर, फ्रिज इत्यादि धातु के आवरण वाले विद्युत साधित्रों में सुरक्षा के उपाय के रूप में किया जाता हैं।
भूसंपर्क तार विद्युत धारा के लिए अल्प प्रतिरोध का चालन पथ प्रस्तुत करता हैं। अगर किसी विद्युत साधिों की धात्विक आवरण से विद्युत धारा का क्षय होता है तो साधित्र का विभव भूमि के विभव के बराबर हो जाएगा, और इसे उपयोग करने वाला व्यक्ति तीव्र विद्युत आघात से बच जाता है।
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घरेलू विद्युत परिपथ से सम्बंधित कुछ मुख्य बातें

हर साधित्र (उपकरण) के लिए अलग-अलग ON/OFF स्विच होता हैं।

सभी साधित्रों को बराबर विभवांतर प्राप्त हो, इसलिए विद्युत परिपथ में उन्हें पार्श्वक्रम में जोड़ना चाहिए। इस प्रकार वे कभी भी प्रयोग में जाए जा सकते हैं या नहीं।

हमारे घरेलू विद्युत परिपथ को दो विद्युत परिपथ में बांटा जाता है।

एक जिसमें 15A की विद्युत धारा प्रवाहित होती है जिसका उपयोग उच्च शक्ति उपकरणों के लिए किया जाता हैं।
जैसे- फ्रीज, गीजर इत्यादि

दूसरा परिपथ, जिसमें 5A की विद्युत धारा प्रवाहित होती है। जिसका उपयोग निम्न शक्ति उपकरणों के लिए किया जाता है।
जैसे- पंखा, बल्व इत्यादि।

  • लघु पथन- यह तब होता है जब विद्युन्मय तार और उदासीन तार, विद्युत साधित्रों में खराबी के कारण या विद्युन्मय तार के विद्युतरोधी आवरण के कटन-फटने के कारण एक दूसरे के संपर्क में आ जाती हैं।
  • लघुपथन कैसे होता है?
    जब तारों का विद्युत रोधन क्षतिग्रस्त हो जाता हैं या साधित्र में कोई दोष होता है तब परिपथ में विद्युत धारा एकदम बहुत अधिक हो जाती है। जूल के तापिय प्रभाव के कारण (���2) जिसकी वजह से विद्युन्मय तार में स्पार्क पैदा हो जाता है और साधित्र खराब हो सकते हैं या तार खराब हो सकती हैं।
  • अतिभारण- एक ही साकेट में कई साधित्र संयोजित करने से या वोल्टता में अधिक वृद्धि होने के कारण अतिभारत हो जाता है।
  • अगर किसी विद्युत साधित्र द्वारा प्राप्त विद्युत धारा उसकी क्षमता से अधिक हो जाती है तो विघुन्मय तार गर्म हो जाती हैं। इसे अतिभारण कहते हैं।
    फ्यूज एक ऐसा सुरक्षा यंत्र है जो लघुपथन और अतिभारत जैसी समस्या से बचाता है।

अतिरिक्त जानकारी Extra Notes

चुंबकीय क्षेत्र और क्षेत्र रेखाएँ

किसी छड़ चुंबक के निकट लाने पर दिक्सूचक की सुई विक्षेपित हो जाती है। वास्तव में दिक्सूचक की सुई एक छोटा छड़ चुंबक ही होती है। किसी दिक्सूचक की सुई के दोनों सिरे लगभग उत्तर और दक्षिण दिशाओं की ओर संकेत करते हैं। उत्तर दिशा की ओर संकेत करने वाले सिरे को उत्तरोमुखी ध्रुव अथवा उत्तर ध्रुव कहते हैं। दूसरा सिरा जो दक्षिण दिशा की ओर संकेत करता है उसे दक्षिणोमुखी ध्रुव अथवा दक्षिण ध्रुव कहते हैं।


चुंबक अपने चारों ओर के क्षेत्र में अपना प्रभाव आरोपित करता है। अतः लौह-चूर्ण एक बल का अनुभव करता है। इसी बल के कारण लौह-चूर्ण इस प्रकार के पैटर्न में व्यवस्थित हो जाता है। किसी चुंबक के चारों ओर का वह क्षेत्र जिसमें उसके बल का संसूचन किया जा सकता है, उस चुंबक का चुंबकीय क्षेत्र कहलाता है। वह रेखाएँ जिनके अनुदिश लौह-चूर्ण स्वयं संरेखित होता है, चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का निरूपण करती हैं।


चुंबकीय क्षेत्र एक ऐसी राशि है जिसमें परिमाण तथा दिशा दोनों होते हैं। किसी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा वह मानी जाती है जिसके अनुदिश दिक्सूची का उत्तर ध्रुव उस क्षेत्र के भीतर गमन करता है। इसीलिए परिपाटी के अनुसार चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ चुंबक के उत्तर ध्रुव से प्रकट होती हैं तथा दक्षिण ध्रुव पर विलीन हो जाती हैं (चित्र में चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं पर अंकित तीर के निशानों पर ध्यान दीजिए)। चुंबक के भीतर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा उसके दक्षिण ध्रुव से उत्तर ध्रुव की ओर होती है। अतः चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ एक बंद वक्र होती हैं।

चुंबकीय क्षेत्र की आपेक्षिक प्रबलता को क्षेत्र रेखाओं की निकटता की कोटि द्वारा दर्शाया जाता है। जहाँ पर चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ अपेक्षाकृत अधिक निकट होती हैं वहाँ चुंबकीय क्षेत्र अधिक प्रबल होता है, अर्थात वहाँ पर विद्यमान किसी अन्य चुंबक के ध्रुव पर चुंबकीय क्षेत्र के कारण अधिक बल कार्य करेगा (चित्र देखिए)।
दो क्षेत्र रेखाएँ कहीं भी एक-दूसरे को प्रतिच्छेद नहीं करतीं। यदि वे ऐसा करें तो इसका यह अर्थ होगा कि प्रतिच्छेद बिंदु पर दिक्सूची को रखने पर उसकी सुई दो दिशाओं की ओर संकेत करेगी जो संभव नहीं हो सकता।

Class 10 विज्ञान
पुनरावृति नोट्स
विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव
किसी विद्युत धारावाही चालक के कारण चुंबकीय क्षेत्र

किसी धातु के चालक में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर उसके चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र की दिशा को ज्ञात करने के लिए इसे क्रियाकलाप ढंग से करा गया है।

सीधे चालक से विद्युत धारा प्रवाहित होने के कारण चुंबकीय क्षेत्र


सुई के विक्षेप में भी परिवर्तन होता है। वास्तव में, जब विद्युत धारा के परिमाण में वृद्धि होती है तो विक्षेप में भी वृद्धि होती है। इससे यह निर्दिष्ट होता है कि जैसे-जैसे तार में प्रवाहित विद्युत धारा के परिमाण में वृद्धि होती है तो किसी दिए गए बिंदु पर उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र के परिमाण में भी वृद्धि हो जाती है।



चित्र (a) किसी विद्युत धारावाही सीधे चालक तार के चारों ओर के चुंबकीय क्षेत्र की क्षेत्र रेखाओं को निरूपित करता संकेंद्री वृत्तों का पैटर्न। वृत्तों पर अंकित तीर क्षेत्र रेखाओं की दिशाओं को दर्शाते हैं (b) प्राप्त पैटर्न का समीप दृश्य
वास्तव में, जब विद्युत धारा के परिमाण में वृद्धि होती है तो विक्षेप में भी वृद्धि होती है।

इससे यह निर्दिष्ट होता है कि जैसे-जैसे तार में प्रवाहित विद्युत धारा के परिमाण में वृद्धि होती है तो किसी दिए गए बिंदु पर उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र के परिमाण में भी वृद्धि हो जाती है।
यदि ताँबे के तार में प्रवाहित विद्युत धारा तो वही रहती हैं परंतु दिक्सूची ताँबे के तार से दूर चला जाता है, तब हम दिक्सूची को चालक तार से दूर स्थित किसी बिंदु (जैसे Q) पर रख देते हैं। हम यह देखते हैं कि दिक्सूची का विक्षेप घट जाता है।

इस प्रकार किसी चालक से प्रवाहित की गई विद्युत धारा के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र चालक से दूर जाने पर घटता है। चित्र से यह देखा जा सकता है कि जैसे-जैसे विद्युत धारावाही सीधे चालक तार से दूर हटते जाते हैं, उसके चारों ओर उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र को निरूपित करने वाले संकेंद्री वृत्तों का साइज़ बड़ा हो जाता है।

दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम


किसी विद्युत धारावाही चालक से संबद्ध चुंबकीय क्षेत्र की दिशा ज्ञात करने का एक सुगम उपाय नीचे दिया गया है।
कल्पना कीजिए कि आप अपने दाहिने हाथ में विद्युत धारावाही चालक को इस प्रकार पकड़े हुए हैं कि आपका अँगूठा विद्युत धारा की दिशा की ओर संकेत करता है, तो आपकी अँगुलियाँ चालक के चारों ओर चुंबकीय धारा क्षेत्र की क्षेत्र रेखाओं की दिशा में लिपटी होंगी जैसा कि चित्र में दर्शाया गया है। इसे दक्षिण-हस्त (दायाँ हाथ) अंगुष्ठ* नियम कहते हैं।

विद्युत धारावाही वृत्ताकार पाश के कारण चुंबकीय क्षेत्र


किसी सीधे विद्युत धारावाही चालक के कारण उसके चारों ओर उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का पैटर्न देखा है। किसी विद्युत धारावाही चालक के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र उससे दूरी के व्युत्क्रम पर निर्भर करता है।

इसी प्रकार किसी विद्युत धारावाही पाश के प्रत्येक बिंदु पर उसके चारों ओर उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र को निरूपित करने वाले संकेंद्री वृत्तों का साइज़ तार से दूर जाने पर निरंतर बड़ा होता जाता है (चित्र)।

जैसे ही हम वृत्ताकार पाश के केंद्र पर पहुँचते हैं, इन बृहत् वृत्तों के चाप सरल रेखाओं जैसे प्रतीत होने लगते हैं। विद्युत धारावाही तार के प्रत्येक बिंदु से उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ पाश के केंद्र पर सरल रेखा जैसी प्रतीत होने लगती हैं। दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम को लागू करके इस बात की आसानी से जाँच की जा सकती है कि तार का प्रत्येक भाग चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं में योगदान देता है तथा पाश के भीतर सभी चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ एक ही दिशा में होती हैं।

किसी विद्युत धारावाही तार के कारण किसी दिए गए बिंदु पर उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र प्रवाहित विद्युत धारा पर अनुलोमतः निर्भर करता है। अतः यदि हमारे पास n फेरों की कोई कुंडली हो तो उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र परिमाण में एकल फेरे द्वारा उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र की तुलना में n गुना अधिक प्रबल होगा। इसका कारण यह है कि प्रत्येक फेरे में विद्युत धारा के प्रवाह की दिशा समान है, अतः व्यष्टिगत फेरों के चुंबकीय क्षेत्र संयोजित हो जाते हैं।

परिनालिका में प्रवाहित विद्युत धारा के कारण चुंबकीय क्षेत्र


पास-पास लिपटे विद्युतरोधी ताँबे के तार की बेलन की आकृति की अनेक फेरों वाली कुंडली को परिनालिका कहते हैं। किसी विद्युत धारावाही परिनालिका के कारण उसके चारों ओर उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का पैटर्न चित्र (a) में दर्शाया गया है।

इस चुंबकीय क्षेत्र के पैटर्न की तुलना चित्र (b) में दर्शाए गए छड़ चुंबक के चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के पैटर्न से कीजिए। वास्तव में परिनालिका का एक सिरा उत्तर ध्रुव तथा दूसरा सिरा दक्षिण ध्रुव की भाँति व्यवहार करता है। परिनालिका के भीतर चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ समांतर सरल रेखाओं की भाँति होती हैं। यह निर्दिष्ट करता है कि किसी परिनालिका के भीतर सभी बिंदुओं पर चुंबकीय क्षेत्र समान होता है। अर्थात परिनालिका के भीतर एकसमान चुंबकीय क्षेत्र होता है।

परिनालिका के भीतर उत्पन्न प्रबल चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग किसी चुंबकीय पदार्थ, जैसे नर्म लोहे, को परिनालिका के भीतर रखकर चुंबक बनाने में किया जा सकता है (चित्र)। इस प्रकार बने चुंबक को विद्युत चुंबक कहते हैं।

चित्र: किसी विद्युत धारावाही परिनालिका का उपयोग उसके भीतर रखी स्टील की छड़ को चुंबकित करने में किया जाता है-एक विद्युत चुबंक

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विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव
चुंबकीय क्षेत्र में किसी विद्युत धारावाही चालक पर बल

किसी चालक में प्रवाहित विद्युत धारा चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करती है। इस प्रकार उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र इस चालक के निकट रखे किसी चुंबक पर कोई बल आरोपित करता है। फ्रांसीसी वैज्ञानिक आंद्रे मैरी ऐम्पियर (1775-1836) ने यह विचार प्रस्तुत किया कि चुंबक को भी विद्युत धारावाही चालक पर परिमाण में समान परंतु दिशा में विपरीत बल आरोपित करना चाहिए।


छड़ के विस्थापन से हमें यह संकेत मिलता है कि चुंबकीय क्षेत्र में रखने पर ऐलुमिनियम की विद्युत धारावाही छड़ पर एक बल आरोपित होता है। और यह भी संकेत मिलता है कि चालक में प्रवाहित विद्युत धारा की दिशा उत्क्रमित करने पर बल की दिशा भी उत्क्रमित हो जाती है। अब चुंबक के ध्रुवों को परस्पर बदल कर चुंबकीय क्षेत्र की दिशा ऊर्ध्वाधरतः अधोमुखी कीजिए।

एक बार पुन: यह दिखाई देता है कि विद्युत धारावाही छड़ पर आरोपित बल की दिशा उत्क्रमित हो जाती है। इससे यह प्रदर्शित होता है कि चालक पर आरोपित बल की दिशा विद्युत धारा की दिशा और चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दोनों पर निर्भर करती है।

प्रयोगों द्वारा यह देखा गया है कि छड़ में विस्थापन उस समय अधिकतम (अथवा छड़ पर आरोपित बल का परिणाम उच्चतम) होता है जब विद्युत धारा की दिशा चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत होती है। ऐसी स्थिति में चालक पर आरोपित बल की दिशा का पता हम एक सरल नियम द्वारा लगा सकते हैं।

विद्युत धारावाही छड़ AB अपनी लंबाई तथा चुंबकीय क्षेत्र के लंबवत एक बल का अनुभव करती है। सरलता के लिए, चुंबक की टेक नहीं दर्शाई गई है।

हमने विद्युत धारा की दिशा और चुंबकीय क्षेत्र की दिशा को परस्पर लंबवत रखकर विचार किया था और यह पाया कि चालक पर आरोपित बल की दिशा इन दोनों के लंबवत है। इन तीनों दिशाओं की व्याख्या एक सरल नियम जिसे फ्लेमिंग का वामहस्त (बायाँ हाथ ) नियम कहते हैं, द्वारा की जा सकती है। इस नियम के अनुसार, अपने बाएँ हाथ की तर्जनी, मध्यमा तथा अँगूठे को इस प्रकार फैलाइए कि ये तीनों एक-दूसरे के परस्पर लंबवत हों (चित्र)। यदि तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा और मध्यमा चालक में प्रवाहित विद्युत धारा की दिशा की ओर संकेत करती है तो अँगूठा चालक की गति की दिशा अथवा चालक पर आरोपित बल की दिशा की ओर संकेत करेगा।

विद्युत मोटर, विद्युत जनित्र, ध्वनि विस्तारक यंत्र, माइक्रोफ़ोन तथा विद्युत मापक यंत्र कुछ ऐसी युक्तियाँ हैं जिनमें विद्युत धारावाही चालक तथा चुंबकीय क्षेत्रों का उपयोग होता है।

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विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव


विद्युत मोटर

विद्युत मोटर एक ऐसी घूर्णन युक्ति है जिसमें विद्युत ऊर्जा का यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतरण होता है। एक महत्वपूर्ण अवयव के रूप में विद्युत मोटर का उपयोग विद्युत पंखों, रेफ्रिज़रेटरों, विद्युत मिश्रकों, वाशिंग मशीनों, कंप्यूटरों, MP3 प्लेयरों आदि में किया जाता है।


चित्र में दर्शाए अनुसार विद्युत मोटर में विद्युतरोधी तार की एक आयताकार कुंडली ABCD होती है। यह कुंडली किसी चुंबकीय क्षेत्र के दो ध्रुवों के बीच इस प्रकार रखी होती है कि इसकी भुजाएँ AB तथा CD चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत रहें। कुंडली के दो सिरे विभक्त वलय के दो अर्धभागों P तथा Q से संयोजित होते हैं। इन अर्ध भागों की भीतरी सतह विद्युतरोधी होती है तथा धुरी से जुड़ी होती है। P तथा Q के बाहरी चालक सिरे क्रमशः दो स्थिर चालक ब्रुशों X तथा Y से स्पर्श करते हैं (चित्र)।

बैटरी से चलकर चालक ब्रुश X से होते हुए विद्युत धारा कुंडली ABCD में प्रवेश करती है तथा चालक ब्रुश Y से होते हुए बैटरी के दूसरे टर्मिनल पर वापस भी आ जाती है। ध्यान दीजिए, कुंडली में विद्युत धारा इसकी भुजा AB में A से B की ओर तथा भुजा CD में C से D की ओर प्रवाहित होती है। अतः, AB तथा CD में विद्युत धारा की दिशाएँ परस्पर विपरीत होती हैं।

चुंबकीय क्षेत्र में रखे विद्युत धारावाही चालक पर आरोपित बल की दिशा ज्ञात करने के लिए फ्लेमिंग का वामहस्त नियम (देखिए चित्र) अनुप्रयुक्त करने पर हम यह पाते हैं कि भुजा AB पर आरोपित बल इसे अधोमुखी धकेलता है, जबकि भुजा CD पर आरोपित बल इसे उपरिमुखी धकेलता है।

इस प्रकार किसी अक्ष पर घूमने के लिए स्वतंत्र कुंडली तथा धुरी वामावर्त घूर्णन करते हैं। आधे घूर्णन में Q का संपर्क ब्रुश X से होता है तथा P का संपर्क ब्रुश Y से होता है। अतः, कुंडली में विद्युत धारा उत्क्रमित होकर पथ DCBA के अनुदिश प्रवाहित होती है।

वह युक्ति जो परिपथ में विद्युत धारा के प्रवाह को उत्क्रमित कर देती है, उसे दिक्परिवर्तक कहते हैं। विद्युत मोटर में विभक्त वलय दिक्परिवर्तक का कार्य करता है। विद्युत धारा के उत्क्रमित होने पर दोनों भुजाओं AB तथा CD पर आरोपित बलों की दिशाएँ भी उत्क्रमित हो जाती हैं। इस प्रकार कुंडली की भुजा AB जो पहले अधोमुखी धकेली गई थी, अब उपरिमुखी धकेली जाती है,

तथा कुंडली की भुजा CD जो पहले उपरिमुखी धकेली गई, अब अधोमुखी धकेली जाती है। अतः, कुंडली तथा धुरी उसी दिशा में अब आधा घूर्णन और पूरा कर लेती हैं। प्रत्येक आधे घूर्णन के पश्चात विद्युत धारा के उत्क्रमित होने का क्रम दोहराता रहता है जिसके फलस्वरूप कुंडली तथा धुरी का निरंतर घूर्णन होता रहता है।


व्यावसायिक मोटरों में (i) स्थायी चुंबकों के स्थान पर विद्युत चुंबक प्रयोग किए जाते हैं, (ii) विद्युत धारावाही कुंडली में फेरों की संख्या अत्यधिक होती है तथा (iii) कुंडली नर्म लौह-क्रोड पर लपेटी जाती है। वह नर्म लौह-क्रोड जिस पर कुंडली को लपेटा जाता है तथा कुंडली दोनों मिलकर आर्मेचर कहलाते हैं। इससे मोटर की शक्ति में वृद्धि हो जाती है।

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वैद्युतचुंबकीय प्रेरण

जब कोई विद्युत धारावाही चालक किसी चुंबकीय क्षेत्र में इस प्रकार रखा जाता है कि चालक में प्रवाहित विद्युत धारा की दिशा चुंबकीय क्षेत्र के लंबवत हो तो वह चालक एक बल का अनुभव करता है। इस बल के कारण वह चालक गति करने लगता है।

अब हम एक ऐसी स्थिति की कल्पना करते हैं जिसमें कोई चालक किसी चुंबकीय क्षेत्र में गति कर रहा है अथवा किसी स्थिर चालक के चारों ओर का चुंबकीय क्षेत्र परिवर्तित हो रहा है। इसका सर्वप्रथम अध्ययन सन् 1831 ई. में माइकेल फैराडे ने किया था। फैराडे की इस खोज ने कि ‘किसी गतिशील चुंबक का उपयोग किस प्रकार विद्युत धारा उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता है’ वैज्ञानिक क्षेत्र को एक नयी दिशा प्रदान की।

(चुंबक को कुंडली की ओर ले जाने पर कुंडली के परिपथ में विद्युत धारा उत्पन्न होती है, जिसे गैल्वेनोमीटर की सुई के विक्षेप द्वारा इंगित किया जाता है।)
चुंबक के दक्षिण ध्रुव को कुंडली के B सिरे की ओर गति कराते हैं तो गैल्वेनोमीटर में विक्षेपण पहली स्थिति (जिसमें उत्तर ध्रुव का उपयोग किया गया था) के विपरीत होगा।

जब कुंडली तथा चुंबक दोनों स्थिर होते हैं तब गैल्वेनोमीटर में कोई विक्षेपण नहीं होता अतः यह स्पष्ट है कि कुंडली के सापेक्ष चुंबक की गति एक प्रेरित विभवांतर उत्पन्न करती है, जिसके कारण परिपथ में प्रेरित विद्युत धारा प्रवाहित होती है।


गैल्वनोमीटर एक ऐसा उपकरण है जो किसी परिपथ में विद्युत धारा की उपस्थिति संसूचित करता है। यदि इससे प्रवाहित विद्युत धारा शून्य है तो इसका संकेतक शून्य (पैमाने के मध्य में) पर रहता है। यह अपने शून्य चिह्न के या तो बाईं ओर अथवा दाईं ओर विक्षेपित हो सकता है, यह विक्षेप विद्युत धारा की दिशा पर निर्भर करता है।

जैसे ही कुंडली- 1 में विद्युत धारा स्थायी होती है, कुंडली-2 से संयोजित गैल्वेनोमीटर कोई विक्षेप नहीं दर्शाता।

इन प्रेक्षणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि जब भी कभी कुंडली-1 में प्रवाहित विद्युत धारा के परिमाण में परिवर्तन होता है (विद्युत धारा आरंभ अथवा समाप्त होती है) तो कुंडली- 2 में एक विभवांतर प्रेरित होता है।

कुंडली-1 को प्राथमिक कुंडली तथा कुंडली-2 को द्वितीयक कुंडली कहते हैं। जैसे ही प्रथम कुंडली में प्रवाहित विद्युत धारा में परिवर्तन होता है। इससे संबद्ध चुंबकीय क्षेत्र भी परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार द्वितीयक कुंडली के चारों ओर की चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ भी परिवर्तित होती हैं। अतः द्वितीयक कुंडली से संबद्ध चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं में परिवर्तन ही उसमें प्रेरित विद्युत धारा उत्पन्न होने का कारण होता है। वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी चालक के परिवर्ती चुंबकीय क्षेत्र के कारण अन्य चालक में विद्युत धारा प्रेरित होती है,

वैद्युतचुंबकीय प्रेरण कहलाता है। व्यवहार में हम किसी कुंडली में प्रेरित विद्युत धारा को या तो उसे किसी चुंबकीय क्षेत्र में गति कराकर अथवा उसके चारों ओर के चुंबकीय क्षेत्र को, परिवर्तित करके, उत्पन्न कर सकते हैं। अधिकांश परिस्थितियों में चुंबकीय क्षेत्र में कुंडली को गति कराकर प्रेरित विद्युत धारा उत्पन्न करना अधिक सुविधाजनक होता है।

जब कुंडली की गति की दिशा चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत होती है तब कुंडली में उत्पन्न प्रेरित विद्युत धारा अधिकतम होती है। इस स्थिति में प्रेरित विद्युत धारा की दिशा ज्ञात करने के लिए हम एक सरल नियम का उपयोग कर सकते हैं।

इस नियम के अनुसार, “अपने दाहिने हाथ की तर्जनी, मध्यमा तथा अँगूठे को इस प्रकार फैलाइए कि ये तीनों एक-दूसरे के परस्पर लंबवत हों (चित्र)। यदि तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा की ओर संकेत करती है तथा अँगूठा चालक की गति की दिशा की ओर संकेत करता है तो मध्यमा चालक में प्रेरित विद्युत धारा की दिशा दर्शाती है।” इस सरल नियम को फ्लेमिंग का दक्षिण-हस्त नियम कहते हैं।

***

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विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव


विद्युत जनित्र

वैद्युतचुंबकीय प्रेरण की परिघटना पर आधारित जिन प्रयोगों का हमने अध्ययन किया, उनमें उत्पन्न प्रेरित विद्युत धारा का परिमाण प्राय: बहुत कम होता है। इस सिद्धांत का उपयोग घरों तथा उद्योगों के लिए अत्यधिक परिमाण की विद्युत धारा उत्पन्न करने में भी किया जाता है। विद्युत जनित्र में यांत्रिक ऊर्जा का उपयोग चुंबकीय क्षेत्र में रखे किसी चालक को घूर्णी गति प्रदान करने में किया जाता है जिसके फलस्वरूप विद्युत धारा उत्पन्न होती है।

चित्र में दर्शाए अनुसार विद्युत जनित्र में एक घूर्णी आयताकार कुंडली ABCD होती है जिसे किसी स्थायी चुंबक के दो ध्रुवों के बीच रखा जाता है। इस कुंडली के दो सिरे दो वलयों R1 तथा R2 से संयोजित होते हैं। दो स्थिर चालक ब्रुशों B1 तथा B2 को पृथक्-पृथक् रूप से क्रमशः वलयों R1 तथा R2 पर दबाकर रखा जाता है।

दोनों वलय R1 तथा R2 भीतर से धुरी से जुड़े होते हैं। चुंबकीय क्षेत्र के भीतर स्थित कुंडली को घूर्णन गति देने के लिए इसकी धुरी को यांत्रिक रूप से बाहर से घुमाया जा सकता है। दोनों ब्रुशों के बाहरी सिरे, बाहरी परिपथ में विद्युत धारा के प्रवाह को दर्शाने के लिए गैल्वेनोमीटर से संयोजित होते हैं।


जब दो वलयों से जुड़ी धुरी को इस प्रकार घुमाया जाता है कि कुंडली की भुजा AB ऊपर की ओर (तथा भुजा CD नीचे की ओर), स्थायी चुंबक द्वारा उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र में, गति करती है तो कुंडली चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं को काटती है। मान लीजिए कुंडली ABCD को चित्र में दर्शायी व्यवस्था में, दक्षिणावर्त घुमाया जाता है।

तब फ्लेमिंग का दक्षिण-हस्त नियम लागू करने पर इन भुजाओं में AB तथा CD दिशाओं के अनुदिश प्रेरित विद्युत धाराएँ प्रवाहित होने लगती हैं। इस प्रकार, कुंडली में ABCD दिशा में प्रेरित विद्युत धारा प्रवाहित होती है।

यदि कुंडली में फेरों की संख्या अत्यधिक है तो प्रत्येक फेरे में उत्पन्न प्रेरित विद्युत धारा परस्पर संकलित होकर कुंडली में एक शक्तिशाली विद्युत धारा का निर्माण करती है। इसका तात्पर्य यह है कि बाह्य परिपथ में B2 से B1 की दिशा में विद्युत धारा प्रवाहित होती है।
अर्धघूर्णन के पश्चात भुजा CD ऊपर की ओर तथा भुजा AB नीचे की ओर जाने लगती है।

फलस्वरूप इन दोनों भुजाओं में प्रेरित विद्युत धारा की दिशा परिवर्तित हो जाती है और DCBA के अनुदिश नेट प्रेरित विद्युत धारा प्रवाहित होती है। इस प्रकार, अब बाह्य परिपथ में B1 से B2 की दिशा में विद्युत धारा प्रवाहित होती है। अतः, प्रत्येक आधे घूर्णन के पश्चात क्रमिक रूप से इन भुजाओं में विद्युत धारा की ध्रुवता परिवर्तित होती रहती है।

ऐसी विद्युत धारा जो समान काल-अंतरालों के पश्चात अपनी दिशा में परिवर्तन कर लेती है, उसे प्रत्यावर्ती धारा (संक्षेप में ac) कहते हैं। विद्युत उत्पन्न करने की इस युक्ति को प्रत्यावर्ती विद्युत धारा जनित्र (ac जनित्र) कहते हैं।


दिष्ट धारा (अर्थात dc जिसमें समय के साथ दिशा में परिवर्तन नहीं होता) प्राप्त करने के लिए विभक्त वलय प्रकार के दिक्परिवर्तक का उपयोग किया जाता है। इस व्यवस्था के साथ एक ब्रुश सदैव ही उस भुजा के संपर्क में रहता है जो चुंबकीय क्षेत्र में ऊपर की ओर गति करती है जबकि दूसरा ब्रुश सदैव नीचे की ओर गति करने वाली भुजा के संपर्क में रहता है।

हम विभक्त वलय दिक्परिवर्तक की कार्य प्रणाली विद्युत मोटर देख चुके हैं (देखिए चित्र)। इस प्रकार, इस व्यवस्था के साथ एक दिशिक विद्युत धारा उत्पन्न होती है। इस प्रकार के जनित्र को दिष्ट धारा (dc) जनित्र कहते हैं।

दिष्ट धारा तथा प्रत्यावर्ती धारा के बीच यह अंतर है कि दिष्ट धारा सदैव एक ही दिशा में प्रवाहित होती है, जबकि प्रत्यावर्ती धारा एक निश्चित काल-अंतराल के पश्चात अपनी दिशा उत्क्रमित करती रहती है।

आजकल जितने विद्युत शक्ति संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं उनमें से अधिकांश में प्रत्यावर्ती विद्युत धारा का उत्पादन होता है। भारत में उत्पादित प्रत्यावर्ती विद्युत धारा हर 1100� के पश्चात अपनी दिशा उत्क्रमित करती है, अर्थात इस प्रत्यावर्ती धारा (ac) की आवृत्ति 50Hz है। dc की तुलना में ac का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि विद्युत शक्ति को सुदूर स्थानों पर बिना अधिक ऊर्जा क्षय के प्रेषित किया जा सकता है।

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विद्युत जनित्र

वैद्युतचुंबकीय प्रेरण की परिघटना पर आधारित जिन प्रयोगों का हमने अध्ययन किया, उनमें उत्पन्न प्रेरित विद्युत धारा का परिमाण प्राय: बहुत कम होता है। इस सिद्धांत का उपयोग घरों तथा उद्योगों के लिए अत्यधिक परिमाण की विद्युत धारा उत्पन्न करने में भी किया जाता है। विद्युत जनित्र में यांत्रिक ऊर्जा का उपयोग चुंबकीय क्षेत्र में रखे किसी चालक को घूर्णी गति प्रदान करने में किया जाता है जिसके फलस्वरूप विद्युत धारा उत्पन्न होती है।

चित्र में दर्शाए अनुसार विद्युत जनित्र में एक घूर्णी आयताकार कुंडली ABCD होती है जिसे किसी स्थायी चुंबक के दो ध्रुवों के बीच रखा जाता है। इस कुंडली के दो सिरे दो वलयों R1 तथा R2 से संयोजित होते हैं। दो स्थिर चालक ब्रुशों B1 तथा B2 को पृथक्-पृथक् रूप से क्रमशः वलयों R1 तथा R2 पर दबाकर रखा जाता है। दोनों वलय R1 तथा R2 भीतर से धुरी से जुड़े होते हैं।

चुंबकीय क्षेत्र के भीतर स्थित कुंडली को घूर्णन गति देने के लिए इसकी धुरी को यांत्रिक रूप से बाहर से घुमाया जा सकता है। दोनों ब्रुशों के बाहरी सिरे, बाहरी परिपथ में विद्युत धारा के प्रवाह को दर्शाने के लिए गैल्वेनोमीटर से संयोजित होते हैं।


जब दो वलयों से जुड़ी धुरी को इस प्रकार घुमाया जाता है कि कुंडली की भुजा AB ऊपर की ओर (तथा भुजा CD नीचे की ओर), स्थायी चुंबक द्वारा उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र में, गति करती है तो कुंडली चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं को काटती है। मान लीजिए कुंडली ABCD को चित्र में दर्शायी व्यवस्था में, दक्षिणावर्त घुमाया जाता है।

तब फ्लेमिंग का दक्षिण-हस्त नियम लागू करने पर इन भुजाओं में AB तथा CD दिशाओं के अनुदिश प्रेरित विद्युत धाराएँ प्रवाहित होने लगती हैं। इस प्रकार, कुंडली में ABCD दिशा में प्रेरित विद्युत धारा प्रवाहित होती है।

यदि कुंडली में फेरों की संख्या अत्यधिक है तो प्रत्येक फेरे में उत्पन्न प्रेरित विद्युत धारा परस्पर संकलित होकर कुंडली में एक शक्तिशाली विद्युत धारा का निर्माण करती है। इसका तात्पर्य यह है कि बाह्य परिपथ में B2 से B1 की दिशा में विद्युत धारा प्रवाहित होती है।


अर्धघूर्णन के पश्चात भुजा CD ऊपर की ओर तथा भुजा AB नीचे की ओर जाने लगती है। फलस्वरूप इन दोनों भुजाओं में प्रेरित विद्युत धारा की दिशा परिवर्तित हो जाती है और DCBA के अनुदिश नेट प्रेरित विद्युत धारा प्रवाहित होती है।

इस प्रकार, अब बाह्य परिपथ में B1 से B2 की दिशा में विद्युत धारा प्रवाहित होती है। अतः, प्रत्येक आधे घूर्णन के पश्चात क्रमिक रूप से इन भुजाओं में विद्युत धारा की ध्रुवता परिवर्तित होती रहती है। ऐसी विद्युत धारा जो समान काल-अंतरालों के पश्चात अपनी दिशा में परिवर्तन कर लेती है, उसे प्रत्यावर्ती धारा (संक्षेप में ac) कहते हैं। विद्युत उत्पन्न करने की इस युक्ति को प्रत्यावर्ती विद्युत धारा जनित्र (ac जनित्र) कहते हैं।


दिष्ट धारा (अर्थात dc जिसमें समय के साथ दिशा में परिवर्तन नहीं होता) प्राप्त करने के लिए विभक्त वलय प्रकार के दिक्परिवर्तक का उपयोग किया जाता है। इस व्यवस्था के साथ एक ब्रुश सदैव ही उस भुजा के संपर्क में रहता है जो चुंबकीय क्षेत्र में ऊपर की ओर गति करती है जबकि दूसरा ब्रुश सदैव नीचे की ओर गति करने वाली भुजा के संपर्क में रहता है। हम विभक्त वलय दिक्परिवर्तक की कार्य प्रणाली विद्युत मोटर देख चुके हैं (देखिए चित्र)। इस प्रकार, इस व्यवस्था के साथ एक दिशिक विद्युत धारा उत्पन्न होती है। इस प्रकार के जनित्र को दिष्ट धारा (dc) जनित्र कहते हैं।

दिष्ट धारा तथा प्रत्यावर्ती धारा के बीच यह अंतर है कि दिष्ट धारा सदैव एक ही दिशा में प्रवाहित होती है, जबकि प्रत्यावर्ती धारा एक निश्चित काल-अंतराल के पश्चात अपनी दिशा उत्क्रमित करती रहती है। आजकल जितने विद्युत शक्ति संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं उनमें से अधिकांश में प्रत्यावर्ती विद्युत धारा का उत्पादन होता है। भारत में उत्पादित प्रत्यावर्ती विद्युत धारा हर 1100� के पश्चात अपनी दिशा उत्क्रमित करती है, अर्थात इस प्रत्यावर्ती धारा (ac) की आवृत्ति 50Hz है। dc की तुलना में ac का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि विद्युत शक्ति को सुदूर स्थानों पर बिना अधिक ऊर्जा क्षय के प्रेषित किया जा सकता है।

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घरेलू विद्युत परिपथ

घरों में विद्युत शक्ति की आपूर्ति मुख्य तारों (जिसे मेंस भी कहते हैं) से प्राप्त करते हैं। ये मुख्य तार या तो धरती पर लगे विद्युत खंभों के सहारे अथवा भूमिगत केबलों से हमारे घरों तक आते हैं। इस आपूर्ति के तारों में से एक तार को जिस पर प्राय: लाल विद्युतरोधी आवरण होता है, विद्युन्मय तार (अथवा धनात्मक तार) कहते हैं।

अन्य तार को जिस पर काला आवरण होता है, उदासीन तार (अथवा ऋणात्मक तार) कहते हैं। हमारे देश में इन दोनों तारों के बीच 220 V का विभवांतर होता है। घर में लगे मीटर बोर्ड में ये तार मुख्य फ्यूज़ से होते हुए एक विद्युत मीटर में प्रवेश करते हैं। इन्हें मुख्य स्विच से होते हुए घर के लाइन तारों से संयोजित किया जाता है। ये तार घर के पृथक्-पृथक् परिपथों में विद्युत आपूर्ति करते हैं।

प्रायः घरों में दो पृथक् परिपथ होते हैं, एक 15 A विद्युत धारा अनुमतांक के लिए जिसका उपयोग उच्च शक्ति वाले विद्युत साधित्रों जैसे गीज़र, वायु शीतित्र/कूलर (air cooler) आदि के लिए किया जाता है। दूसरा विद्युत परिपथ 5 A विद्युत धारा अनुमतांक के लिए होता है जिससे बल्ब पंखे आदि चलाए जाते हैं।

भूसंपर्क तार जिस पर प्रायः हरा विद्युतरोधी आवरण होता है, घर के निकट भूमि के भीतर बहुत गहराई पर स्थित धातु की प्लेट से संयोजित होता है। इस तार का उपयोग विशेषकर विद्युत इस्त्री, टोस्टर, मेज़ का पंखा, रेफ्रिजरेटर, आदि धातु के आवरण वाले विद्युत साधित्रों में सुरक्षा के उपाय के रूप में किया जाता है।

धातु के आवरणों से संयोजित भूसंपर्क तार विद्युत धारा के लिए अल्प प्रतिरोध का चालन पथ प्रस्तुत करता है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि साधित्र के धात्विक आवरण में विद्युत धारा का कोई क्षरण होने पर उस साधित्र का विभव भूमि के विभव के बराबर हो जाएगा। फलस्वरूप इस साधित्र को उपयोग करने वाला व्यक्ति तीव्र विद्युत आघात से सुरक्षित बचा रहता है।

चित्र में सामान्य घरेलू विद्युत परिपथों में से किसी एक परिपथ का व्यवस्था आरेख दर्शाया गया है। प्रत्येक पृथक् विद्युत परिपथ में विद्युन्मय तथा उदासीन तारों के बीच विभिन्न विद्युत साधित्रों को संयोजित किया जा सकता है। प्रत्येक साधित्र का अपना पृथक् ‘ऑन/ऑफ़’ स्विच होता है, ताकि इच्छानुसार उनमें विद्युत धारा प्रवाहित कराई जा सके। सभी साधित्रों को समान वोल्टता मिल सके, इसके लिए उन्हें परस्पर पार्श्वक्रम में संयोजित किया जाता है।


विद्युत फ्यूज़ सभी घरेलू परिपथों का एक महत्वपूर्ण अवयव होता है। विद्युत परिपथ में लगा फ़्यूज़ परिपथ तथा साधित्र को अतिभारण के कारण होने वाली क्षति से बचाता है। जब विद्युन्मय तार तथा उदासीन तार दोनों सीधे संपर्क में आते हैं तो अतिभारण हो सकता है (यह तब होता है जब तारों का विद्युतरोधन क्षतिग्रस्त हो जाता है अथवा साधित्र में कोई दोष होता है)।

ऐसी परिस्थितियों में, किसी परिपथ में विद्युत धारा अकस्मात बहुत अधिक हो जाती है। इसे लघुपथन कहते हैं। विद्युत फ़्यूज़ का उपयोग विद्युत परिपथ तथा विद्युत साधित्र को अवांछनीय उच्च विद्युत धारा के प्रवाह को समाप्त करके, संभावित क्षति से बचाना है। फ़्यूज़ों में होने वाला जूल तापन फ़्यूज़ को पिघला देता है जिससे विद्युत परिपथ टूट जाता है।

10 Class Science Chapter 12 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव
Science | Class 10th | विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव

विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव : Science class 10th:Hindi


Class 10 12. विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव अभ्यास
Science 13. विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव Class-10 पाठगत-प्रश्न
विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव कक्षा 10 के नोट्स विज्ञान अध्याय 12
NCERT Class 10 Science Chapter 12 विद्युत धारा के चुंबकीय

NCERT Class 6 to 12 Notes in Hindi

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