कक्षा 12 राजनीति विज्ञान: लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट – NCERT नोट्स PDF

NCERT द्वारा प्रकाशित कक्षा 12 राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक 2 में अध्याय 6लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट” भारतीय लोकतंत्र द्वारा सामना किए जाने वाले विभिन्न चुनौतियों का विश्लेषण करता है। यह अध्याय उन छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है जो भारतीय राजनीति की गहन समझ विकसित करना चाहते हैं।

यह अध्याय निम्नलिखित विषयों को शामिल करता है:

  • लोकतंत्र की अवधारणा और विशेषताएं
  • भारतीय लोकतंत्र की प्रमुख चुनौतियां
  • राजनीतिक दलों और चुनावी प्रक्रिया में कमजोरियां
  • भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रीयवाद
  • मानवाधिकारों का उल्लंघन और नागरिक स्वतंत्रता
  • गरीबी, असमानता और सामाजिक न्याय
  • पर्यावरणीय चुनौतियां
  • आतंकवाद और उग्रवाद
  • वैश्वीकरण का प्रभाव
  • लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए उपाय

यह अध्याय CBSE,RBSE,UP Board(UPMSP),MP Board, Bihar Board(BSEB),Haryana Board(BSEH), UK Board(UBSE),बोर्ड परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, और यह उन छात्रों के लिए भी उपयोगी है जो प्रतियोगी परीक्षाओं(UPSC) की तैयारी कर रहे हैं।

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectPolitical Science
ChapterChapter 6
Chapter Nameलोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट
CategoryClass 12 Political Science
MediumHindi

Class 12 political science book 2 chapter 6 notes in hindi: लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट Notes

1971 के बाद कि राजनीति / Politics after 1971

1971 के बाद की राजनीति में, 25 जून 1975 से लेकर 18 महीने तक, भारत में अनुच्छेद 352 के प्रावधान के तहत आपातकाल लागू था। इस समय के दौरान, देश की अखंडता और सुरक्षा को मध्यस्थ सरकार ने प्राथमिकता दी और सभी शक्तियाँ केंद्रीय सरकार के पास समाहित हो गईं।

आपातकाल के दौरान, सरकार ने देश के समृद्धि और सुरक्षा की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए सख्त कदम उठाए। इस समय में, सभी शक्तियाँ केंद्रीय सरकार के नियंत्रण में थीं, जिससे देश की सामरिक और राजनीतिक स्थिति पर नजर रखना संभव था।

आपातकाल के दौरान, सरकार ने देशवासियों की सुरक्षा और राष्ट्रीय अखंडता को महत्वपूर्ण मानते हुए अनुच्छेद 352 का प्रयोग किया और सभी आपत्तियों का सामना किया। इसके दौरान, सरकार ने सख्त कदम उठाए और देश को सुरक्षित रखने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए।

आपातकाल का दौर भारतीय राजनीति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना रहा है, जिसने दिखाया कि सरकार अपने समृद्धि और सुरक्षा के मामले में निर्णयक कदम उठा सकती है, यही सबक सबको दिखाया गया कि राष्ट्र की सुरक्षा सर्वोपरि होती है।

आपातकाल के प्रमुख कारक

Main factors of emergency

आपातकाल के प्रमुख कारकों में से कुछ आर्थिक पहलुओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा:

आर्थिक कारक:

  • गरीबी हटाओं के लक्ष्य में कुछ सकारात्मक परिणाम नहीं मिले।
  • बांग्लादेश के संकट ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव डाला।
  • अमेरिका ने भारत को सहायता देना बंद कर दिया, जिसने आर्थिक स्थिति को और बड़ा चुनौतीपूर्ण बना दिया।
  • अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों के बढ़ने से अनेक वस्तुओं की मूल्य में वृद्धि हुई।
  • औद्योगिक विकास की दर में कमी आई और बेरोजगारी तेजी से बढ़ी।
  • शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की स्थिति बिगड़ी।
  • सरकार ने खर्चे कम करने के लिए सरकारी कर्मचारियों के वेतन में कटौती की।

छात्र आंदोलन:

  • गुजरात के छात्रों ने जनवरी 1974 में खाद्यान्न, खाद्य तेल, और अन्य आवश्यक वस्तुओं की महंगाई, उच्च पदों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन आरंभ किया।
  • बिहार में मार्च 1974 में बढ़ती कीमतों, खाद्यान्न के अभाव, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्रों ने आंदोलन किया।

इन कारकों ने साथ में मिलकर आपातकाल का समय निर्धारित किया और देश को एक नए दृष्टिकोण से आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

जय प्रकाश नारायण की भूमिका / Role of Jai Prakash Narayan

जय प्रकाश नारायण, एक उदार और साहसी नेता, ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जब उन्होंने एक आंदोलन का नेतृत्व करने का निर्णय लिया। इस आंदोलन को लेकर उन्होंने दो महत्वपूर्ण शर्तों को स्वीकार किया:

(क) आंदोलन अहिंसक रहेगा:

  • जय प्रकाश नारायण ने यह सुनिश्चित किया कि आंदोलन में शामिल होने वाले लोगों को अपनी अहिंसात्मक दृष्टिकोण का पालन करना होगा। इससे आंदोलन को एक शांतिपूर्ण और सांविदानिक रूप मिला।

(ख) आंदोलन विहार तक सीमित नहीं रहेगा, अतिपुराष्ट्रव्यापी होगा:

  • नारायण ने यह स्पष्ट किया कि यह आंदोलन केवल एक क्षेत्र से सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह अतिपुराष्ट्रव्यापी होगा ताकि इसका प्रभाव पूरे देश में हो सके।

जयप्रकाश नारायण ने इस आंदोलन के माध्यम से सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की बात की और उन्होंने विभिन्न गैर-कांग्रेसी दलों के समर्थन से ‘संसद-मार्च’ का नेतृत्व किया। इसे “संपूर्ण क्रांति” के नाम से जाना जाता है, जिसने भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी जैसे दलों के साथ एकजुट होकर इस आंदोलन को अद्भुत रूप से संचालित किया।

इसके पीछे का कारण था इंदिरा गांधी के खिलाफ व्यक्तिगत विरोध की भावना और उनके द्वारा स्वयं को इस आंदोलन के विरुद्ध स्थित करने का प्रयास। जय प्रकाश नारायण ने अपने योगदान के माध्यम से इस साहसिक आंदोलन को एक महत्वपूर्ण स्थान पर पहुंचाया और देश की राजनीतिक स्थिति में सुधार करने की कड़ी मेहनत की।

राम मनोहर लोहिया / Ram Manohar Lohia

जन्म

23 march, 1910

मृत्यु

12 October, 1967

विचारधारा

समाजवाद, समाजवादी चिंतक, गांधीवाद

राम मनोहर लोहिया और समाजवाद / Ram Manohar Lohia and Socialism

राम मनोहर लोहिया, एक प्रमुख समाजवादी विचारक, ने भारतीय समाज की असमानताओं को समझने और इस पर ध्यान देने का महत्वपूर्ण सन्देश दिया। उन्होंने पाँच प्रकार की असमानताओं को चिह्नित किया, जो समाजवादी दृष्टिकोण से सुधार करने की आवश्यकता हैं।

  • जातिवाद (Casteism): लोहिया ने जातिवाद को एक मुख्य असमानता का कारण माना और इसके खिलाफ उन्होंने समर्थन जाहिर किया।
  • भूमि-बंदी (Landlordism): उन्होंने भूमि-बंदी को एक बड़ी समस्या बताया और गरीबों के हक की रक्षा के लिए आवाज उठाई।
  • भाषा भेद (Linguistic Discrimination): लोहिया ने भाषा भेद को भी एक असमानता का कारण माना और राष्ट्रीय एकता की दिशा में कदम उठाने की बात की।
  • सामाजिक असमानता (Social Inequality): उन्होंने सामाजिक असमानता को भी चुनौती मानी और समाजवादी समृद्धि की दिशा में बदलाव की आवश्यकता बताई।
  • अर्थव्यवस्था में विघ्न (Economic Hurdles): लोहिया ने अर्थव्यवस्था में विघ्न को एक महत्वपूर्ण असमानता बताया और समाजवादी आर्थिक नीतियों की आवश्यकता की बात की।

लोहिया ने यह भी कहा कि इन प्रकार की असमानताओं के खिलाफ लड़ने के लिए समाज को एक साथ आना होगा। उन्होंने दो और क्रांतियों को जोड़ा जिनमें सामाजिक न्याय और समाजवाद की बढ़ती हुई मांगों को उठाने का समर्थन किया गया। इसे उन्होंने “सम्पूर्ण क्रांति” के नाम से जाना जाता है।

राम मनोहर लोहिया का समाजवादी दृष्टिकोण ने भारतीय समाज में सामाजिक और आर्थिक समानता की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया।

यह सात क्रांतियों कुछ इस प्रकार है:-

ये सात क्रांतियाँ लोहिया जी के समाजवादी दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण आधारभूत बातें हैं, जो समाज में असमानता के खिलाफ उठी और समृद्धि और समृद्धि की दिशा में बदलाव की आवश्यकता को प्रमोट करती हैं:

स्त्री और पुरुष के बीच असमानता:

  • स्त्री और पुरुष के बीच जातिवाद और असमानता के खिलाफ लड़ना, और समाज में समरसता को प्रोत्साहित करना।

त्वचा के रंग के आधार पर असमानता:

  • रंग भेद के खिलाफ लड़ना और एक समृद्ध और समरस समाज की दिशा में कदम उठाना।

जाति आधारित असमानता:

  • जातिवाद और असमानता के खिलाफ समृद्धि की दिशा में कदम उठाना और समाज में समरसता को बढ़ावा देना।

दूसरे देशों पर औपनिवेशिक शासन:

  • एक देश द्वारा दूसरे देशों पर अत्याचार और आत्मसमर्पण के खिलाफ उठना।

आर्थिक असमानता:

  • आर्थिक असमानता के खिलाफ लड़ना और समृद्धि के माध्यम से समरस समाज की दिशा में कदम उठाना।

नागरिक स्वतंत्रता के लिए क्रांति:

  • निजी जीवन में अन्यायपूर्ण अतिक्रमण के खिलाफ नागरिक स्वतंत्रता की दिशा में बदलाव को प्रोत्साहित करना।

सत्याग्रह के पक्ष में हथियारों का त्याग कर अहिंसा के मार्ग का अनुसरण:

  • सत्याग्रह के माध्यम से हथियारों का त्याग करने और अहिंसा के मार्ग का अनुसरण करने के लिए क्रांति करना।

ये सात क्रांतियाँ लोहिया जी के समाजवादी दृष्टिकोण का एक सूचीकृत आदर्श हैं, जो समाज में न्याय और समृद्धि की प्रेरणा प्रदान करती हैं।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय / Pandit Deendayal Upadhyay

जन्म

25 sep, 1916

मृत्यु

11 feb, 1968

पेशा

दार्शनिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ

राजनीतिक दल

यह भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े।

दीनदयाल उपाध्याय और एकात्म मानववाद / Deendayal Upadhyay and Integral Humanism

दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद को अपने विचारधारा का महत्वपूर्ण हिस्सा माना और इसे सनातन तथा हिंदुत्व की विचारधारा के साथ जोड़ा। इस दर्शन के मुताबिक, मनुष्य के विकास का केंद्र है और प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक गरिमामय जीवन सुनिश्चित करना एकात्म मानववाद का प्रमुख उद्देश्य है।

एकात्म मानववाद के सिद्धांत:

समग्रता की प्रधानता:

  • इस सिद्धांत के अनुसार, समग्रता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जिससे समस्त मानवता को एक मिलनसर समाज में जीने का अवसर मिले।

धर्म की स्वायत्तता:

  • इस सिद्धांत के अनुसार, धर्म को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, ताकि व्यक्ति अपनी आत्मा के साथ संबंधित धार्मिक विचारों का अनुसरण कर सके।

समाज की स्वायत्तता:

  • इस सिद्धांत के अनुसार, समाज को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, ताकि वह अपने स्वयं के नियमों और नीतियों के अनुसार आत्म-निर्भर हो सके।

एकात्म मानववाद के माध्यम से, प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग किया जाना चाहिए, ताकि इन संसाधनों का सुरक्षित रूप से पुनर्निर्माण किया जा सके। यह सिद्धांत समृद्धि और समरस समाज की दिशा में कदम उठाने की अनुमति देता है।

दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद को अपने विचारधारा के माध्यम से समर्थन किया और इसे समाज में समृद्धि, समरसता, और एकमतता की दिशा में महत्वपूर्ण माना।

नक्सलवादी आंदोलन / Naxalite movement

नक्सलवादी आंदोलन ने भारतीय राजनीतिक स्केन में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है, जिसने 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में हिसंक विद्रोह के रूप में आरंभ हुआ था। इस समय के आंधोलनित कम्युनिस्ट समूहों ने मार्क्सवादी विचारधारा का प्रमोशन किया और मुख्यत: गुरिल्ला युद्ध के तरीकों का उपयोग किया।

महत्वपूर्ण पहलुओं का संक्षेप:

मार्क्सवादी समूहों का गठन:

  • 1969 में चारू मजूमदार के नेतृत्व में सी पी आई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पार्टी की स्थापना हुई, जिसने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति को अपनाया।

भूमि सुधार:

  • नक्सलवादियों ने धनी भूस्वामियों से जबरदस्ती ज़मीन छीनकर गरीब और भूमिहीन लोगों को दी, जिससे भूमि सुधार का कार्य किया गया।

राजनीतिक असमानता के खिलाफ:

  • नक्सलवादियों ने मुख्यत: समाज में राजनीतिक और आर्थिक असमानता के खिलाफ आंदोलन किया, जिसमें उन्होंने किसानों के हक की रक्षा की।

आंधोलन क्षेत्र:

  • आधुनिक समय में, नक्सलवादी हिंसा 9 राज्यों के 100 से अधिक पिछड़े आदिवासी जिलों में जारी है, जिसमें उन्होंने सरकार के खिलाफ अपनी माँगों को आगे बढ़ाया है।

पुनर्निर्माण और विकास:

  • नक्सलवादी समूहों का उद्देश्य अधिकतम लोगों को अपनी ज़िन्दगी में सुधार करने के लिए सकारात्मक कदम उठाना है, समृद्धि और विकास की दिशा में।
  • नक्सलवादी आंदोलन ने भारतीय समाज में राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों की प्रेरणा प्रदान की है, जिससे नए समाजिक सुरक्षा के ढाँचे का निर्माण हो सकता है।

इनकी माँगे निम्नलिखित हैं:-

नक्सलवादी आंदोलन के प्रमुख आंदोलनित क्षेत्रों में लोगों की माँगें निम्नलिखित हैं:

उपज में हिस्सा:

  • इलाकों के लोगों को उपज में हिस्सा देने की माँग है, जिससे उन्हें न्यायपूर्ण और उचित दायित्व मिले।

पट्टे की सुनिश्चित अवधि:

  • लोगों की माँग है कि उन्हें ज़मीन के पट्टे की सुनिश्चित अवधि मिले, ताकि वे अपने क्षेत्र में स्थायी रूप से बस सकें।

उचित मजदूरी:

  • इलाकों के लोगों की मुख्य माँग है कि उन्हें उचित मजदूरी मिले, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हो।

जबरन मजदूरी से मुक्ति:

  • लोग चाहते हैं कि किसी भी प्रकार की जबरन मजदूरी से मुक्ति मिले और उन्हें आत्मनिर्भरता की स्थिति मिले।

संसाधनों का दोहन ना हो:

  • लोग चाहते हैं कि उनके संसाधनों का दोहन नहीं हो, और ये संसाधन उनके विकास में लगे।

शोषण से मुक्ति:

  • सूदखोरों द्वारा शोषण से मुक्ति मिलनी चाहिए, ताकि लोग अपने मेहनत का मूल्यपूर्ण मोल उठा सकें।

इन माँगों के माध्यम से, नक्सलवादी समूह लोगों की समृद्धि और उनकी स्थिति में सुधार की मांग करते हैं, ताकि समाज में न्याय और समरसता की स्थापना हो सके।

रेल हड़ताल / Railway strike

राष्ट्रीय समिति के नेतृत्व में जार्ज फर्नाडिस द्वारा 1974 में आयोजित की गई रेल हड़ताल ने भारतीय समाज में एक बड़े स्तर पर असंतोष उत्पन्न किया। इस हड़ताल के मुख्य कारणों को इस प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है:

माँगों की अस्वीकृति:

  • राष्ट्रीय समिति ने रेलवे कर्मचारियों की सेवा, बोनस, और अन्य सुधारों की माँगें रखी थीं जो सरकार ने स्वीकार नहीं की थीं, जिसका परिणामस्वरूप हड़ताल हुई।

असंवैधानिक घोषणा:

  • सरकार ने हड़ताल को असंवैधानिक घोषित किया, जिससे समाज में एकाधिकार और विरोध उत्पन्न हुआ।

असंतोष का उत्थान:

  • हड़ताल से मजदूरों, रेलवे कर्मचारियों, आम आदमी, और व्यापारियों में सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ा, जिसने सामाजिक वातावरण में अधिकतम असमंत्रितता उत्पन्न की।

व्यापक दुखभरा प्रभाव:

  • रेल हड़ताल के परिणामस्वरूप, यातायात, व्यापार, और अन्य क्षेत्रों में व्यापक असंतोष और दुखभरा प्रभाव हुआ।

इस रूपरेखा के माध्यम से, रेल हड़ताल ने समाज के विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच विद्रोह और असंतोष की भावना को उत्पन्न किया, जिसने राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की मांग की।

न्यायपालिका के संघर्ष / Struggles of Judiciary

न्यायपालिका के संघर्ष के संदर्भ में निम्नलिखित प्रमुख घटनाएं हुईं:

मौलिक अधिकारों में कटौती:

  • सरकार ने मौलिक अधिकारों में कटौती की और संपत्ति के अधिकारों में कॉट-छूट का प्रावधान किया। यह न्यायपालिका द्वारा निरस्त किया गया, क्योंकि यह संविधानिक मौलिक अधिकारों के खिलाफ था।

न्यायाधीशों की वरिष्ठता में कटौती:

  • सरकार ने जे.एम. शैलट, के.एस. हेगड़े, और ए.एन. ग्रोवर की वरिष्ठता की अनदेखी की और ए.एन. रे. को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया। इससे उच्चतम न्यायिक अदालत की आत्मगौरव में कमी हुई और न्यायपालिका के साथ सरकार के बीच तनाव बढ़ा।

न्यायपालिका और नौकरशाही की बातें:

  • सरकार के उपायों से प्रतिबद्ध न्यायपालिका तथा नौकरशाही की बातें होने लगीं, जिसने जनता में आस्था और विश्वास कमजोर किया।

ये संघर्ष सारांश में, सरकार और न्यायपालिका के बीच मुख्य विरोधात्मक बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे समाज में न्याय और सामंजस्य में कमी आई।

आपातकाल की घोषणा / Declaration of emergency

न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा का फैसला (12 जून 1975):

  • 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा चुनाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जिससे उन्हें चुनौती आई।

सर्वोच्च न्यायालय का स्थगनादेश (24 जून 1975):

  • 24 जून 1975 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर स्थगनादेश दिया, जिसके अनुसार इंदिरा गांधी सांसद रहेगी, परन्तु मंत्रिमंडल की बैठकों में भाग नहीं लेगी।

राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा (25 जून 1975):

  • 25 जून 1975 को जेपी के नेतृत्व में रामलीला मैदान में सार्वजनिक सत्याग्रह की घोषणा की गई, जिसमें इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग की गई।

आपातकाल का लागू (25 जून 1975):

  • 25 जून 1975 की मध्यरात्रि में इंदिरा गांधी ने अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की, जिससे देश में अस्तित्व की अद्वितीय घटना हुई।

जनसत्ता के खिलाफ आग्रह (25 जून 1975):

  • जेपी ने सेना, पुलिस, और सरकारी कर्मचारियों से आग्रह किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें और सत्याग्रह का समर्थन करें।

आपातकाल की घोषणा ने देश को एक नए संदर्भ में ले जाया और इससे राजनीतिक और सामाजिक हलचल हुई।

आपातकाल के परिणाम / Consequences of emergency

आपातकाल के परिणाम: एक अधिकार और स्वतंत्रता के चुनौतीपूर्ण दशक

विपक्षी नेताओं की जेल (1975-1977):

  • आपातकाल के दौरान, विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया, जिससे राजनीतिक प्रणाली में एकतर्क और विचार-विमर्श की कमी आई।

प्रेस पर सेंसरशिप लागू (1975-1977):

  • सेंसरशिप के तहत प्रेस पर प्रतिबंध लगाया गया, जिससे मुक्त विचार की स्थिति में कमी आई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध (1975-1977):

  • आपातकाल के दौरान, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लागू किया गया, जिससे सामाजिक संगठनों की गतिविधियों में कमी आई।

नागरिकों के मौलिक अधिकारों का निष्प्रभावी होना (1975-1977):

  • आपातकाल ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निष्प्रभावी बना दिया, जिससे न्याय और स्वतंत्रता की मानहानि हुई।

नजरबंदी कानून के तहत गिरफ्तारी (1975-1977):

  • आपातकाल के दौरान, राजनीतिक कार्यकर्ताओं को नजरबंदी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया, जिससे सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश निष्फल हुई।

पत्रिकाओं के प्रकाशन में प्रतिबंध (1975-1977):

  • आपातकाल में ‘सेमिनार’ और ‘मेनस्ट्रीम’ जैसी पत्रिकाओं को प्रकाशन बंद कर दिया गया, जिससे मुक्त विचार का प्रतिबंध हुआ।

लेखकों का आपातकाल के खिलाफ विरोध (1975-1977):

  • कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत और हिन्दी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने आपातकाल के विरोध में अपनी पदवी सरकार को लौटा दी, जो एक अद्वितीय प्रतिबद्धता थी।

संविधान संशोधन 42वें (1976): 42वें संविधान संशोधन द्वारा, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती न देने वाले प्रावधानों को संशोधित किया गया। इससे न्यायप्रणाली में बदलाव हुआ।

आपातकाल के दौरान घटित इन परिणामों ने देश को एक नए संदर्भ में ले जाया और स्वतंत्रता के मौलिक तत्वों की रक्षा के लिए संघर्ष दिखाया।

आपातकाल पर विवाद / Controversy over emergency

पक्ष:

लोकतंत्र की बाधा:

  • समर्थकों का कहना है कि बार-बार धरना, प्रदर्शन और सामूहिक कार्यवाही से लोकतंत्र में बाधा होती है।
  • इसे विरोधियों द्वारा गैर-संसदीय राजनीति का सहारा लेना भी कहा जाता है।

प्रगतिशील कार्यक्रमों में अड़चन:

  • समर्थकों का आरोप है कि विरोधियों ने सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में अड़चन पैदा करने का प्रयास किया।

अंतराष्ट्रीय साजिश:

  • एक पक्ष का तर्क है कि इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू करने का कदम भारत की एकता के विरूद्ध अंतराष्ट्रीय साजिश रचने का था।

कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन:

  • इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू करने के कदम का समर्थन करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) का समर्थन।

2. विपक्ष:

लोकतंत्र के अधिकार:

  • विरोधकों का मुक्त विचार का दावा है, और उनका कहना है कि लोकतंत्र में जनता को सरकार का विरोध करने का अधिकार होता है।

अहिंसात्मक आंदोलन:

  • विरोधियों ने अपने स्टैंड को अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण बनाए रखने का प्रयास किया।

कानून व्यवस्था की चिंता:

  • विरोधकों का तर्क है कि गृह मंत्रालय ने उस समय कानून व्यवस्था की चिंता जाहिर नहीं की, जिससे अनैतिक दुरुपयोग हुआ।

संविधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग:

  • विरोधियों का आरोप है कि संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग निजी स्वार्थ हेतु किया गया और इससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों में निष्प्रभावी किया गया।

नोट: 42 वें संविधान संशोधन (1976) द्वारा हुए परिवर्तनों के बारे में भी उल्लेख किया जा रहा है।

क्या आपातकाल जरूरी था? / Was the emergency necessary?

गड़बड़ी और आपातकाल:

  • संविधान में सादे ढंग से उजागर होता है कि आपातकाल लगाने का कारण अंदरूनी गड़बड़ी थी। क्या यह कारण समझने में पर्याप्त था?

लोकतंत्र और सरकारी नीति:

  • सरकार का तर्क था कि भारत में लोकतंत्र है और विपक्ष को चुनी हुई सरकार को अपनी नीतियों के अनुसार शासन चलाने देना चाहिए।

धरना-प्रदर्शन और विकास:

  • सरकार का मत था कि बार-बार धरना-प्रदर्शन और सामूहिक कार्यवाही लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है, क्योंकि इससे प्रशासन का ध्यान विकास के कामों से भंग होता है।

विनाशकारी ताकतों का सामना:

  • इंदिरा गांधी ने शाह आयोग को चिट्ठी में लिखा कि विनाशकारी ताकतें सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में अड़ंगे डाल रही थीं और उसे गैर-सवैधानिक साधनों से सत्ता से बेदखल करना चाहती थी।

सांघर्ष और समझौता:

  • आपातकाल के दौरान C.P.I. पार्टी ने इंदिरा का साथ दिया, लेकिन बाद में उसने यह महसूस किया कि उसने कांग्रेस का साथ देकर गलती की।

यह सारे पहलुओं का समीक्षात्मक अध्ययन करता है कि क्या आपातकाल जरूरी था या नहीं और यह तबादले और राजनीतिक परिस्थितियों के संदर्भ में मूल्यांकन करता है।

आपातकाल के दौरान किए गए कार्य / Work done during emergency

बीस सूत्री कार्यक्रम:

  • भूमि सुधार, भू-पुनर्वितरण, खेतिहर मजदूरों के पारिश्रमिक पर पुनः विचार, प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति आदि जनता की भलाई के कार्य शामिल थे।

निवारक नज़र:

  • विरोधियों को निवारक नज़र बड़ी कानून के तहत बंदी बनाया गया।

अखबारों के दफ्तरों की बिजली काटना:

  • मौखिक आदेश से अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई, जिससे उन्हें संवाद स्थान से हटाया जाना चाहा।

झुग्गी बस्तियों का हटाना और नसबंदी:

  • दिल्ली में झुग्गी बस्तियों को हटाने तथा जबरन नसबंदी जैसे कार्य किए गए, जिससे लोगों को बेहद कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।

इन कार्यों ने जनता के जीवन में विभिन्न पहलुओं का प्रभाव डाला और आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा किए गए निर्णयों का मौद्रिक परिचय करते हैं।

आपातकाल के सबक / Lessons of emergency

लोकतंत्र की कमजोरियाँ ओर ताकत:

  • आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतंत्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हुईं, लेकिन जल्दी ही कामकाज लोकतंत्र की राह पर वापसी हुई।

लोकतंत्र की रक्षा में अदालतों की भूमिका:

  • आपातकाल के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई है और इन अधिकारों की रक्षा के लिए कई संगठन उत्पन्न हुए हैं।

संविधान में सुधार:

  • संविधान के आपातकाल के प्रावधानों में ‘आंतरिक अशान्ति’ शब्द के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द को जोड़ा गया है।

आपातकाल में राजनीतिक दल का इस्तेमाल:

  • आपातकाल में शासक दल ने पुलिस और प्रशासन को अपना राजनीतिक औजार बनाया, जिससे ये संस्थाएं स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर पाईं।

इन सबको समझकर हम देख सकते हैं कि आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए महत्वपूर्ण सीखें दी हैं और इसने समाज को सशक्त और जागरूक बनाने में भी योगदान दिया है।

आपातकाल के बाद / After emergency

विपक्षी पार्टियों का मिलन:

  • जनवरी 1977 में विपक्षी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया।

बाबू जगजीवन राम और “कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी” दल:

  • कांग्रेसी नेता बाबू जगजीवन राम ने “कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी” दल का गठन किया, जो बाद में जनता पार्टी में शामिल हुआ।

जनता पार्टी और चुनाव:

  • जनता पार्टी ने आपातकाल की ज्यादतियों को मुद्दा बनाकर चुनावों को उस पर जनमत संग्रह का एक आदर्श रूप दिया।

इस प्रकार, आपातकाल के बाद भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, जिसने विपक्षी दलों को मिलकर एक और मजबूत प्रशासन बनाने का मार्ग दिखाया। यह घटनाएं देश को एक नए राजनीतिक युग में पहुंचाईं जिसमें लोकतंत्र और सामाजिक न्याय को महत्वपूर्ण रूप से मान्यता मिली।

1977 के चुनाव / 1977 elections

सीटों का वितरण:

  • 1977 के चुनाव में, कांग्रेस को लोकसभा में केवल 154 सीटें प्राप्त हुईं, जबकि जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को मिली समूची 330 सीटें।

आपातकाल का प्रभाव:

  • आपातकाल के प्रभाव के कारण, उत्तर भारत में अधिक होने के कारण, कांग्रेस को 1977 के चुनाव में उत्तर भारत में सिर्फ ना के बराबर सीटें हासिल हुईं।

इस प्रकार, आपातकाल के पश्चात् हुए चुनाव ने दिखाया कि लोकतंत्र की भूमि पर जनता की आंधी कभी भी उठ सकती है और विभिन्न राजनीतिक दल एकजुट होकर देश को समृद्धि और सामाजिक न्याय की दिशा में बदल सकते हैं।

जनता पार्टी की सरकार / Janata Party Government

नेतृत्व:

  • जनता पार्टी की सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री रहे, और उनके साथ चरण सिंह और जगजीवनराम दो उपप्रधानमंत्री बने।

असफलता:

  • जनता पार्टी के अंदर दिशा, नेतृत्व और एक साझा कार्यक्रम की कमी के कारण यह सरकार जल्दी ही गिर गई।

1980 चुनाव और कांग्रेस की वापसी:

  • 1980 के लोकसभा चुनाव में, कांग्रेस ने 353 सीटें हासिल की और इससे विरोधियों को करारी शिकस्त मिली। यह चुनौती ना सिर्फ जनता पार्टी के लिए बल्कि भारतीय राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत था।

इस रूपरेखा से साफ है कि जनता पार्टी की सरकार ने अपने संगठन और कार्यक्रमों में एकजुटता की कमी के कारण जल्दी ही समाप्त हो गई, जिससे कांग्रेस को 1980 में वापसी मिली।

जनता पार्टी के कार्य / Functions of Janata Party

शाह आयोग:

  • आपातकाल की जाँच के लिए, मई 1977 में जनता पार्टी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे. सी. शाह की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग की नियुक्ति की।

शाह आयोग की रिपोर्ट:

  • आयोग ने दी गई रिपोर्ट में कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठान लिए:
  • आपातकाल की घोषणा का निर्णय केवल प्रधानमंत्री का था।
  • सामाचार पत्रों के कार्यालयों की बिजली बंद करना पूर्णतः अनुचित था।
  • प्रधानमंत्री के निर्देश पर अनेक विपक्षी राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारी गैर – कानूनी थी।
  • MISA (Maintenance of Internal Security Act) का दुरुपयोग हुआ था।
  • कुछ लोगों ने अधिकारिक पद पर न होते हुए भी सरकारी काम – काज में हस्तक्षेप किया था।

शाह आयोग ने इन मुद्दों पर अच्छी तरह से प्रकट किया और उन्होंने निर्देश दिया कि इन गतिविधियों का विवेचन किया जाए।

नागरिक स्वतंत्रता संगठनों का उदय / Rise of civil liberties organizations

संगठन का उदय:

  • नागरिक स्वतंत्रता और लोकतंत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्टूबर 1976 में हुआ।

संगठनों का योगदान:

  • इन संगठनों ने आपातकाल के समय के साथ ही सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को उनके अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए उत्साहित किया।

नाम का परिवर्तन:

  • 1980 में, नागरिक स्वतंत्रता और लोकतंत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ ने अपना नाम बदलकर ‘नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए लोगों का संघ’ रखा।

अन्य संगठन:

  • गरीबी सहभागिता, लोकतंत्रीकरण और निष्पक्षता के क्षेत्र में, भारतीय नागरिक स्वतंत्रता संगठन (CLOS) ने अनेक क्षेत्रों में संगठित होकर कार्य करना प्रारम्भ किया है।

नागरिक स्वतंत्रता संगठनें ने अपने क्रियाकलापों के माध्यम से लोगों के जागरूकता में महत्वपूर्ण योगदान किया है, और वे सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के लिए समर्थन करते हैं।

आशा करते है इस पोस्ट कक्षा 12 राजनीति विज्ञान: लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट में दी गयी जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी । आप हमें नीचे Comment करके जरुर बताये और अपने दोस्तों को जरुर साझा करे। यह पोस्ट कक्षा 12 राजनीति विज्ञान : लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट पढ़ने के लिए धन्यवाद ! आपका समय शुभ रहे !!

NCERT Notes

स्वतंत्र भारत में, कांग्रेस पार्टी ने 1952 से 1967 तक लगातार तीन आम चुनावों में जीत हासिल करके एक प्रभुत्व स्थापित किया था। इस अवधि को 'कांग्रेस प्रणाली' के रूप में जाना जाता है। 1967 के चुनावों में, कांग्रेस को कुछ राज्यों में हार का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 'कांग्रेस प्रणाली' को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

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