NCERT Class 10 science Chapter 8 जीव जनन कैसे करते हैं Notes in hindi

10 Class Science Chapter 8 जीव जनन कैसे करते हैं notes in hindi

Class 10 science Chapter 8 जीव जनन कैसे करते हैं notes in hindi. जिसमे हम जन्तुओ और पौधों में प्रजनन , एचआईवी/एड्स (HIV)आदि के बारे में पढ़ेगे ।

TextbookNCERT
ClassClass 10
Subjectविज्ञान
ChapterChapter 8
Chapter Nameजीव जनन कैसे करते हैं
CategoryClass 10 Science Notes
MediumHindi
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Class 10 science Chapter 8 जीव जनन कैसे करते हैं Notes in Hindi

📚 Chapter = 8 📚
💠 जीव जनन कैसे करते हैं💠

जनन

जीव अपने प्रजाति की उत्तरजीविता को समष्टि में बनाए रखने के लिए अपने जैसे संतति को एक प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न करते हैं । इस प्रक्रिया को जनन कहते हैं।

डी.एन.ए. प्रतिकृति (Copy) का प्रजनन में महत्व:-


जनन की मूल घटना डी.एन.ए. की प्रतिकृति बनाना हैं। डी.एन.ए. की प्रतिकृति बनाने के लिए कोशिकाएँ विभिन्न रासायनिक क्रियाओं का उपयोग करती हैं । जनन कोशिका में इस प्रकार डी.एन.ए. की दो प्रतिकृतियाँ बनती हैं।

प्रजनन में निम्नलिखित महत्व हैं-

  • (i) जनन के दौरान डी.एन. ए. प्रतिकृति का जीव की शारीरिक संरचना एवं डिजाइन के लिए अत्यंत महत्वूपर्ण हैं जो विशिष्ट निकेत के योग्य बनाती हैं।
  • (ii) डी.एन. ए. प्रतिकृति संतति जीव में जैव विकास के लिए उत्तरदायी होती हैं।
  • (iii) डी.एन.ए. की प्रतिकृति में मौलिक डी.एन.ए. से कुछ परिवर्तन होता हैं मूलत: समरुप नहीं होते हैं अत: जनन के बाद इन पीढ़ियों में सहन करने की क्षमता होती हैं।
  • (iv) डी.एन.ए. की प्रतिकृति में यह परिवर्तन परिवर्तनशील परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता प्रदान करती हैं।

विभिन्नताएँ जीवों की स्पीशीज के उत्तरजीविता के लिए उत्तरदायी है:-


जीवों में विभिन्नता ही उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में बने रहने में सहायक हैं। शीतोष्ण जल में पाए जाने वाले जीव पारिस्थितिक तंत्र के अनुकूल जीवित रहते हैं । यदि वैश्विक ऊष्मीकरण के कारण जल का ताप बढ़ जाता हैं तो अधिकतमर जीवाणु मर जाएगें , परन्तु उष्ण प्रतिरोधी क्षमता वाले कुछ जीवाणु ही खूद ही बचा पाएगें और वृद्धि कर पाएगें।

जीवों में विभिन्नता कैसे आती हैं-


जनन के दौरान जनन कोशिकाओं में डी.एन.ए. की दो प्रतिकृति (Copy) बनाती हैं इसके साथ-साथ दूसरी कोशिकीय संरचनाओं का सृजन भी होता हैं, और प्रतिकृतिया जब अलग होती हैं तो एक कोशिका विभाजित होकर दो कोशिकाएँ बनाती हैं।

चूँकि कोशिका के केन्द्रक के डी.एन.ए. में प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचनाएँ भिन्न होती हैं इसलिए बनने वाले प्रोटीन में भिन्नता आ जाती हैं ।

ये सभी जैव-रासायनिक प्रक्रिया होती हैं जिसमें डी.एन.ए. की प्रतिकृति बनने के दौरान ही भिन्नता आ जाती हैं यही जीवों में विभिन्नता के कारण हैं।

जीवों में विभिन्नता का महत्व:-

  • (i) विभिन्नताओं के कारण ही जीवों कि समष्टि पारितंत्र में स्थान अथवा निकेत ग्रहण करती हैं ।
  • (ii) विभिन्न्ताएँ समष्टि में स्पीशीज की उत्तरजीविता बनाए रखने में उपयोगी हैं ।
  • (iii) जीवों में पायी जाने वाली विभिन्नताएँ ही जैव विकास का आधार हैं। जब तक संतति में विभिन्नताएँ न  हो जैव-विकास नहीं कहा जा सकता हैं।
  • (iv) विभिन्नताएँ परिवर्तनशील परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता प्रदान करती हैं।

जीवों में जनन की विधियाँ:-


जीवों में जनन की विधियाँ जीवों के शारीरिक अभिकल्प (body Design) पर निर्भर करती हैं।

Modes of reproduction in organisms  जीवों में जनन की विधियाँ

जीवों में जनन की दो विधियाँ हैं :-
1. अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction)
2. लैंगिक जनन (sexual Reproduction)

अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction)
लैंगिक जनन (sexual Reproduction)

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अलैंगिक जनन एवं लैंगिक जनन में अंतर :-

  • अलैंगिक जनन :-
  • 1. इसमें सिर्फ एकल जीव भाग लेते हैं ।
  • 2. इस प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न जीवों में विविधता नहीं पाई जाती हैं।
  • 3. युग्मक का निर्माण नहीं होता हैं।
  • 4. इसमें जनक और संतति में पूर्ण समानता पाई जाती हैं
  • लैंगिक जनन :-
  • 1. इसमें नर एवं मादा दोनों भाग लेते हैं ।
  • 2. इस प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न जीवों में विविधता पाई जाती हैं ।
  • 3. इसमें नर एवं मादा युग्मक का निर्माण होता हैं।
  • 4. इसमें केवल आनुवांशिक रुप में समान होते हैं शारीरिक संरचना में विविधता पाई जाती हैं।
क्र.सं.लैंगिक जननअलैंगिक जनन
1नर तथा मादा युग्मकों के संलयन से जीव का निर्माण होता है, उसे लैंगिक जनन कहते हैं।इसमें केवल एक ही जनक के द्वारा जीव का निर्माण होता है।
2इसमें विभिन्नताएँ पायी जाती है।इसमें विभिन्नताएँ नहीं पायी जाती है।
3युग्मकों का संलयन होता है।युग्मकों का संलयन नहीं होता है।
4यह प्रक्रिया धीमी व जटिल होती है।यह प्रक्रिया तीव्र व सरल होती है।
5इसमें युग्मक निर्माण व निषेचन होता है।इसमें युग्मक निर्माण व निषेचन का अभाव होता है।
6इसमें अर्द्धसूत्री व समसूत्री  दोनों प्रकार के विभाजन पाये जाते हैं।इसमें समसूत्री विभाजन होता है।

अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction):
जनन की वह विधि जिसमें सिर्फ एकल जीव ही भाग लेते हैं, अलैंगिक जनन कहलाता हैं।

अलैंगिक जनन के प्रकार :-

1.विखण्डन :-
विखंडन प्रक्रिया दो प्रकार से होती हैं

(i) द्विविखंडन (Binary Fission):- इस विधि में जीव की कोशिका दो बराबर भागों में विभाजित हो जाता हैं।
उदाहरण :- अनेक जीवाणु एवं प्रोटोजोआ जैसे- अमीबा एवं लेस्मानिया आदि।

अमीबा और लेस्मानिया के द्विविखंडन में अंतर:-
अमीबा में द्विखंडन किसी भी तल से हो सकता हैं जबकि लेस्मानिया में द्विखंडन एक निश्चित तल से ही होता हैं।(ii) बहुखंडन (Multiple Fission) :- इस विधि में  जीव एक साथ कई संतति कोशिकाओं में विभाजित हो जाते हैं, जिसे बहुखंडन कहते हैं।
उदाहरण : मलेरिया परजीवी प्लाज्मोडियम

fragmentation विखण्डन

(2) खंडन (Fragmentation):-

 इस प्रजनन विधि में सरल संरचना वाले बहुकोशिकीय जीव विकसित होकर छोटे-छोटे टूकड़ों में खंडित हो जाते हैं । ये टूकड़े वृद्धि कर नए जीव (व्यष्टि) में विकसित हो जाते हैं।
उदाहरण :- स्पाइरोगाईरा

(3) पुनरुदभवन (पुनर्जनन) (Regeneration):-

 पूर्णरुपेण विभेदित जीवों में अपने कायिक भाग से नए जीव के निर्माण की क्षमता होती हैं।

अर्थात् यदि किसी कारणवश जीव क्षत-विक्षत हो जाता हैं अथवा कुछ टूकड़ों में टूट जाता हैं तो इसके अनेक टूकड़े वृद्धि कर नए जीव में विकसित हो जाते हैं।

उदाहरण:- हाइड्रा तथा प्लेनेरिया जैसे सरल प्राणियों को यदि कई टुकड़ों में काट दिया जाए तो प्रत्येक टुकड़ा विकसित होकर पूर्णजीव का निर्माण कर देता हैं। यह प्रक्रिया पुनर्जनन कहलाता हैं।


संक्षेप में, किसी कारणवश, प्लेनेरिया, हाईड्रा जैसे जीव क्षत-विक्षत होकर टुकड़ों में टूट जाते हैं तो प्रत्येक टुकड़ा नए जीव में विकसित हो जाता हैं । यह प्रक्रिया पुनर्जनन कहलाता हैं।

पुनरुदभवन (पुनर्जनन) (Regeneration):-

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परिवर्धन (Development):- 
पुनरूद्भवन (पुनर्जनन) विशिष्ट कोशिकाओं द्वारा संपादित होता हैं। इन कोशिकाओं के क्रमप्रसरण से अनेक कोशिकाएँ बन जाती हैं। कोशिकाओं के इस समूह में परिवर्तन के दौरान विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ एवं ऊत्तक बनते हैं । यह परिवर्तन बहुत व्यवस्थित रुप एवं क्रम से होता हैं जिसे परिवर्धन कहते हैं।

  • मुकुल (Bud):-
  •  जीवों में कोशिकाओं के नियमित विभाजन के कारण एक स्थान पर उभार बन जाते हैं इन उभारों को ही मुकुल (bud) कहते हैं।
  • (4) मुकुलन (Budding):
  • – हाइड्रा जैसे कुछ प्राणी पुनर्जनन की क्षमता वाली कोशिकाओं का उपयोग मुकुलन के लिए करते हैं । हाइड्रा में कोशिकाओं के नियमित विभाजन के कारण एक स्थान पर उभार विकसित हो जाता हैं । यह उभार (मुकूल) वृद्धि करता हुआ नन्हें जीव में बदल जाता हैं तथा पूर्ण विकसित होकर जनक से अलग होकर स्वतंत्र जीव बन जाता हैं । जनन की यह प्रक्रिया मुकुलन कहलाती है।
मुकुलन (Budding)

(5) बीजाणु समासंघ (Spore Formation):- 
अनेक सरल बहुकोशिकीय जीवों में जनन के लिए विशिष्ट जनन संरचनायें पाई जाती हैं। इन संरचनाओं के उर्ध्व तंतुओं पर सूक्ष्म गुच्छ जैसी सरंचनाये होती हैं जिन्हें बीजाणुधानी कहते हैं। इन्हीं बीजाणुधानी में जनन के लिए बीजाणु पाए जाते हैं जो वृद्धि कर नए जीव उत्पन्न करते हैं।
उदाहरण:- राइजोपस आदि।

बीजाणुओं की विशेषताएँ :- 
बीजाणु के चारों और एक मोटी भित्ति होती हैं जो प्रतिकुल परिस्थितियों में उसकी रक्षा करती है, अर्थात् ये बीजाणु बीजाणुधानी फटने के बाद इधर-उधर फ़ैल जाते हैं

तब यदि ऐसी परिस्थिति हो जिससे इन बीजाणुओं को नुकसान पहुँचने वाला हो तो इसकी मोटी भित्ति इन फैले हुए बीजाणुओं की रक्षा करती हैं और जैसे ही इनके लिए अनुकुल परिस्थिति बनती हैं ये नम सतह के संपर्क में आने पर वह वृद्धि करने लगते हैं और नए जीव उत्पन्न करते हैं।

यही कारण हैं कि बीजाणु जनन द्वारा जीव लाभान्वित होते हैं।

पौधों के कायिक भाग (Vegetative parts of plants):- पौधों के जड़, तना और पत्तियाँ आदि भागों को कायिक भाग कहा जाता है।

(6) कायिक प्रवर्धन (Vegetative Propagation):- पौधों के कायिक भागों जैसे जड़तना एवं पत्तियों से भी नए पौधे उगाये जाते हैं जनन की इस प्रक्रिया को कायिक प्रवर्धन कहते हैं। इसमें कायिक भाग विकसित होकर नए पौधा उत्पन्न करते हैं।

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कायिक प्रवर्धन के लाभ:-

  • कुछ पौधें को उगाने के लिए कायिक प्रवर्धन का उपयोग करने के कारण निम्न हैं ।
  • (i) जिन पौधों में बीज उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती हैं उनका प्रजनन कायिक प्रवर्धन विधि के द्वारा ही किया जाता हैं।
  • (ii) इस विधि द्वारा उगाये गये पौधे में बीज द्वारा उगाये गये पौधों की अपेक्षा कम समय में फल और फूल लगने लगते हैं।
  • (iii) पौधों में पीढ़ी दर पीढ़ी अनुवांशिक परिवर्तन होते रहते हैं। फल कम और छोटा होते जाना आदि, जबकि कायिक प्रवर्धन द्वारा उगाये गये पोधे अनुवांशिक रुप से जनक पौधें के समान ही फल फूल लगते हैं।
  • (iv) यह पौधे उगाने के सस्ता और आसान तरीका हैं। इस विधि द्वारा केला, गुलाब, आम , गन्ना आदि उगाये जाते हैं।

कायिक प्रवर्धन के प्रकार :-
कायिक प्रवर्धन दो प्रकार के होते हैं :-

(i) प्राकृतिक विधि द्वारा
a. जड़ द्वारा – गाजर और शकरकंद
b. तना द्वारा – आलू  और अदरक
c. पत्तियों द्वारा – ब्रायोफिलम

(ii) कृत्रिम विधि द्वारा
a. कलम या रोपण : आम, अमरुद, नीम्बू
b. कर्तन (Grafting) : गुलाब, गन्ना
c. लेयरिंग (Layering): चमेलीउभयलिंगी जीव:- फीताकृमि, केंचूआ तथा सितारा मछली इत्यादी

लैंगिक जनन (Sexual Reproduction):-


जनन की वह विधि जिसमें नर एवं मादा दोनों भाग लेते हैं, लैंगिक जनन कहलाता हैं।
दूसरे शब्दों, जनन की वह विधि जिसमें नर युग्मक (शुक्राणु) और मादा युग्मक (अंडाणु) भाग लेते हैं, लैगिक जनन कहलाता हैं।

निषेचन (Fertilisation):- नर युग्मक (शुकाणु) और मादा युग्मक (अंडाणु) के संलयन को निषेचन कहते हैं।

मादा युग्मक :- जिस जनन कोशिका में भोजन का भंडार संचित होता हैं उसे मादा युग्मक कहते हैं।

लैंगिक जनन के लाभ:

  • लैंगिक उच्च विकसित प्रक्रिया हैं तथा इसके अलैंगिक जनन की तुलना में अनेक लाभ है।
  • (i) लैंगिक जनन, संततियों में गुणों को बढावा देता हैं क्योंकि इसमें दो भिन्न तथा लैंगिक असमानता वाले जीवों से आये युग्मकों का संलयन होता हैं।
  • (ii) लैंगिक जनन में वर्णों के नए संयोजन के अवसर होता हैं।
  • (iii) यह नई जातियों की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।
  • (iv) इस जनन द्वारा उत्पन्न जीवों में काफी विभिन्नताएँ होती हैं।
  • • इस विधि से उत्पन्न संतति शारीरिक रुप से जनक से भिन्न होते हैं परन्तु डीएनए स्तर पर समान होते हैं।
  •  एककोशिकीय एवं बहुकोशिकीये जीवों की जनन पद्धति में अंतर :-
  • डी.एन.ए. की प्रतिकृति में परिणामी त्रुटियाँ जीवों की समष्टि (जनसंख्या) में विभिन्नता का स्रोत हैं। जो उनकी समष्टि को बचाएँ रखने में सहायक हैं ।

लैंगिक जनन के अध्ययन को हम दो भागों में बाँटते हैं।
A. पौधों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Plants )
B. जंतुओं में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Animals)

पौधों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Plants)

पुष्पी पादपों में जननांग :-

मादा जननांग : स्त्रीकेसर
स्त्रीकेसर के भाग : वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय

नर जननांग : पुंकेसर
पुंकेसर के भाग : परागकोष तथा तंतु।

पुष्प दो प्रकार के होते हें :-
(i) एकलिंगी पुष्प (Unisexual flower):- जब पुष्प में पुंकेसर अथवा स्त्रीकेसर में से कोई एक जननांग उपस्थित होता हैं तो ऐसे पुष्प एकलिंगी कहलाते हैं।
उदाहरण: पपीता, तरबूज इत्यादि।

(ii) द्विलिंगी या उभयलिंगी पुष्प (Bisexual Flower): जब एक ही पुष्प में पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, तो उन्हें उभयलिंगी पुष्प कहते हैं।
उदाहरण : गुड़हल, सरसों इत्यादि।

पुंकेसर :- पुंकेसर नर जननांग हैं जो तंतु तथा परागकोश से मिलकर बना हैं। यह परागकणों को बनाता हैं।

पुंकेसर का कार्य:-


यह नर जननांग हैं जो परागकण बनाता हैं।
परागकोश : परागकोश परागकणों को संचय करता हैं।
परागकण : परागकण पौधों में नर युग्मक हैं जो सामान्यत: पीले रंग का पाउडर जैसा चिकना पदार्थ होता हैं।

स्त्रीकेसर :- यह मादा जननांग हैं जो वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय से मिलकर बना हैं। यह पुष्प के केंद्र में अवस्थित होता हैं।

स्त्रीकेसर के भाग :-


वर्तिकाग्र:- यह पुष्प का वह मादा भाग हैं जिस पर परागण की क्रिया होती हैं यह चिपचिपा होता हैं।
वर्तिका :- यह एक नलिकाकार भाग हैं जो वर्तिकाग्र और अंडाशय को जोड़ता हैं।
अंडाशय : पुष्प के केंद में स्थित होता हैं इसमें बीजांड होता हैं और प्रत्येक बीजांड में एक अंड कोशिका होता हैं जहाँ निषेचन के पश्चात भ्रुण बनता हैं।

स्त्रीकेसर का कार्य:-

 स्त्रीकेसर मादा जननांग हैं जो वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय से मिलकर बना हैं।
कार्य :-

(i) वर्तिकाग- यहाँ परागण की क्रिया होती हैं।
(ii) वर्तिका – वर्तिका को परागनली भी कहा जाता हैं । यह नर युग्मक को अंडाशय तक पहुँचाता हैं ।
(iii) अंडाशय- अंडाशय पुष्प का एक प्रमुख मादा जननांग हैं जहाँ संलयन (निषेचन) की क्रिया होती हैं भ्रूण का निर्माण होता हैं।

saffron  स्त्रीकेसर

परागण (Pollination): परागकणों का परागकोश से वर्तिकाग्र तक स्थानान्तरण होने की प्रक्रिया को परागण कहते हैं।

परागण दो प्रकार के होते हैं –
1. स्वपरागण (Self Pollination)
2. परापरागण (Cross Pollination)

1. स्वपरागण (Self Pollination):- जब एक पुष्प के परागकोश से उसी पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानान्तरण स्वपरागण कहलाता हैं ।

2. परपरागण (Cross Pollination):- जब एक पुष्प के परागकोष से उसी जाति के अन्य दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानान्तरण होता हैं तो पर- परागण कहलाता हैं।

परपरागण के कारक :-


एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक परागकणों का यह स्थानांतरण वायु, जल अथवा प्राणी जैसे वाहक द्वारा संपन्न होता हैं।
1. भौतिक कारक :- वायु तथा जल
2. जन्तु कारक :- कीट तथा कीड़े-मकौड़े जैसे-तितली, मधु-मक्खी इत्यादि ।अंकुरण (Germination):-
बीज में भावी पौधा अथवा भ्रूण होता हैं जो उपयुक्त परिस्थितियों में नए संतति में विकसित हो जाता हैं । इस प्रक्रम को अंकुरण कहते हैं।

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मानव में लैंगिक जनन :-


मनुष्य में लैंगिक जनन के लिए उत्तरदायी कोशिकाओं का विकास बहुत ही आवश्यक है।
इन कोशिकाओं को जनन कोशिकाएँ कहते हैं। इन कोशिकाओं का विकास मनुष्य के जीवन काल के एक विशेष अवधि में होता हैं, जिसमें शरीर के विभिन्न भागों में विशेष परिवर्तन होते हैं। विशेषतया जनन कोशिकाओं में परिवर्तन होते हैं । जैसे-जैसे शरीर में सामान्य वृद्धि दर धीमी होती हैं जनन – ऊत्तक परिपक्क (Mature) होना आरंभ करते हैं।

किशोरावस्था (Adolescence):-


यह वृद्धि एक प्राकृतिक प्रक्रम हैं। जीवन काल की वह अवधि जब शरीर में ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसके परिणामस्वरुप जनन परिपक्वता आती हैं, किशोरावस्था कहलाती हैं।

यौवनारम्भ(Puberty):-  – लैंगिक जनन हेतु उत्तरदायी जनन कोशिकाओं का विकास एक विशेष अवधि से होता है, जिसे यौवनारम्भ कहा जाता है।
यौवनारंभ का सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन लड़के एवं लड़कियों की जनन क्षमता का विकास होता है।
दूसरे शब्दों में, किशोरावस्था की वह अवधि जिसमें जनन उतक परिपक्व होना प्रारंभ करते हैं। यौवनारंभ कहा जाता हैं।

लड़कों में यौवनावस्था के लक्षण(आयु 13 से 15 वर्ष)
• आवाज का भारी होना
• दाढी मूछ आना
• जननांग क्षेत्रों में बालों का आना
• त्वचा तैलीय होना

लड़कियों में यौवनारम्भ के लक्षण (आयु 12 से 14 वर्ष)
• लड़कियों में स्तन का बनना व आकार में वृद्धि।
• त्वचा का तैलीय होना
• जननांग क्षेत्र में बालों का आना
• रजोधर्म का शुरू होना
• आवाज पतली होना

नर में टेस्टोस्टेरॉन प्रमुख लिंग हार्मोन हैं।
स्त्रियों में एस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरॉन लिंग हार्मोन है।

male reproductive system

प्राथमिक लैंगिक अंग

वृषण:-
• यह मानव में पाया जाने वाला प्राथमिक जननांग है क्योंकि यह शुक्राणु उत्पादन का कार्य करता है।
• यह संख्या में दो होते हैं अथवा एक जोडी होते है।
• नर में उदर के नीचले हिस्से में बाहर की ओर पाये जाते है, इनका आकार अण्डाकार अथवा गोलाकार होते हैं।
• इसमें नर लैंगिक हार्मोन का निर्माण होता है, जिसे टेस्टोस्टेरॉन कहा जाता है।

द्वितीय लैंगिक अंग :-

1. वृषण कोष – थैलीनुमा संरचना है। एक जोड़ी वृषण पाए जाते हैं।
• शुक्राणु निर्माण हेतु शरीर से कम तापमान की आवश्यकता होती है।
• वृषण कोष ताप नियंत्रण यंत्र के तौर पर कार्य करता है।

2. शुक्रवाहिनी – ये संख्या में 2 होती है। शुक्राणु शुक्राशय तक पहुँचने के लिए शुक्रवाहिनी की सहायता लेते हैं। शुक्रवाहिनी मूत्रनलिका के साथ एक सयुंक्त नली बनाती है। अत: शुक्राणु तथा मूत्र दोनों समान मार्ग से प्रवाहित होते हैं।

3. शुक्राशय – शुक्रवाहिनी से शुक्राणु संग्रहण के लिए एक थैली जैसी संरचना में प्रवेश करते है जिसे शुक्राशय कहते हैं। शुक्राशय एक तरल पदार्थ का निर्माण करता है जो वीर्य के निर्माण में मदद करता है साथ ही यह तरल पदार्थ शुक्राणुओं को ऊर्जा तथा गति प्रदान करता हे।

4. प्रोस्टेट ग्रंथि – यह अखरोट के आकार की एक बाह्य स्त्रावी ग्रंथि है जो एक तरल पदार्थ का निर्माण व उत्सर्जन करती है। यह तरल वीर्य का भाग बनता है तथा शुक्राणुओं को गति प्रदान करता है।

5. काउपर ग्रंथि – अम्लीयता को क्षारीयता में बदल कर उदासीन कर देता है।

6. मूत्र मार्ग – यह एक पेशीय नलिका है जो मूत्राशय से निकल कर स्खलन वाहिनी से मिल कर मूत्र जनन नलिका बनाती है। इसमें से होकर मूत्र शुक्राणु प्रोस्टेट ग्रंथि आदि के स्त्राव बाहर निकालते हैं। यह शिशन से गुजर कर मूत्रोजनन छिद्र द्वारा बाहर निकलती है।

7. शिश्न – ये एक बेलनाकार अंग है जो वृषण के बीच लटकता रहता है। यह उत्थानशील मैथुनांग है। सामान्य अवस्था में यह छोटा तथा शिथिल रहता है तथा मूत्र विसर्जन के काम आता है। मैथुन के समय यह उन्नत अवस्था में आकर वीर्य (मय शुक्राणु) को मादा जननांग में पहुँचाने का कार्य करता है।

मादा जनन तंत्र –

female reproductive system मादा जनन तंत्र
female reproductive system  मादा जनन तंत्र

द्वितीयक लैंगिक अंग

अण्ड वाहिनी – (Fallopian tube)
• यह एक लम्बा कुण्डलित नलिकार अंग है जो गर्भाशय के दोनों ओर स्थित होता है।
• अंड वाहिनी की नलियाँ अंडाणुओं को अण्डाशय से गर्भाशय तक पहुँचाने का कार्य करती है।
• यह 10–12 सेमी लम्बी होती है तथा उदरगुहा के पीछे तक फैली होती है।

गर्भाशय –
• गर्भाशय उदर के निचले भाग में मूत्र थैली तथा मलाशय के मध्य स्थित खोखला मांसल अंग है जहाँ दोनों अंडवाहिका संयुक्त होकर थैलीनुमा संरचना का निर्माण करती है। इसका चौड़ा भाग ऊपर की ओर तथा संकरा भाग नीचे की ओर गर्भाशय ग्रीवा द्वारा योनि में खुलता है।
• माता और भ्रूण के मध्य स्थापित कडी प्लेसेंटा या अपरा का रोपण भी गर्भाशय में ही होता है।,

योनि –
• मूत्राशय व मलाशय के बीच 8–10 सेमी लम्बी नाल
• स्त्रियों में मैथुन कक्ष के तौर पर कार्य करती है।
• यह अंग स्त्रियों में रजोधर्म स्त्राव तथा प्रसव के मार्ग का भी कार्य करता है।
• योनि में लैक्टोबेसीलस जीवाणु पाए जाते हैं जो लैक्टिक अम्ल का निर्माण करते हैं।

प्रजनन की अवस्थाएँ

reproductive stages  प्रजनन की अवस्थाएँ

युग्मकजनन :- वृषण तथा अण्डाशय में अगुणित युग्मकों की निर्माण विधि को युग्मकजनन कहा जाता है। नर के वृषण में होने वाली इस क्रिया द्वारा शुक्राणुओं का निर्माण होता है तथा यह क्रिया शुक्रजनन कहलाती है। मादा के अण्डाशय में युग्मकों की निर्माण क्रिया जिसके द्वारा अण्डाणु का निर्माण होता है, अण्डजनन कहलाती है।

निषेचन :- मादा में उपस्थित अण्डाणु मैथुन के दौरान नर द्वारा छोडे गए शुक्राणओं के संपर्क में आते हैं तथा संयुग्मन का निर्माण करते हैं। यह प्रक्रिया निषेचन कहलाती है।

विदलन तथा भ्रूण का रोपण :- युग्मनज समसूत्री विभाजन द्वारा एक संरचना बनाता है जिसे कोरक कहा जाता है। तत्पश्चात् कोरक गर्भाशय के अंत:स्तर में जाकर स्थापित होता है। यह प्रक्रिया भ्रूण का रोपण कहलाती है। यह प्रक्रिया गर्भाशय में होती हैं।

प्रसव :- भ्रूण, रोपण के पश्चात् भ्रूणीय विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। गर्भस्थ शिशु का पूर्ण विकास होने पर बच्चा जन्म लेता है। शिशु जन्म की प्रक्रिया प्रसव कहलाती है।

जब अंड- कोशिका का निषेचन होता हैं –
निषेचित अंड युग्मनज कहलाता हैं, जो गर्भाशय में रोपित होता हैं। गर्भाशय में रोपण के पश्चात युग्मनज में विभाजन व विभेदन होता हैं तथा भ्रूण का निर्माण होता हैं।
अंड के निषेचन से लेकर शिशु के जन्म तक के समय को गर्भकाल कहते हैं । इसकी अवधि लगभग 9 महीने होती है।

प्लैसेंटा या अपरा – यह एक विशिष्ट ऊत्तक हैं जिसकी तश्तरीनुमा संरचना गर्भाशय में धंसी होती हैं इसका मुख्य कार्य-
(i) माँ के रक्त से ग्लूकोज ऑक्सीजन आदि (पोषण) भ्रूण को प्रदान करना ।
(ii) भ्रूण द्वारा उत्पादित अपशिष्ट पदार्थों का निपटान ।

जब अंड का निषेचन नहीं होता
|• हर महीने गर्भाशय खुद को निषेचित अंड प्राप्त करने के लिए तैयार करता हैं।
• गर्भाशय की भित्ती मांसल एवं स्पोंजी हो जाती हैं । यह भ्रूण के विकास के लिए जरुरी हैं।
• यदि निषेचन नहीं होता हैं तो इस भित्ति की आवश्यकता नहीं रहती । अत: यह परत धीरे-धीरे टूट कर योनी मार्ग से रक्त एवं म्युकस के रुप में बाहर निकलती हैं।
• यह चक्र लगभग एक महीने का समय लेता हैं तथा इसे ऋतुस्राव अथवा रजोधर्म कहते हैं।
• 40 से 50 वर्ष की उम्र के बाद अंडाशय से अंड का उत्पन्न होना बन्द हो जाता हैं। फलस्वरुप रजोधर्म बन्द हो जाता हैं जिसे रजोनिवृत्ति कहते हैं।

जनन स्वास्थ्य


• जनन स्वास्थ्य अर्थ हैं , जनन से संबंधित सभी आयाम जैसे शारीरिक, मानसिक , सामाजिक एवं व्यावहारिक रुप से स्वस्थ होना ।
• रोगों का लैंगिक संचरण (STD’s) अनेक रोगों का लैंगिक संचरण भी हो सकता हैं, जैसे  –
(a) जीवाणु जनित – गोनोरिया, सिफलिस
(b) विषाणु जनित – मस्सा (warts), HIV – AIDS ।
कंडोम के उपयोग से इन रोगों का संचरण कुछ सीमा तक रोकना संभव हैं।

गर्भरोधन- गर्भधारण को रोकना गर्भरोधन कहलाता हैं।

गर्भरोधन  के प्रकार

(a) यांत्रिक अवरोध –
शुक्राणु को अंडकोशिका तक नहीं पहुँचने दिया जाता हैं ।
उदाहरण –
• शिश्न को ढकने वाले कंडोम
• योनि में रखे जाने वाले सरवाइकल कैंप

(b) रासायनिक तकनीक-
• मादा में अंड को न बनने देना, इसके लिए दवाई ली जाती हैं जो हॉर्मोन के संतुलन को परिवर्तित कर देती हैं।
• इनके अन्य प्रभाव (विपरीत प्रभाव) भी हो सकते हैं।

(c) IUCD (Intra Uterine Contraceptive device)-
लूप या कॉपर-T को गर्भाशय में स्थापित किया जाता है। जिससे गर्भधारण नहीं होता ।

(d) शल्यक्रिया तकनीक-
(i) नसबंधी- पुरुषों में शुक्रवाहिकाओं को रोक कर, उसमें से शुक्राणुओं के स्थानांतरण को रोकना।
(ii) ट्यूबेक्टोमी- महिलाओं में अंडवाहनी को अवरुद्ध कर, अंड के स्थानांतरण को रोकना ।

भ्रुण हत्या –

 मादा भ्रूण को गर्भाशय में ही मार देना भ्रूण हत्या कहलाता हैं।
एक स्वास्थ्य समाज के लिए, संतुलित लिंग अनुपात आवश्यक हैं । यह तभी संभव होगा जब लोगों में जागरुकता फैलाई जाएगी व भ्रूण हत्या तथा भ्रूण लिंग निर्धारण जैसी घटनाओं को रोकना होगा।

प्रश्न:- 1. डी.एन.प्रतिकृति का प्रजनन में क्या महत्व हैं?
उत्तर:- डी.एन.प्रतिकृति (Copy) का प्रजनन में महत्व:-
जनन की मूल घटना डी.एन.ए. की प्रतिकृति बनाना हैं। डी.एन.ए. की प्रतिकृति बनाने के लिए कोशिकाएँ विभिन्न रासायनिक क्रियाओं का उपयोग करती हैं । जनन कोशिका में इस प्रकार डी.एन.ए. की दो प्रतिकृतियाँ बनती हैं।

प्रजनन में निम्नलिखित महत्व हैं-
(i) जनन के दौरान डी.एन. ए. प्रतिकृति का जीव की शारीरिक संरचना एवं डिजाइन के लिए अत्यंत महत्वूपर्ण हैं जो विशिष्ट निकेत के योग्य बनाती हैं।
(ii) डी.एन. ए. प्रतिकृति संतति जीव में जैव विकास के लिए उत्तरदायी होती हैं।
(iii) डी.एन.ए. की प्रतिकृति में मौलिक डी.एन.ए. से कुछ परिवर्तन होता हैं मूलत: समरुप नहीं होते हैं अत: जनन के बाद इन पीढ़ियों में सहन करने की क्षमता होती हैं ।
(iv) डी.एन.ए. की प्रतिकृति में यह परिवर्तन परिवर्तनशील परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता प्रदान करती हैं।

प्रश्न:- 2. जीवों में विभिन्नता स्पीशीज के लिए तो लाभदायक हैं परंतु व्यष्टि के लिए आवश्यक नहीं हैं, क्यों‌‌?
उत्तर:- विभिन्नताएँ स्पीशीज़ की उत्तरजीविता बनाए रखने में उपयोगी होता है, क्योंकि यदि किसी समष्टि के जीवों में कुछ विभिन्नता होगी, तभी अचानक कुछ उग्र परिवर्तन आने पर जीवित रह पाएँगे अन्यथा समष्टि का समूल विनाश संभव है। जैसे वैश्विक उष्मीकरण (Global warming) के कारण शीतोष्ण जल के जीवाणुओं की समष्टि में से अधिकतर जीवाणु व्यष्टि मर जाएँगे, परंतु उष्ण प्रतिरोधी क्षमता वाले कुछ परिवर्तन जीवित रहेंगे।

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 Class 10 Science notes 

Chapter 1 रासायनिक अभिक्रियाएँ एवं समीकरण
Chapter 2 अम्ल क्षारक एवं लवण
Chapter 3 धातु एवं अधातु
Chapter 4 कार्बन एवं उसके यौगिक
Chapter 5 तत्वों का आवर्त वर्गीकरण
Chapter 6 जैव प्रक्रम
Chapter 7 नियंत्रण एवं समन्वय
Chapter 8 जीव जनन कैसे करते हैं
Chapter 9 आनुवंशिकता एवं जैव विकास
Chapter 10 प्रकाश परावर्तन तथा अपवर्तन
Chapter 11 मानव नेत्र तथा रंगबिरंगा संसार
Chapter 12 विद्युत
Chapter 13 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव
Chapter 14 ऊर्जा के स्रोत
Chapter 15 हमारा पर्यावरण
Chapter 16 प्राकृतिक संसाधनों का संपोषित प्रबंधन

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