NCERT Class 9 History Chapter 3 नात्सीवाद और हिटलर का उदय |भारत और समकालीन विश्व-I
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9th Class History Chapter 3 Nazism and the Rise of Hitler Notes in Hindi | कक्षा 9 इतिहास नोट्स हिंदी में उपलब्ध करा रहे हैं |Class 9 Itihaas Chapter 3 Naatsiivaad owr hiṭalar kaa uday Notes PDF Hindi me Notes PDF 2023-24 New Syllabus ke anusar.
Textbook | NCERT |
Class | Class 9 |
Subject | History | इतिहास |
Chapter | Chapter 3 |
Chapter Name | नात्सीवाद और हिटलर का उदय |
Category | Class 9 History Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
Class 09 इतिहास
अध्याय = 3
नात्सीवाद और हिटलर का उदय
Nazism and the Rise of Hitler
- प्रथम विश्वयुद्ध (1914–1918) दो प्रमुख गुटों के बीच लड़ा गया-
मित्र शक्तियाँ: मित्र शक्तियाँ का मुख्य देश फ्रांस, ब्रिटेन, रूस
केंद्रीय शक्तियाँ: केंद्रीय शक्तियाँ का मुख्य देश जर्मनी, ऑस्ट्रिया, तुर्की - प्रथम विश्वयुद्ध का अंत जर्मनी की हार के साथ हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) भी दो प्रमुख गुटों के बीच लड़ा गया-
मित्र राष्ट्र: मित्र राष्ट्र का मुख्य देश ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत यूनियन, संयुक्त राज्य अमेरिका
धुरी शक्तियाँ: धुरी शक्तियाँ का मुख्य देश, जर्मनी, इटली, जापान - जून 1919 में वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसमें जर्मनी के ऊपर मित्र राष्ट्रो ने कई अपमानजनक शर्तें थोपीं जैसे-
वर्साय की संधि- युद्ध में हुई क्षति के लिए सिर्फ जर्मनी को जिम्मेदार ठहराया गया।
- युद्ध अपराध बोध अनुच्छेद के तहत छः अरब पौंड का जुर्माना लगाया गया
- जर्मनी के सारे उपनिवेश, 10% आबादी, 13% भू-भाग, 75% लौह भंडार और 26% कोयला भंडार को मित्र राष्ट्रों ने आपस में बाँट लिया।
- जर्मनी को कमजोर करने के लिए उसकी सेना भंग कर दी गयी।
- खनिज संसाधनो वाले राईनलैंड को भी मित्र राष्ट्रों ने अपने कब्जे में ले लिया।
हिटलर की मृत्यु :-
- मई 1945 में जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के सामने समर्पण कर दिया।
- हिटलर को अंदाजा हो चुका था कि अब उसकी मृत्यु निकट है। इसलिए, हिटलर और उसके प्रचार मंत्री ग्योबल्स ने बर्लिन के एक बंकर में पूरे परिवार के साथ अप्रैल में ही आत्महत्या कर ली थी।
वाइमर गणराज्य
वर्साय की संधि के बाद जर्मनी में वाइमर गणराज्य की स्थापना हुई जिसे कइ सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा –
वाइमर गणराज्य के समक्ष समस्याएं
- वाइमर गणराज्य ने ही वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर किए थे इसलिए इस अपमानजनक संधि के
लिए वाइमर गणराज्य को ही जिम्मेदार ठहराया गया। - वाइमर गणराज्य को युद्ध हर्जाना देना पड़ा जिससे आर्थिक क्षति हुई।
- वाइमर गणराज्य को अतिमुद्रास्फीति (जब कीमतें, बहुत ज्यादा बढ़ जाती है) का भी सामना करना पड़ा।
- उन्हें ‘नवम्बर के अपराधी’ कहकर मेजाक उड़ाया जाता था।
- वाइमर गणराज्य को सपार्टकिस्ट लीग के क्रांतिकारी विद्रोह का सामना करना पड़ा।
- वाइमर गणराज्य को 1929-32 को आर्थिक महामंदी और उससे औद्योगिक उत्पादन के घटने और बेरोजगारी बढ़ने की समस्या का भी सामना करना पड़ा।
उपर्युक्त कारणों से लोगों का विश्वास वाइमर गणराज्य से उठ गया और वे एक इंतजार में थे जो उन्हें उनके दु:खों से छुटकारा दिला सके। इसी पृष्ठभूमि में हिटलर का उदय हुआ।
हिटलर का उदय और पतन
- 1889 में ऑस्ट्रिया में जन्म। जर्मनी की सेना में शामिल हुआ और बहादुरी के लिए कुछ तमगे भी हासिल किए।
- नेशनल सोशलिस्ट पार्टी (जर्मन वर्कर्स पार्टी) का प्रमुख बना। बाद में यही पार्टी नात्सी पार्टी नाम से जानी गयी।
- 30 जनवरी 1933 को हिटलर जर्मनी का चांसलर बिना।
- 28 फरवरी 1933 को जरी किए गए अग्रि अध्यादेश (फायर डिक्री) के द्वारा अभिव्यक्ति, प्रेस एवं सभी करने की आजादी जैसे नागरिक अधिकारों को अनिश्चितकाल के लिए निलम्बित कर दिया गया।
- 3 मार्च 1933 को प्रसिद्ध विशेषाधिकार अधिनियम (इनेबलिंग एक्ट) पारित किया गया। इन कानून ने हिटलर को संसद को हाशिए पर धकेलने और केवल अध्यादेशों के द्वारा शासन करने का निरंकुश अधिकार प्रदान कर दिया। इस प्रकार, जर्मनी में तानाशाही की स्थापना हो गयी।
- 1933 में ‘लीग ऑफ़ नेशंस, से जर्मनी को बाहर कर लिया।
- 1936 में राईनलैंड पर दोबारा कबज़ा कर लिया।
- ‘एक जन, एक साम्राज्य, एक नेता’ के नारे आड़ में 1938 में ऑस्ट्रिया को जर्मनी में मिला लिया।
- सितम्बर 1939 में पोलैंड पर हमल कर दिया और इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत हुई।
- सितम्बर 1940 में जर्मनी, इटली और जापान के बीच त्रिपक्षीय संधि हुई और ये देश धुरी शक्तियों के नाम से जाने गए।
- मित्र राष्ट्रों में फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, सोवियत यूनियन आदि थे।
- हिटलर द्वारा जून 1941 में सोवियत यूनियन पर हमला कर दिया।
- मई 1945 में जर्मनी की हार और हिटलर का पतन।
- अगस्त 1945 में अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी पर परमाणु बम गिराया जाना और जापान की हार।
- जापान के हार के साथ ही द्वितीय विश्व व युद्ध की समपत्ति। मित्र राष्ट्र विजयी हुए।
जर्मनी में हिटलर के उदय के कारण
- वाइमर रिपब्लिक की कमजोरियों
- वर्साय की संधि शर्ते
- आर्थिक महामंदी
- बेरोजगारी
- सर्वहाराकरण का भय
- नात्सी प्रोपेगैंडा
- आमूल परिवर्तन वादियों और समाजवादियों में आपसी फूट
नाज़ीयों का विश्व दृष्टिकोण
- नस्लीय श्रेष्ठता शुद्ध और नार्डिक आर्यो का समाज
- जीवन परिधि (लेबेन्सत्राउम) अपने लोगों को बसाने के लिए ज्यादा से ज्यादा इलाकों पर कब्जा करना।
- नस्ली कल्पनालोक (यूजोपिया)
- सक्षम नेतृत्व
- राष्ट्रीय समाजवाद का उदय
नात्सी जर्मनी में युवाओं की स्थिति:
- जर्मन और यहूदियों के बच्चे एक साथ बैठ नहीं सकते थे।
- जिप्सयों, शारीरिक रूप से अक्षम तथा यहूदियों को स्कूल से निकाल दिया गया।
- स्कूली पाठ्य पुस्तक को फिर से लिखा गया जहाँ ‘नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा दिया गया।
- 10 साल की उम्र के बच्चों को ‘युगफोंक’ में दाखिल करा दिया जाता था जो एक युवा संगठन था।
- 14 साल की उम्र में सभी लड़कों को ‘हिटलर यूथ’ की सदस्यता अनिवार्य कर दी गई।
महिलाओं की स्थिति
- लड़कियों को अच्छी माँ और शुद्ध रक्त वाले बच्चों को जन्म देना उनका प्रथम कर्तव्य बताया जाता था।
- नस्ल की शुद्धता बनाए रखना, यहूदियों से दूर रहना और बच्चों का नात्सी, मूल्य-मान्यताओं की शिक्षा देने का दायित्व उन्हें सौंपा गया।
- 1933 में हिटलर ने कहा – मेरे राज्य की सबसे महत्वपूर्ण नागरिक माँ है।
- नस्ली तौर पर वांछित बच्चों को जन्म देने वाली माताओं को अस्पताल में विशेष सुविधाएँ, दुकानों में ज्यादा छूट, थियेटर और रेलगाड़ी के सस्ते टिकट और ज्यादा बच्चे पैदा करने वाली माताओं को कांसे, चाँदी और सोने के तमगे दिए जाते थे।
- लेकिन अवांछित बच्चों को जन्म देने वाली माताओं को दंडित किया जाता था। आचार संहिता का उल्लंघन करने पर उन्हें गंजा कर मुँह पर कालिख पोत पूरे समाज में घुमाया जाता था। न केवल जेल बल्कि उनसे तमाम नागरिक सम्मान और उनके पति व परिवार भी छीन लिए जाते थे।
नात्सी प्रोपेगैंडा
- सामूहिक हत्याओं के लिए विशेष प्रकार के शब्दों का चयन जैसे – अंतिम समाधान (यहूदियों के संदर्भ में) यूथनेजिया (विकलांगों के लिए आदि)
- इवैक्युएशन (खाली कराना) का अर्थ था लोगों का गैस चैम्बरों में ले जाना।
- परम्पराप्रिय यहूदियों को खास तरह की छवियों में पेश करना।
- प्रचार फिल्मों में यहूदियों के प्रति नफरत फैलाने पर ज़ोर। ‘द एटर्नल ज्यू’ इस तरह की सबसे कुख्यात फिल्म थी।
- नात्सी विचारों को फैलाने के लिए तस्वीरों, फिल्मों, पोस्टरों, आकर्षक नारों इत्यादि का उपयोग।
- शासन के लिए समर्थन हांसिल करने और नत्सी विश्व दृष्टिकोण को फैलाने के लिए मीडिया का उपयोग।
चलिए अब अध्याय को विस्तार में समझते है
नात्सीवाद :- एडॉल्फ हिटलर के कट्टर समर्थक तथा “नात्सी” हेलमुट के पिता की मृत्यु –
- 1945 के वसंत में हेलमूट नामक 11 वर्षीय जर्मन लड़का बिस्तर में लेटे कुछ सोच रहा था। तभी उसे अपने माता-पिता की दबी-दबी सी आवाजें सुनाई दी। हेलमुट कान लगा कर उनकी बातचीत सुनने की कोशिश करने लगा। वे गंभीर स्वर में किसी मुद्दे पर बहस कर रहे थे। हेलमुट के पिता एक जाने-माने चिकित्सक थे। उस वक्त वे अपनी पत्नी से इस बारे में बात कर रहे थे कि क्या उन्हें पूरे परिवार को खत्म कर देना चाहिए या अकेले आत्महत्या कर लेनी चाहिए। उन्हें अपना भविष्य सुरक्षित दिखाई नहीं दे रहा था। वे घबराहट भरे स्वर में कह रहे थे।, अब मित्र राष्ट्र भी हमारे साथ वैसा ही बर्ताव करेंगे जैसा हमने अपाहिजों और यहूदियों के साथ किया था।
- अगले दिन वे हेलमुट को लेकर बाग में घूमने गए। यह आखिर मौका था जब हेलमुट अपने पिता के साथ बाग में गया। खूब सारा वक्त खेलते-कूदते बिताया। कुछ समय बाद हेलमुट के पिता ने अपने दफ्तर में खुद को गोली मार ली।
- हेलमुट की यादों में वह क्षण अभी भी जिंदा है जब उसके पिता की खून में सनी वर्दी को घर के अलाव में ही जला दिया गया था। हेलमुट ने जो कुछ सुना था और कुछ हुआ, उससे उसके दिलोदिमाग पर इतना गहरा सदमा पहुँचा कि अगले नौ साल तक वह घर में एक कौर भी नहीं खा पाया। उसे यही डर सताता रहा कि कही उसकी माँ उसे भी जहर न दे दे।
- हेलमुट के पिता नात्सी थे। वे एडॉल्फ़ हिटलर के कट्टर समर्थक थे।
- हिटलर जर्मनी को दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनाने को कटिबद्ध था। वह पूरे यूरोप को जीत लेना चाहता था।
- उसने यहूदियों को मरवाया था। लेकिन नात्सीवाद सिर्फ इन इक्का-दुक्का घटनाओं का नाम नहीं है।
- यह दुनिया और राजनीति के बारे में एक सम्पूर्ण व्यवस्था, विचारों की एक पूरी संरचना का नाम है।
- मई 1945 में जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के सामने समर्पण कर दिया।
- हिटलर को अंदाजा हो चुका था कि अब उसकी मृत्यु निकट है। इसलिए, हिटलर और उसके प्रचार मंत्री ग्योबल्स ने बर्लिन के एक बंकर में पूरे परिवार के साथ अप्रैल में ही आत्महत्या कर ली थी।
न्यूरेम्बर्ग में एक अंतर्राष्ट्रीय सैनिक अदालत की स्थापना :-
- युद्ध खत्म होने के बाद न्यूरेम्बर्ग में एक अंतर्राष्ट्रीय सैनिक अदालत स्थापित की गई।
- इस अदालत को शांति के विरूद्ध किए गए अपराधों, मानवता के खिलाफ किए गए अपराधों और युद्ध अपराधों के लिए नात्सी युद्धबंदियों पर मुकदमा चलाने का जिम्मा सौंपा गया था।
- युद्ध के दौरान जर्मनी के व्यवहार, खासतौर से इंसानियत के खिलाफ किए गए उसके अपराधों की वजह से कई गंभीर नैतिक सवाल खड़े हुए और उसके कृत्यों की दूनिया भर में निंदा की गई।
द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी द्वारा किए गए नरसंहार :-
- दूसरे विश्वयुद्ध के साए में जर्मनी ने जनसंहार शुरू कर दिया जिसके तहत यूरोप में रहने वाले कुछ खास नस्ल के लोगों को सामूहिक रूप से मारा जाने लगा।
- इस युद्ध में मारे गए लोगों में 60 लाख यहूदी, 2 लाख जिप्सी और 10 लाख पोलैंड के नागरिक थे।
- साथ ही मानसिक व शारिरिक रूप से अपंग घोषित किए गए 70,000 जर्मन नागरिक भी मार डाले गए।
- इनके अलावा न जाने कितने ही राजनीतिक विरोधियों को भी मौत की नींद सुला दिया गया।
- इतनी बड़ी तादाद में लोगों को मारने के लिए औषवित्स जैसे कत्लखाने बनाए गए जहाँ जहरीली गैसों से हजारों लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार दिया जाता था।
- बाकी आरोपियों में से बहुतों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई।
- सजा तो मिली लेकिन नात्सियों को जो सजा दी गई वह उनकी बर्बरता और उनके जुल्मों के मुकाबले बहुत छोटी थी।
- मित्र राष्ट्र पराजित जर्मनी पर इस बार वैसा कठोर दंड नहीं थोपना चाहते थे जिस तरह का दंड पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर थोपा गया था।
- बहुत सारे लोगों का मानना था कि पहले विश्वयुद्ध के आखिर में जर्मनी के लोग जिस तरह के अनुभव से गुजरे उसने भी नात्सी जर्मनी के उदय में योगदान दिया था।
♦ प्रथम विश्व युद्ध का परिणाम :-
- बीसवीं शताब्दी के शुरूआती सालों में जर्मनी एक ताकतवर साम्राज्य था।
- उसने ऑस्ट्रियाई साम्राज्य के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों इंग्लैंड, फ्रांस और रूस के खिलाफ पहला विश्वयुद्ध (1914-1918) लड़ा था।
- दुनिया की सभी बड़ी शक्तियाँ यह सोच कर इस युद्ध में कूद पड़ी थीं कि उन्हें जल्दी ही विजय मिल जाएगी।
- सभी को किसी न किसी फायदे की उम्मीद थी।
- उन्हें अंदाजा नहीं था कि यह युद्ध इतना लंबा खिंच जाएगा और पूरे यूरोप को आर्थिक दृष्टि से निचोड़ कर रख देगा।
- फ्रांस और बेल्जियम पर कब्जा करके जर्मनी ने शुरूआत में सफलताएं हासिल की लेकिन 1917 में जब अमेरिका भी मित्र राष्ट्रों में शामिल हो गया तो इस खेमे को काफी ताकत मिली और आखिरकार, नवंबर 1918 में उन्होंने केंद्रीय शक्तियों को हराने के बाद जर्मनी को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
♦ वाइमर गणराज्य का जन्म :-
- साम्राज्यवादी जर्मनी की पराजय और सम्राट के पदत्याग ने वहाँ की संसदीय पार्टियों को जर्मन राजनीतिक व्यवस्था को एक नए साँचे में ढालने का अच्छा मौका उपलब्ध कराया।
- इसी सिलसिले में वाइमर में एक राष्ट्रीय सभा की बैठक बुलाई गई और संघीय आधार पर एक लोकतांत्रिक संविधान पारित किया गया।
- नई व्यवस्था में जर्मन संसद यानी राइखस्टाग के लिए जनप्रतिनिधियों का चुनाव किया जाने लगा।
- प्रतिनिधियों के निर्वाचन के लिए औरतों सहित सभी वयस्क नागरिकों को समान और सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया।
- साम्राज्यवादी जर्मनी की पराजय और सम्राट के पदत्याग ने वहाँ की संसदीय पार्टियों को जर्मन राजनीतिक व्यवस्था को एक नए साँचे में ढालने का अच्छा मौका उपलब्ध कराया।
- इसी सिलसिले में वाइमर में एक राष्ट्रीय सभा की बैठक बुलाई गई और संघीय आधार पर एक लोकतांत्रिक संविधान पारित किया गया।
- नई व्यवस्था में जर्मन संसद यानी राइख़स्टाग के लिए जनप्रतिनिधियों का चुनाव किया जाने लगा।
- प्रतिनिधियों के निर्वाचन के लिए औरतों सहित सभी वयस्क नागरिकों को समान और सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया।
♦ वाइमर गणराज्य की अलोकप्रियता का कारण :-
- वाइमर गणराज्य खुद जर्मनी के ही बहुत सारे लोगों को रास नहीं आ रहा था इसकी वजह तो यही थी कि पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद विजयी देशों ने उस पर बहुत कठोर शर्तें थोप दी थी।
- मित्र राष्ट्रों के साथ वर्साय में हुई शांति संधि जर्मनी की जनता के लिए बहुत कठोर और अपमानजनक थी।
- इस संधि की वजह से जर्मनी को अपने सारे उपनिवेश, तकरीबन 10 प्रतिशत आबादी 13 प्रतिशत भूभाग, 75 प्रतिशत लौह भंडार और 26 प्रतिशत कोयला भंडार फ्रांस, पोलैंड, डेनमार्क और लिथुआनिया के हवाले करने पड़े।
- जर्मनी की रही-सही ताकत खत्म करने के लिए मित्र राष्ट्रों ने उसकी सेना भी भंग कर दी।
- युद्ध अपराधबोध अनुच्छेद के तहत युद्ध के कारण हुई सारी तबाही के लिए जर्मनी को जिम्मेदार ठहराया गया।
- इसके एवज़ में उस पर छ: अरब पौंड का जुर्माना लगाया गया।
- खनिज संसाधनों वाले राईनलैंड पर भी बीस के दशक में ज्यादातर मित्र राष्टों का ही कब्जा रहा।
- बहुत सारे जर्मनों ने न केवल इस हार के लिए बल्कि वर्साय में हुए इस अपमान के लिए वाइमर गणराज्य को ही जिम्मेदार ठहराया।
युद्ध का असर :-
1. मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक प्रभाव :-
- प्रथम विश्व युद्ध ने पूरे महाद्वीप को मनोवैज्ञानिक और आर्थिक , दोनों ही स्तरों पर तोड़ कर रख दिया।
- यूरोप अभी तक कर्ज देने वालों को महाद्वीप कहलाता था जो युद्ध खत्म होते-होते कर्जदारों का महाद्वीप बन गया।
- विडंबना यह थी कि पूराने साम्राज्य द्वारा किए गए अपराधों का हर्जाना नवजात वाइमर गणराज्य से वसूल किया जा रहा था।
- इस गणराज्य को युद्ध में पराजय के अपराधबोध और राष्ट्रीय अपमान का बोझ तो ढोना ही पड़ा। साथ ही 10 प्रतिशत आबदी, 13 प्रतिशत भू-भाग, 75 प्रतिशत लौह भंडार और 26 प्रतिशत कोयला भंडार तथा सारे उपनिवेश सौंपने पड़े।
- वाइमर गणराज्य के हिमायतियों में मुख्य रूप से समाजवादी, कैथलिक और डेमोक्रैट खेमे के लोग थे। रूढ़ीवादी/पुरातनपंथी राष्ट्रवादी मिथकों की आड़ में उन्हें तरह-तरह के हमलों का निशाना बनाया जाने लगा। “नवबंर के अपराधी” कहकर उनका खुलेआम मजाक उड़ाया गया। इस मनोदशा का तीस के दशक के शुरूआती राजनीतिक घटनाक्रम पर गहरा असर पड़ा।
2. सामाजिक तथा राजनीतिक प्रभाव :-
- पहले महायुद्ध ने यूरोपीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी गहरी छाप छोड़ दी थी।
- सिपाहियों को आम नागरिकों के मुकाबले ज्यादा सम्मान दिया जाने लगा।
- राजनेता और प्रचारक इस बात पर जोर देने लगे कि पुरूषों को आक्रामक, ताकतवर और मर्दाना गुणों वाला होना चाहिए।
- मीडिया में खंदकों की जिंदगी का महिमामंडन किया जा रहा था। लेकिन सच्चाई यह थी कि सिपाही इन खंदकों में बड़ी दयनीय जिंदगी जी रहे थे। वे लाशों को खाने वाले चूहों से घिरे रहते। वे जहरीली गैस और दुश्मनों की गोलाबारी का बहादुरी से सामना करते हुए भी अपने साथियों को पल-पल मरते देखते थे।
- सार्वजनिक जीवन में आक्रामक फौजी प्रचार और राष्ट्रीय सम्मान व प्रतिष्ठा की चाह के समाने बाकी सारी चीजें गौण हो गईं जबकि हाल ही में सत्ता में आए रूढ़िवादी तानाशाहों को व्यापक जनसमर्थन मिलने लगा।
- उस वक्त लोकतंत्र एक नया और बहुत नाजुक विचार था जो दोनों महायुद्धों के बीच पूरे यूरोप में फैली अस्थिरता का सामना नहीं कर सकता था।
राजनीतिक रैडिकलवाद आमूल परिवर्तनवाद और आर्थिक संकट :-
- जिस समय वाइमर गणराज्य की स्थापना हुई उसी समय रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति की तर्ज पर जर्मनी में भी स्पार्टकिस्ट लीग नामक विद्रोही संस्था की स्थापना हुई जो अपने क्रांतिकारी विद्रोह की योजनाओं का अंजाम देने लगी।
- बहुत सारे शहरों में मजदूरों और नाविकों की सोवियतें बनाई गईं।
- बर्लिन के राजनीतिक माहौल में सोवियत किस्म की शासन व्यवस्था की हिमायत के नारे गूँज रहे थे। इसीलिए समाजवादियों, डेमोक्रैट्स और कैथलिक गुटों में वाइमर में इकट्ठा होकर इस प्रकार की शासन व्यवस्था के विरोध में एक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना का फैसला लिया।
वाइमर गणराज्य द्वारा स्पार्टकिस्ट लीग का दमन :-
- वाइमर गणराज्य ने पुराने सैनिकों के “फ्री कोर” नामक संगठन की मदद से इस विद्रोह को कुचल दिया।
- इस पूरे घटनाक्रम के बाद स्पार्टकिस्टों ने जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी की नींव डाली।
- इसके बाद कम्युनिस्ट साम्यवादी और समाजवादी एक दूसरे के कट्टर दुश्मन हो गए और हिटलर के खिलाफ़ कभी भी साझा मोर्चा नहीं खोल सके।
- क्रांतिकारी और उग्र राष्ट्रवादी, दोनों ही खेमे रैडिकल समाधानों के लिए आवाजें उठाने लगे।
आर्थिक संकट :-
- राजनीतिक रैडकलवादी विचारों को 1923 के आर्थिक संकट से और बल मिला।
- जर्मनी ने पहला विश्वयुद्ध मोटे तौर पर कर्ज़ लेकर लड़ा था और युद्ध के बाद तो उसे स्वर्ण मुद्रा मे हर्जाना भी भरना पड़ा। इस दोहरे बोझ से जर्मनी के स्वर्ण भंडार लगभग समाप्त होने की स्थिति में पहुँच गए थे।
जर्मनी के रूर प्रदेश पर फ्रांसीसियों का अधिकार :-
- 1923 में जर्मनी ने कर्ज और हर्जाना चुकाने से इनकार कर दिया। इसके जवाब में फ्रांसीसियों ने जर्मनी के मुख्य औद्योगिक इलाके रूर पर कब्जा कर लिया। यह जर्मनी के विशाल कोयला भंडारों वाला इलाका था।
मुद्रास्फीति :-
- जर्मनी ने फ्रांस के विरूद्ध निष्क्रिय प्रतिरोध के रूप में बड़े पैमाने पर कागज़ी मुद्रा छापना शुरू कर दिया।
- जर्मन सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर मुद्रा छाप दी कि उसकी मुद्रा मार्क का मूल्य तेजी से गिरने लगा।
- अप्रैल में एक अमेरिकी डॉलर की कीमत 24,000 मार्क के बराबर थी जो जुलाई में 3,53,000 मार्क, अगरस्त में 46, 21 ,000 मार्क तथा दिसंबर मे 9,88,60,000 मार्क हो गई।
- इस तरह एक डॉलर में खरबों मार्क मिलने लगे। जैसे-जैसे मार्क की कीमत गिरती गई, जरूरी चीजों की कीमतें आसमान छूने लगी।
- जर्मन समाज दुनिया भर में हमदर्दी का पात्र बन कर रह गया। इस संकट को बाद में अति मुद्रास्फीति का नाम दिया गया। जब कीमतें बेहिसाब बढ़ जाती हैं तो उस स्थिति को अति-मुद्रास्फीति का नाम दिया जाता है।
डॉव्स योजना :-
- जर्मनी को इस संकट से निकालने के लिए अमेरिकी सरकार ने हस्तक्षेप किया। इसके लिए अमेरिका ने डॉव्स योजना बनाई।
- इस योजना में जर्मनी के आर्थिक संकट को दूर करने के लिए हर्जानों की शर्तों को दोबारा तय किया गया।
मंदी के साल :-
- सन् 1924 से 1928 तक जर्मनी मे कुछ स्थिरता रही। लेकिन यह स्थिरता मानों रेत के ऐर पर खड़ी थी।
- जर्मन निवेश और औद्योगिक गतिविधियों में सुधार मुख्यत: अमेरिका से लिए गए अल्पकालिक कर्जों पर आश्रित था।
अमेरिका में स्थित दुनिया का सबसे बड़ा शेयर बाजार धराशायी होना :-
- जब 1929 में वॉल स्ट्रीट एक्सचेंज शेयर बाजार धराशायी हो गया तो जर्मनी को मिल रही यह मदद भी रातो-रात बंद हो गई। कीमतों में गिरावट की आंशका को देखते हुए लोग धड़ाधड़ अपने शेयर बेचने लगे।
- 24 अक्टूबर को केवल एक दिन में 1.3 करोड़ शेयर बेच दिए गए। यह आर्थिक महामंदी की शुरूआत थी। 1929 से 1932 तक के अगले तीन सालों में अमेरिका की राष्ट्रीय आय केवल आधी रह गई। फैक्ट्रियाँ बंद हो गई थीं, निर्यात गिरता जा रहा था, किसानों की हालत खराब थी और सट्टेबाज बाजार से पैसा खींचते जा रहे थे। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई इस मंदी का असर दुनिया भर में महसूस किया गया।
अमेरिका की मंदी का जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव :-
- अमेरिका की मंदी का सबसे बुरा प्रभाव जर्मन अर्थव्यवस्था पर पड़ा।
- 1932 में जर्मनी का औद्योगिक उत्पादन 1929 के मुकाबले केवल 40 प्रतिशत रह गया था।
मजदूरों पर प्रभाव :-
- मज़दूर या बेरोजगार होते जा रहे थे या उनके वेतन काफ़ी गिर चुके थे। बेरोजगारों की संख्या 60 लाख तक जा पहुँची।
- जर्मनी की सड़कों पर ऐसे लोग बड़ी तादाद में दिखाई देने लगे – “मैं कोई भी काम करने को तैयार हूँ” -लिखी तख्ती गले में लटकायें खड़े रहते थे।
नौजवानों पर प्रभाव :-
- बेरोजगार नौजवान या तो ताश खेलते पाए जाते थे, नुक्कड़ों पर झुंड लगाए रहते थे या फिर रोजगार दफ्तरों के बाहर लंबी-लंबी कतार में खड़े पाए जाते थे।
- जैसे-जैसे रोजगार खत्म हो रहे थे, यूवा वर्ग आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होता जा रहा था।
- चारों तरफ़ गहरी हताशा का माहौल था।
- आर्थिक संकट ने लोगों में गहरी बेचैनी और डर पैदा कर दिया था।
मध्यम वर्ग पर प्रभाव :-
- मुद्रा के अवमूल्यन के साथ मध्यवर्ग, खासतौर से वेतनभोगी कर्मचारी और पेंशनधारियों की बचत भी सिकुड़ती जा रही थी।
- कारोबार ठप्प हो जाने से छोटे-मोटे व्यवसायी, स्वरोजगार में लगे लोग और खुदरा व्यापारियों की हालत भी खराब होती जा रही थी।
- समाज के इन तबकों को सर्वहाराकरण अर्थात् मजदूर वर्ग की आर्थिक स्थिति में पहुंचने का भय सता रहा था। उन्हें डर था कि अगर ढर्रा रहा तो वे भी एक दिन मजदूर बनकर रह जाएँगे या हो सकता है कि उनके पास कोई रोजगार ही न रह जाए।
मजदूरों पर प्रभाव :-
- अब सिर्फ़ संगठित मजदूर ही थे जिनकी हिम्मत टूटी नहीं थी।
- लेकिन बेरोजगारों की बढ़ती फौज उनकी मोल-भाव क्षमता को भी चोट पहुँचा रही थी।
- बडे़ व्यवसाय संकट में थे।
किसानों पर प्रभाव :-
- किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग कृषि उत्पादों की कीमतों में बेहिसाब गिरावट की वजह से परेशान था।
- युवाओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा था।
- अपने बच्चों का पेट भर पाने में असफल औरतों के दिल भी डूब रहे थे।
वाइमर गणराज्य पर प्रभाव :-
- राजनीतिक स्तर पर वाइमर गणराज्य एक नाजुक दौर से गुजर रहा था।
- वाइमर संविधान में कुछ ऐसी कमिया थीं जिनकी वजह से गणराज्य कभी भी अस्थिरता और तानाशाही का शिकार बन सकता था।
- इनमें से एक कमी आनुपातिक प्रतिनिधित्व से संबंधित थी।
- इस प्रावधान की वजह से किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगभग नामुमकिन बन गया था।
- हर बार गठबंधन सरकार सत्ता में आ रही थी। दूसरी समस्या अनुच्छेद 48 की वजह से थी जिसमें राष्ट्रपति को आपातकाल लागू करने, नागरिक अधिकार रद्द करने और आध्यादेशों के जरिए शासन चलाने का अधिकार दिया गया था।
- अपने छोटे से जीवन काल में वाइमर गणराज्य का शासन 20 मंत्रिमंडलों के हाथों में रहा और उनकी औसत अवधि 239 दिन से ज्यादा नहीं रही।
- इस दौरान अनुच्छेद 48 का भी जमकर इस्तेमाल किया गया पर इन सारे नुस्खों के बावजूद संकट दूर नहीं हो पाया।
- लोकतात्रिक संसदीय व्यवस्था में लोगों का विश्वास खत्म होने लगा क्योंकि वह उनके लिए कोई समाधान नहीं खोज पा रही थी।
हिटलर का उदय :-
- अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज में गहराते जा रहे इस संकट ने हिटलर के सत्ता में पहुँचने का रास्ता साफ कर दिया।
हिटलर का परिचय :-
- 1889 में ऑस्टिया में जन्में हिटलर की युवावस्था बेहद गरीबी में गुज़री थी।
- रोजी-रोटी का कोई जरिया न होने के कारण पहले विश्वयुद्ध की शुरूआत में उसने भी अपना नाम फौजी भर्ती के लिए लिखवा दिया था।
- भर्ती के बाद उसने अग्रिम मोर्चे पर संदेशवाहक का काम किया, कॉर्पोरल (नायक) बना ओर बहादुरी के लिए उसने कुछ तमगे भी हासिल किए।
जर्मन पराजय का हिटलर पर प्रभाव :-
- जर्मन सेना की पराजय ने तो उसे हिला दिया था, लेकिन वर्साय की संधि ने तो उसे आग-बबूला ही कर दिया।
- 1919 में उसने जर्मन वर्कर्स पार्टी नामक एक छोटे-से समूह की सदस्यता ले ली।
- धीरे-धीरे उसने इस संगठन पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया और उसे नैशनल सोशलिस्ट पार्टी का नया नाम दिया। इसी पार्टी को बाद में नात्सी पार्टी के नाम से जाना गया ।
हिटलर द्वारा सत्ता पर अधिकार प्राप्ति का प्रयास :-
- 1923 में ही हिटलर ने बवेरिया पर कब्जा करने, बर्लिन पर चढ़ाई करने और सत्ता पर कब्जा करने की योजना बना ली थी।
- इन दुस्साहसिक योजनाओं में वह असफल रहा। उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उस पर देशद्रोह का मुकदमा भी चला लेकिन कुछ समय बाद से रिहा कर दिया गया।
- नात्सी राजनीतिक खेमा 1930 के दशक के शुरूआती सालों तक जनता को बड़े पैमाने पर अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर पाया।
जर्मनी में महामंदी का नात्सीवाद पर प्रभाव :-
- महामंदी के दौरान नात्सीवाद ने एक जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया।
- जैसा कि हम पहले देख चुके है, 1929 के बाद बैंक दिवालिया हो चुके थे, काम – धंधे बंद होते जा रहे थे, मजदूर बेरोजगार हो रहे थे और मध्यवर्ग को लाचारी और भूखमरी का डर सता रहा था।
- नात्सी पोपेगैंडा (जनमत को प्रभावित करने के लिए किया जाने वाला एक खास तरह का प्रचार जो पोस्टरों, फिल्मों, भाषणों आदि के माध्यम से किया जाता है) में लोगों को एक बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखाई देती थीं।
- 1929 में नात्सी पार्टी को जर्मन संसद राइखस्टाग के लिए हुए चुनावों में महज 2.6 फीसदी वोट मिले थे।
- 1932 तक आते-आते यह देश की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी और उसे 37 फीसदी वोट मिले ।
हिटलर के आकर्षक व्यक्तित्व का नात्सीवाद पर प्रभाव :-
- हिटलर जबर्दस्त वक्ता था।
- उसका जोश और उसके शब्द लोगों को हिलाकर रख देते थे।
- वह अपने भाषणों में एक शक्तिशाली राष्ट्र की स्थापना, वर्साय संधि में हुई नाइंसाफी के प्रतिशोध और जर्मन समाज को खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाने का आश्वासन देता था।
- उसका वादा था कि वह बेरोजगारों को रोजगार और नौजवानों को एक सुरक्षित भविष्य देगा।
- उसने आश्वासन दिया कि वह देश को विदेशी प्रभाव से मुक्त कराएगा और तमाम विदेशी साजिशों का मुँहतोड़ जवाब देगा।
- हिटलर ने राजनीति की एक नई शैली रची थी।
- वह लोगों को गोलबंद करने के लिए आडंबर और प्रदर्शन की अहमियत समझता था।
- हिटलर के प्रति भारी समर्थन दर्शाने और लोगों में परस्पर एकता का भाव पैदा करने के लिए नात्सियों ने बड़ी-बड़ी रैलियाँ और जनसभाएँ आयोजित कीं।
- स्वस्तिक छपे लाल झंडे, नात्सी सैल्यूट और भाषणों के बाद खास अंदाज में तालियों की गड़गड़ाहट ये सारी चीजें शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा थीं।
- नात्सियों ने अपने धुआँधार प्रचार के जरिए, हिटलर को एक मसीहा, एक रक्षक, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया, जिसने मानों जनता को तबाही से उबारने के लिए ही अवतार लिया था।
- एक ऐसे समाज को यह छवि बेहद आकर्षक दिखाई देती थी जिसकी प्रतिष्ठा और गर्व का अहसास चकनाचूर हो चुका था और जो एक भीषण आर्थिक एव राजनीतिक संकट से गुजर रहा था।
लोकतंत्र का ध्वस :-
हिटलर द्वारा चांसलर का पद ग्रहण करना :-
- 30 जनवरी 1933 को राष्ट्रपति हिंडबर्ग ने हिटलर को चांसलर का पद-भार संभालने का न्यौता दिया। यह मंत्रिमंडल में सबसे शक्तिशाली पद था। नात्सी पार्टी रूढ़िवादियों को भी अपने उद्देश्यों से जोड़ चुकी थी।
लोकतांत्रिक शासन की संरचना तथा संस्थाओं को भंग करना :-
- सत्ता हासिल करने के बाद हिटलर ने लोकतांत्रिक शासन की संरचना और संस्थानों को भंग करना शुरू कर दिया।
संसद भवन में आग तथा फायर डिक्री जारी करना :-
- फरवरी माह में जर्मन संसद भवन में हुए रहस्यमय अग्निकांड से उसका रास्ता और आसान हो गया।
- 28 फरवरी 1933 को जारी किए गए अग्नि अध्यादेश (फायर डिक्री) के जरिए अभिव्यक्ति, प्रेस एवं सभा करने की आजादी जैसे नागरिक अधिकारों को अनिश्चितकाल, प्रेस एवं सभा करने की आजादी जैसे नागरिक अधिकारों को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित कर दिया गया।
कम्युनिस्टों का दमन :-
- वाइमर संविधान में इन अधिकारों को काफी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसके बाद हिटलर ने अपने कट्टर शत्रु कम्युनिस्स्टों पर निशाना साधा। ज्यादातर कम्युनिस्टों को रातों – रात कंसस्ट्रेशन कैंपों में बंद कर दिया गया। कम्युनिस्टों का बर्बर दमन किया गया। लगभग पाँच लाख की आबादी वाले डयूस्सलडॉर्फ शहर में गिरफ्तार किए गए लोगों की बची-खुची 6,808 फाइलों में से 1,440 सिर्फ कम्युनिस्टों की थी।
- नात्सियों ने सिर्फ कम्युनिस्टों का ही सफाया नहीं किया। नात्सी शासन ने कुल 52 किस्म के लोगों को अपने दमन का निशाना बनाया था।
इनेबलिंग एक्ट द्वारा निरंकुश शासन का अधिकार :-
- 3 मार्च 1933 को प्रसिद्ध विशेषाधिकार अधिनियम इनेबलिंग ऐक्ट पारित किया गया।
- इस कानून के जरिए जर्मनी में बाकायदा तानाशाही स्थापित कर दी गई। इस कानून ने हिटलर को संसद को हाशिए पर धकेलने और केवल अध्यादेशों के जरिए शासन चलाने का निरंकुश अधिकार प्रदान कर दिया।
- नात्सी पार्टी और उससे जुड़ संगठनों के अलावा सभी राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड यूनियनों पर पाबंदी लगा दी गई।
- अर्थव्यवस्था मीडिया, सेना और न्यायपालिका पर राज्य का पूरा नियत्रण स्थापित हो गया।
- पूरे समाज को नात्सियों के हिसाब से नियंत्रित और व्यवस्थित करने के लिए विशेष निगरानी और सुरक्षा दस्ते गठित किए गए।
विभिन्न पुलिस संगठन :-
- पहले से मौजूद हरी वर्दीधारी पुलिस और स्टॉर्म टूपर्स (एसए) के अलावा गेस्तापो (गुप्तचर राज्य पुलिस) , एसएस (अपराध नियत्रंण पुलिस) और सुरक्षा सेवा (एसडी) का भी गठन किया गया।
- इन नवगठित दस्तों को बेहिसाब असंवैधानिक अधिकार दिए गए और इन्हीं की वजह से नात्सी राज्य को एक खूंखार आपराधिक राज्य की छवि प्राप्त हुई।
- गेस्तापों के यंत्रणा गृहों में किसी को भी बंद किया जा सकता था।
- ये नए दस्ते किसी को भी यातना गृहों में भेज सकते थे, किसी को भी बिना कानूनी कार्रवाई के देश निकाला दिया जा सकता था या गिरफ्तार किया जा सकता था।
- दंड की आशंका से मुक्त पुलिस बलों ने निरंकुश और निरपेक्ष शासन का अधिकार प्राप्त कर लिया था।
पुनर्निमाण :-
जर्मनी की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के लिए हिटलर द्वारा अर्थशास्त्री की नियुक्ति :-
- हिटलर ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की जिम्मेदारी अर्थशास्त्री ह्यालामार शाख्त को सौंपी।
ह्यालामार शाख्त द्वारा चलाए गए कार्यक्रम :-
- ह्यालामार शाख्त ने सबसे पहले सरकारी पैसे से चलाए जाने वाले रोजगार संवर्धन कार्यक्रम के जरिए सौ फीसदी उत्पादन और सौ फीसदी रोजगार उपलब्ध कराने का लक्ष्य तय किया।
- मशहूर जर्मन सुपर हाइवे और जनता की कार – फॉक्सवगैन इस परियोजना की देन थी।
हिटलर की विदेश नीति में परिवर्तन :-
- विदेशी नीति के मोर्चे पर भी हिटलर को फौरन कामयाबियाँ मिलीं।
1. लीग ऑफ नेशंस की सदस्यता का त्याग :-
- 1933 में उसने लीग ऑफ नेशंस से पल्ला झाड़ लिया।
2. राईनलैंड पर अधिकार :-
- 1936 में राईनलैंड पर दोबारा कब्जा किया।
3. ऑस्ट्रिया का जर्मनी में विलय :-
- एक जन, एक साम्राज्य एक नेता के नारे की आड़ में 1938 में ऑस्ट्रिया को जर्मनी में मिला लिया।
4. चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार :-
- इसके बाद हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के कब्जे वाले जर्मनभाषी सुडेंनलैंड प्रांत पर कब्जा किया और फिर पूरे चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया।
इंग्लैंड का समर्थन :-
- इस दौरान हिटलर को इंग्लैंड का भी खामोश समर्थन मिल रहा था क्योंकि इंग्लैड की नजर में वर्साय की संधि के नाम पर जर्मनी के साथ बड़ी नाइसांफी हुई थी।
- घरेलू और विदेशी मोर्च पर जल्दी-जल्दी मिली इन कामयाबियों से ऐसा लगा कि देश की नियति अब पलटने वाली है। लेकिन हिटलर यहीं नहीं रूका।
शाख्त द्वारा हिटलर को दी गई सलाह :-
- शाख्त ने हिटलर को सलाह दी थी कि सेना और हथियारों पर ज्यादा पैसा खर्च न किया जाए क्योंकि सरकारी बजट अभी भी घाटे में ही चल रहा था। लेकिन नात्सी जर्मनी में एहतियात पसंद लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी। शाख्त को उनके पद से हटा दिया गया।
हिटलर द्वारा पौलेंड पर आक्रमण (सितम्बर 1939):-
- हिटलर ने आर्थिक संकट से निकलने के लिए युद्ध का विकल्प चुना।
- वह राष्ट्रीय सीमाओं का विस्तार करते हुए ज्यादा से ज्यादा संसाधन इकट्ठा करना चाहता था।
- इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए सितंबर 1939 में उसने पोलैंड पर हमला कर दिया। इसकी वजह से जर्मनी का फ्रांस और इंग्लैंड के साथ भी युद्ध शुरू हो गया।
त्रिपक्षीय संधि (सितम्बर 1940):-
- सितम्बर 1940 में जर्मनी ने इटली और जापान के साथ एक त्रिपक्षीय संधि पर हस्ताक्षर किए।
त्रिपक्षीय संधि का परिणाम :-
- इस संधि से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में हिटलर का दावा और मजबूत हो गया।
- यूरोप के ज्यादातर देशों मे नात्सी जर्मनी का समर्थन करने वाली कठपुतली सरकारें बिठा दी गईं।
- 1940 के अंत में हिटलर अपनी ताकत के शिखर पर था।
- अब हिटलर ने अपना सारा ध्यान पूर्वी यूरोप को जीतने के दीर्घकालिक सपने पर केंद्रित कर दिया।
हिटलर द्वारा सोवियत संघ पर आक्रमण :-
- हिटलर जर्मन जनता के लिए संसाधन और रहने की जगह का इंतजाम करना चाहता था। इसलिए जून 1941 में उसने सोवियत संघ पर हमला किया। यह हिटलर की एक ऐतिहासिक बेवकूफी थी।
सोवियत संघ पर आक्रमण करने के परिणाम :-
- इस पर आक्रमण से जर्मन पश्चिमी मोर्चे पर ब्रिटिश वायु सैनिकों ने बमबारी कर दी तथा पूर्वी मोर्च पर सोवियत सेनाएँ जर्मनों को नाकों चने चबवा रही थी।
- सोवियत लाल सेना ने स्तालिनग्राद में जर्मन सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
- सोवियत लाल सैनिकों ने पिछे हटते जर्मन सिपाहियों का आखिर तक पीछा किया ओर अंत में वे बर्लिन के बीचोंबीच जा पहुँचे।
- इस घटनाक्रम ने अगली आधी सदी के लिए समूचे पूर्वी यूरोप पर सोवियत वर्चस्व स्थापित कर दिया।
अमेरिका का युद्ध में शामिल होना :-
- अमेरिका इस युद्ध में फँसने से लगातार बचता रहा।
- अमेरिका पहले विश्वयुद्ध की वजह से पैदा हुई आर्थिक समस्याओं को दोबारा नहीं झेलना चाहता था। लेकिन वह लंबे समय तक युद्ध से दूर भी नहीं रह सकता था।
- पूर्व में जापान की ताकत फैलती जा रही थी।
- उसने फ्रेंच-इंडो चाइना पर कब्जा कर लिया था और प्रशांत महासागर में अमेरिकी नौसैनिक ठिकानों पर हमले की पूरी योजना बना ली थी।
- जब जापान ने हिटलर को समर्थन दिया और पर्ल हार्बर पर अमेरिकी ठिकानों को बमबारी का निशाना बनाया तो अमेरिका भी दूसरे विश्वयुद्ध में कूद पड़ा।
हिटलर की पराजय :-
- यह युद्ध मई 1948 में हिटलर की पराजय और जापान के हिरोशिमा शहर पर अमेरिकी परमाणु बम गिराने के साथ खत्म हुआ।
नात्सियों का विश्व दृष्टिकोण :-
- 1. नात्सी विचारधारा हिटलर के विश्व दृष्टिकोण का पर्यायवाची थी।
- 2. इस विश्व दृष्टिकोण में सभी समाजों को बराबरी का हक नहीं था, वे नस्ली आधार पर या तो बेहतर थे या कमतर थे।
- 3. इस नजरिये में ब्लॉन्ड, नीली आँखों वाले, नॉर्डिक जर्मन आर्य सबसे ऊपरी और यहूदी सबसे निचली पायदान पर आते थे।
- 4. यहूदियों को नस्ल विरोधी, यानी आर्यों का कट्टर शत्रु माना जाता था। बाकी तमाम समाजों को उनके बाहरी रंग-रूप के हिसाब से जर्मन आर्या और यहूदियों के बीच में रखा गया था।
- 5. हिटलर की नस्ली सोच चार्ल्स डार्विन और हर्बर्ट स्पेंसर जैसे विचारकों के सिद्धांतों पर आधारित थी।
- डार्विन का सिद्धांत :-
डार्विन प्रकृति विज्ञानी थे जिन्होंने विकास और प्राकृतिक चयन की अवधारणा के जरिए पौधों और पशुओं की उत्पत्ति की व्याख्या का प्रयास किया था।
- हर्बर्ट स्पेंसर का सिद्धांत :-
हर्बर्ट स्पेंसर ने ‘अति जीविता का सिद्धांत’ (सरवाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट) – जो सबसे योग्य है, वही जिंदा बचेगा-यह विचार दिया। इस विचार का मतलब यह था कि जो प्रजातियाँ बदलती हुई वातावरणीय परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल सकती हैं वही पृथ्वी पर जिंदा रहती हैं।
डार्विन ने चयन के सिद्धांत को एक विशुद्ध प्राकृतिक प्रक्रिया कहा था और उसमें इंसानी हस्तक्षेप की वकालत कभी नहीं की। लेकिन नस्लवादी विचारकों और राजनेताओं ने पराजित समाजों पर अपने साम्राज्यवादी शासन को सही ठहराने के लिए डार्विन के विचारों का सहारा लिया।
नात्सियों की दलीलें :-
1. जो नस्ल सबसे ताकतवर है वह जिंदा रहेगी।
2. कमजोर नस्लें खत्म हो जाएंगी।
3. आर्य नस्ल सर्वश्रेष्ठ है।
4. उसे अपनी शुद्धता बनाए रखनी है।
5. आर्य नस्ल को ताकत हासिल करनी है और दुनिया पर वर्चस्व कायम करना है।
लेबेन्त्राउम :-
- हिटलर की विचारधारा का दूसरा पहलू लेबेन्त्राउम या जीवन-परिधि की भू-राजनीतिक अवधारणा से संबंधित था।
- वह मानता था कि अपने लोगों को बसाने के लिए ज्यादा से ज्यादा इलाकों पर कब्जा करना जरूरी है।
- इससे मातृ देश का क्षेत्रफल भी बढ़ेगा और नए इलाकों में जाकर बसने वालों को अपने जन्मस्थान के साथ गहरे संबंध बनाए रखने में मुश्किल भी पेश नहीं आएगी।
- हिटलर की नजर में इस तरह जर्मन राष्ट्र के लिए संसाधन और बेहिसाव शक्ति इकट्ठा की जा सकती थी।
- पूरब में हिटलर जर्मन सीमाओं को और फैलाना चाहता था ताकि सारे जर्मनों को भौगोलिक दृष्टि से एक ही जगह इकट्ठा किया जा सके। पोलैंड इस धारणा की पहली प्रयोगशाला बना।
- नस्लवादी राज्य की स्थापना :-
- सत्ता में पहुँचते ही नात्सियों ने ‘शुद्ध’ जर्मनों के विशिष्ट नस्ली समुदाय की स्थापना के सपने को लागू करना शुरू कर दिया।
1. अवांछितों की समाप्ति :-
- i. सबसे पहले उन्होंने विस्तारित जर्मन साम्राज्य में मौजूद उन समाजों या नस्लों को खत्म करना शुरू किया जिन्हें वे ‘अवांछित’ मानते थे।
- ii. नात्सी ‘शुद्ध और स्वस्थ नॉर्डिक आर्यो’ का समाज बनाना चाहते थे।
- iii. उनकी नजर में केवल ऐसे लोग ही ‘वांछित’ थे। केवल ये ही लोग थे जिन्हें तरक्की और वंश-विस्तार के योग्य माना जा सकता था। बाकी सब अवांछित थे।
- iv. इसका मतलब यह निकला कि ऐसे जर्मनों को भी जिंदा रहने का कोई हक नहीं है जिन्हें नात्सी अशुद्ध या असामान्य मानते थे।
- v. यूथनेजिया (दया मृत्यु) कार्यक्रम के तहत बाकी नात्सी अफ़सरों के साथ-साथ हेलमुट के पिता ने भी असंख्य ऐसे जर्मनों को मौत के घाट उतारा था जिन्हें वह मानसिक या शारीरिक रूप से अयोग्य मानते थे। केवल यहूदी ही नहीं थे जिन्हें ‘अवांछितों’ की श्रेणी में रखा गया था। इनके अलावा भी कई नस्लें थीं जो इसी नियति के लिए अभिशप्त थीं।
2. जिप्सियों और अश्वेतों की समाप्ति :-
i. जिप्सी के नाम से श्रेणीबद्ध किए गए समूहों की अपनी सामुदायिक पहचान थी।
ii. जर्मनी में रहने वाले जिप्सियों और अश्वेतों की पहले तो जर्मन नागरिकता छीन ली गई और बाद में उन्हें मार दिया गया।
3. पोलिश मूल के लोगों के साथ व्यवहार :-
i. रूसी और पोलिश मूल के लोगों को भी मनुष्य से कमतर माना गया।
ii. जब जर्मनी ने पोलैंड और रूस के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया तो स्थानीय लोगों को भयानक परिस्थितियों में गुलामों की तरह काम पर झोंक दिया गया।
iii. उन्हें इंसानी बर्ताव के लायक नहीं माना जाता था।
iv. उनमें से बहुत सारे बेहिसाब काम के बोझ और भूख से ही मर गए।
4. यहूदियों के प्रति व्यवहार :-
- i. नात्सी जर्मनी में सबसे बुरा हाल यहूदियों का हुआ।
- ii. यहूदियों के प्रति नात्सियों की दुश्मनी का एक आधार यहूदियों के प्रति ईसाई धर्म में मौजद परंपरागत घृणा भी थी।
- iii. ईसाइयों का आरोप था कि ईसा मसीह को यहूदियों ने ही मारा था।
- iv. ईसाइयों की नजर में यहूदी आदतन हत्यारे और सूदखोर थे।
- v. मध्यकाल तक यहूदियों को जमीन का मालिक बनने की मनाही थी।
- vi. ये लोग मुख्य रूप से व्यापार और धन उधार देने का धंधा करके अपना गुजारा चलाते थे।
- vii. वे बाकी समाज से अलग बस्तियों में रहते थे जिन्हें घेटो (Ghettoes) यानी दड़बा कहा जाता था। नस्ल-संहार के जरिए ईसाई बार-बार उनका सफाया करते रहते थे।
- viii. उनके खिलाफ़ जब-तब संगठित हिंसा की जाती थी और उन्हें उनकी बस्तियों से खदेड़ दिया जाता था।
- यहूदियों द्वारा धर्म परिवर्तन :-
- यहूदियों ने बचने के लिए धर्म परिवर्तन का रास्ता लिया।
- आधुनिक काल में बहुत सारे यहूदियों ने ईसाई धर्म अपना लिया और जानते-बूझते हुए जर्मन संस्कृति में ढल गए।
- यहूदियों के प्रति हिटलर की घृणा तो नस्ल के छद्म वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित थी।
- इस नफ़रत में ‘यहूदी समस्या का हल धर्मातरण से नहीं निकल सकता था।
- हिटलर की ‘दृष्टि’ में इस समस्या का सिर्फ एक ही हल था – यहूदियों को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए।
- सन् 1933 से 1938 तक नात्सियों ने यहूदियों को तरह-तरह से आतंकित किया, उन्हें वृद्धि कर आजीविका के साधनों से हीन कर दिया और उन्हें शेष समाज से अलग-थलग कर डाला। यहूदी देश छोड़कर जाने लगे।
- 1939-45 के दूसरे दौर में यहूदियों को कुछ खास इलाकों में इकट्ठा करने और अंततः पोलैंड में बनाए गए गैस चेंबरों में ले जाकर मार देने की रणनीति अपनाई गई।
- नस्ली कल्पनालोक (यूटोपिया) :-
- 1. युद्ध के साए में नात्सी अपने कातिलाना, नस्लवादी कल्पनालोक या आदर्श विश्व के निर्माण में लग गए।
- 2. जनसंहार और युद्ध एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए।
- 3. पराजित पोलैंड को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया गया।
- 4. उत्तर-पश्चिमी पोलैंड का ज्यादातर हिस्सा जर्मनी में मिला लिया गया।
- 5. पोलैंड के लोगों को अपने घर और माल-असबाब छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया गया ताकि जर्मनी के कब्जे वाले यूरोप में रहने वाले जर्मनों को वहाँ लाकर बसाया जा सके।
- 6. पोलैंडवासियों को मवेशियों की तरह खदेड़ कर जनरल गवर्नमेंट नामक दूसरे हिस्से में पहुँचा दिया गया।
- 7. जर्मन साम्राज्य में मौजूद तमाम अवांछित तत्त्वों को जनरल गवर्नमेंट नामक इसी इलाके में लाकर रखा जाता था।
- 8. पोलैंड के बुद्धिजीवियों को बड़े पैमाने पर मौत के घाट उतारा गया। यह पूरे पोलैंड के समाज को बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर गुलाम बना लेने की चाल थी।
- 9. आर्य जैसे लगने वाले पोलैंड के बच्चों को उनके माँ-बाप से छीन कर जाँच के लिए ‘नस्ल विशेषज्ञों’ के पास पहुँचा दिया गया। अगर वे नस्ली जाँच में कामयाब हो जाते तो उन्हें जर्मन परिवारों में पाला जाता और अगर ऐसा नहीं होता तो उन्हें अनाथाश्रमों में डाल दिया जाता जहाँ उनमें से ज्यादातर मर जाते थे।
- 10. जनरल गवर्नमेंट में कुछ विशालतम घेटो और गैस चेंबर भी थे इसलिए यहाँ यहूदियों को बड़े पैमाने पर मारा जाता था।
मौत का सिलसिला :-
पहला चरण : बहिष्कार : (1933-39)
“हमारे बीच तुम्हें नागरिकों की तरह रहने का कोई हक नहीं।”
न्यूरेम्बर्ग नागरिकता अधिकार, सितंबर 1935 :
1. जर्मन या उससे संबंधित रक्त वाले व्यक्ति ही जर्मन नागरिक होंगे और उन्हें जर्मन साम्राज्य का संरक्षण मिलेगा।
2. यहूदियों और जर्मनों के बीच विवाह पर पाबंदी।
3. यहूदियों और जर्मनों के बीच विवाहेतर संबंधों को अपराध घोषित कर दिया गया।
4. यहूदियों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने पर पाबंदी लगा दी गई।
अन्य कानूनी उपाय :-
- यहूदी व्यवसायों का बहिष्कार।
- सरकारी सेवाओं से निकाला जाना।
- यहूदियों की संपत्ति की जब्ती और बिक्री।
नाइट ऑफ ब्रोकन ग्लास नवंबर 1938 के एक जनसंहार में यहूदियों की संपत्तियों को तहस नहस किया गया, लूटा गया। उनके घरों पर हमले हुए, यहूदी प्रार्थनाघर जला दिए गए और उन्हें गिरफ्तार किया गया। इस घटना को ‘नाइट ऑफ़ ब्रोकन ग्लास’ के नाम से याद किया जाता है।
दूसरा चरण : दड़बाबंदी : (1940- 41)
“तुम्हें हमारे बीच रहने का कोई हक नहीं।”
- सितंबर 1941 से सभी यहूदियों को हुक्म दिया गया कि वह डेविड का पीला सितारा अपनी छाती पर लगा कर रखेंगे।
- यहूदियों के पासपोर्ट, तमाम कानूनी दस्तावेजों और घरों के बाहर भी यह पहचान चिह्न छाप दिया गया।
- जर्मनी में उन्हें यहूदी मकानों में और पूर्वी क्षेत्र के “लोद्ज” एवं “वॉरसा” जैसी घेटो बस्तियों में कष्टपूर्ण और दरिद्रता की स्थिति में रखा जाता था।
- ये बेहद पिछड़े और निर्धन इलाके थे।
- घेटो में दाखिल होने से पहले यहूदियों को अपनी सारी संपत्ति छोड़ देने के लिए मजबूर किया गया।
- कुछ ही समय में घेटो बस्तियों में वचना, भुखमरी, गंदगी और बीमारियों का साम्राज्य व्याप्त हो गया।
तीसरा चरण : सर्वनाश : (1941 के बाद)
“तुम्हें जीने का अधिकार नहीं ।”
- समूचे यूरोप के यहूदी मकानों, यातना गृहों और घेटो बस्तियों में रहने वाले यहूदियों को मालगाड़ियों में भर-भर कर मौत के कारखानों में लाया जाने लगा।
- पोलैंड तथा अन्य पूर्वी इलाकों में मुख्य रूप से बेलजेक, औषवित्स, सोबीबोर, वेबलिंका, चेल्नो, तथा मायदानेक में उन्हें गैस चेंबरों में झोंक दिया गया।
- औद्योगिक और वैज्ञानिक तकनीकों के सहारे बहुत सारे लोगों को पलक झपकते मौत के घाट उतार दिया गया।
• नात्सी जर्मनी में युवाओं की स्थिति :-
- युवाओं में हिटलर की दिलचस्पी जुनून की हद तक पहुँच चुकी थी।
- उसका मानना था कि एक शक्तिशाली नात्सी समाज की स्थापना के लिए बच्चों को नात्सी विचारधारा की घुट्टी पिलाना बहुत ज़रूरी है।
1. स्कूल के भीतर नियंत्रण :-
- तमाम स्कूलों में सफ़ाए और शुद्धीकरण की मुहिम चलाई गई।
- यहूदी या ‘राजनीतिक रूप से अविश्वसनीय’ दिखाई देने वाले शिक्षकों को पहले नौकरी से हटाया गया और बाद में मौत के घाट उतार दिया गया।
- बच्चों को अलग-अलग बिठाया जाने लगा।
- जर्मन और यहूदी बच्चे एक साथ न तो बैठ सकते थे और न खेल-कूद सकते थे।
- बाद में ‘अवांछित बच्चों’ को यानी यहूदियों, जिप्सियों के बच्चों और विकलांग बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया।
- चालीस के दशक में तो उन्हें भी गैस चेंबरों में झोंक दिया गया।
2. नात्सी शिक्षा प्रक्रिया :-
- ‘अच्छे जर्मन’ बच्चों को नात्सी शिक्षा प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था।
- यह विचारधारात्मक प्रशिक्षण की एक लंबी प्रक्रिया थी।
- स्कूली पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से लिखा गया।
- नस्ल के बारे में प्रचारित नात्सी विचारों को सही ठहराने के लिए नस्ल विज्ञान के नाम से एक नया विषय पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।
- गणित की कक्षाओं में भी यहूदियों की एक खास छवि गढ़ने की कोशिश की जाती थी। बच्चों को सिखाया गया कि वे वफादार व आज्ञाकारी बनें, यहूदियों से नफ़रत और हिटलर की पूजा करें।
- खेल-कूद के जरिए भी बच्चों में हिंसा और आक्रामकता की भावना पैदा की जाती थी।
- हिटलर का मानना था कि मुक्केबाजी का प्रशिक्षण बच्चों को फौलादी दिल वाला, ताकतवर और मर्दाना बना सकता है।
3. राष्ट्रीय समाजवाद की भावना भरना :-
- जर्मन बच्चों और युवाओं को ‘राष्ट्रीय समाजवाद की भावना’ से लैस करने की जिम्मेदारी युवा संगठनों को सौंपी गई। 10 साल की उम्र के बच्चों को ‘युगफ़ोक’ में दाखिल करा दिया जाता था। यह युगफोक 14 साल के कम उम्र वाले बच्चों के लिए बनाया गया नात्सी युवा संगठन था।
- 14 साल की उम्र में सभी लड़कों को नात्सियों के युवा ‘संगठन-हिटलर यूथ’ की सदस्यता लेनी पड़ती थी। इस संगठन में वे युद्ध की उपासना, आक्रामकता व हिंसा, लोकतंत्र की निंदा और यहूदियों, कम्युनिस्टों, जिप्सियों व अन्य ‘अवांछितों’ से घृणा का सबक सीखते थे।
- गहन विचारधारात्मक और शारीरिक प्रशिक्षण के बाद लगभग 18 साल की उम्र में वे लेबर सर्विस (श्रम सेवा) में शामिल हो जाते थे।
- इसके बाद उन्हें सेना में काम करना पड़ता था और किसी नात्सी संगठन की सदस्यता लेनी पड़ती थी।
• नात्सी यूथ लीग का गठन :-
- नात्सी यूथ लीग का गठन 1922 में हुआ था।
- चार साल बाद उसे “हिटलर यूथ” का नया नाम दिया गया।
- 1933 तक आते-आते इस संगठन में 12.5 लाख से ज्यादा बच्चे थे।
- युवा आंदोलन को नात्सीवाद के तहत एकजुट करने के लिए बाकी सभी युवा संगठनों को पहले भंग कर दिया गया और बाद में उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
• मातृत्व की नात्सी सोच :-
- नात्सी जर्मनी में प्रत्येक बच्चे को बार-बार यह बताया जाता था कि औरतें बुनियादी तौर पर मर्दो से भिन्न होती हैं।
- उन्हें समझाया जाता था कि औरत-मर्द के लिए समान अधिकारों का संघर्ष गलत है। यह समाज को नष्ट कर देगा।
- इसी आधार पर लड़कों को आक्रामक, मर्दाना और पत्थरदिल होना सिखाया जाता था जबकि लड़कियों को यह कहा जाता था कि उनका फर्ज एक अच्छी माँ बनना और शुद्ध आर्य रक्त वाले बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण करना है।
- नस्ल की शुद्धता बनाए रखने, यहूदियों से दूर रहने, घर संभालने और बच्चों को नात्सी मूल्य-मान्यताओं की शिक्षा देने का दायित्व उन्हें ही सौंपा गया था।
- आर्य संस्कृति और नस्ल की ध्वजवाहक वही थीं।
- 1933 में हिटलर ने कहा था : ‘मेरे राज्य की सबसे महत्त्वपूर्ण नागरिक माँ है।
• माताओं के साथ व्यवहार :-
- नात्सी जर्मनी में सारी माताओं के साथ भी एक जैसा बर्ताव नहीं होता था।
- औरतें नस्ली तौर पर अवांछित बच्चों को जन्म देती थीं उन्हें दंडित किया जाता था जबकि नस्ली तौर पर वांछित दिखने वाले बच्चों को जन्म देने वाली माताओं को इनाम दिए जाते थे।
- ऐसी माताओं को अस्पताल में विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं, दुकानों में उन्हें ज्यादा छूट मिलती थी और थियेटर व रेलगाड़ी के टिकट उन्हें सस्ते में मिलते थे।
- हिटलर ने खूब सारे बच्चों को जन्म देने वाली माताओं के लिए वैसे ही तमगे देने का इंतजाम किया था जिस तरह के तमगे सिपाहियों को दिए जाते थे।
- चार बच्चे पैदा करने वाली माँ को काँसे का, छ: बच्चे पैदा करने वाली माँ को चाँदी का और आठ या उससे ज्यादा बच्चे पैदा करने वाली माँ को सोने का तमगा दिया जाता था।
- निर्धारित आचार संहिता का उल्लंघन करने वाली ‘आर्य’ औरतों की सार्वजनिक रूप से निंदा की जाती थी और उन्हें कड़ा दंड दिया जाता था।
- बहुत सारी औरतों को गंजा करके, मुँह पर कालिख पोत कर और उनके गले में तख्ती लटका कर पूरे शहर में घुमाया जाता था।
- उनके गले में लटकी तख्ती पर लिखा होता था – ‘मैंने राष्ट्र के सम्मान को मलिन किया है।’ इस आपराधिक कृत्य के लिए बहुत सारी औरतों को न केवल जेल की सजा दी गई बल्कि उनसे तमाम नागरिक सम्मान और उनके पति व परिवार भी छीन लिए गए।
• प्रचार की कला :-
- नात्सी शासन ने भाषा और मीडिया का बड़ी होशियारी से इस्तेमाल किया और उसका जबर्दस्त फायदा उठाया।
- उन्होंने अपने तौर-तरीकों को बयान करने के लिए जो शब्द ईजाद किए थे वे न केवल भ्रामक बल्कि दिल दहला देने वाले शब्द थे।
- नात्सियों ने अपने अधिकृत दस्तावेजों में ‘हत्या’ या ‘मौत’ जैसे शब्दों का कभी इस्तेमाल नहीं किया।
1. सामूहिक हत्याओं को विशेष व्यवहार
2. यहूदियों के संदर्भ में अंतिम समाधान
3. विकलांगों के लिए यूथनेजिया
4. चयन और
5. संक्रमण-मुक्ति आदि शब्दों से व्यक्त किया जाता था।
6. ‘इवैक्युएशन’ (खाली कराना) :- का आशय था लोगों को गैस चेंबरों में ले जाना।
7. गैस चैंबर को ‘संक्रमण मुक्ति-क्षेत्र’ कहा जाता था।
- गैस चेंबर स्नानघर जैसे दिखाई देते थे और उनमें नकली फव्वारे भी लगे होते थे।
• मीडिया का प्रयोग :-
- शासन के लिए समर्थन हासिल करने और नात्सी विश्व दृष्टिकोण को फैलाने के लिए मीडिया का बहुत सोच-समझ कर इस्तेमाल किया गया।
- 1. नात्सी विचारों को फैलाने के लिए तस्वीरों, फ़िल्मों, रेडियो, पोस्टरों, आकर्षक नारों और इश्तहारी पर्चों का खूब सहारा लिया जाता था।
- 2. पोस्टरों में जर्मनों के ‘दुश्मनों’ की रटी-रटाई छवियाँ दिखाई जाती थीं, उनका मजाक उड़ाया जाता था, उन्हें अपमानित किया जाता था। उन्हें शैतान के रूप में पेश किया जाता था।
- 3. समाजवादियों और उदारवादियों को कमज़ोर और पथभ्रष्ट तत्त्वों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। उन्हें “विदेशी एजेंट” कहकर बदनाम किया जाता था।
- 4. प्रचार फिल्मों में यहूदियों के प्रति नफरत फैलाने पर जोर दिया जाता था। ‘द एटर्नल ज्यू’ (अक्षय यहूदी) इस सूची की सबसे कुख्यात फिल्म थी।
- 5. परंपराप्रिय यहूदियों को खास तरह की छवियों में पेश किया जाता था। उन्हें दाढ़ी बढ़ाए और काफ़्तान (चोगा) पहने दिखाया जाता था, जबकि वास्तव में
- जर्मन यहूदियों और बाकी जर्मनों के बीच कोई फ़र्क करना असंभव था क्योंकि दोनों समुदाय एक-दूसरे में काफ़ी घुले-मिले हुए थे।
- 6. उन्हें केंचुआ, चूहा और कीड़ा जैसे शब्दों से संबोधित किया जाता था।
- 7. उनकी चाल-ढाल की तुलना कुतरने वाले छछुदरी जीवों से की जाती थी।
- 8. नात्सीवाद ने लोगों के दिलोदिमाग पर गहरा असर डाला, उनकी भावनाओं को भड़का कर उनके गुस्से और नफरत को ‘अवांछितों’ पर केंद्रित कर दिया।
- 9. इसी अभियान से नात्सीवाद का सामाजिक आधार पैदा हुआ।
- 10. नात्सियों ने आबादी के सभी हिस्सों को आकर्षित करने के लिए प्रयास किए। पूरे समाज को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए उन्होंने लोगों को इस बात का अहसास कराया कि उनकी समस्याओं को सिर्फ नात्सी ही हल कर सकते हैं।
• आम जनता और मानवता के खिलाफ़ अपराध :-
• नात्सीवाद पर आम लोगों की प्रतिक्रिया :-
1. नात्सी समर्थकों की प्रतिक्रिया :-
- i. बहुत सारे लोग नात्सी शब्दाडंबर और धुआँधार प्रचार का शिकार हो गए।
- ii. वे दुनिया को नात्सी नजरों से देखने लगे
- iii. अपनी भावनाओं को नात्सी शब्दावली में ही व्यक्त करने लगे।
- iv. किसी यहूदी से आमना-सामना हो जाने पर उन्हें अपने भीतर गहरी नफ़रत और गुस्से का अहसास होता था।
- v. उन्होंने यहूदियों के घरों के बाहर निशान लगा दिए बल्कि जिन पड़ोसियों पर शक था उनके बारे में पुलिस को भी सूचित कर दिया।
- vi. उन्हें पक्का विश्वास था कि नात्सीवाद ही देश को तरक्की के रास्ते पर लेकर जाएगा; यही व्यवस्था सबका कल्याण करेगी।
2. नात्सी विरोधियों की प्रतिक्रिया :-
i. जर्मनी का हर व्यक्ति नात्सी नहीं था।
ii. बहुत सारे लोगों ने पुलिस दमन और मौत की आशंका के बावजूद नात्सीवाद का जमकर विरोध किया।
3. मूक दर्शक तथा उदासीन साक्षी :-
i. जर्मन आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस पूरे घटनाक्रम का मूक दर्शक और उदासीन साक्षी बना हुआ था।
ii. लोग कोई विरोधी कदम उठाने, अपना मतभेद व्यक्त करने, नात्सीवाद का विरोध करने से डरते थे।
iii. वे अपने दिल की बात कहने की बजाय आँख फेर कर चल देना ज्यादा बेहतर मानते थे।
- पादरी नीम्योलर ने नात्सियों का लगातार विरोध किया।
- उन्होंने पाया कि नात्सी साम्राज्य में लोगों पर जिस तरह के निर्मम और संगठित जुल्म किए जा रहे हैं उनका जर्मनी की आम जनता विरोध नहीं कर पाती थी।
- जनता एक अजीब-सी खामोशी में डूबी हुई थी।
- गेस्तापो की दहशतनाक कार्यशैली और कुकृत्यों पर निशाना साधते हुए इस खामोशी के बारे में उन्होंने बड़े मर्मस्पर्शी ढंग से वर्णन किया है।
- लॉरेंस रीस ने अपने वृत्तचित्र “द नात्सीज : ए वार्निंग फ्रॉम हिस्ट्री” में अनेक तरह के लोगों से बातचीत करके बताया कि नात्सियों द्वारा सताए गए लोगों के प्रति हमदर्दी के अभाव का कारण केवल दहशत नहीं था। तीस के दशक में एक उम्मीद सी दिखाई दी थी। केवल बेरोजगारों के लिए ही नहीं हर किसी के लिए उम्मीद का दौर था। जर्मनी को अपने जीने का उद्देश्य दोबारा मिल गया था।
• थर्ड राइख ऑफ ड्रीम्स :-
- शार्लट बेराट ने अपनी डायरी में लोगों के सपनों को चोरी-छिपे दर्ज किया था। बाद में उन्होंने अपनी इस डायरी को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।
- इस किताब का नाम है थर्ड राइख़ ऑफ़ ड्रीम्स।
- शार्लटे ने इस किताब में बताया है कि :
i. एक समय के बाद किस तरह खुद यहूदी भी अपने बारे में नात्सियों द्वारा फैलाई जा रही रूढ़ छवियों पर यकीन करने लगे थे।
ii. अपने सपनों में उन्हें भी अपनी नाक आगे से मुड़ी हुई, बाल व आँखें काली और यहूदियों जैसी शक्ल-सूरत व चाल-ढाल दिखने लगी थी।
iii. नात्सी प्रेस में यहूदियों की जो छवियाँ और तस्वीरें छपती थीं, वे दिन-रात यहूदियों का पीछा कर रही थीं।
iv. ये छवियाँ सपनों में भी उनका पीछा नहीं छोड़ती थीं।
v. बहुत सारे यहूदी गैस चेंबर में पहुँचने से पहले ही दम तोड़ गए।
महाध्वंस (होलोकॉस्ट) के बारे में जानकारियाँ :-
- नात्सी तौर-तरीकों की जानकारी नात्सी शासन के आखिरी सालों में रिस-रिस कर जर्मनी से बाहर जाने लगी थी लेकिन, वहाँ कितना भीषण रक्तपात और बर्बर दमन हुआ था, इसका असली अंदाजा तो दुनिया को युद्ध खत्म होने और जर्मनी के हार जाने के बाद ही लग पाया।
- जर्मन समाज तो मलबे में दबे एक पराजित राष्ट्र के रूप में अपनी दुर्दशा से दुखी था ही, लेकिन यहूदी भी चाहते थे कि दुनिया उन भीषण अत्याचारों और पीड़ाओं को याद रखे जो उन्होंने नात्सी कत्लेआम में झेली थीं।
- इन्हीं कत्लेआमों को महाध्वंस अर्थात् ”होलोकॉस्ट” भी कहा जाता है।
- जब दमनचक्र अपने शिखर पर था उन्हीं दिनों एक यहूदी टोले में रहने वाले एक आदमी ने अपने साथी से कहा था कि वह युद्ध के बाद सिर्फ आधा घंटा और जीना चाहता है ताकि दुनिया को नारसी जर्मनी के बारे में बता सके।
- जो कुछ हुआ उसकी गवाही देने और जो भी दस्तावेज़ हाथ आए उन्हें बचाए रखने की यह अदम्य चाह घेटो और कैंपों में नारकीय जीवन भोगने वालों में बहुत गहरे तौर पर देखी जा सकती है।
- उनमें से बहुतों ने डायरियाँ लिखीं, नोटबुक लिखीं और दस्तावेजों के संग्रह बनाए।
- जब यह दिखाई देने लगा कि अब युद्ध में नात्सियों की पराजय तय ही है तो नात्सी नेतृत्व ने दफ़्तरों में मौजूद तमाम सबूतों को नष्ट करने के लिए अपने कर्मचारियों को पेट्रोल बाँटना शुरू कर दिया।
- दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में स्मृति लेखों, साहित्य, वृत्तचित्रों, शायरी, स्मारकों और संग्रहालयों में इस महाध्वंस का इतिहास और स्मृति आज भी जिंदा है।
- ये सारी चीजें उन लोगों के लिए एक श्रद्धांजलि हैं जिन्होंने उन स्याह दिनों में भी प्रतिरोध का साहस दिखाया।
- उन लोगों के लिए भी ये सारी बातें शर्मनाक यादगार हैं जिन्होंने ये जुल्म ढाए और उनके लिए चेतावनी की आवाजें हैं जो खामोशी से सब कुछ देखते रहे।
गांधीजी द्वारा हिटलर को लिखे पत्र :-
1. 23 जुलाई, 1939 को मध्यप्रांत, वर्धा से गांधीजी ने हिटलर को युद्ध रोकने की अपील एक पत्र द्वारा की। गांधीजी ने हिटलर को पूरी दुनिया में एक ऐसा व्यक्ति बताया जो युद्ध रोक सकता था।
2. 24 दिसंबर, 1940 को गांधीजी ने हिटलर को अहिंसा की शक्ति के बारे में बताया जो प्रबलतम हिंसात्मक शक्तियों के गठजोड़ का मुकाबला कर सकती है। जिसके प्रयोग में धन की भी जरूरत नहीं होती है। मानवता के नाम पर हिटलर से गांधीजी ने युद्ध रोकने की अपील की।
NCERT SOLUTIONS
प्रश्न 1 वाइमर गणराज्य के सामने क्या समस्याएँ थीं?
उत्तर – प्रथम विश्व युद्ध के अंत में साम्राज्यवादी जर्मनी की हार के बाद सम्राट केजर विलियम द्वितीय अपनी जान बचाने के लिए हॉलैण्ड भाग गया। इस अवसर का लाभ उठाते हुए संसदीय दल वाइमर में मिले और नवम्बर, 1918 ई. में वाइमर गणराज्य नाम से प्रसिद्ध एक
गणराज्य की स्थापना की। इस गणराज्य को जर्मनों द्वारा अच्छी तरह से स्वीकार नहीं किया गया क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनों की हार के बाद मित्र सेनाओं ने इसे जर्मनों पर थोपा था। वाइमर गणराज्य की प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार थीं प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त जर्मनी पर थोपी गई वर्साय की कठोर एवं अपमानजनक संधि को वाइमर गणराज्य ने स्वीकार किया था इसलिए बहुत सारे जर्मन न केवल प्रथम
विश्वयुद्ध में हार के लिए अपितु वर्साय में हुए अपमान के लिए भी वाइमर गणराज्य को ही जिम्मेदार मानते थे। वर्साय की संधि द्वारा जर्मनी पर लगाए गए 6 अरब पौंड के जुर्माने को चुकाने में वाइमर गणराज्य असमर्थ था। जर्मनी के सार्वजनिक जीवन में आक्रामक फौजी प्रचार और राष्ट्रीय सम्मान व प्रतिष्ठा की चाह के सामने वाइमरे गणराज्य का लोकतांत्रिक विचार गौण हो गया था।
इसलिए वाइमर गणराज्य के समक्ष अस्तित्व को बचाए रखने का संकट उपस्थित हो गया था। रूसी क्रान्ति की सफलता से प्रोत्साहित होकर जर्मनी के कुछ भागों में साम्यवादी प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। वाइमर गणराज्य द्वारा 1923 ई. में हर्जाना चुकाने से इनकार करने पर फ्रांस ने जर्मनी के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र ‘रूर’ पर कब्जा कर
लिया जिसके कारण वाइमर गणराज्य की प्रतिष्ठा को बहुत ठेस पहुँची। 1929 ई. की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के कारण जर्मनी में महँगाई बहुत अधिक बढ़ गई। वाइमर सरकार मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण करने में असफल रही। कारोबार ठप्प हो जाने से समाज में बेरोजगारी की समस्या अपने चरम पर पहुँच गई थी।
प्रश्न 2 इस बारे में चर्चा कीजिए कि 1930 तक आते-आते जर्मनी में नात्सीवाद को लोकप्रियता क्यों मिलने लगी?
उत्तर – 1930 तक आते-आते जर्मनी में नात्सीवाद को लोकप्रियता निम्नलिखित कारणों से मिलने लगी-
- 1929 के बाद बैंक दिवालिया हो चुके थे। काम धंधे बंद होते जा रहे थे। मजदूर बेरोजगार हो रहे थे और मध्यवर्ग को लाचारी और भूखमरी का डर सता रहा था। नात्सी प्रोपोगैंडा ने लोगों को एक बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखाई देती थी। 1929 में नात्सी पार्टी को जर्मन संसद-राइटख़स्टाग के लिए हुए चुनावो में महज़ 2.6 फीसदी वोट मिले 1932 तक आते-आते यह देश की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी और उसे 37 फ़ीसदी वोट मिले।
- हिटलर जबरदस्त वक्ता था। उसका जोश और उसके शब्द लोगों को हिलाकर रख देते थे। वह अपने भाषाणों में एक शक्तिशाली राष्ट्र की स्थापना वर्साय संधि में हुई नाइंसाफ़ी के प्रतिरोध और जर्मन समाज को खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाने का आश्वासन देता था। उसका वादा था कि वह बेरोजगारों को रोजगार और नौजवानों को एक सुरक्षित भविष्य देगा। उसने आश्वासन दिया कि वह देश की विदेशी प्रभाव से मुक्त कराएगा तमाम विदेशी ‘साज़िशों’ का मुंहतोड़ जवाब देगा।
- हिटलर ने राजनीति की एक नई शैली रची थी। वह लोगों को गोलबंद करने के लिए आडंबर और प्रदर्शन की अहमियत समझता था। हिटलर के प्रति भारी समर्थन दर्शाने और लोगों में परस्पर एकता का भाव पैदा करने के लिए नात्सियों में बड़ी-बड़ी रैलियों और जनसभाएँ आयोजित की। स्वास्तिक छपे लाल झंडे, नात्सी सैल्युट और भाषणों के बाद खास अंदाज में तालियों की गड़गड़ाहट की सारी चीजें शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा थी।
- नात्सियों ने अपने धुआंधार प्रचार केसरी हिटलर को एक मसीहा, एक रक्षक, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया। जिसने मानो जनता को तबाही से उभारने के लिए ही अवतार लिया था। एक ऐसी समाज को यह छवि बेहद आकर्षक दिखाई देती थी जिसकी प्रतिष्ठा और गर्व का अहसास चकनाचूर हो चुका था और जो एक भीषण आर्थिक और राजनीतिक संकट से गुज़र रहा था।
प्रश्न 3 नात्सी सोच के खास पहलू कौन-से थे?
उत्तर – नात्सी सोच के खास पहलू इस प्रकार थे-
- नाजियों की दृष्टि में देश सर्वोपरि है। सभी शक्तियाँ देश में निहित होनी चाहिएं। लोग देश के लिए हैं न कि देश लोगों के लिए।
- नाजी सोच सभी प्रकार की संसदीय संस्थाओं को समाप्त करने के पक्ष में थी और एक महान नेता के शासन में विश्वास रखती थी।
- यह सभी प्रकार के दल निर्माण व विपक्ष के दमन और उदारवाद, समाजवाद एवं कम्युनिस्ट विचारधाराओं के उन्मूलन की पक्षधर थी।
- इसने यहूदियों के प्रति घृणा का प्रचार किया क्योंकि इनका मानना था कि जर्मनों की आर्थिक विपदा के लिए यही लोग जिम्मेदार थे।
- नाजी दल जर्मनी को अन्य सभी देशों से श्रेष्ठ मानता था और पूरे विश्व पर जर्मनी का प्रभाव जमाना चाहता था।
- इसने युद्ध की सराहना की तथा बल प्रयोग का यशोगान किया।
- इसने जर्मनी के साम्राज्य विस्तार और उन सभी उपनिवेशों को जीतने पर ध्यान केन्द्रित किया जो उससे छीन लिए गए थे।
- ये लोग शुद्ध जर्मनों एवं स्वस्थ नोर्डिक आर्यों के नस्लवादी राष्ट्र का सपना देखते थे और उन सभी का खात्मा चाहते थे जिन्हें वे अवांछित मानते थे।
प्रश्न 4 नासियों का प्रोपेगैंडा यहूदियों के खिलाफ नफ़रत पैदा करने में इतना असरदार कैसे रहा? उत्तर – हिटलर ने 1933 ई. में तानाशाह बनने के बाद सभी शक्तियों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। हिटलर ने जर्मनी में एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार का गठन किया। उसने लोकतांत्रिक व्यवस्था को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। एक दल, एक नेता और पूरी तरह अनुशासन उसके शासन का आधार था। हिटलर ने यहूदियों के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण प्रचार शुरू किया जो यहूदियों के प्रति जर्मनों में नफरत फैलाने में सहायक सिद्ध हुआ। यहूदियों के खिलाफ नाजियों के प्रोपेगैंडा के सफल होने के प्रमुख कारण इस प्रकार थे-
- हिटलर ने जर्मन लोगों के दिलो-दिमाग में पहले ही अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया था। जर्मन लोग हिटलर द्वारा कही गयी बातों पर आँख मूंदकर विश्वास करते थे। हिटलर के चमत्कारी व्यक्तित्व के कारण यहूदियों के विरुद्ध नाजी दुष्प्रचार सफल सिद्ध हुआ।
- नाजियों ने भाषा और मीडिया का बहुत सावधानी से प्रयोग किया। नाजियों ने एक नस्लवादी विचारधारा को जन्म दिया कि यहूदी निचले स्तर की नस्ल से संबंधित थे और इस प्रकार वे अवांछित थे।
- नाजियों ने प्रारम्भ से उनके स्कूल के दिनों में ही बच्चों के दिमागों में भी यहूदियों के प्रति नफरत भर दी। जो अध्यापक यहूदी थे उन्हें बर्खास्त कर दिया गया और यहूदी बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया। इस प्रकार के तरीकों एवं नई विचारधारा के प्रशिक्षण ने नई पीढ़ी के बच्चों में यहूदियों के प्रति नफरत फैलाने और नाजी प्रोपेगैन्डा को सफल बनाने में पूर्णतः सफलता प्राप्त की।
- यहूदियों के प्रति नफरत फैलाने के लिए प्रोपेगैन्डा फिल्मों का निर्माण किया गया। रूढ़िवादी यहूदियों की पहचान की गई एवं उन्हें चिन्हित किया गया। उन्हें उड़ती हुई दाढ़ी और कफ्तान पहने दिखाया जाता था।
- उन्हें केंचुआ, चूहा और कीड़ा कह कर संबोधित किया जाता था। उनकी चाल की तुलना कुतरने वाले छछंदरी जीवों से की जाती थी।
ईसा की हत्या के अभियुक्त होने के कारण ईसाइयों की यहूदियों के प्रति पारम्परिक घृणा का नाजियों ने पूरा लाभ उठाया जिससे जर्मन यहूदियों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो गए।
प्रश्न 5 नात्सी समाज में औरतों की क्या भूमिका थी? फ्रांसीसी क्रांति के बारे में जानने के लिए अध्याय 1 देखें। फ्रांसीसी क्रांति और नात्सी शासन में औरतों की भूमिका के बीच क्या फर्क था? एक पैराग्राफ में बताएँ।
उत्तर – नाजी समाज में महिलाओं की भूमिका एक बड़े पैमाने पर पितृसत्तात्मक या पुरुष प्रधान समाज के
नियमों का पालन करने की थी। हिटलर ने महिलाओं को उसके जर्मनी की सबसे महत्त्वपूर्ण नागरिक कहा था किन्तु यह केवल उन आर्य महिलाओं तक ही सच था जो शुद्ध एवं वांछित आर्य बच्चे पैदा करती थी। उन्हें अच्छी पत्नी बनने और पारंपरिक रूप से घर को संभालने व अच्छी पत्नी बनने के अतिरिक्त एकमात्र मातृत्व लक्ष्य की प्राप्ति की ही शिक्षा दी जाती थी। नाजी जर्मनी में महिलाएं पुरुषों से मूलतः भिन्न थी। उन्हें अपने घर की देख-रेख करनी पड़ती और अपने
बच्चों को नाजी मूल्य पढाने होते थे। जो माताएं नस्ली तौर पर वांछित दिखने वाले बच्चों को जन्म देती उन्हें इनाम दिए जाते और कई प्रकार की सुविधाएं पाती। दूसरी और वे औरतें जो यहूदी, पोलिश और रूसी पुरुषों से शादी करके नस्ली तौर पर अवांछित दिखने वाले बच्चों को जन्म देती, उन्हें बुरी तरह दंडित किया जाता और ऐसा माना जाता जैसे कि उन्होंने कोई दंडनीय अपराध किया हो। इस प्रकार नाजी समाज में महिलाओं के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाता था।
यह फ्रांसीसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका के मुकाबले सर्वथा उलट था जहाँ महिलाओं ने आंदोलनों का नेतृत्व किया और शिक्षा एवं समान मजदूरी के अधिकार के लिए लड़ाई की। उन्हें राजनैतिक क्लब बनाने की अनुमति थी और फ्रांसीसी क्रांति के बाद उनका स्कूल जाना अनिवार्य कर दिया गया था।
प्रश्न 6 नात्सियों ने जनता पर पूरा नियंत्रण स्थापित करने के लिए कौन-कौन से तरीके अपनाए?
उत्तर – हिटलर ने 1933 ई. में जर्मनी का तानाशाह बनने के बाद शासन की समस्त शक्तियों पर अधिकार कर लिया। उसने एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार का गठन किया। उसने लोकतांत्रिक विचारों को हासिए पर डाल दिया। उसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पूर्णत: प्रतिबन्ध लगा दिया।
नात्सियों ने जनता पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए निम्न तरीके अपनाए-
- जनसंचार माध्यमों का उपयोग- शासन के लिए समर्थन हासिल करने और नात्सी विश्व दृष्टिकोण को फैलाने के लिए मीडिया का बहुत सोच-समझ कर इस्तेमाल किया गया। नात्सी विचारों को फैलाने के लिए तस्वीरों, फिल्मों, रेडियो, पोस्टरों, आकर्षक नारों और इश्तहारी पर्यों का खूब सहारा लिया जाता था। नात्सीवाद ने लोगों के दिलोदिमाग पर गहरा असर डाला, उनकी भावनाओं को भड़का कर उनके गुस्से और नफरत को ‘अवांछितों पर केन्द्रित कर दिया। इसी अभियान से नासीवाद को सामाजिक आधार पैदा हुआ।
- युंगफोक- युंगफोक 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों का नात्सी युवा संगठन था। 10 साल की उम्र के बच्चों का युंगफोक में दाखिला करा दिया जाता था। 14 साल की उम्र में सभी लड़कों को नात्सियों के युवा संगठन हिटलर यूथ की सदस्यता लेनी पड़ती थी। इस संगठन में वे युद्ध की उपासना, आक्रामकता व हिंसा, लोकतंत्र की निंदा और यहूदियों, कम्युनिस्टों, जिप्सियों व अन्य ‘अवांछितों से घृणा को सबक सीखते थे। गहन विचारधारात्मक और शारीरिक प्रशिक्षण के बाद लगभग 18 साल की उम्र में वे लेबर सर्विस (श्रम सेवा) में शामिल हो जाते थे। इसके बाद उन्हें सेना में काम
- करना पड़ता था और किसी नासी संगठन की सदस्यता लेनी पड़ती थी।
- विशेष निगरानी एवं सुरक्षा दस्तों का गठन- पूरे समाज को नात्सियों के हिसाब से नियंत्रित और व्यवस्थित करने के लिए विशेष निगरानी और सुरक्षा दस्ते गठित किए गए। पहले से मौजूद हरी वर्दीधारी पुलिस और स्टॉर्म टूपर्स (एस.ए.) के अलावा गेस्टापो (गुप्तचर राज्य पुलिस), एस.एस. (अपराध नियंत्रण पुलिस) और सुरक्षा सेवा (एस.डी.) का भी गठन किया गया। इन नवगठित दस्तों को बेहिसाब असंवैधानिक अधिकार दिए गए और इन्हीं की वजह से नात्सी राज्य को एक बूंखार आपराधिक राज्य की छवि प्राप्त हुई। गेस्टापो के यंत्रणा गृहों में किसी को भी बंद किया जा सकता था। ये नए दस्ते किसी को भी यातना गृहों में भेज सकते थे, किसी को भी बिना कानूनी कार्रवाई के देश निकाला दिया जा सकता था या गिरफ्तार किया जा सकता था। दण्ड की आशंका से मुक्त पुलिस बलों ने निरंकुश और निरपेक्ष शासन का अधिकार प्राप्त कर लिया था।
- कम्युनिस्टों का दमन- अधिकांश कम्युनिस्टों को रातों-रात कंसन्ट्रेशन कैम्पों में बन्द कर दिया गया।
- तानाशाही की स्थापना- मार्च, 1933 ई. को प्रसिद्ध विशेषाधिकार अधिनियम की सहायता से जर्मनी में तानाशाही की स्थापना की गई।
- राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध– नात्सी दल के अतिरिक्त अन्य सभी राजनीतिक दलों और ट्रेड यूनियनों को प्रतिबंधित कर दिया गया।
- रैलियाँ और जनसभाएँ- नासियों ने जनसमर्थन प्राप्त करने के लिए तथा जनता को मनोवैज्ञानिक रूप से नियंत्रित करने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियाँ और जनसभाएँ आयोजित कीं।
- अग्नि अध्यादेश- सत्ता प्राप्ति के पश्चात् अग्नि अध्यादेश के जरिए अभिव्यक्ति, प्रेस एवं सभा करने की आजादी जैसे नागरिक अधिकारों को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। हिटलर के जर्मन साम्राज्य की वजह से नात्सी राज्य को इतिहास में सबसे खूखार आपराधिक राज्य की छवि प्राप्त हुई। नाजियों ने जर्मनी की युद्ध में हार के लिए यहूदियों को जिम्मेदार ठहराया। यहूदी गतिविधियों पर कानूनी रूप से रोक लगा दी गई और उनमें से अधिकांश को या तो मार दिया गया या जर्मनी छोड़ने के लिए बाध्य किया गया।
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