2023-24 NCERT Class 9 History Chapter 4 वन्य समाज और उपनिवेशवाद Notes in Hindi

NCERT Class 9 History Chapter 4 वन्य समाज और उपनिवेशवाद|भारत और समकालीन विश्व-I

प्रिय विद्यार्थियों आप सभी का स्वागत है आज हम आपको सत्र 2023-24 के लिए NCERT Class 9 History Chapter 4   वन्य समाज और उपनिवेशवाद Notes in Hindi | कक्षा 9 इतिहास के नोट्स उपलब्ध करवा रहे है |

9th Class History Chapter 4 Forest Society and Colonialism Notes in Hindi | कक्षा 9 इतिहास नोट्स हिंदी में उपलब्ध करा रहे हैं |Class 9 Itihaas Chapter 4 Vany samaaj owr upaniveshavaad Notes PDF Hindi me Notes PDF 2023-24 New Syllabus ke anusar.

TextbookNCERT
ClassClass 9
SubjectHistory | इतिहास
ChapterChapter 4
Chapter Nameवन्य समाज और उपनिवेशवाद
CategoryClass 9 History Notes in Hindi
MediumHindi
class-9-History-chapter-4-Forest Society and Colonialism notes-in-hindi

Class 09 इतिहास
अध्याय = 4
वन्य समाज और उपनिवेशवाद

Forest Society and Colonialism

वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद

  • स्कूल और घर में चारों और नजर दौड़ाकर उन सभी वस्तुओं को पहचानें जो जंगल की हैं – किताब का कागज, मेज-कुर्सियाँ, दरवाजे – खिड़कियाँ, वे रंग जिनसे आपके कपड़े रंगे जाते हैं, मसाले, टॉफी, सैलोफैन रैपर, बीड़ियों के तेंदू पत्ते, गोंद, शहद, कॉफी, चाय और रबड़।
  • दवाओं के रूप में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियाँ इन सबको भी हमें नहीं भूलना चाहिए।
  • बाँस, जलावन की लकड़ी, घास, कच्चा कोयला, पैकिंग में उपयोग होने वाली वस्तुएँ, फल-फूल, पशु-पक्षी एवं ढेरों दूसरी चीजें भी तो जंगलों से ही आती हैं।
  • ऐमेजॉन या पश्चिमी घाट के जंगलों के एक ही टुकड़े में पौधें की 500 अलग – अलग प्रजातियाँ मिल जाती हैं।
  • यह विविधता तेजी से लुप्त होती जा रही है।
  • औद्योगीकरण के दौर में सन् 1750 से 1995 के बीच 139 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल यानी दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 9.3 प्रतिशत भाग औद्योगिक इस्तेमाल, खेती-बाड़ी, चरागाहों व ईंधन की लकड़ी के लिए साफ़ कर दिया गया।

वनों का विनाश क्यों?

  • वनों के लुप्त होने को सामान्यत: वन-विनाश कहते हैं।
  • वन-विनाश कोई नयी समस्या नहीं हैं।
  • वैसे प्रक्रिया कई सदियों से चली आ रही थी लेकिन औपनिवेशिक शासन के दौरान इसने कहीं अधिक व्यवस्थित और व्यापक रूप ग्रहण कर लिया।
  • भारत में वन-विनाश के कुछ कारणों पर गौर करें।

1. जमीन की बेहतरी :-

  • सन् 1600 में हिंदुस्तान के कुल भू-भाग के लगभग छठे हिस्से 16 पर खेती होती थी।
  • आज यह आँकड़ा बढ़ कर आधे 12 तक पहुँच गया है।
  • इन सदियों के दौरान जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गयी और खाद्य पदार्थों की माँग में भी वृद्धि हुई, वैसे-वैसे किसान भी जंगलों को साफ करके खेती की सीमाओं को विस्तार देते गए।
  • औपनिवेशिक काल में खेती में तेजी से फैलाव आया।

औपनिवेशिक काल में कृषि के विस्तार की प्रमुख वजह :-

1. अंग्रेजों ने व्यवसायिक फसलों जैसे पटसन, गन्ना, गेहूँ व कपास के उत्पादन को जम कर प्रोत्साहित किया।
2. 19वीं सदी के यूरोप में बढ़ती शहरी आबादी का पेट भरने के लिए खाद्यान्न और औद्यौगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की जरूरत थी।

  • इन फसलों की माँग में इजाफा हुआ।

3. 19वीं सदी की शुरुआत में औपनिवेशिक सरकार ने जंगलों को अनुत्पादक समझा।

  • उनके हिसाब से इस व्यर्थ के बियाबान पर खेती करके उससे राजस्व और कृषि उत्पादों को पैदा किया जा सकता था और इस तरह राज्य की आय में बढ़ोतरी की जा सकती थी।
  • यह वजह थी कि 1880 से 1920 के बीच खेती योग्य जमीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की बढ़त हुई।
  • खेती के विस्तार को हम विकास का सूचक मानते हैं।
  • लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जमीन को जोतने से पहले जंगलों की कटाई करनी पड़ती है।

पटरी पर स्लीपर :-

  • उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक इंग्लैंड में बलूत (ओक) के जंगल लुप्त होने लगे थे।
  • इसकी वजह से शाही नौसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति में मुश्किल आ खड़ी हुई।
  • मजबूत और टिकाऊ लकड़ी की नियमित आपूर्ति के बिना अंग्रेजी जहाज भला कैसे बन सकते थे?
  • जहाजों के बिना शाही सत्ता कैसे बचाई और बनाए रखी जा सकती थी?
  • 1820 के दशक में खोजी दस्ते हिंदुस्तान की वन-संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए।
  • एक दशक के भीतर बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जाने लगे और भारी मात्रा में लकड़ी का हिंदुस्तान से निर्यात होने लगा।
  • 1850 के दशक में रेल लाइनों के प्रसार ने लकड़ी के लिए एक नई तरह की माँग पैदा कर दी।
  • शाही सेना के आवागमन और औपनिवेशिक व्यापार के लिए रेल लाइनें अनिवार्य थीं।
  • इंजनों को चलाने के लिए ईंधन के तौर पर और रेल की पटरियों को जोड़े रखने के लिए ‘स्लीपरों’ के रूप में लकड़ी की भारी जरूरत थी।
  • एक मील लंबी रेल की पटरी के लिए 1760 – 2000 स्लीपरों की आवश्यकता पड़ती थी।
  • भारत में रेल-लाइनों का जाल 1860 के दशक में तेजी से फैला।
  • 1890 तक लगभग 25,500 कि.मी. लंबी लाइनें बिछायी जा चुकी थीं।
  • 1946 में इन लाइनों की लंबाई 7,65,000 कि.मी. तक बढ़ चुकी थी।
  • रेल लाइनों के प्रसार के साथ – साथ बड़ी तादाद में पेड़ भी काटे गए।
  • अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में 1850 के दशक में प्रतिवर्ष 35,000 पेड़ स्लीपरों के लिए काटे गए।
  • सरकार ने आवश्यक मात्रा की आपूर्ति के लिए निजी ठेके दिए।
  • इन ठेकेदारों ने बिना सोचे-समझे पेड़ काटना शुरू कर दिया।
  • रेल लाइनों के इर्द-गिर्द जंगल तेजी से गायब होने लगे।

बागान :-

  • यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया।
  • औपनिवेशिक सरकार ने जंगलों को अपने कब्जे में लेकर उनके विशाल हिस्सों को बहुत सस्ती दरों पर यूरोपीय बागान मालिकों को सौंप दिया।
  • इन इलाकों की बाड़ाबंदी करके जंगलों को साफ़ कर दिया गया और चाय-कॉफी की खेती की जाने लगी।

व्यवसायिक वानिकी की शुरुआत :-

  • जहाज और रेल की पटरियाँ बिछाने के लिए अंग्रेजों को जंगलों की जरूरत थी।
  • अंग्रेजों को इस बात की चिंता थी कि स्थानीय लोगों द्वारा जंगलों का उपयोग व व्यापारियों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से जंगल नष्ट हो जाएँगे।
  • इसलिए उन्होनें डायट्रिच ब्रैंडिस नामक जर्मन विशेषज्ञ को इस विषय पर मशविरे के लिए बुलाया और उसे देश का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया गया।
  • ब्रैंडिस ने महसूस किया कि लोगों को संरक्षण विज्ञान में प्रशिक्षित करना और जंगलों के प्रबंधन के लिए एक व्यवस्थित तंत्र विकसित करना होगा।
  • इसके लिए कानूनी मंजूरी की जरूरत पड़ेगी।
  • वन संपदा के उपयोग  संबंधी नियम तय करने पडेंगे।
  • पेड़ों की कटाई और पशुओं को चराने जैसी गतिविधियों पर पाबंदी लगा कर ही जंगलों को लकड़ी उत्पादन के लिए आरक्षित किया जा सकेगा।
  • इस तंत्र की अवमानना करके पेड़ काटने वाले किसी भी व्यक्ति को सजा का भागी बनना होगा।
  • इस तरह ब्रैंडिस ने 1864 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और 1865 के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया।
  • इम्पीरियल फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना 1906 में देहरादून में हुई।
  • यहाँ जिस पद्धति की शिक्षा दी जाती थी उसे ‘वैज्ञानिक वानिकी’ (साइंटिफिक फ़ॉरेस्ट्री) कहा गया।
  • लेकिन आज पारिस्थितिकी विशेषज्ञों सहित ज्यादातर लोग मानते हैं कि यह पद्धति कतई वैज्ञानिक नहीं है।
  • वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया।
  • इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए। इसे बागान कहा जाता है।
  • वन विभाग के अधिकारियों ने जंगलों का सर्वेक्षण किया, विभिन्न किस्म के पेड़ों वाले क्षेत्र की नाप-जोख की और वन-प्रबंधन के लिए योजनाएँ बनायीं।
  • उन्होंने यह भी तय किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाएगा।
  • कटाई के बाद खाली जमीन पर पुन: पेड़ लगाए जाने थे ताकि कुछ ही वर्षों मे यह क्षेत्र पुन: कटाई के लिए तैयार हो जाए।
  • 1865 में वन अधिनियम के लागू होने के बाद इसमें दो बार संशोधन किए गए –

1.1878 में
2.1927 में

  • 1878 वाले अधिनियम में जंगलों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया : आरक्षित, सुरक्षित व ग्रामीण
  • सबसे अच्छे जंगलों को ‘आरक्षित वन’ कहा गया
  • गाँव वाले इन जंगलों से अपने उपयोग के लिए कुछ भी नहीं ले सकते थे।
  • वे घर बनाने या ईंधन के लिए केवल सुरक्षित या ग्रामीण वनों से ही लकड़ी ले सकते थे।

लोगों का जीवन कैसे प्रभावित हुआ?

  • एक अच्छा जंगल कैसा होना चाहिए इसके बारे में वनपालों और ग्रामीणों के विचार बहुत अलग थे।
  • जहाँ एक तरफ ग्रामीण अपनी अलग-अलग जरूरतों, जैसे ईंधन, चारे व पत्तों की पूर्ति के लिए धन वन में विभिन्न प्रजातियों का मेल चाहते थे,वहीं वन-विभाग को ऐसे पेड़ों की जरूरत थी जो जहाजों और रेलवे के लिए इमारती लकड़ी मुहैया करा सकें, ऐसी लकड़ियाँ जो सख्त, लंबी और सीधी हों।
  • इसलिए सागौन ओर साल जैसी प्रजातियों को प्रोत्साहित किया गया और दूसरीकिस्में काट डाली गईं।
  • वन्य इलाकों में लोग कंद-मूल-फल, पत्ते आदि वन-उत्पादों का विभिन्न जरूरतों के लिए उपयोग करते हैं।
  • फल और कंद अत्यंत पोषक खाद्य हैं, विशेषकर मॉनसून के दौरान जब फसल कट कर घर न आयी हो।
  • दवाओं के लिए जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल होता है, लकड़ी का प्रयोग हल जैसे खेती के औजार बनाने में किया जाता है, बाँस से बेहतरीन बाड़ें बनायी जा सकती हैं और इसका उपयोग छतरी तथा टोकरी बनाने के लिए भी किया जा सकता है।
  • सूखे हुए कुम्हड़े के खोल का प्रयोग पानी की बोतल के रूप में किया जा सकता हैं।
  • जंगलों में लगभग सब कुछ उपलब्ध है – पत्तों को जोड़-जोड़ कर ‘खाओ-फेंको’ किस्म के पत्तल और दोने बनाए जा सकते हैं, सियादी की लताओं से रस्सी बनायी जा सकती है, सेमूर (सूती रेशम) की काँटेदार छाल पर सब्जियाँ छीली जा सकती हैं, महुए के पेड़ से खाना पकाने और रोशनी के लिए तेल निकाला जा सकता है।
  • वन अधिनियम के चलते देश भर में गाँव वालों की मुश्किलें बढ़ गईं।
  • इस कानून के बाद घर के लिए लकड़ी काटना, पशुओं को चराना, कंद-मूल-फल कइट्‌ठा करना आदि रोज़मर्रा की गतिविधियाँ गैरकानूनी बन गईं।
  • अब उनके पास जंगलों से लकड़ी चुराने के अलावा कोई चारा नहीं बचा और पकड़े जाने की स्थिति में वे वन-रक्षकों की दया पर होते जो उनसे घूस ऐंठते थे।
  • जलावनी लकड़ी एकत्र करने वाली औरतें विशेष तौर से परेशान रहने लगीं।
  • मुफ्त खाने-पीने की मांग करके लोगों को तंग करना पुलिस और जंगल के चौकीदारों के लिए सामान्य बात थी।

वनों के नियमन से खेती कैसे प्रभावित हुई?

  • यूरोपीय उपनिवेशवाद का सबसे गहरा प्रभाव झूम या घुमंतू खेती की प्रथा पर दिखायी पड़ता है।
  • एशिया, अफ्रीका व दक्षिण अमेरिका के अनेक भागों में यह खेती का एक परंपरागत तरीका है।
  • इसके कई स्थानीय नाम हैं जैसे – दक्षिण-पूर्व एशिया में लादिंग, मध्य अमेरिका में मिलपा, अफ्रीका में चितमेन या तावी व श्रीलंका में चेना।

झुम कृषि के अन्य नाम :-

  • दक्षिण-पूर्व एशिया में लादिंग
  • मध्य अमेरिका में मिल्पा
  • अफ्रीका में चितमेन
  • तावी व श्रीलंका में चेना
  • हिंदुस्तान में घुमंतू खेती के लिए धया, पेंदा, बेवर, नेवड़, झूम, पोडू, खंदाद और कुमरी ऐसे ही कुछ स्थानीय नाम है।
  • झम – (असम, मेघालय, मिजोरम और नागलैंड) पामलृ – (मणिपुर) दीप – (छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले और अंडमान निकोबार), बेबर या दहिया – (मध्य प्रदेश), पोडु अथवा पेंडा – (आध्रंप्रदेश), पामाडाबी या कोमान – (ओडिशा), कुमारी – पश्चिम घाट, वालरे या वाल्टरे – दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, खिल – हिमालयन क्षेत्र
  • घुमंतू कृषि के लिए जंगल के कुछ भागों को बारी-बारी से काटा और जलाया जाता है।
  • मॉनसून की पहली बारिश के बाद इस राख में बीज बो दिए जाते हैं और अक्टूबर-नवंबर में फसल काटी जाती है। इन खेतों पर दो-एक साल खेती करने के बाद इन्हें 12 से 18 साल तक के लिए परती छोड़ दिया जाता है जिससे वहाँ फिर से जंगल पनप जाए।
  • इन भूखंडों में मिश्रित फसलें उगायी जाती हैं जैसे मध्य भारत और अफीका में ज्वार-बाजरा, ब्राजील में कसावा और लैटिन अमेरिका के अन्य भागों में मक्का व फलियाँ।
  • यूरोपीय वन रक्षकों की नजर में यह तरीका जंगलों के लिए नुकसानदेह था।
  • उन्होंने महसूस किया कि जहाँ कुछके सालों के अंतर पर खेती की जा रही हो ऐसी जमीन पर रेलवे के लिए इमारती लकड़ी वाले पेड़ नहीं उगाए जा सकते।
  • साथ ही जंगल जलाते समय बाकी बेशकीमती पेड़ों के भी फैलती लपटों की चपेट में आ जाने का खतरा बना रहता है।
  • घुमंतू खेती के कारण सरकार के लिए लगान का हिसाब रखना भी मुश्किल था।
  • इसलिए सरकार ने घुमंतू खेती पर रोक लगाने का फैसला किया।
  • इसके परिणामस्वरूप अनेक समुदायों को जंगलों में उनके घरों से जबरन विस्थापित कर दिया गया।
  • कुछ को अपना पेशा बदलना पड़ा तो कुछ ने छोटे-बड़े विद्रोहों के जरिए प्रतिरोध किया।

शिकार की आजादी किसे थी?

  • जंगल संबंधी नए कानूनों ने वनवासियों के जीवन को एक और तरह से प्रभावित किया।
  • वन कानूनों के पहले जंगलों में या उनके आसपास रहने वाले बहुत सारे लोग हिरन, तीतर जैसे छोटे-मोटे शिकार करके जीवनयापन करते थे।
  • यह पारंपरिक प्रथा अब गैर-कानूनी हो गयी।
  • शिकार करते हुए पकड़े जाने वालों को अवैध शिकार के लिए दंडित किया जाने लगा।
  • जहाँ एक तरफ वन कानूनों ने लोगों को शिकार के परंपरागत अधिकार से वंचित किया, वहीं बड़े जानवरों का आखेट एक खेल बन गया।
  • हिंदुस्तान में बाघों और दूसरे जानवरों का शिकार करना सदियों से दरबारी और नवाबी संस्कृति का हिस्सा रहा था।
  • अनेक मुगल कलाकृतियों में शहजादों और सम्राटों को शिकार का मजा लेते हुए दिखाया गया है।
  • किंतु औपनिवेशिक शासन के दौरान शिकार का चलन इस पैमाने तक बढ़ा कि कई प्रजातियाँ लगभग पूरी तरह लुप्त हो गईं।
  • अंग्रेजों की नजर में बड़े जानवर जंगली, बर्बर और आदि समाज के प्रतीक-चिन्ह थे।
  • उनका मानना था कि खतरनाक जानवरों को मार कर वे हिन्दुस्तान को सभ्य बनाएँगे।
  • बाघ, भेड़िये और दूसरे बड़े जानवरों के शिकार पर यह कह कर इनाम दिए गए कि इनसे किसानों को खतरा है।
  • 1875 से 1925 के बीच इनाम के लालच में 80,000 से ज्यादा बाघ, 1,50,000 तेंदुए और 2,00,000 भेड़िये मार गिराए गए।
  • धीरे – धीरे बाघ के शिकार को एक खेल की ट्रॉफी के रूप में देखा जाने लगा।
  • अकेले जॉर्ज यूल नामक अंग्रेज अफसर ने 400 बाघों को मारा था।
  • प्रारंभ में जंगल के कुछ इलाके शिकार के लिए ही आरक्षित थे।
  • काफी समय बाद पर्यावरणविदों और संरक्षणवादियों ने आवाज उठाई कि जानवरों की इन सारी प्रजातियों की सुरक्षा होनी चाहिए न कि इनको मारा जाना चाहिए।

नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ :-

  • जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण स्थापित हो जाने से लोगों को कई तरह के नुकसान हुए, लेकिन कुछ लोगों को व्यापार के नए अवसरों का लाभ भी मिला।
  • कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़ कर वन-उत्पादों का व्यापार करने लगे।
  • महज हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कुछ ऐसा ही नजारा दिखता है।
  • उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं सदी के मध्य में ऊँची जगहों पर रह कर मैनियोक उगाने वाले ब्राजीली ऐमेजॉन के मुनदुरुकु समुदाय के लोगों ने व्यापारियों को रबड़ की आपूर्ति के लिए जंगली रबड़ के वृक्षों से ‘लेटेक्स’ एकत्र करना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में वे व्यापार चौकियों की ओर नीचे उतर आए और पूरी तरह व्यापारियों पर निर्भर हो गए।
  • हिंदुस्तान में वन-उत्पादों का व्यापार कोई अनोखी बात नहीं थी।
  • मध्यकाल से ही आदिवासी समुदायों द्वारा बंजारा आदि घुमंतू समुदायों के माध्यम से हाथियों और दूसरे सामान जैसे खाल, सींग, रेशम के काये, हाथी-दाँत, बाँस, मसाले, रेशे, घास, गोंद और राल के व्यापार के सबूत मिलते हैं।
  • लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद व्यापार पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में चला गया।
  • ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन-उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी।
  • स्थानीय लोगों द्वारा शिकार करने और पशुओं को चराने पर बंदिशें लगा दी गईं।
  • इस प्रक्रिया में मद्रास प्रेसीडेंसी के कोरवा, कराचा व येरुकुला जैसे अनेक चरवाहे और घुमंतू समुदाय अपनी जीविका से हाथ धो बैठे। इनमें से कुछ को ‘अपराधी कबीले’ कहा जाने लगा और ये सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों व बागानों में काम करने को मजबूर हो गए।
  • काम के नए अवसरों का मतलब यह नहीं था कि उनकी जीवन स्थिति में हमेशा सुधार ही हुआ हो।

नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ :-

  • जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण स्थापित हो जाने से लोगों को कई तरह के नुकसान हुए, लेकिन कुछ लोगों को व्यापार के नए अवसरों का लाभ भी मिला।
  • कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़ कर वन-उत्पादों का व्यापार करने लगे।
  • महज हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कुछ ऐसा ही नजारा दिखता है।
  • उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं सदी के मध्य में ऊँची जगहों पर रह कर मैनियोक उगाने वाले ब्राजीली ऐमेजॉन के मुनदुरुकु समुदाय के लोगों ने व्यापारियों को रबड़ की आपूर्ति के लिए जंगली रबड़ के वृक्षों से ‘लेटेक्स’ एकत्र करना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में वे व्यापार चौकियों की ओर नीचे उतर आए और पूरी तरह व्यापारियों पर निर्भर हो गए।
  • हिंदुस्तान में वन-उत्पादों का व्यापार कोई अनोखी बात नहीं थी।
  • मध्यकाल से ही आदिवासी समुदायों द्वारा बंजारा आदि घुमंतू समुदायों के माध्यम से हाथियों और दूसरे सामान जैसे खाल, सींग, रेशम के काये, हाथी-दाँत, बाँस, मसाले, रेशे, घास, गोंद और राल के व्यापार के सबूत मिलते हैं।
  • लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद व्यापार पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में चला गया।
  • ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन-उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी।
  • स्थानीय लोगों द्वारा शिकार करने और पशुओं को चराने पर बंदिशें लगा दी गईं।
  • इस प्रक्रिया में मद्रास प्रेसीडेंसी के कोरवा, कराचा व येरुकुला जैसे अनेक चरवाहे और घुमंतू समुदाय अपनी जीविका से हाथ धो बैठे। इनमें से कुछ को ‘अपराधी कबीले’ कहा जाने लगा और ये सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों व बागानों में काम करने को मजबूर हो गए।
  • काम के नए अवसरों का मतलब यह नहीं था कि उनकी जीवन स्थिति में हमेशा सुधार ही हुआ हो।

नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ :-

  • जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण स्थापित हो जाने से लोगों को कई तरह के नुकसान हुए, लेकिन कुछ लोगों को व्यापार के नए अवसरों का लाभ भी मिला।
  • कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़ कर वन-उत्पादों का व्यापार करने लगे।
  • महज हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कुछ ऐसा ही नजारा दिखता है।
  • उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं सदी के मध्य में ऊँची जगहों पर रह कर मैनियोक उगाने वाले ब्राजीली ऐमेजॉन के मुनदुरुकु समुदाय के लोगों ने व्यापारियों को रबड़ की आपूर्ति के लिए जंगली रबड़ के वृक्षों से ‘लेटेक्स’ एकत्र करना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में वे व्यापार चौकियों की ओर नीचे उतर आए और पूरी तरह व्यापारियों पर निर्भर हो गए।
  • हिंदुस्तान में वन-उत्पादों का व्यापार कोई अनोखी बात नहीं थी।
  • मध्यकाल से ही आदिवासी समुदायों द्वारा बंजारा आदि घुमंतू समुदायों के माध्यम से हाथियों और दूसरे सामान जैसे खाल, सींग, रेशम के काये, हाथी-दाँत, बाँस, मसाले, रेशे, घास, गोंद और राल के व्यापार के सबूत मिलते हैं।
  • लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद व्यापार पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में चला गया।
  • ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन-उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी।
  • स्थानीय लोगों द्वारा शिकार करने और पशुओं को चराने पर बंदिशें लगा दी गईं।
  • इस प्रक्रिया में मद्रास प्रेसीडेंसी के कोरवा, कराचा व येरुकुला जैसे अनेक चरवाहे और घुमंतू समुदाय अपनी जीविका से हाथ धो बैठे। इनमें से कुछ को ‘अपराधी कबीले’ कहा जाने लगा और ये सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों व बागानों में काम करने को मजबूर हो गए।

नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ :-

  • जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण स्थापित हो जाने से लोगों को कई तरह के नुकसान हुए, लेकिन कुछ लोगों को व्यापार के नए अवसरों का लाभ भी मिला।
  • कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़ कर वन-उत्पादों का व्यापार करने लगे।
  • महज हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कुछ ऐसा ही नजारा दिखता है।
  • उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं सदी के मध्य में ऊँची जगहों पर रह कर मैनियोक उगाने वाले ब्राजीली ऐमेजॉन के मुनदुरुकु समुदाय के लोगों ने व्यापारियों को रबड़ की आपूर्ति के लिए जंगली रबड़ के वृक्षों से ‘लेटेक्स’ एकत्र करना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में वे व्यापार चौकियों की ओर नीचे उतर आए और पूरी तरह व्यापारियों पर निर्भर हो गए।
  • हिंदुस्तान में वन-उत्पादों का व्यापार कोई अनोखी बात नहीं थी।
  • मध्यकाल से ही आदिवासी समुदायों द्वारा बंजारा आदि घुमंतू समुदायों के माध्यम से हाथियों और दूसरे सामान जैसे खाल, सींग, रेशम के काये, हाथी-दाँत, बाँस, मसाले, रेशे, घास, गोंद और राल के व्यापार के सबूत मिलते हैं।
  • लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद व्यापार पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में चला गया।
  • ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन-उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी।
  • स्थानीय लोगों द्वारा शिकार करने और पशुओं को चराने पर बंदिशें लगा दी गईं।

नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ :-

  • जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण स्थापित हो जाने से लोगों को कई तरह के नुकसान हुए, लेकिन कुछ लोगों को व्यापार के नए अवसरों का लाभ भी मिला।
  • कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़ कर वन-उत्पादों का व्यापार करने लगे।
  • महज हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कुछ ऐसा ही नजारा दिखता है।
  • उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं सदी के मध्य में ऊँची जगहों पर रह कर मैनियोक उगाने वाले ब्राजीली ऐमेजॉन के मुनदुरुकु समुदाय के लोगों ने व्यापारियों को रबड़ की आपूर्ति के लिए जंगली रबड़ के वृक्षों से ‘लेटेक्स’ एकत्र करना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में वे व्यापार चौकियों की ओर नीचे उतर आए और पूरी तरह व्यापारियों पर निर्भर हो गए।
  • हिंदुस्तान में वन-उत्पादों का व्यापार कोई अनोखी बात नहीं थी।
  • मध्यकाल से ही आदिवासी समुदायों द्वारा बंजारा आदि घुमंतू समुदायों के माध्यम से हाथियों और दूसरे सामान जैसे खाल, सींग, रेशम के काये, हाथी-दाँत, बाँस, मसाले, रेशे, घास, गोंद और राल के व्यापार के सबूत मिलते हैं।
  • लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद व्यापार पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में चला गया।
  • ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन-उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी।
  • स्थानीय लोगों द्वारा शिकार करने और पशुओं को चराने पर बंदिशें लगा दी गईं।
  • इस प्रक्रिया में मद्रास प्रेसीडेंसी के कोरवा, कराचा व येरुकुला जैसे अनेक चरवाहे और घुमंतू समुदाय अपनी जीविका से हाथ धो बैठे। इनमें से कुछ को ‘अपराधी कबीले’ कहा जाने लगा और ये सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों व बागानों में काम करने को मजबूर हो गए।
  • काम के नए अवसरों का मतलब यह नहीं था कि उनकी जीवन स्थिति में हमेशा सुधार ही हुआ हो।

असम के चाय बागानों में काम करने के लिए भर्ती किये गये मजदूर –

  • झारखंड के संथाल और उराँव व छत्तीसगढ़ के गोंड जैसे आदिवासी मर्द व औरतों, दोनों की भर्ती की गयी।
  • उनकी मजदूरी बहुत कम थी और कार्यपरिस्थितियाँ उतनी ही खराब।
  • उन्हें उनके गाँवों से उठा कर भर्ती तो कर लिया गया था लेकिन उनकी वापसी आसान नहीं थी।

वन – विद्रोह :-

  • हिंदुस्तान और दुनिया भर में वन्य समुदायों ने अपने ऊपर थोपे गए बदलावों के खिलाफ बगावत की।
  • संथाल परगना में सीधू और कानू, छोटा नागपुर में बिरसा मुंडा और आंध्र प्रदेश में अल्लूरी सीताराम राजू को लोकगीतों और कथाओं में अंग्रेजों के खिलाफ उभरे आंदोलनों के नायक के रूप मे आज भी याद किया जाता है।

1. बस्तर के लोग :-

  • बस्तर रियासत में 1910
  • बस्तर छतीसगढ़ के सबसे दक्षिणी छोर पर आंध्र प्रदेश, उड़ीसा व महाराष्ट्र की सीमाओं से लगा हुआ क्षेत्र है।
  • बस्तर का केंद्रीय भाग पठारी है। इस पठार के उत्तर में छत्तीसगढ़ का मैदान और दक्षिण में गोदावरी का मैदान है।
  • इन्द्रावती नदी बस्तर के आर-पार पूरब से पश्चिम की तरफ बहती है। बस्तर में मरिया और मुरिया गोंड, धुरवा, भतरा, हलबा आदि अनेक आदिवासी समुदाय रहते हैं।
  • अलग-अलग जबानें बोलने के बावजूद इनके रीति-रिवाज ओर विश्वास एक जैसे हैं।
  • बस्तर के लोग मानते हैं कि हरेक गाँव को उसकी जमीन ‘धरती माँ’ से मिली है और बदले में वे प्रत्येक खेतिहर त्योहार पर धरती को चढ़ावा चढ़ावे हैं।
  • धरती के अलावा वे नदी, जंगल व पहाड़ों की आत्मा को भी उतना ही मानते हैं।
  • चूँकि हर गाँव को अपनी चौहद्दी पता होती है इसलिए ये लोग इन सीमाओं के भीतर समस्त प्राकृतिक संपदाओं की देखभाल करते हैं।
  • देवसारी, दांड़ या मान – यदि एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के जंगल से थोड़ी लकड़ी लेना चाहते हैं तो इसके बदले में वे एक छोटा शुल्क अदा कतरे हैं जिसे देवसारी, दांड़ या मान कहा जाता है।
  • कुछ गाँव अपने जंगलों की हिफाजत के लिए चौकीदार रखते हैं जिन्हें वेतन के रूप में हर घर से थोड़ा-थोड़ा अनाज दिया जाता है।
  • हर वर्ष एक बड़ी सभा का आयोजन होता है जहाँ एक परगने (गाँवों का समूह) के गाँवों के मुखिया जुटते हैं और जंगल सहित तमाम दूसरे अहम मुद्दों पर चर्चा करते हैं।

2. लोगों के भय :-

  • औपनिवेशिक सरकार ने 1905 में जब जंगल के दो-तिहाई हिस्से को आरक्षित करने, घुमंतू खेती को रोकने और और शिकार व वन्य – उत्पादों के संग्रह पर पाबंदी लगाने जैसे प्रस्ताव रखे तो बस्तर के लोग बहुत परेशान हो गए।

वन ग्राम :-

  • कुछ गाँवों को आरक्षित वनों में इस शर्त पर रहने दिया गया कि वे वन-विभाग के लिए पेड़ों की कटाई और ढुलाई का काम मुफ्त करेंगे और जंगल को आग से बचाए रखेंगे।
  • बाद में इन्हीं गाँवों को ‘वन ग्राम’ कहा जाने लगा। बाकी गाँवों के लोग बगैर किसी सूचना या मुआवजे के हटा दिए गए।
  • काफी समय से गाँव वाले जमीन के बढ़े हुए लगान तथा औपनिवेशिक अफसरों के हाथों बेगार और चीजों की निरंतर माँग से त्रस्त थे।
  • इसके बाद भयानक अकाल का दौर आया : पहले 1899 – 1900 में और फिर 1907 – 1908 में। वन आरक्षण ने चिंगारी का काम किया।
  • लोगों ने बाजारों में, त्योहारों के मौके पर और जहाँ कहीं भी कई गाँवों के मुखिया और पुजारी इकट्‌ठा होते थे वहाँ जमा होकर इन मुद्दों पर चर्चा करना प्रारंभ कर दिया।
  • काँगेर वनों के धुरवा समुदाय के लोग इस मुहिम में सबसे आगे थे क्योंकि आरक्षण सबसे पहले यहीं लागू हुआ था।
  • हालाँकि कोई एक व्यक्ति इनका नेता नहीं था लेकिन बहुत सारे लोग नेथानार गाँव के गुंडा धूर को इस आंदोलन की एक अहम शख्सियत मानते हैं।
  • 1910 में आम की टहनियाँ, मिट्‌टी के ढेले, मिर्च और तीर गाँव-गाँव चक्कर काटने लगे।
  • यह गाँवों में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का संदेश था। हरेक गाँव ने इस बगावत के खर्चें में कुछ न कुछ मदद दी। बाजार लूटे गए, अफसरों और व्यापारियों के घर, स्कूल और पुलिस थानों को लूटा व जलाया गया तथा अनाज का पुनर्वितरण किया गया।
  • जिन पर हमले हुए उनमें से ज्यादातर लोग औपनिवेशिक राज्य और इसके दमनकारी कानूनों से किसी न किसी तरह जुड़े थे।
  • इन घटनाओं के एक चश्चदीद गवाह, मिशनरी विलयम वार्ड ने लिखा : ‘पुलिसवालों, व्यापारियों, जंगल के अर्दलियों, स्कूल मास्टरों और प्रवासियों का हुजूम चारों तरफ से जगदलपुर में चला आ रहा था।’
  • अंग्रेजों ने बगावत को कुचल देन के लिए सैनिक भेजे। आदिवासी नेताओं ने बातचीत करनी चाही लेकिन अंग्रेज फौज ने उनके तंबुओं को घेर कर उन पर गोलियाँ चला दीं।
  • इसके बाद बगावत में शरीर लोगों पर कोड़े बरसाते और उन्हें सजा देते सैनिक गाँव-गाँव घूमने लगे।
  • ज्यादातर गाँव खाली हो गए क्योंकि लोग भाग कर जंगलों में चले गए थे।
  • अंग्रेजों को फिर से नियत्रंण पाने में तीन महीने (फरवरी – मई) लग गए। फिर भी वे गुंडा धूर को कभी नहीं पकड़ सके।
  • विद्रोहियों की सबसे बड़ी जीत यह रही कि आरक्षण का काम कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया और आरक्षित क्षेत्र को भी 1910 से पहले को योजना से लगभग आधा कर दिया गया।
  • बस्तर के जंगलों और लोगों की कहानी यही खत्म नहीं होती। आजादी के बाद भी लोग को जंगलों से बाहर रखने और जंगलों को औद्योगिक उपयोग के लिए आरक्षित रखने की नीति कायम रही।
  • 1970 के दशक में, विश्व बैंक ने प्रस्ताव रखा कि कागज उद्योग को लुगदी उपलब्ध कराने के लिए 4,600 हेक्टेयर प्राकृतिक साल वनों की जगह देवदार के पेड़ लगाए जाएँ।
  • लेकिन, स्थानीय पर्यावरणविदों के विरोध के फलस्वरूप इस परियोजना को रोक दिया गया।
  • आइए, अब एशिया के एक ओर हिस्से – इंडोनेशिया – की तरफ चलें।

जावा के जंगलों में हुए बदलाव :-

  • जावा को आजकल इंडोनेशिया के चावल-उत्पादक द्वीप के रूप में जाना जाता है।
  • लेकिन एक जमाने में यह क्षेत्र अधिकांशत: वनाच्छादित था। इंडोनेशिया एक डच उपनिवेश था और जैसा कि हम देखेंगे, भारत व इंडोनेशिया के वन कानूनों में कई समानताएँ थीं।
  • इंडोनेशिया में जावा ही वह क्षेत्र है जहाँ डचों ने वन – प्रबंधन की शुरुआत की थी।
  • अंग्रेजों की तरह वे भी जहाज बनाने के लिए जावा से लकड़ी हासिल करना चाहते थे।
  • सन् 1600 में जावा की अनुमानित आबादी 34 लाख थी। हालाँकि उपजाऊ मैदानों में ढेर सारे गाँव थे लेकिन पहाड़ों में भी घुमंतू खेती करने वाले अनेक समुदाय रहते थे।

1. जावा के लकड़हारे :-

  • जावा में कलांग समुदाय के लोग कुशल लकड़हारे और घुमंतू किसान थे।
  • उनका महत्व इस बात से आँका जा सकता है कि 1755 में जब जावा की माताराम रियासत बँटी तो यहाँ के 6,000 कलांग परिवारों को भी दोनों राज्यों में बराबर बराबर बाँट दिया गया।
  • उनके कौशल के बगैर सागौन की कटाई कर राजाओं के महल बनाना बहुत मुश्किल था।
  • डचों ने जब अठारहवीं सदी में वनों पर नियंत्रण स्थापित करना प्रारंभ किया तब उन्होंने भी कोशिश कि कलांग उनके लिए काम करें।
  • 1770 में कलांगों ने एक डच किले पर हमला करके इसका प्रतिरोध किया लेकिन इस विद्रोह को दबा दिया गया।

2. डच वैज्ञानिक वानिकी :-

  • 19वीं सदी में जब लोगों के साथ-साथ इलाकों पर भी नियंत्रण स्थापित करना जरूरी लगने लगा तो डच उपनिवेशकों ने जावा में वन-कानून लागू कर ग्रामीणों की जंगल तक पहुँच पर बंदिशें थोप दीं।
  • इसके बाद नाव या घर बनाने जैसे खास उद्देश्यों के लिए, सिर्फ चुने हुए जंगलों से लकड़ी काटी जा सकती थी और वह भी कड़ी निगरानी में ।
  • ग्रामीणों को मवेशी चराने, बिना परमिट लकड़ी ढोने या जंगल से गुजरने वाली सड़क पर घोड़ा-गाड़ी अथवा जानवरों पर चढ़ कर आने-जाने के लिए दंडित किया जाने लगा।
  • भारत की ही तरह यहाँ भी जहाज और रेल-लाइनों के निर्माण ने वन-प्रबंधन और वन-सेवाओं को लागू करने की आवश्यकता पैदा कर दी।
  • 1882 में अकेले जावा से ही 2,80,000 स्लीपरों का निर्यात किया गया।
  • जाहिर है कि पेड़ काटने, लट्‌ठों को ढोने और स्लीपर तैयार करने के लिए श्रम की आवश्यकता थी।
  • ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन- डचों ने पहले तो जंगलों में खेती की जमीनों पर लगान लगा दिया और बाद में कुछ गाँवों को इस शर्त पर इससे मुक्त कर दिया कि वे सामूहिक रूप से पेड़ काटने और लकड़ी ढोने के लिए भैंसें उपलब्ध कराने का काम मुफ्त में किया करेंगे। इस व्यवस्था को ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन के नाम से जाना गया।
  • बाद में वन-ग्रामवासियों को लगान-माफी के बजाय थोड़ा बहुत मेहनताना तो दिया जाने लगा लेकिन वन-भूमिपर खेती करने के उनके अधिकार सीमित कर दिए गए।

3. सामिन की चुनौती :-

  • सन् 1890 के आसपास सागौन के जंगलों में स्थित रान्दुब्लातुंग गाँव के निवासी सुरोन्तिको सामिन ने जंगलों पर राजकीय मालिकाने पर सवाल खड़ा करना प्रारंभ कर दिया।
  • उसका तर्क था कि चूँकि हवा, पानी, जमीन और लकड़ी राज्य की बनायी हुई नही हैं इसलिए उन पर उसका अधिकार नहीं हो सकता।
  • जल्दी ही एक व्यापक आंदोलन खड़ा हो गया। इस आंदोलन को संगठित करने वालों में सामिन का दामाद भी सक्रिय था।
  • 1907 तक 3,000 परिवार उसके विचारों को मानने लगे थे। डच जब जमीन का सर्वेक्षण करने आए तो कुछ सामिनवादियों ने अपनी जमीन पर लेट कर इसका विरोध किया जबकि दूसरों ने लगान या जुर्माना भरने या बेगार करने से इनकार कर दिया।

4. युद्ध और वन-विनाश :-

  • पहले और दूसरे विश्वयुद्ध का जंगलों पर गहरा असर पड़ा। भारत में तमाम चालू कार्ययोजनाओं को स्थगित करके वन विभाग ने अंग्रेजों की जंगी जरूरतों को पूरा करने के लिए बेतहाशा पेड़ काटे।
  • जावा पर जापानियों के कब्जे से ठीक पहले डचों ने ‘भस्म-कर-भागो नीति’ (Scorched Earth Policy) अपनायी जिसके तहत आरा-मशीनों और सागौन के विशाल लट्‌ठों के ढेर जला दिए गए जिससे वे जापानियों के हाथ न लग पाएँ।
  • इसके बाद जापानियों ने वनवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके अपने युद्ध उद्योग के लिए जंगलों का निर्मम दोहन किया।
  • बहुत सारे गाँव वालों ने इस अवसर का लाभ उठा कर जंगल में अपनी खेती का विस्तार किया। जंग के अवसर का लाभ उठा कर जंगल में अपनी खेती का विस्तार किया।
  • जंग के बाद इंडोनेशियाई वन सेवा के लिए इन जमीनों को वापस हासिल कर पाना कठिन था।
  • हिंदुस्तान की ही तरह यहाँ भी खेती योग्य भूमि के प्रति लोगों की चाह और जमीन को नियन्त्रित करने तथा लोगों का उससे बाहर रखने की वन विभाग की जिद के बीच टकराव पैदा हुआ।

5. वानिकी में नए बदलाव :-

  • अस्सी के दशक से एशिया ओर अफीका की सरकारों को यह समझ में आने लगा कि वैज्ञानिक वानिकी और वन समुदायों को जंगलों से बाहर रखने की नीतियों के चलते बार-बार टकराव पैदा होते हैं।
  • परिणास्वरूप, वनों से इमारती लकड़ी हासिल करने के बजाय जंगलों का संरक्षण ज्यादा महत्वपूर्ण लक्ष्य बन गया है।
  • सरकार ने यह भी मान लिया है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वन प्रदेशों में रहने वालों की मदद लेनी होगी।
  • मिजोरम से लेकर केरल तक हिंदुसतान में हर कहीं घने जंगल सिर्फ इसलिए बच पाए कि ग्रामीणों ने सरना, देवराकुडु, कान, राई इत्यादि नामों से पवित्र बगीचा समझ कर इनकी रक्षा की।
  • कुछ गाँव तो वन – रक्षकों पर निर्भर रहने के बजाय अपने जंगलों की चौकसी आप करते रहे हैं – इसमें हर परिवार बारी-बारी से अपना योगदान देता है।
  • स्थानीय वन-समुदाय और पर्यावरणविद् अब वन-प्रबंधन के वैकल्पिक तरीकों के बारे में सोचने लगे हैं।

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Class 9 History Chapter 4 वन्य समाज और उपनिवेशवाद Notes In Hindi
कक्षा 9वीं इतिहास अध्याय 4 (भाग 1) वन्य समाज और
Class 9 4. वन्य-समाज एवं उपनिवेशवाद अभ्यास

महत्वपूर्ण के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. वन विनाश से आप क्या समझते हैभारत में वन विनाश के कारणों का वर्णन करों।
उत्तर- वनों के लुप्त होनें को सामान्यत: वन विनाश कहते हैं। भारत में वन विनाश के निम्नलिखित कारण है।

  • कृषि – बढ़ती आबादी और खाद्य पदार्थों की माँग के कारण कटाई का विस्तार।
  • रेल्वे – रेल्वे लाइनों का विस्तार और रेलवे में लकड़ियों का उपयोग।
  • बागान – यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ कि माँग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया ताकि इसका बागान बनाया जा सके।

प्रश्न 2. वैज्ञानिक वानिकी से आप क्या समझते है?
उत्तर- इम्पीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट वन से संबंधित विषयों पर एक शिक्षा पद्धति विकसित की जिसे वैज्ञानिक वानिकी कहा गया। जिसमें पुराने पेड़ काटकर उनकी जगह नए पेड़ लगाये जाते थे।

प्रश्न 3. 1878 के वन अधिनियम में जंगल के वनों को किन तीन श्रेणियों में बाँटा गया ?
उत्तर- 1878 के वन अधिनयम में जंगल के वनों को आरक्षित वन, सुरक्षित वन, ग्रामीण वन श्रेणियों में बाँटा गया।

प्रश्न 4. किस प्रकार के वन को आरक्षित वन कहा गया?
उत्तर- सबसे अच्छे वनों को आरक्षित वन कहा गया।

प्रश्न 5. वन अधीन क्षेत्र बढ़ानें कि क्या आवश्यकता है? कारण दो।
उत्तर- भारत में वन के आधीन क्षेत्रों वैज्ञानिक माँगों से काफी कम है यह क्षेत्रफल कुल क्षेत्रों का 19.3 प्रतिशत है जबकि इसे कुल भूमी क्षेत्र का 33.3 प्रतिशत होनी चाहिए। अत: हमें वनों के अधीन क्षेत्र बढ़ाने कि आवश्यकता है क्योंकि इसके मुख्य कारण निम्नलिखित है
1. पारिस्थितिक तंत्र को बनाये रखने के लिए हमें वन अधीन क्षेत्र बढ़ाने की क्या आवश्यकता है क्योंकि यह हवा का प्रदुषण कम करते है।
2. ग्लोबल वोर्मिंग कम करने में वन हमारी सहायता करते है ये वायु से कार्बन डाई आक्साईड को शोषित करती है।
3. वन जीवों को प्राकृतिक निवास प्रदान करते है।
4. वनों का वर्षा लाने में बहुत बड़ा हाथ होता है। जल कणों को वर्षा कि बूंदों में परिवर्तित करते है।

प्रश्न 6. भस्म कर भागो नीति क्या थी?
उत्तर- जावा पर जापानियों के कब्जे में पहले डचों ने भस्म कर भागो नीति अपनी जिसके तरह आरा मशीनों और सागौन के विशाल लट्‌ठों के ढेर जला दिए गए जिससे वे जापानियों के हाथ न लग पाएँ।

प्रश्न 7. वन ग्राम से आप क्या समझते है?
उत्तर- आरक्षित वनो में वन विभाग के लिए पेड़ो कि कटाई और ढुलाई का काम बिना वेतन के करने की शर्त पर जिन्हें आरक्षित वनों में रहने दिया गया जिसे वन ग्राम कहा गया। ये वनों को आग से रक्षा करते थे।

प्रश्न 8. उपनिवेशकाल में वनीय प्रबंधन में परिवर्तन ने लोगों के जीवन में लकड़ी की नई माँग पैदा कर दी और जीवन को किस प्रकार प्रभावित किया?
उत्तर- उपनिवेशकाल में वनीय प्रबंधन में परिवर्तन ने लोगों के जीवन को निम्न प्रकार से प्रभावित किया।
1. उपनिवेशिक सरकार ने झुम खेती पर प्रतिबंध लगा दिया।
2. वन प्रबंधन से गाँवों में बड़े परिवर्तन हुए।
3. दैनिक कार्यों जैसे लकड़ी काटना, पशुओं को चराना, फल एकत्र करना शिकार आदि करना को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया।
4. वन की कटाई के कार्य में तेजी से भ्रष्टाचार फैलने लगा।
5. वनों के लगातार काटाने से चाय, कॉफी और रबड़ आदि के बागान यूरोपीय बाजार की आवश्यकता पूरी करते है।

प्रश्न 9. युद्धों से वनों पर प्रभाव क्या प्रभाव पड़ें?
उत्तर- युद्धों से वनों पर प्रभाव निम्न प्रकार से है –

  • युद्धों से जंगल प्रभावित होते हैं जैसे प्रथम विश्व युद्ध (1914-1928) तथा द्वितीय विश्व युद्ध ने वनों पर बड़ा भारी प्रभाव डाला था । भारत में जो भी लोग पौधों पर काम कर रहे थे, उन्हें काम छोड़ना पड़ा था।
  • अनेक आदिवासियों ने, किसानों ने एवं अन्य उपयोग कर्ताओं ने युद्धों एवं लड़ाईयों के लिए जंगलों में कृषि के विस्तार के लिए प्रयोग किया।
  • युद्ध के उपरांत इन्डोंनेशिया के लोगों के लिए वनों एवं उससे जुड़ी भूमी को पुन: वापस पाना बड़ा कठिन था
  • जावा में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानियों के हाथों में वनों की सम्पदा को बनाने के लिए जावा स्थित साम्राज्य के वनों में डचों ने स्वयं वनों में आग लगा दी थी।
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