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इन नोट्स के साथ आप कांग्रेस प्रणाली, एक दल के प्रभुत्व के कारण, इसके पतन, और अन्य महत्वपूर्ण अवधारणाओं को पूरी तरह समझ जाएंगे। हमारे नोट्स स्पष्ट, संक्षिप्त और परीक्षा के लिए एकदम सही हैं।
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Table of Contents
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Political Science 2nd book |
Chapter | Chapter 2 |
Chapter Name | एक दल के प्रभुत्व का दौर |
Category | Class 12 Political Science |
Medium | Hindi |
राजनीति विज्ञान अध्याय-2: एक दल के प्रभुत्व का दौर
एक दलीय प्रभुत्व का दौर क्या है ?
- स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस पार्टी का भारत में एकछत्र राज था।
- 1952, 1957 और 1967 के चुनावों में उन्हें भारी बहुमत मिला।
- कमजोर विपक्ष कांग्रेस को चुनौती देने में असमर्थ था।
- इस काल को ‘एकदलीय प्रभुत्व का दौर’ कहा जाता है।
एकल आधिपत्य दल व्यवस्था : –
- परिभाषा: जब एक ही दल लगातार कुछ वर्षों तक सत्ता में रहता है।
- उदाहरण: भारत में 1952 से 1967 तक कांग्रेस का प्रभुत्व।
- विशेषताएं:
- कमजोर विपक्ष
- एक ही दल का लगातार सत्ता में रहना
- अन्य दलों के लिए सत्ता प्राप्त करना कठिन
एक दलीय व्यवस्था : –
- परिभाषा: जब केवल एक ही राजनीतिक दल होता है और सत्ता सभी सदस्यों द्वारा नियंत्रित होती है।
- विशेषताएं:
- एक ही दल का प्रभुत्व
- कमजोर या नगण्य विपक्ष
- पूरे देश में दल का प्रभाव
- उदाहरण: चीन, क्यूबा
बहुदलीय व्यवस्था :
- अनेक दलों की उपस्थिति: एक या दो दल के बजाय अनेक राजनीतिक दल होते हैं।
- सत्ता की प्रतिस्पर्धा: सभी दल सत्ता प्राप्त करने के लिए चुनाव लड़ते हैं।
- विभिन्न विचारधाराएं: विभिन्न विचारों और नीतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- गठबंधन की संभावना: चुनाव में जीत के लिए विभिन्न दल गठबंधन बना सकते हैं।
उदाहरण: भारत, जर्मनी, जापान
बहुदलीय व्यवस्था लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह लोगों को विभिन्न विकल्प प्रदान करता है और सरकार को जवाबदेह बनाता है।
चुनाव आयोग / Election Commission
चुनाव आयोग का गठन भारत में जनवरी 1950 में हुआ था, जिससे देश में न्यायपूर्ण और प्रभावी चुनाव प्रक्रिया की स्थापना हुई। इस आयोग की पहली कमीशनरी में सुकुमार सेन ने अपनी कड़ी मेहनत और सजगता से यह कार्य संभाला।
चुनाव आयोग का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र के नागरिकों को मुकाबले और स्वतंत्र रूप से अपने प्रतिनिधियों का चयन करने का है। यह न्यायपूर्ण और स्वतंत्र चुनाव प्रक्रिया को सुनिश्चित करता है ताकि लोगों की आवश्यकताओं और मांगों का सही रूप से प्रतिनिधित्व हो सके।
सुकुमार सेन के नेतृत्व में चुनाव आयोग ने पहले ही चरण में अपनी गुणवत्ता साबित कर दी और लोगों के बीच विश्वास और समर्थन का केंद्र बन गया।
चुनाव आयोग का गठन एक महत्वपूर्ण कदम था जो भारतीय लोकतंत्र को मजबूती से जोड़ने में मदद करता है, और इसकी सुदृढ़ता और न्यायपूर्णता को बनाए रखने में सहारा प्रदान करता है।
चुनाव आयोग की चुनौतियाँ / Challenges of Election Commission
विशाल आकार और बड़ी जनसंख्या: भारत का आकार बड़ा था और जनसंख्या भी अधिक थी, जिससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाना कठिन था।
चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन: चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन करना आवश्यक था।
मतदाता सूची बनाने में बाधाएं: पहली मतदाता सूची में 40 लाख महिलाओं के नामों की गलत दर्जी जाने के कारण बनाने में कठिनाई हुई।
अधिकारियों और चुनावकर्मियों की प्रशिक्षण: अधिकारियों और चुनावकर्मियों को प्रशिक्षित करना महत्वपूर्ण था।
कम साक्षरता के कारण मतदान की विशेष पद्धतियों का विचार: कम साक्षरता के कारण मतदान की विशेष पद्धतियों का विचार किया गया।
दुबारा सूची बनानी में कठिनाई: सूची दोबारा बनाना आसान नहीं था।
मतदाता की संख्या: कुल 17 करोड़ मतदाता थे।
विधायकों की संख्या: कुल 3200 विधायक चुने गए।
लोकसभा सांसदों की संख्या: कुल 489 लोकसभा सांसद चुने गए।
साक्षर मतदाताओं की कमी: केवल 15% लोग साक्षर थे।
चुनाव की ट्रेनिंग: 3 लाख लोगों को चुनाव की ट्रेनिंग दी गई।
भारत में पार्टी प्रभुत्व का विशेषता: भारत में एक पार्टी का प्रभुत्व दुनिया के अन्य देशों से अलग था।
अन्य देशों में पार्टी प्रभुत्व: दुनिया के अन्य देशों में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतंत्र की कीमत पर कायम हुआ।
मेक्सिको का उदाहरण: मेक्सिको में PRI का प्रभुत्व 1929 में स्थापित हुआ, जोने 60 वर्षों तक शासन किया, परन्तु इसका तानाशाही का रूप था।
अन्य देशों में प्रभुत्व की रूपरेखा: चीन, क्यूबा, और सीरिया जैसे देशों में संविधान सिर्फ एक पार्टी को अनुमति देता है।
कानूनी और सैन्य उपायों से प्रभुत्व: म्यांमार, बेलारूस, और इरीट्रिया जैसे देशों में एक पार्टी का प्रभुत्व कानूनी और सैन्य उपायों से कायम हुआ।
भारत में लोकतंत्र के साथ पार्टी प्रभुत्व: भारत में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतंत्र और स्वतंत्र निष्पक्ष चुनावों के साथ होते हुए बना रहा है।
पहला आम चुनाव / First general election
आयोजन का समय: अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 तक हुए पहले आम चुनाव ने देश में लोकतंत्र के मैदान में नए पहलुओं को उजागर किया।
कांग्रेस का प्रभुत्व: पहले तीन आम चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रभुत्व बना रहा, जिसने देश की राजनीति में अपनी मुख्यधारा बनाई।
चुनाव अभियान और मतगणना: चुनाव अभियान और मतगणना में कुल 6 महीने लगे, और इस दौरान कांग्रेस ने चुनौतीपूर्ण प्रतिस्पर्धा में अपने दम पर जीत हासिल की।
सफलता का पत्थर: सफल मतदान ने इतिहास में मिल का पत्थर साबित किया, और इससे आलोचकों का मुंह बंद हो गया।
लोकसभा के पहले आम चुनाव: पहले आम चुनाव में लोकसभा की 489 सीटों में से 364 कोंग्रेस ने जीती, जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 सीटें जीती और दूसरे स्थान पर आई।
राज्यों में कांग्रेस की विजय: इसी सफलता के साथ, विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस ने अपना प्रभुत्व बनाए रखा और कोचीन, मद्रास, और उड़ीसा में इन तीन राज्यों में कांग्रेस सरकारें बनीं।
केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की शानदार जीत: 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी, जिसमें कांग्रेस को 126 सीटों में से केवल 60 सीटें मिलीं।
पहले आम चुनाव ने भारतीय लोकतंत्र की नींव रखी और एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों का चयन करने का सुविधानुसार अधिकार मिला।
कांग्रेस के प्रभुत्व का कारण / Reason for dominance of Congress
स्वाधीनता संग्राम की विरासत: कांग्रेस पार्टी को स्वाधीनता संग्राम की विरासत मिली थी, जिसका परिणामस्वरूप यह देशभर में मजबूत संगठन बन गया था।
आजादी की विरासत: कांग्रेस ने आजादी की विरासत हासिल की और यह उसकी एक महत्वपूर्ण आधारशिला बनी।
लोकप्रिय और करिश्माई नेतृत्व: इस पार्टी में जवाहर लाल नेहरू जैसा लोकप्रिय और करिश्माई नेता था, जो चुनाव के समय पार्टी की अगुआई करते थे और पूरे देश का दौरा किया।
अन्य पार्टियों का उत्पत्ति: बाकी पार्टियाँ भी कांग्रेस पार्टी से ही निकली थीं, जिसने उन्हें नेतृत्व और राजनीतिक उत्पत्ति में मदद की।
एकीकृत रूप से साथ चलना: कांग्रेस एक ऐसी पार्टी थी जो सभी वर्गों को साथ लेकर चलती थी, जैसे – हिन्दू, मुस्लिम, आमिर, गरीब, वामपंथ, दक्षिणपंथ, नरमपंथी, गरमपंथी, मजदूर, किसान, उद्योगपति आदि।
विभिन्न वर्गों के बीच सुलझाव: कांग्रेस ने विभिन्न वर्गों के बीच हुए विवादों को सुलझा लिया और ऐसा करके सामाजिक समरसता की दिशा में कदम बढ़ाया।
पहले आम चुनाव की शानदार जीत: पहले आम चुनाव में 489 सीटों में से 364 सीटें कांग्रेस ने अकेले जीतीं, जिससे वह एक सुप्रीम सत्ता में स्थान प्राप्त करी। दूसरे स्थान पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी रही जिसने 16 सीटें जीतीं।
राज्यों में कांग्रेस की विजय: लगभग सभी राज्यों के चुनावों में कांग्रेस ने विजय प्राप्त की और उसी की सरकारें बनीं, जिससे उसका प्रभुत्व देशभर में बना रहा।
विपक्षी दलों का उद्भव और लोकतंत्र में उनकी भूमिका
Emergence of opposition parties and their role in democracy
बहुदलीय लोकतंत्र: भारत में हमेशा बहुदलीय लोकतंत्र व्यवस्था रही है, लेकिन कई वर्षों तक एक ही दल का प्रभुत्व बना रहा। स्वतंत्रता के समय भी विपक्षी पार्टियाँ सक्रिय रूप से चुनाव में भाग ले रही थीं।
दलों का अस्तित्व: कई पार्टियों का अस्तित्व 1952 के आम चुनाव से पहले से था और इनका योगदान 60 और 70 के दशक में महत्वपूर्ण रहा।
जनता के जागरूक करना: विपक्षी पार्टियों की मौजूदगी ने स्वस्थ लोकतंत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया और जनता को लोकतंत्र के महत्व के प्रति जागरूक किया है।
लोकतान्त्रिक चरित्र में योगदान: इन पार्टियों की मौजूदगी ने सही रूप से व्यवस्थित लोकतान्त्रिक चरित्र को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
शक्ति-संतुलन में परिवर्तन: विपक्षी दलों ने शासक-दल पर अंकुश रखा है और इनके कारण कांग्रेस पार्टी के अंदर शक्ति-संतुलन में परिवर्तन कर दिया है। यह एक दल के प्रभुत्व को जोरदार चुनौती प्रदान करता है।
सोशलिस्ट पार्टी / Socialist Party
गठन की कहानी: कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन 1934 में कांग्रेस के अंदर हुआ था, जब एक युवा नेताओं की टोली ने खुद को सोशलिस्ट और समतावादी बनाने का आरंभ किया।
नेतृत्व का मकसद: इन नेताओं का मुख्य उद्देश्य कांग्रेस को ज्यादा-से-ज्यादा परिवर्तनकामी और समतावादी बनाना था।
पार्टी संविधान में संसोधन: 1948 में कांग्रेस ने अपने पार्टी संविधान में संसोधन किया, जिससे कोई भी कांग्रेस सदस्य दोहरी सदस्यता नहीं ले सकता था। इसके परिणामस्वरूप, 1948 में कांग्रेस के अंदर के सोशलिस्ट नेताओं ने मजबूरी में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना करनी पड़ी।
सोशलिस्ट विचारधारा के नेताओं द्वारा कांग्रेस की आलोचना
Criticism of Congress by leaders of socialist ideology
पूंजीपतियों और जमींदारों का पक्ष: सोशलिस्ट नेताएं कांग्रेस की आलोचना करते थे कि यह पूंजीपतियों और जमींदारों का पक्ष ले रही है, जिससे समाज के गरीब वर्गों को न्याय नहीं मिल रहा है।
समाजवादी घोषणा का संदेश: सोशलिस्ट नेताओं ने कांग्रेस को समाजवादी बनावट वाले समाज की रचना करने की घोषणा करने पर संदेह जताया। इससे समाजवादी विचारधारा के अनुयायियों को दुबिधा का सामना करना पड़ा।
राममनोहर लोहिया की दुरी: राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस से अपनी दुरी बढ़ाते हुए उनकी नीतियों और कार्यशैली के प्रति अपनी आलोचना की।
इस प्रकार, सोशलिस्ट विचारधारा के नेताओं ने कांग्रेस की राजनीतिक दिशा और सामाजिक नीतियों पर आलोचना की और अपने स्वतंत्रता संग्राम के उद्देश्यों की प्राथमिकता पर जोर दिया।
सोशलिस्ट पार्टी का विभाजन
Division of Socialist Party
टुकड़े और मेल: सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ, लेकिन कुछ मामलों में बहुधा मेल भी हुआ। इस प्रक्रिया में कई समाजवादी दल बने।
नए समाजवादी दल: इस विभाजन के परिणामस्वरूप, कई नए समाजवादी दल उत्पन्न हुए, जैसे किसान-मजदूर प्रजा पार्टी, जनता पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी।
प्रमुख नेताएं: इन दलों के प्रमुख नेताओं में जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया, और एस. एम. जोशी शामिल थे।
मौजूदा दल: वर्तमान में, इस विभाजन के बाद भी कई समाजवादी दल हैं जैसे समाजवादी पार्टी, जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड), और जनतादल (सेक्युलर) जो सोशलिस्ट पार्टी के विविध परिचय को दर्शाते हैं।
कांग्रेस की स्थापना
Establishment of Congress
उत्पत्ति और संघटन: कांग्रेस का जन्म 1885 में हुआ, जिसे एक रिटायर्ड अंग्रेज अधिकारी ए.ओ. ह्यूम ने की थी। इस समय, यह एक संगठित होलमल के रूप में था और इसमें नवशिक्षित, कामकाजी, और व्यापारिक वर्गों का हित-समूह शामिल था।
20वीं सदी में जागरूकता: 20वीं सदी में, कांग्रेस ने एक जागरूकता आंदोलन का रूप लिया, जिससे यह पार्टी एक जानव्यापी राजनितिक पार्टी बन गई।
राजनीतिक दबदबा: कांग्रेस ने धीरे-धीरे राजनीतिक व्यवस्था में अपना दबदबा कायम किया और जल्द ही यह भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विभिन्न विचारधाराएं: कांग्रेस में सभी विचारधाराएं शामिल थीं, जैसे कि क्रांतिकारी, शांतिवादी, कॉन्सर्वेटिव, रेडिकल, गरमपंथी, नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और अन्य।
राष्ट्रिय आंदोलन: कांग्रेस के सदस्यों ने राष्ट्रिय आंदोलनों में भाग लिया, जिससे यह एक ऐसी पार्टी बनी जिसमें सभी विचारधाराएं एकत्र होती थीं।
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया / Communist Party of India
साम्यवाद की उत्पत्ति: 1920 के दशक में, रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रेरित होकर भारत में साम्यवादी समूह उत्पन्न हुआ।
कांग्रेस के दायरे में कार्य: 1935 से, साम्यवादियों ने कांग्रेस के दायरे में रहकर कार्य किया। इस समय, साम्यवादियों ने 1941 में दिसंबर में कांग्रेस से अलग होने का निर्णय किया।
ब्रिटेन के समर्थन में: इस समय, साम्यवादियों ने नाज़ी जर्मन के खिलाफ लड़ रहे ब्रिटेन को समर्थन देने का फैसला किया, जो एक अजीब संयोग था।
विचारधारा / Thinking
कैडर और समर्पित कार्यकर्त्ता: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विचारधारा गैर-कांग्रेस पार्टियों की तुलना में उन्नत मिशिनरी, कैडर, और समर्पित कार्यकर्त्ता के साथ समृद्ध था।
आजादी का विवाद: पार्टी का मानना था कि 1947 में हुई आजादी वास्तविक आजादी नहीं थी, और इस विचार के साथ, उन्होंने तेलंगाना में हिंसक विद्रोह को बढ़ावा दिया।
हिंसक विद्रोह: तेलंगाना में उठे हिंसक विद्रोह के पीछे यह विचार था कि आजादी के बाद भी गरीबों और किसानों को न्याय नहीं मिला।
दबाव और समर्पण: साम्यवादी विचारधारा के साथ जनता का समर्थन नहीं मिला और उन्हें सशस्त्र सेनाओं द्वारा दबा दिया गया।
आम चुनावों में सशक्त प्रतिष्ठान: 1951 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पहले आम चुनावों में 16 सीटें जीतीं, जो इसे सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनाई।
क्षेत्रबद्ध समर्थन: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, और केरल में क्षेत्रबद्ध समर्थन मिला।
प्रमुख नेताएं: इस पार्टी के प्रमुख नेताओं में ए.के. गोपालन, एस.ए. डांगे, नम्बूदरीपाद, पी.सी. जोशी, अजय घोष, और पी. सुन्दरैया शामिल थे।
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Author: NCERT
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