कक्षा 12 राजनीति विज्ञान: कांग्रेस प्रणालीः चुनौतियाँ व पुर्नस्थापना – NCERT नोट्स PDF

स्वतंत्र भारत में, कांग्रेस पार्टी ने 1952 से 1967 तक लगातार तीन आम चुनावों में जीत हासिल करके एक प्रभुत्व स्थापित किया था। इस अवधि को ‘कांग्रेस प्रणाली‘ के रूप में जाना जाता है। 1967 के चुनावों में, कांग्रेस को कुछ राज्यों में हार का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप ‘कांग्रेस प्रणाली’ को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

यह अध्याय CBSE,RBSE,UP Board(UPMSP),MP Board, Bihar Board(BSEB),Haryana Board(BSEH), UK Board(UBSE),बोर्ड परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, और यह उन छात्रों के लिए भी उपयोगी है जो प्रतियोगी परीक्षाओं(UPSC) की तैयारी कर रहे हैं।

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectPolitical Science
ChapterChapter 5
Chapter Nameकांग्रेस प्रणालीः चुनौतियाँ व पुर्नस्थापना
CategoryClass 12 Political Science
MediumHindi

राजनीति विज्ञान अध्याय-5: कांग्रेस – प्रणाली चुनौतियाँ व पुनर्स्थापना

महत्वपूर्ण शब्द / Important words

  • PUF – पापुलर यूनाईटेड फ्रंट
  • SVD – संयुक्त विधायक दल
  • CWC – कांग्रेस वर्किंग कमेटी
  • DMK – द्रविड़ मुनेत्र कड़गम

कांग्रेस प्रणाली / Congress System

1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की और इसके बाद 1952 में हमारे देश में पहले लोकसभा चुनाव हुए। भारत एक लोकतंत्र है, जहां बहुपक्षीय व्यवस्था है, लेकिन चुनावों के बाद भी सत्ता में सबसे लंबे समय तक रहने वाली पार्टी है कांग्रेस पार्टी।

इसे इस समय के दौरान सत्ता में रहने के लिए ‘कांग्रेस प्रणाली’ कहा जाता है। यह एक ऐतिहासिक साकारी सफलता है, जिसे 1947 के बाद से अब तक बनाए रखा गया है।

कांग्रेस प्रणाली ने देश को एक स्थायी संविधान, न्यायपालिका, और नागरिक स्वतंत्रता के लिए एक मजबूत आधार प्रदान किया है। इसकी शक्ति और स्थायिता ने इसे एक आदर्श लोकतंत्र बना दिया है।

कांग्रेस पार्टी ने देश को अनेक महत्वपूर्ण योजनाओं और परियोजनाओं के माध्यम से विकास की दिशा में कई कदम बढ़ाए हैं। इसके कारण यह एक गरिमामय और सशक्त प्रणाली के रूप में पहचानी जाती है।

कांग्रेस प्रणाली ने समाज में सामाजिक समानता, गरीबी की हटाएं, और विकास को सुनिश्चित करने के लिए कई कदम उठाए हैं। इसने विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के क्षेत्र में सुधार की दिशा में प्रमुख नीतियां बनाई हैं।

इस प्रणाली ने बेहद सफलता से देश को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी उच्च स्थान पर ले जाने में सहायक होने का समर्थन किया है। इसकी दृढ़ता और सहयोग ने विश्व में एक महत्वपूर्ण भूमिका बनाई है और दुनियाभर में भारत को एक मजबूत और सुरक्षित राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठान दिलाया है।

भारत में 8 राष्ट्रीय पार्टी है / There are 8 national parties in India

भारत में राजनीतिक स्थिति में बड़े परिवर्तनों के साथ, आज हमारे देश में विभिन्न राष्ट्रीय पार्टियाँ हैं, जो राजनीतिक दलों के रूप में अपनी अद्वितीय पहचान बनाए हुए हैं। ये हैं भारत में मुख्य आठ राष्ट्रीय पार्टियाँ:

  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress): इस पार्टी ने स्वतंत्रता संग्राम के समय अपने नेतृत्व में देश को स्वतंत्रता दिलाने का कार्य किया था और इसके बाद से यह देश की राजनीतिक सीने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party): एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी के रूप में, भारतीय जनता पार्टी ने अपनी विशेषज्ञता और विकास योजनाओं के माध्यम से राजनीतिक सीने में बड़ी ऊँचाईयों को हासिल किया है।
  • बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party): इस पार्टी का मुख्य उद्देश्य विभिन्न सामाजिक वर्गों की समानता और समरसता को बढ़ावा देना है।
  • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (Indian Communist Party): एक लाल संबंधित पार्टी के रूप में, यह विशेष रूप से श्रमिकों और किसानों के हित में काम करती है।
  • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी): इस पार्टी की विचारधारा मार्क्सवाद पर आधारित है और यह समाजवादी और कम्युनिस्ट आदर्शों की प्रोत्साहना करती है।
  • राष्ट्रवादी कांग्रेस (Nationalist Congress Party): यह एक केंद्रीय पार्टी है और उसका मुख्य ध्येय राष्ट्रीय एकता और विकास है।
  • ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (All India Trinamool Congress): इस पार्टी ने पश्चिम बंगाल में अपनी दृढ़ता बनाए रखी है और इसका मुख्य उद्देश्य विकास और सामाजिक न्याय है।
  • नेशनल पीपुल्स पार्टी (National People’s Party): यह उत्तर पूर्वी राज्यों में सक्रिय है और उसका मुख्य उद्देश्य लोगों के हित में नीतियों को प्रमोट करना है।

इन पार्टियों के माध्यम से हमारा देश राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से समृद्धि की दिशा में बढ़ता है और इनके माध्यम से विभिन्न विचारों और मूल्यों का समान में समर्थन प्रदान किया जाता है।

कांग्रेस के प्रभुत्व का कारण / Reason for dominance of Congress

कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व के कई कारण हैं जो इसे देश की सबसे महत्वपूर्ण और स्थायी राजनीतिक दलों में से एक बनाते हैं:

  • ऐतिहासिक महत्व: कांग्रेस पार्टी ने भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, आजादी के बाद से अब तक सबसे पुरानी पार्टी के रूप में अपने आप को साबित किया है।
  • मजबूत संगठन: कांग्रेस पार्टी ने एक मजबूत और व्यापक संगठन बनाया है जिसने देशभर में आदर्श और सुरक्षित राजनीतिक प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया है।
  • लोकप्रिय नेता: इस पार्टी के पास विभिन्न युगों में शानदार नेतृत्व है, जैसे कि जवाहरलाल नेहरू, राजीव गांधी, और इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी जैसे चरित्रवान नेता जो जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हैं।
  • आजादी की विरासत: कांग्रेस पार्टी ने स्वतंत्रता संग्राम के समय अपने योगदान के लिए देश को स्वतंत्रता दिलाई थी, जिससे इसे आजादी की विरासत का आदान-प्रदान है।
  • समर्थन सभी वर्गों से: कांग्रेस पार्टी ने अपनी नीतियों के माध्यम से समाज के सभी वर्गों को समर्थन प्रदान किया है, जिससे यह एक सामूहिक और समृद्धिशील समाज की दिशा में काम कर सकती है।

इन कारणों से कांग्रेस पार्टी ने भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण और स्थिर स्थान बनाए रखा है और देश के विकास में अपना योगदान जारी रख रही है।

नेहरु जी की मौत के बाद उत्तराधिकार का संकट / Succession crisis after Nehru’s death

1964 मई में जवाहरलाल नेहरू की असमय आकस्मिक मृत्यु हो गई, जिसने देश को एक बड़े उत्तराधिकारिक संकट में डाल दिया। उनकी मौत के बाद, राजनीतिक गतिविधियों में एक ताकती खाली स्थान पैदा हो गया, और इससे उत्तराधिकार की घड़ी कुछ बहस और अस्तंगता के साथ आई।

इस समय के दौरान, जनता के बीच एक आशंका उत्पन्न हुई कि देश में राजनीतिक स्थिति में अस्तब्धि हो सकती है और यह असमंजस में डाल सकता है। इस चिंता के कारण, व्यक्ति के मौत के बाद राजनीतिक नेतृत्व का समर्थन करने की आवश्यकता थी, ताकि देश का संरचना बना रहता।

इस दौरान, एक और आशंका उत्पन्न हुई कि यदि सही रूप से नहीं हैंडल किया गया, तो सेना का शासन आ सकता है, जिससे देश में लोकतंत्र की स्थिति कमजोर हो सकती थी। यह भी था एक संदेह का समय, जब लोगों को यह आशंका थी कि क्या वे स्वतंत्रता और लोकतंत्र की नींवों को सुरक्षित रूप से बनाए रख पाएंगे या नहीं।

लाल बहादुर शास्त्री का शासन काल / Reign of Lal Bahadur Shastri

लाल बहादुर शास्त्री ने देश को अपने साहस और संघर्ष से भरा संदेश दिया और उनके शासनकाल में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुईं। यहां उनके शासनकाल के मुख्य पहलुओं की एक सुंदर और संरचित झलक है:

  • कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में: लाल बहादुर शास्त्री ने पहले कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया और उनका संगठन में योगदान आम जनता को दिखा कि वे एक नेतृत्व क्षमताओं से समर्थ हैं।
  • प्रधानमंत्री के रूप में: उनकी अवधि में, जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद, वह प्रधानमंत्री बने और उनका शासनकाल 1964 से 1966 तक रहा। इस दौरान उन्होंने देश को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जैसे कि चीन-भारत युद्ध, आर्थिक संकट, मौसमी असुविधाएं और पाकिस्तान के साथ तनाव।
  • ताशकंद में निधन: लाल बहादुर शास्त्री जी का अचानक 10 जनवरी 1966 को ताशकंद, उजबेकिस्तान में निधन हो गया। उनकी मृत्यु ने देश को एक और सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता महसूस कराई और इससे वह एक ऐतिहासिक व्यक्ति बन गए।
  • चुनौतियों का सामना: उनके शासनकाल में देश ने चीन के साथ हुए युद्ध और अन्य आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना किया। उन्होंने अपनी सामरिक और दूरदृष्टि से इन मुद्दों का सामना किया और देश को सशक्त बनाए रखने के लिए कई कदम उठाए।

इस प्रकार, लाल बहादुर शास्त्री जी का शासनकाल एक चुनौतीभरा समय था, जिसमें उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता और साहस का परिचय दिया।

लाल बहादुर शास्त्री जी के शासन काल के दौरान आई चुनौतिया / Challenges faced during the rule of Lal Bahadur Shastri ji

लाल बहादुर शास्त्री जी के शासनकाल में आई चुनौतियों ने उनकी नेतृत्व क्षमता को सामने लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस अवधि में, देश ने विभिन्न क्षेत्रों में सामना किया और इन चुनौतियों का सामना करने के लिए उन्होंने अपने मनोबल को बढ़ावा दिया। यहां इन चुनौतियों की एक संगठित झलक है:

  • 1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध: इस अवधि में भारत और पाकिस्तान के बीच एक महत्वपूर्ण संघर्ष हुआ जिसे हम जानते हैं 1965 का भारत-पाक युद्ध। इस युद्ध के दौरान लाल बहादुर शास्त्री ने नेतृत्व दिखाकर देश को संघर्ष से निकालने के लिए साहस और समर्थन प्रदान किया।
  • खाद्यान्न का संकट: मौसमी असफलता ने खाद्यान्न की उपलब्धता पर असर डाला और शास्त्री जी ने इस समस्या का समाधान निकालने के लिए ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया।
  • ताशकंद समझौता: 1966 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए ताशकंद समझौते ने युद्ध की समाप्ति का मार्ग प्रदान किया और दोनों देशों के बीच संबंधों में सुधार का कारण बना। इस समझौते के माध्यम से लाल बहादुर शास्त्री ने दोनों देशों के बीच शांति और सहमति की बातें बढ़ाई।

लाल बहादुर शास्त्री जी ने इन चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी अद्वितीय नेतृत्व क्षमता दिखाई और देश को एक मजबूत और साहसी नेता के रूप में याद किया जाता है।

1960 दशक को खतरानाक दशक क्यों कहते है ? / Why is the 1960s called a dangerous decade?

1960 दशक को “खतरनाक दशक” कहा जाता है क्योंकि इस समय भारत ने कई महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना किया और इसके दौरान देश ने गरीबी, गैर बराबरी, सांप्रदायिक विभाजन, और क्षेत्रीय विवादों का सामना किया। यहां इस दशक की महत्वपूर्ण घटनाओं की एक झलक है:

  • गरीबी, गैर बराबरी, और सांप्रदायिक विभाजन: 1960 दशक में भारत ने गरीबी, गैर बराबरी, और सांप्रदायिक विभाजन की महामारी से गुजरा। इस दौरान, समाज में आपसी विरोध, सांप्रदायिक तनाव, और विभिन्न समाजशास्त्रीय समस्याएं उत्पन्न हुईं।
  • नेहरू जी के उत्तराधिकारी का चयन: नेहरू जी की मृत्यु के बाद, उनके उत्तराधिकारी का चयन बड़ी आसानी से नहीं हुआ और इससे राजनीतिक असमंजस में भारत था।
  • मानसून की असफलता, चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध: मौसमी असफलता ने 1962 में चीन के साथ युद्ध और 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध की स्थिति बनाई। इसके परिणामस्वरूप, देश ने सूखे की स्थिति, युद्ध से हुई नुकसान, और अर्थव्यवस्था में समस्याएं झेलीं।

इसीलिए, 1960 दशक को खतरनाक दशक कहा जाता है, क्योंकि इस समय देश ने विभिन्न क्षेत्रों में सामना करने के लिए बड़ी चुनौतियों का सामना किया और इन्हें पार करने के लिए सकारात्मक पहलूओं की आवश्यकता थी।

शास्त्री जी के बाद उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी जी / Indira Gandhi, successor after Shastri ji

लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु के बाद, राजनीतिक सीना में समर्थ और अनुभवी नेता की खोज में हुई और इसमें तीव्र प्रतिस्पर्धा देखने को मिली। इस संदर्भ में, मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी ने आम जनता के बीच अपने प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता के माध्यम से अपने आप को साबित किया।

  • राजनैतिक उत्तराधिकारी की चुनौती: शास्त्री जी के बाद मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी के बीच राजनैतिक उत्तराधिकारी के लिए एक स्थिति उत्पन्न हुई। इस समय का चुनौतीपूर्ण दौर ने दिखाया कि नेतृत्व की चर्चा में उठने वाले उम्मीदवारों के बीच सख्त प्रतिस्पर्धा है।
  • सिंडिकेट और इंदिरा गांधी का नेतृत्व: इंदिरा गांधी ने सिंडिकेट के समर्थन के बावजूद, जो कि अनुभवहीन थीं, प्रधानमंत्री बनने में सफल रहीं। सिंडिकेट का समर्थन लेकर भी, इंदिरा गांधी ने अपनी नेतृत्व क्षमता से प्रधानमंत्री पद की ऊँचाइयों तक पहुँचते हुए प्रदर्शन किया।
  • सत्ता का हस्तांतरण: इस समय, पार्टी के आंतरिक प्रतिस्पर्धा के बावजूद, सत्ता का हस्तांतरण एक शांतिपूर्ण तथा संविदानिक दृष्टिकोण से हुआ। इससे पार्टी के आंतरिक एकता की भावना को मजबूती मिली और सत्ता का संचालन स्थिरता से हुआ।

इस रूप में, इंदिरा गांधी ने शास्त्री जी के उत्तराधिकारी के रूप में अपने नेतृत्व कौशल को साबित किया और देश के सामरिक, आर्थिक, और राजनीतिक संदर्भ में मुख्य नेता के रूप में अपने प्रभाव को बढ़ाया।

इंदिरा गांधी जी के पीएम बनने के समय देश की समस्या / Problems of the country at the time of Indira Gandhi becoming PM

इंदिरा गांधी जी के प्रधानमंत्री बनने के समय, देश के सामने कई महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक समस्याएं थीं जिन्होंने उन्हें संभालने में कठिनाईयों का सामना किया। यहां इस समय की मुख्य समस्याएं हैं:

  • मानसून की असफलता: इस समय में मानसून की असफलता ने खेती और किसानों को प्रभावित किया और यह एक बड़ी आर्थिक समस्या बन गई।
  • व्यापक सूखा: व्यापक सूखा ने देशवासियों को पीने के पानी और खाद्य सामग्री की कमी से जूझना पड़ा, जिससे आर्थिक तंगी हुई।
  • विदेशी मुद्रा भंडार में कमी: देश के विदेशी मुद्रा भंडार में कमी थी जिसने आर्थिक स्थिति को और भी कठिन बना दिया।
  • निर्यात में गिरावट: निर्यात में गिरावट के कारण देश की आर्थिक स्थिति में अस्तव्यस्ति हुई और विभिन्न उद्यमों को नुकसान हुआ।
  • सैन्य खर्चे में बढ़ोत्तरी: बढ़ते सैन्य खर्चों ने आर्थिक संकट को और भी बढ़ा दिया, जिससे देश ने आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
  • अमेरिका के दबाव में रुपए का अवमूल्यन: इंदिरा गांधी ने अमेरिका के दबाव में रुपए का अवमूल्यन किया, जिससे एक डॉलर 5 रुपए का होकर 7 रुपए हो गए। यह एक कदम था जिससे देश की आर्थिक स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया गया।

इस प्रकार, इंदिरा गांधी जी ने अपने प्रधानमंत्री बनने के समय इन समस्याओं का सामना करना पड़ा और उन्होंने उच्च नेतृत्व के साथ इन समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया।

चौथा आम चुनाव 1967: एक राजनैतिक भूकंप / Fourth General Election 1967: A political earthquake

अनुभवहीन नेता की चुनौती: देश की अस्तित्वशीलता और अनुभवहीन नेता होने के कारण, विपक्षी दलों ने चुनावों में भाग लेने का निर्णय लिया। यह स्थिति पहले की तुलना में अनुभवहीन प्रधानमंत्री के चुनावों का सामना करना था, जिससे नई राजनीतिक दिशा बनी।

1967 के चुनाव: फरवरी 1967 में लोकसभा और विधानसभा चुनावों ने देश को हिला दिया। इन चुनावों के नतीजे ने सबको चौंका दिया, क्योंकि कांग्रेस को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।

गहरा धक्का: विभिन्न राज्यों में कांग्रेस को सीटों और मतों में गहरा धक्का लगा। चुनावों के नतीजे ने राजनीतिक स्कीमों को प्रभावित किया और सबसे बड़े नेताओं को हार का सामना करना पड़ा।

सरकार नहीं बना सकी: कांग्रेस ने 9 राज्यों में सरकार नहीं बना सकी, जिनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, पं. बंगाल, उड़ीसा, मद्रास, और केरल शामिल थे। यह समझौता राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण पल था।

तमिलनाडु का बदलता सियासत: तमिलनाडु में, DMK ने पहली बार सत्ता में आने का इतिहास रचा। इस राजनीतिक दल ने हिंदी को राजभाषा के रूप में खिलाफी की और राज्य में सरकार बनाई।

राजनीतिक भूकंप: चुनावों के नतीजे ने सामाजिक और राजनीतिक भूकंप को उत्पन्न किया, जिसने देश की राजनीतिक दृष्टि को बदल दिया और विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों को स्थापित किया।

इस प्रकार, चौथा आम चुनाव 1967 ने देश की राजनीतिक परिदृष्टि में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने में सफल रहा और विभिन्न राजनीतिक दलों को स्थापित करने में मदद की।

गैर कांग्रेस वाद / Non-Congress issue

समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया की रणनीति: दलों के विभिन्न कार्यक्रम और विचारधाराओं के धरातल पर अलग रहने के बावजूद, समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने एक साथ मिलकर एक कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाई।

तालमेल और सहयोग: गैर-कांग्रेसवादी दलों ने अपने सीटों के मामले में चुनावी तालमेल किया, जिससे कांग्रेस के प्रति एकजुटता में वृद्धि हुई। इससे उन्होंने कांग्रेस से मिलती-जुलती विचारधारा वाले दलों को साथ लेकर एक समर्थ मोर्चा बनाया।

गैर-कांग्रेसवाद का सामर्थ्य: लोहिया ने इस रणनीति को ‘गैर-कांग्रेसवाद’ का नाम दिया, जिससे वे विभिन्न दलों को एक साथ लाने में सफल रहे। इससे गैर-कांग्रेसवादी मोर्चा का उत्थान हुआ और कांग्रेस के खिलाफ सामर्थ्य में वृद्धि हुई।

इस प्रकार, गैर-कांग्रेसवाद ने एक सामर्थ्यपूर्ण मोर्चा बनाया और राजनीतिक स्थिति में बदलाव लाने का प्रयास किया।

गठबंधन / Alliance

गठबंधन एक स्तिथि को विशेष रूप से वर्णित करता है जब दो या दो से ज़्यादा पार्टियां एक साथ मिलकर सरकार बनाती हैं। इस समर्थन की जरूरत इसलिए होती है क्योंकि किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलता होता, जिससे वह अकेले सरकार बना सके।

गठबंधन के माध्यम से विभिन्न राजनीतिक दलों ने मिलकर एक सामंजस्यपूर्ण सरकार बनाई है, जिससे समय-समय पर बहुमत नहीं होने के कारण सरकार बनाने का संदर्भ बनता है। इस प्रकार, गठबंधन एक सामरिक और सहयोगी राजनीतिक व्यवस्था को दर्शाता है जिसमें विभिन्न दल एक-दूसरे के साथ मिलकर सरकार चलाते हैं।

गठबंधन का सिद्धांत यह दिखाता है कि राजनीतिक दल एक साथ काम करके बेहतर निर्णय ले सकते हैं और विभिन्न समस्याओं का सामंजस्यपूर्ण समाधान कर सकते हैं। इसके अलावा, यह दिखाता है कि विभिन्न सोच और विचारधाराओं के बीच मिलजुलकर काम करना समृद्धि और सुधार की दिशा में एक प्रेरणा स्रोत बन सकता है।

कई दलों का गठबंधन / Multi Party Coalition System

सारांश: 1967 के चुनावों से पहले औरता चुनाव का नतीजा था कि एक ही पार्टी को बहुमत नहीं मिला। इसके परिणामस्वरूप, अनेक गैर-कांग्रेसी सरकारों ने मिलकर सयुक्त विधायक दल बनाया।

विचारधाराएं एकत्र: इस गठबंधन में अलग-अलग विचारधाराओं की पार्टियां शामिल हुईं, जिससे एक विविध और एकत्रित सरकार बनी। उदाहरण के रूप में, बिहार में समाजवादी पार्टी और पी सी पी (पुत्ते की जनता पार्टी) ने मिलकर सरकार बनाई।

यह व्यवस्था दिखाती है कि राजनीतिक दलों ने साझेदारी के माध्यम से अपने विचारों और मूल्यों को मिलाकर एक सामंजस्यपूर्ण सरकार बनाई है। गठबंधन ने दिखाया कि सामूहिक निर्णय और सहयोग से एक विशेष राजनीतिक समृद्धि की संभावना है और यह विभिन्न दलों के बीच मिलकर सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है।

दल बदल / Defection

समर्थन बदलते हुए: जब कोई जनप्रतिनिधि किसी खास दल के चुनाव चिह्न पर जीत हासिल करता है और चुनाव जीतने के बाद उस दल को छोड़कर दूसरे दल में शामिल होता है, तो इस प्रक्रिया को “दल बदल” कहते हैं।

‘आयाराम-गयाराम’ जुमला: 1967 के चुनावों के बाद, हरियाणा के एक विधायक गयालाल ने एक पखवाड़े में तीन बार पार्टी बदली, जिससे उनके नाम पर ‘आयाराम-गयाराम’ का जुमला बना। यह जुमला दल बदल की अवधारणा को संबंधित करता है, जिससे व्यक्ति एक पार्टी से दूसरी पार्टी में स्थानांतरित होता है।

दल बदल की यह प्रक्रिया राजनीतिक सीने में एक नई दिशा प्रदान करती है और दिखाती है कि समर्थन की शक्ति किसी भी समय बदल सकती है। यह भी दिखाता है कि राजनीतिक व्यक्ति अपने आत्मविश्वास के साथ अलग-अलग दलों में शामिल होकर समर्थन प्राप्त कर सकता है।

सिंडिकेट / Syndicate

कांग्रेस के अंदर, एक ताकतवर नेताओं का समूह अनौपचारिक रूप से “सिंडिकेट” कहा जाता था। इस समूह के नेताओं ने पार्टी के संगठन पर नियंत्रण बनाए रखा था।

सिंडिकेट के नेता

राज्य

के . कामराज

मद्रास(Mid day Meal शुरू कराने के लिये प्रसिद्ध)

एस . के . पाटिलएस

बम्बई (मुंबई) शहर

के . एस . निज लिंगप्पा

मैसूर (कर्नाटक)

एन . सजीव रेड्डी

आंध्र प्रदेश

अतुल्य घोष

पश्चिम बंगाल

1969 का राष्ट्रपति चुनाव / Presidential election of 1969

1969 के राष्ट्रपति चुनाव: एक ऐतिहासिक संघर्ष

प्रस्तावना:

  • डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद, सिंडिकेट ने राष्ट्रपति पद के लिए तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष एन. संजीव रेड्डी को कांग्रेस पार्टी का उम्मीदवार घोषित किया।

चुनौती और उम्मीदवारों का चयन:

  • इंदिरा गांधी ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी. वी. गिरि को स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन भरवाया। इस समय की सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों के बीच, इंदिरा गांधी ने वोट देने के लिए अंतरात्मा की आवाज को बढ़ावा दिया।

चुनाव और विभाजन:

  • 1969 में राष्ट्रपति पद के चुनावों के बाद, कांग्रेस में आंतरिक विभाजन हो गया। वी. वी. गिरी ने चुनाव जीतकर राष्ट्रपति पद पर कदम रखा, लेकिन इसका परिणाम हुआ कि कांग्रेस अंग्रेजी भाषा में विभाजित हो गई।

आखिरी विचार:

  • 1969 के राष्ट्रपति चुनाव भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण पलों में से एक थे, जिनका परिणाम कांग्रेस में आंतरिक विभाजन और भारतीय राजनीतिक स्थिति में बड़ी बदलावों की शुरुआत करता है।

कांग्रेस का विभाजन / Division of Congress

प्रस्तावना:

  • सिंडिकेट और इंदिरा गांधी के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे थे, जो सीधे रूप से 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा गांधी के समर्थित उम्मीदवार वी. वी. गिरी की जीत से स्पष्ट हो गये।

विभाजन:

  • राष्ट्रपति चुनाव की हार से मिली नाराजगी के चलते, 1969 में कांग्रेस में विभाजन हो गया। इस विभाजन के परिणामस्वरूप, कांग्रेस (आर्गेनाइजेशन) और कांग्रेस (रिक्विजिनिस्ट) दो अलग-अलग समूहों में विभाजित हुई।

दो समूह:

  • Cong ‘ O’ (सिंडिकेट समर्थित ग्रुप): इस समूह का समर्थन सिंडिकेट नेताओं द्वारा किया गया था और इसमें पहले के नेतृत्व वाले कांग्रेस के अनुयायी शामिल थे।
  • Cong. (R) (इंदिरा गांधी समर्थित ग्रुप): इस समूह का समर्थन इंदिरा गांधी द्वारा किया गया था और इसमें उनके समर्थक शामिल थे। ‘R’ यहां रिक्विजिनिस्ट को सूचित करता है, जिसका मतलब ‘पुनर्निर्माता’ है।

निष्कर्ष:

  • 1969 का विभाजन कांग्रेस के इतिहास में एक महत्वपूर्ण समयक्रम है, जिसने राष्ट्रीय राजनीति में नए युग की शुरुआत की और भारतीय राजनीति में नए दिशा-निर्देश स्थापित किए।

कांग्रेस के विभाजन के मुख्य कारण / Main reasons for division of Congress

1969 का राष्ट्रपति चुनाव:

  • 1971 के चुनावों के पूर्व, राष्ट्रपति चुनावों में उम्मीदवार का चयन नेतृत्व में मतभेदों की भूमिका निभाई।

बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स:

  • बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स की नीति के मुद्दे ने कांग्रेस में मतभेद बढ़ाए।

वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से मतभेद:

  • वित्त मंत्री मोरारजी देसाई के साथ मतभेदों ने कांग्रेस को विभाजित किया।

सिंडिकेट और युवा तुर्कों के मतभेद:

  • सिंडिकेट और युवा तुर्कों के बीच मतभेदों ने कांग्रेस की एकता को हमारे विचार में तोड़ दिया।

इंदिरा गांधी की समाजवादी नीतियाँ:

  • इंदिरा गांधी की समाजवादी नीतियाँ और उनके कदमों ने पार्टी के भीतर मतभेदों को बढ़ावा दिया।

इंदिरा गांधी का कांग्रेस से निष्कासन:

  • इंदिरा गांधी का कांग्रेस से निष्कासन और उनकी स्वतंत्रता की दिशा ने मतभेदों को उच्च स्तर पर ले जाया।

इंदिरा गांधी द्वारा सिंडिकेट को महत्व न देना:

  • इंदिरा गांधी ने सिंडिकेट को अपने नेतृत्व में महत्वपूर्ण नहीं माना, जिससे भीतरी असमंजस्यता बढ़ी।

दक्षिण पंथी और वामपंथी विषय पर कलह:

  • दक्षिण पंथी और वामपंथी विषयों पर मतभेद ने पार्टी को विभाजित करने में योगदान किया।

निष्कर्ष:

  • इन मुख्य कारणों से भिन्न, कांग्रेस के विभाजन ने भारतीय राजनीति को नए मोड़ पर ले जाया और इंदिरा गांधी को नए दौर की शुरुआत में मार्गदर्शन किया।

प्रिवी पर्स उत्तर / Privy Purse Answer

प्रिवी पर्स, जिसे राजवाड़ों या प्रिन्सिपैलिटीज कहा जाता था, यह आजादी के बाद भारत में एक समाप्त होने वाले शासकीय व्यवस्था थी जिसमें राजवंशों को विशेष प्रधिकृति, विशेष भत्ते, और निजी संपत्ति रखने का अधिकार था। यह पद्धति भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद अंग था।

देसी रियासतों का विलय / Merger of native princely states

प्रस्तावना:

  • भारतीय संघ की स्थापना से पहले, देसी रियासतें अपने शासकीय परिवारों के साथ अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने का अधिकार रखती थीं। इस परिवारों को निश्चित मात्रा में निजी संपत्ति रखने का अधिकार था, साथ ही सरकार द्वारा उन्हें कुछ विशेष भत्ते भी दिए जाते थे।

मुख्य बिंदुएं:

निजी संपत्ति और विशेष भत्ते:

  • देसी रियासतों का विलय तब होता जब इन परिवारों को संघ में मिलाया जाता था, और उन्हें निजी संपत्ति रखने का अधिकार और विशेष भत्ते देने का आश्वासन दिया जाता था।

प्रिवी पर्स:

  • इस व्यवस्था को प्रिवी पर्स कहा जाता था, जिससे निजी संपत्ति और भूमि की व्यापकता, राजस्व, और क्षमता की आकलन होती थी।

इंदिरा गांधी के कार्यक्रम:

  • 1967 के चुनावों में इंदिरा गांधी ने अपने जनाधार को पुनः प्राप्त करते हुए देसी रियासतों के विलय को एक आधुनिक राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा बनाया। इसमें बैंकों का राष्ट्रीयकरण, खाद्यान्न का सरकारी वितरण, और भूमि सुधार जैसे कदम शामिल थे।

ग्रैंड अलायंस:

  • 1971 के चुनावों में गैर-साम्यवादी व पूर्व कांग्रेसी विपक्षी पार्टियों ने ‘ग्रैंड अलायंस’ बनाया, जिससे वे इंदिरा गांधी के खिलाफ एकजुट हुए।

निष्कर्ष:

  • इस प्रक्रिया से देशी रियासतों का विलय भारतीय संघ में एकीकृत हुए और एक संघीय भूपूर्व राज्यों की स्थापना में सहायक बने। इसके परिणामस्वरूप, राष्ट्र को एक सशक्त और समृद्धि शील दिशा में प्रगट होने में मदद मिली।

चुनाव परिणाम / Election Result

कांग्रेस ‘ आर ‘ व सी. पी. आई

375 सीट

गठबंधन 

352  कांग्रेस R + 23

कप्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस

16 सीट

ग्रैंड अलायंस

40 से भी कम सीट

कांग्रेस प्रणाली का पुर्नस्थापन / Restoration of Congress system

प्रस्तावना:

  • कांग्रेस पार्टी ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें उसने पार्टी को पुर्नस्थापित करने का प्रयास किया। इस नए दौर में, पार्टी ने अपनी नींव को बनाए रखने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए और समाज के विभिन्न वर्गों के हित में काम करने का संकल्प लिया।

मुख्य प्रमुख बिंदुएं:

लोकप्रियता के आधार पर नेतृत्व:

  • कांग्रेस पुनः स्थापित होते समय, नेतृत्व की लोकप्रियता पर आधारित थी। इसका मतलब है कि पार्टी के सर्वोच्च नेता की जनप्रियता उसकी सशक्ति का मूल था।

सामाजिक वर्गों के प्रति संवेदना:

  • अब कांग्रेस गरीबों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की भलाइयों के प्रति संवेदनापूर्ण थी। इसमें समृद्धि के लिए विशेष प्रोग्राम शामिल थे।

नई संगठनिक ढाँचा:

  • इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की संगठनिक ढाँचा को पुनर्निर्माण किया, लेकिन संगठन कमजोर था। इसे बदलकर पुनर्निर्माण करने के लिए कई कदम उठाए गए।

निष्कर्ष:

  • कांग्रेस पार्टी का पुनःस्थापन एक नए दौर की शुरुआत को दर्शाता है, जिसमें नेतृत्व, सामाजिक वर्गों के प्रति संवेदना, और संगठनिक ढाँचा एक सशक्त और समर्थ पार्टी बनाए रखने के लिए एकजुट हुए। इससे पार्टी ने राष्ट्र की सेवा में नई ऊर्जा को जागृत किया और जनसमर्थन में भी वृद्धि की।

1971 के चुनावों के बाद, कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व की पुनर्स्थापना के लिए उठाए गए कदम / After the 1971 elections, steps were taken to restore the dominance of the Congress Party

श्रीमती गाँधी का चमत्कारिक नेतृत्व:

  • 1971 के चुनावों में इंदिरा गाँधी ने अपने चमत्कारिक नेतृत्व के जरिए जनता को प्राप्त किया। उनकी नेतृत्वशैली ने पार्टी को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

समाजवादी नीतियाँ:

  • इंदिरा गाँधी ने समाजवादी नीतियों को अपनाया, जिससे गरीबी, असमानता और न्याय के प्रति उनकी संवेदना को दर्शाया।

गरीबी हटाओं का नारा:

  • उन्होंने “गरीबी हटाओ” का नारा दिया और विभिन्न क्षेत्रों में गरीबी को कम करने के लिए उच्च प्राथमिकता दी।

कांग्रेस दल पर इंदिरा गाँधी की पकड़:

  • इंदिरा गाँधी ने पार्टी में अपनी मजबूत पकड़ बनाई रखी, जिससे विभिन्न प्रदेशों में कांग्रेस के नेता उनके प्रति विश्वास में वृद्धि होती रही।

वोटों का धुव्रीकरण:

  • इंदिरा गाँधी ने विभिन्न समृद्धि कार्यक्रमों और उदार नीतियों के माध्यम से वोटों का धुव्रीकरण किया और जनता की आत्मविश्वास को मजबूत किया।

कमजोर विपक्षी दल:

  • चुनावी प्रक्रिया में कमजोर और बिखरे हुए विपक्षी दलों के बीच विभाजन ने कांग्रेस को मजबूत कर दिया, जिससे वे आसानी से विजयी होती रहीं।

निष्कर्ष:

  • 1971 के चुनावों के बाद, इंदिरा गाँधी ने कांग्रेस पार्टी को नई दिशा में ले जाने के लिए कदम उठाए और उनकी नेतृत्वशैली, सामाजिक वादी नीतियाँ, और विभिन्न विकास प्रोग्रामों के माध्यम से प्रभुत्व को पुनर्स्थापित किया।

Politics of गरीबी हटाओ / Politics of remove poverty

नारा और कार्यक्रम:

  • ‘गरीबी हटाओ’ नारा इंदिरा गांधी की राजनीतिक रणनीति का केंद्र बना और इसके साथ जुड़े कार्यक्रमों के माध्यम से वे राजनीतिक समर्थन बढ़ाना चाहती थीं।

सामाजिक समर्थन की बुनियाद:

  • ‘गरीबी हटाओ’ से जुड़े अनुप्रयोगों ने इंदिरा गांधी को वंचित वर्गों के साथ अपने समर्थन का मजबूत आधार देने में सफलता प्राप्त की।

विभिन्न समृद्धि क्षेत्रों में कार्यक्रम:

  • इंदिरा गांधी ने गरीबी को कम करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में बड़े पैम्बर विकास कार्यक्रमों की शुरुआत की, जिसमें बैंकों का राष्ट्रीयकरण, खाद्यान्न का सरकारी वितरण, और भूमि सुधार शामिल थे।

आर्थिक आदान-प्रदान में सुधार:

  • उन्होंने गरीबी के कारणों को दूर करने के लिए आर्थिक आदान-प्रदान में सुधार करने का प्रयास किया और विकसित क्षेत्रों में रोजगार सृजन की कई पहलीनेय योजनाएं शुरू की।

सामाजिक समर्थन:

  • इस नारे के माध्यम से इंदिरा गांधी ने सामाजिक असमानता के खिलाफ अपने समर्थन को मजबूत बनाया और गरीबों को समाज में एक बराबरी की भावना से जोड़ा।

चुनावी प्रभाव:

  • इस राजनीतिक रणनीति और ‘गरीबी हटाओ’ के सिद्धांतों का सफल प्रयोग ने इंदिरा गांधी को 1971 के चुनावों में पूर्णबहुमत प्राप्त करने में सहायक होते हुए पार्टी को स्थापित किया।

निष्कर्ष:

  • गरीबी हटाओ के सिद्धांत और नारे ने इंदिरा गांधी को राजनीतिक मैदान में एक मजबूत नेतृत्व के रूप में स्थापित किया और उन्हें जनसमर्थन में वृद्धि की।

आशा करते है इस पोस्ट कक्षा 12 राजनीति विज्ञान: कांग्रेस प्रणालीः चुनौतियाँ व पुर्नस्थापनाता का अंत में दी गयी जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी । आप हमें नीचे Comment करके जरुर बताये और अपने दोस्तों को जरुर साझा करे। यह पोस्ट कक्षा 12 राजनीति विज्ञान :कांग्रेस प्रणालीः चुनौतियाँ व पुर्नस्थापना पढ़ने के लिए धन्यवाद ! आपका समय शुभ रहे !!

NCERT Notes

स्वतंत्र भारत में, कांग्रेस पार्टी ने 1952 से 1967 तक लगातार तीन आम चुनावों में जीत हासिल करके एक प्रभुत्व स्थापित किया था। इस अवधि को 'कांग्रेस प्रणाली' के रूप में जाना जाता है। 1967 के चुनावों में, कांग्रेस को कुछ राज्यों में हार का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 'कांग्रेस प्रणाली' को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

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Author: NCERT

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  • Best NCERT Notes Class 6 to 12

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