2023-24 NCERT Class 9 Science Chapter 12 खाद्य संसाधनों में सुधार Notes in Hindi

प्रिय विद्यार्थियों आप सभी का स्वागत है आज हम आपको सत्र 2023-24 के लिए NCERT Class 9 Science Chapter 12   खाद्य संसाधनों में सुधार Notes in Hindi | कक्षा 9 विज्ञान के नोट्स उपलब्ध करवा रहे है |

9th Class Science Chapter 12 IMPROVEMENT IN FOOD RESOURCES Notes in Hindi | कक्षा 9 विज्ञान नोट्स हिंदी में उपलब्ध करा रहे हैं |Class 9 Vigyan Chapter 12 Khaady samsaadhanon men sudhaar Notes PDF Hindi me Notes PDF 2023-24 New Syllabus ke anusar.

Class 9 Science ch 12 Notes In Hindi || 9 class Science Notes Download

TextbookNCERT
ClassClass 9
SubjectBiology | विज्ञान
ChapterChapter 12
Chapter Nameखाद्य संसाधनों में सुधार
CategoryClass 9 Science Notes in Hindi
MediumHindi
class-9-science-chapter-12-IMPROVEMENT IN FOOD RESOURCES notes-in-hindi

💠 Class 09 विज्ञान 💠
📚 अध्याय = 12 📚
💠खाद्य संसाधनों में सुधार 💠

💠IMPROVEMENT IN FOOD RESOURCES 💠

फसल उत्पादन में उन्नति


फसलों से हमें प्राप्त होता है–

1. अनाज –


इसमें गेहूँ, चावल, बाजरा, मक्का आदि सम्मिलित होते हैं। यह हमें कार्बोहाइड्रेड प्रदान करते हैं।

2. बीज –


बीजों से हमें तिल, सोयाबीन, मूंगफली, अरंड, सरसों आदि से तेल प्राप्त होता है। हमारे शरीर को वसा प्रदान करते है।

3. दालें –


मूंग, उड़द, चना आदि सम्मिलित हैं। इनसे हमें प्रोटीन प्राप्त होता है।

4. सब्जियाँ, मसाले एवं फल –


हमें इनसे विटामिन व खनिज लवण प्राप्त होते हैं। जैसे – आम, सेव, चेरी, केला तथा तरबूज आदि व इसी प्रकार सब्जियों से पालक, पत्तीदार सब्जियां, मूली आदि।

5. चारा फसलें –


वर्सीम, जई या सूडान आदि घास का उत्पादन पशुओं के चारों के रूप में किया जाता है।

संतुलित आहार :-

  वह भोजन जिसमें पर्याप्त मात्रा में सभी पोषक तत्व(प्रोटीन, विटामिन, कार्बोहाइड्रेड, वसा, खनिज लवण) विद्यमान हो, उसे संतुलित आहार कहते हैं।


ऊर्जा – पोषक तत्व –

  • 1. कार्बोहाइड्रेड – अनाज (चावल, गेहूं, मक्का)
  • 2. वसा – बीज के तेल से (सोयाबीन, सरसों, मुंगफली)
  • 3. प्रोटीन – दालें
  • 4. विटामिन व खनिज लवण – (सब्जियों व फलों)

फसल –

 बड़े पैमाने पर एक ही प्रकार की खेती की जाती है  उसे फसल कहते है। जैसे–

  • 1. रबी की फसल
  • 2. खरीफ की फसल
  • 3. जायद

1. रबी की फसल :-

आप पढ़ रहे है – 9 Class Science Chapter 12 खाद्य संसाधनों में सुधार Notes In hindi

  • शीत (सर्दी) ऋतु में उगायी जाती है।
  • नवम्बर से अप्रैल तक
  • उदाहरण – गेहूं, जौ, चना, मटर, सरसों

2. खरीफ की फसल :–

  • वर्षा (बारिश) ऋतु में उगायी जाती है।
  • जून से अक्टूबर तक
  • उदाहरण – बाजरा, अरहर, सोयाबीन, मूंग, मक्का

3. जायद की फसल :–

  •  मौसमी फसल
  • उदाहरण – तरबूज, ककड़ी, खीरा, खरबूज

फसल उत्पादन में उन्नति


फसल उत्पादन में सुधार की प्रक्रिया में प्रयुक्त गतिविधियाँ को निम्न प्रमुख वर्गों में बाँटा गया है

(i) फसल की किस्मों में सुधार


फसल की किस्मे में सुधार के कारक हैं अच्छे और स्वस्थ बीना।


संकरण – 

विभिन्न आनुवांशिक गुणों वाले पौधों के बीच संकरण करके उन्नत गुण वाले पौधे तैयार करने की प्रक्रिया कों संकरण कहते है।


उच्च उत्पादन प्रति एकड़ फसल की उत्पादकता बढ़ाना ।
उन्नत किस्में – उन्नत किस्में, फसल उत्पादन की गुणवत्ता, प्रत्येक फसल में भिन्न होती है। दाल में प्रोटीन की गुणवत्ता, तिलहन में तेल की गुणवत्ता और फल तथा सब्जियाँ का संरक्षण महत्वपूर्ण है।


जैविक तथा अजैविक प्रतिरोधकता –

आप पढ़ रहे है – Notes of Class 9th: Ch 12 खाद्य संसाधनों में सुधार विज्ञान

 जैविक (रोग, कीट तथा निमेटोड) तथा अजैविक (सूखा, क्षारता, जलाक्रान्ति, गर्म ठंड तथा पाला) परिस्थतितियों के कारण फसल उत्पादन कम हो सकता है। इन परिस्थितियों को सहन कर सकने वाली फसल की हानि कम हो जाती है।

व्यापक अनुकूलता – 

व्यापक अनुकूलता वाली किस्मों का विकास करना विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में फसल उत्पादन को स्थायी करने में सहायक होगा । एक ही किस्म को विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न जलवायु में उगाया जा सकता है।


ऐच्छिक सस्य विज्ञान गुण-

  चारे वाली फसलों के लिए लम्बी तथा सघन शाखाएँ ऐच्छिक गुण है। इस प्रकार सस्य विज्ञान वाली किस्मे अधिक उत्पादन प्राप्त करने में सहायक  होती है।

(ii) फसल उत्पादन प्रबन्धन


किसानों के द्वारा विभिन्न प्रकार की तकनीक इस्तेमाल की जाती है जिससे फसल के उत्पादन में वृद्धि होती है वे निम्न –

पोषक प्रबंधन-

 दूसरे जीवों की तरह पौधों को भी वृद्धि हेतु कुछ तत्वों (पोषक पदार्थों ) की आवश्यकता होती है।

  • वृहत पोषक – वृहत पोषक तत्व है- फॉस्फोरस, पौटैशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सल्फर ।
  • सूक्ष्म पोषक- लोह तत्व, मैगनीज कम मात्रा में आवश्यकता होती है।
  • अन्य पोषक तत्व – बोरोन, जिंक, कॉपर, क्लोरीन ।

अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए मिट्‌टी में खाद तथा उर्वरक के रूप में इन पोषकों को मिलाना आवश्यक है।

खाद-


खाद में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है तथा यह मिट्‌टी को अल्प मात्रा में पोषक प्रदान करते है। खाद को जंतुओं के अपशिष्ट तथा पौधों के कचरे के अपघटन से तैयार किया जाता है। खाद बनाने की प्रक्रिया में विभिन्न जैव पदार्थ के उपयोग के आधार पर खाद को निम्न वर्गों में विभाजित किया जाता है।

(i) कंपोस्ट तथा वर्मी- कंपोस्ट


पौधों व उनके अवशेष पदार्थों, कूड़े-करकट, पशुओं के गोबर, मनुष्य के मल-मूल आदि कार्बनिक पदार्थों को जीवाणु तथा कवकों की क्रिया के द्वारा खाद रूप में बदलना कंपोस्टिंग कहलाता है।
जब कंपोस्ट को केचूएँ के उपयोग से तैयार करते हैं जिसे वर्मी कंपोस्ट कहते हैं ।

(ii) हरी खाद


• फसल उगाने से पहले खेतों में कुछ पौधे, जैसे पटसन, मूँग अथवा ग्वार उगा देते हैं और तत्पश्चात उन पर हल चलाकर खेते की मिट्‌टी में मिला दिया जाता है।
• ये पौधे हरी खाद में परिवर्तित हो जाते है जों मिट्टी को नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस तथा पौटेशियम प्रदान करते हैं । उर्वरक आसानी से पौधों द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हें तथा ये पानी में घुलनशील होते हैं।

खाद्य तथा उर्वरक में अंतर

खाद्य उर्वरक

ये मुख्य रूप से कार्बनिक पदार्थ होते हैं ।

ये अकार्बनिक पदार्थ होते हैं।

ये प्राकृतिक पदार्थ के बने होते हैं।

ये रासायनिक पदार्थों से मिलकर बनते हैं।

खाद में कम मात्रा में पोषक तत्व होते हैं।

उर्वरक में अत्यधिक मात्रा में पोषक तत्व पाए जाते हैं।

खाद सस्ती होती है तथा घर और खेत में बनाई जा सकती है।

उर्वरक महँगे तथा फैक्ट्रियों में तैयार किए जाते हैं।

खाद धीरे-धीरे  द्वारा अवशोषित की जाती है। क्योंकि ये पानी में अघुलनशील होते हैं।

आसानी से फसल को उपलब्ध हो जाते हैं। पानी में घुलनशील होते हैं।

इसका आसानी से भंडारण तथा स्थानांतरण किया जा सकता है।

इसका भंडारण तथा स्थानांतरण सरलता से नहीं किया जा सकता ।

सिचाईं


फसलों को जल प्रदान करने की प्रक्रिया को सिंचाई कहते हैं।

सिंचाई के तरीके


ये दो प्रकार के होते हैं: खुदे हुए कूएँ तथा नलकूप ।

खुदे हुए कूएँ –

आप पढ़ रहे है – NCERT SCIENCE CLASS 9TH CHAPTER 12 Short Notes in HINDI


खुदे हुए कुएँ द्वारा भूमिगत जल स्तरों में स्थित पानी को एकत्रित किया जाता है।

नलकूप –


नलकूप में पानी गहरे जल स्तरों से निकला जाता है। इन कुओं से सिचाई के लिए पानी को पंप द्वारा निकाला जाता है।

नहरें –


यह सिंचाई का एक बहुत विस्तृत तथा व्यापक तंत्र है। इसमें पानी एक या अधिक जलाशयों अथवा नदियों से आता है। मुख्य नहर से शाखाएँ निकलती है जो विभाजित होकर खेतों में सिंचाई करती है।  

नदी जल उठाव प्रणाली –


इस प्रणाली में पानी सीधे नदियों से ही पम्प द्वारा इकट्‌ठा कर लिया जाता है । इस सिंचाई का उपयोग नदियों के पास वाली खेती में लाभदायक रहता है।

तालाब –


आपत्ति के समय प्रयेाग में आने वाले वे छोटे तालाब, छोटे जलाशय होते है, जो छोटे से क्षेत्र में पानी का संग्रह करते हैं।
वर्षा के पानी को सीधे किसी टेंक में सुरक्षित इकट्‌ठा कर लिया जाता है। यह मृदा अपरदन को भी दूर करता है।

फसल पैटर्न


फसल की वृद्धि हेतु अलग-अलग प्रकार के तरीके अपनाए जाते हैं जिससे की नुकसान कम से कम तथा उपज अधिक से अधिक हो ।
मिश्रित खेती- दो या दो से अधिक फसल को एक साथ उगाना (एक ही भूमि) में मिश्रित खेती कहलाती है। जैसे- गेहूँ और चना, मूँगफली तथा सूरजमुखी ।

अंतराफसलीकरण 

अंतराफसलीकरण में दो या दो से अधिक फसलों को एक साथ एक ही खेत में निर्दिष्ट पैटर्न पर गाते है। कुछ पक्तियों में एक प्रकार की फसल तथा उनके एकांतर में स्थित दूसरी पक्तियों में दूसरी प्रकार की फसल उगाते हैं।
जैसे – सोयाबीन +  मक्का 

फसल चक्र-


फसल चक्र-
 किसी खेत में क्रमवार पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार विभिन्न फसलों को उगाने की प्रक्रिया फसल चक्र कहलाती है। यदि बार-बार एक ही खेत में एक ही प्रकार की खेती की जाती है तो  एक ही प्रकार के पोषक तत्व मृदा से फसल द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। बार-बार मृदा से पोषक तत्व फसल द्वारा प्राप्त करने पर एक ही प्रकार के पोषक तत्व समाप्त हो जाते हैं। अत: हमें अलग-अलग प्रकार की खेती करनी चाहिए।

फसल सुरक्षा प्रबंधन


रोग कारक जीवों तथा फसल को हानि पहुँचाने वाले कारकों से फसल को बचाना ही फसल संरक्षण है। इस प्रकार की कठिनाइयों से बचने के लिए नीचे दिए गए तरीके इस्तेमाल किए जाते है।
फसल की वृद्धि के समय पीड़कनाशी का प्रयोग- वैसे जीव जो फसल को खराब कर देते हैं जिससे वह मानव उपयोग के लायक नहीं रहती, पीड़क कहलाते हैं।

पीड़क कई प्रकार के होते हैं

  • (i) खरपतवार: फसलों के साथ-साथ उगने वाले अवांछनीय पौधे खरपतवार कहलाते हैं। उदाहरण – जेन्थियम, पारथेनियम ।
  • (ii) कीट: कीट विभिन्न प्रकार से फसल तथा पौधों को नुकसान पहुँचाते हैं। वे जड़ तना तथा पत्तियों को काट देते हैं।
  • (iii) रोगाणु: कोई जीव जैसे- बैक्टीरिया, फंगस तथा वायरस जो पौधों में बीमारी पैदा करते हैं, रोगाणु कहलाते हैं।

अनाज का भंडारण के समय :-


पूरे वर्ष मौसम के अनुकूल भोजन प्राप्त करने के लिए अनाज को सुरक्षित स्थान पर रखना अनिवार्य हैं, किंतु भंडारण के समय अनाज कितने ही कारणों से खराब और व्यर्थ हो जाता है।

अजैविक कारक :-


निर्जीव कारकों के द्वारा जैसे, नमी, तापमान में अनियमितता आदि। ये कारक फसल की गुणवत्ता तथा भार में कमी, रंग में परिवर्तन, तथा अंकुरण के निम्न क्षमता के कारण हैं।

पशुपालन


पशुपालन – पशु + पालन
पशुओं की देखरेख करना अर्थात् पशुओं को पालने की प्रक्रिया को पशुपालन कहा जाता है। पशुधन के प्रबंधन को पशुपालन कहते हैं। ये पशुओं के भोजन, आवास, नस्ल सुधार तथा रोग नियंत्रण से संबंधित है।

पशुपालन के प्रकार –


1. पशु कृषि –


पशु कृषि का मुख्य उद्देश्य :-

  • दुग्ध प्राप्त करने के लिए।
  • कृषि कार्य के लिए।
  • परिवहन के लिए (एक स्थान से दूसरे स्थान तक समान को लाने ले जाने के लिए)

पशु कृषि के प्रकार :-

  • गाय (वॉस इंडिकस)
  • भैंस (वॉस बुवेलिस)

2. दूध देने वाली मादा

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इनमें दूध देने वाले पशु सम्मिलित होते हैं। जैसें – मादा पशु (गाय, भैंस, बकरी)
दूध में पोषक तत्व (प्रोटीन) विद्यमान होते है जिससे हमारे शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है।
दूध से हमें अन्य स्त्रोत प्राप्त होते हैं – दही, छाछ, मक्खन, घी, पनीर, क्रीम

विदेशी नस्ल

जर्सी jersey
ब्राउन स्विस  brown swiss

देशी नस्ल

रेडसिंधी redsindhi
साहीवाल Sahiwal
  • दूध देने वाले पशु (डेयरी पशु) के आहार की आवश्यकता दो प्रकार की होती है–
  • 1. एक प्रकार का आहार जो उसके स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखे।
  • 2. वह जो दुग्ध उत्पादन को बढ़ाये। इसकी आवश्यकता दुग्ध स्त्रावण काल में होती है।

पशु आहार के अन्तर्गत आते हैं–

  • 1. मोटा चारा (रूक्षांश) – जो प्राय: मुख्यत: रेशे होते हैं।
  • 2. सान्द्र चारा – जिसमें रेशे कम होते हैं और प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्व अधिक होते हैं।

हल चलाने वाले पशु (नर) – वे पशु जो दुग्ध नहीं देते तथा कृषि कार्य में सहायता करते हैं। जैसे – हल चलाना, सिंचाई, बोझा ढोना।

पशुओं की देखभाल –

  • (i) सफाई :- पशुओं की सुरक्षा के लिए हवादार तथा छायादार स्थान होना चाहिए। पशु के शरीर पर झडे हुए बाल तथा धूल को हटाने के लिए नियमित रूप से सफाई करनी चाहिए।
  • (ii) भोजन :- भूसे में मुख्य रूप से फाइबर होना चाहिए। भोजन में प्रोटीन होना चाहिए तथा दूध की मात्रा के लिए खाने में विटामिन तथा खनिज होने चाहिए।
  • (iii) बीमारी से बचाव – पशु अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित हो सकते है जिसके कारण उनकी दूध उत्पादन क्षमता में कमी होती है।

पशु के बाह्य परजीवी तथा अंत: परजीवी दोनों हो सकते है बाह्य परजीवी द्वारा त्वचा रोग हो सकते है। अंत: परजीव आमाशय आँत व यकृत को प्रभावित करते है। इन विषाणु व जीवाणु जनित रोगों से बचाने के लिए पशुओं को टीका लगाया जाता है ।

कुक्कुट (मुर्गी) पालन –


अंडे तथा कुक्कुट मांस के उत्पादन को बढ़ाने के लिए मुर्गी पालन किया जाता है। दोनों हमारे भोजन में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाते है।
अण्डों के लिए अण्डे देने वाली (लेअर) मुर्गी का पालन किया जाता है तथा मांस के लिए ब्रोलर को पाला जाता है।

निम्नलिखित गुणों के लिए नयी-नयी किस्में विकसित की जाती हैं-

  • नयी किस्में बनाने के लिए देशी जैसे लैगहार्न नस्लों का संकरण कराया जाता हैं।
  • चूजों की संख्या तथा गुणवत्ता
  • छोटे कद के ब्रोलर माता-पिता द्वारा चूजों के व्यावसायिक उत्पादन हेतु।
  • गर्मी अनुकूलन क्षमता या उच्च उत्पादन को सहने की क्षमता
  • देखभाल से कम खर्च की आवश्यकता
कुक्कुट (मुर्गी) पालन –
कुक्कुट (मुर्गी) पालन –

अंडो तथा ब्रौलर का उत्पादन


ब्रौलर की आवास, पोषण तथा पर्यावरणीय आवश्यकताएँ अंडे देने वाली मुर्गियों से भिन्न होती है। ब्रौलर के आहार में प्रोटीन और वसा प्रचुर मात्रा में होता है। कुक्कुट आहार में विटामिन A तथा K की मात्रा भी अधिक रखी जाती है।

ब्रौलर को माँस के लिए पाला जाता है, जबकि अंडे देने वाली मुर्गियों को लेयर्स कहा जाता है। ब्रौलर की तीव्र तथा अल्प मृत्यु दर की अनुकूल परिस्थितियों में रखना आवश्यक है।​​​​​​​

मत्स्य उत्पादन (मछली उत्पादन) –


हमारे भोजन में प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत मछली है।
मछली का उत्पादन दो प्रकार से होता है-
प्राकृतिक स्त्रोत :- विभिन्न प्रकार के जल स्त्रोतों से जीवित मछलियाँ पकड़ी जाती है।
मछली पालन :- दूसरा स्त्रोत है – मछली पालन या संवर्धन ।

मत्स्य उत्पादन (मछली उत्पादन)

1. समुद्री मत्स्यकी –

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भारत का समुद्री मछली संसाधन क्षेत्र 7500 किलोमीटर समुद्री तट तथा इसके अतिरिक्त समुद्र की गहराई तक है। सर्वाधिक प्रचलित समुद्री मछलियाँ पॉमफ्रेट, मैकर्ल, टुना, सारडाइन तथा बांबेडक हैं। समुद्री मछली पकड़ने के लिए विभिन्न प्रकार के जालों का उपयोग मछली पकड़ने वाली नावों में किया जाता है।

सैटेलाइट तथा प्रतिध्वनि ध्वनित्र से खुले समुद्र में मछलियों के बड़े समूह का पता लगाया जा सकता है तथा इन सूचनाओं का उपयोग कर मछली का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।

समुद्री संवर्धन से मछली प्राप्त करना। यह समुद्र तथा लैगून में किया जाता है। कम खर्च करके अधिक मात्रा में इच्छित मछलियों का जल में संवर्धन किया जाता है, जिसे जल संवर्धन कहते हैं।

भविष्य में समुद्री मछलियों का भंडार कम होने की अवस्था में मछलियों की आपूर्ति संवर्धन द्वारा हो सकती है। इस प्रणली को समुद्री संवर्धन कहते हैं।

कुछ आर्थिक महत्व वाली समुद्री मछलियों का समुद्री जल में सवंर्धन भी किया जाता है। इनमें प्रमुख हैं – मुलेट, भेटकी तथा पर्लस्पॉट कवचीय मछलियाँ जैसे – झींगा, मस्सल तथा आएस्टर। आएस्टर का संवर्धन मोतियों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

समुद्री मत्स्यकी
समुद्री मत्स्यकी

2. अंत: स्थली मत्स्यकी 

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 मछली संवर्धन ताजे जल में होता है। जैसे तालाब, नदी


मिश्रित मछली संवर्धन –

 एक ही तालाब में लगभग 5 से 6 प्रकार की मछलियों का संवर्धन किया जाता है। इस प्रक्रिया में देशी ता आयातित प्रकार की मछलियों का प्रयोग किया जाता है। इनमें ऐसी मछलियों को चुना जाता है, जिनमें आहार के लिए प्रतिस्पर्धा न हो अथवा उनके आहार भिन्न–भिन्न हों।


मिश्रित मछली संवर्धन के लाभ है–


 मिश्रित मछली संवर्धन में तालाब के प्रत्येक भाग में उपलब्ध आहार का उपयोग हो जाता है, जैसे– कटला मछली जल की सतह से अपना भोजन लेती है। रोहू मछली तालाब के मध्य क्षेत्र से अपना भोजन लेती है।      मृगल तथा कॉमन कार्प तालाब की तली से भोजन लेती है। ग्रास कार्प खरपतवार खाती है।

इस प्रकार ये       सभी मछलियाँ साथ-साथ रहकर भी बिना स्पर्धा के अपना–अपना आहार लेती हैं। इससे तालाब में मछली के उत्पादन में वृद्धि होती है।


मिश्रित मछली संवर्धन की समस्याएँ –

  • 1. अधिकांश मछलियाँ वर्षा ऋतु में ही जनन करती है। परिणाम स्वरूप अधिकांश मछलियाँ तेजी से वृद्धि नहीं कर पाती।
  • 2. इस समस्या से बचाब के लिए हार्मोन का उपयोग किया जाता है ताकि किसी भी समय मछली जनन के  लिए तैयार हो।

मधुमक्खी पालन


मधु या शहद का सर्वत्र उपयोग होता है अत: इसके लिए मधुमक्खी पालन का उद्यम एक कृषि उद्योग बन गया है। चूंकि मधुमक्खी पालन में पूंजी निवेश कम होता है, इसलिए किसान इसे धनार्जन का अतिरिक्त साधन मानते हैं।

शहद के अतिरिक्त मधुमक्खी के छते मोम के बहुत अच्छे स्त्रोत हैं। मोम का उपयोग औषधि तैयार करने में किया जाता है।

व्यवसायिक स्तर पर मधु उत्पादन के लिए देशी किस्म की मधुमक्खी –

  • ऐपिस सेरेना इंडिका (सामान्य भारतीय मधुमक्खी)
  • ऐपिस डोरसेटा (एक शैल मधुमक्खी)
  • ऐपिस फ्लोरी (छोटी मधुमक्खी)

एक इटली की मधुमक्खी (ऐपिस मेलीफेरा) का प्रयोग मधु के उत्पादन को बढ़ाने के लिए किया जाता है। अत: व्यावसायिक मधु उत्पादन में इस मधुमक्खी का प्राय: उपयोग किया जाता है।

मधु उत्पादन के लिए प्रयुक्त मधुमक्खी में निम्नलिखित ऐच्छिक गुण होने चाहिए

  • मधुमक्खी में मधु एकत्र करने की क्षमता बहु अधिक होनी चाहिए।
  • वे डंक भी कम मारने वाली हों।
  • वे निर्धारित छत्ते में काफी समय तक रहें।
  • प्रजनन तीव्रता से करें।

चारागाह–


मधुमक्खियों द्वारा मधु एकत्र करने के लिए उपलब्ध फलों वाली जगह को चारागाह कहते हैं। मधुमक्खियाँ फूलों से मकरंद और पराग एकत्र करती है। चारागाह की पर्याप्त उपलब्धता मधु की गुणवत्ता और स्वाद को निर्धारित करती है।

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