CUET History Notes ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ PDF Download

CUET History Notes Class 12 |History Notes in Hindi

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Class 12 History Chapter 1 ईंटें , मनके तथा अस्थियाँ ( हड़प्पा सभ्यता ) Notes In Hindi

हड़प्पाई मुहर :-

संभवतः हड़प्पा अथवा सिंधु घाटी सभ्यता की सबसे विशिष्ट पुरावस्तु है। सेलखड़ी नामक पत्थर से बनाई गई इन मुहरों पर सामान्य रूप से जानवरों के चित्र तथा एक ऐसी लिपि के चिह्न उत्कीर्णित हैं जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।

फिर भी हमें इस क्षेत्र में उस समय बसे लोगों के जीवन के विषय में उनके द्वारा पीछे छोड़ी गई पुरावस्तुओं—जैसे उनके आवासों, मृदभाण्ड़ों, आभूषणों, औजारों तथा मुहरों-दूसरे शब्दों में पुरातात्विक साक्ष्यों के माध्यम से बहुत जानकारी मिलती है।

हड़प्पा सभ्यता :-


सिंधु घाटी सभ्यता को “हड़प्पा संस्कृति” भी कहा जाता है। पुरातत्वविद “संस्कृति” शब्द का प्रयोग पुरावस्तुओं के ऐसे समूह के लिए करते हैं जो एक विशिष्ट शैली के होते हैं और सामान्यता एक साथ, एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र तथा कालखंड से संबंध पाए जाते हैं।


इन विशिष्ट पुरावस्तुओं में मुहरें, मनके, बाट, पत्थर के फलक और पकी हुई ईंटें शामिल हैं। ये वस्तुएं अफगानिस्तान, जम्मू, बलूचिस्तान (पाकिस्तान) तथा गुजरात जैसे क्षेत्रों से मिली हैं, जो एक दूसरे से लंबी दूरी पर स्थित हैं।

हड़प्पा सभ्यता का नामकरण :-

 इस सभ्यता का नामकरण, हड़प्पा नामक स्थान जहां यह संस्कृति पहली बार खोजी गई थी, के नाम पर किया गया है।

काल निर्धारण :-

 हड़प्पा सभ्यता का काल निर्धारण लगभग 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू. के बीच में किया गया है।
हड़प्पा सभ्यता से पहले और बाद में भी संस्कृति अस्तित्व में थी जिन्हें क्रमश: “आरंभिक” तथा “परवर्ती हड़प्पा” कहा जाता है।

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पुरावस्तुओं के आधार पर हड़प्पा सभ्यता के बारे में विशेष जानकारी :-

1 आरंभिक हड़प्पा संस्कृतियाँ :- 

हड़प्पा सभ्यता के पहले भी संस्कृतियां अस्तित्व में थी, जो विशिष्ट मृदभाण्ड शैली से संबंधित थी। इस संदर्भ में कृषि, पशुपालन तथा शिल्प कार्य के साक्ष्य कुछ स्थानों से प्राप्त हुए हैं। आरंभिक हड़प्पा संस्कृति में बस्तियां आमतौर पर छोटी थी और इनमें बड़े आकार की संरचना न के बराबर थी। 

क्रम भंग :- कुछ स्थानों पर बड़े पैमाने पर इलाकों में जलाए जाने के संकेतों से तथा कुछ अन्य स्थलों के त्याग दिए जाने से ऐसा प्रतीत होता है कि आरंभिक हड़प्पा तथा हड़प्पा सभ्यता के बीच में क्रम भंग था।

2. हड़प्पावासियों के जीवन :-

 हड़प्पा सभ्यता की निवासी कई प्रकार के पेड़ पौधों से प्राप्त उत्पाद और जानवरों, जिनमें मछली भी शामिल है, से प्राप्त भोजन करते थे। जले अनाज के दानों तथा बीजों की खोज से पुरातत्वविद आहार संबंधी आदतों के विषय में जानकारी प्राप्त करने में सफल हो गए हैं। हड़प्पा स्थल से मिले अनाज के दानों में गेहूं, बाजरा, दाल, चावल, सफेद चना, तिल शामिल है। बाजरे के दाने गुजरात के स्थलों से प्राप्त हुए। चावल के दाने अपेक्षाकृत कम पाए गए।


हड़प्पाई स्थलों से भेड़, बकरी, भैंस, सूअर की हड्डियाँ मिली है। पुरा-प्राणिविज्ञानियों या जीव-पुरातत्वविदों द्वारा किए गए अध्ययन से संकेत मिलता है कि ये सभी जानवर पालतू थे। जंगली प्रजातियों जैसे वराह (सूअर), हिरण और घड़ियाल की हड्डियाँ भी मिली है। संभवत: हड़प्पानिवासी स्वयं इन जानवरों का शिकार करते थे अथवा आखेटक समुदायों से इनका मांस प्राप्त करते थे। मछली तथा पक्षियों की हड्डियाँ भी मिली है।

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3. कृषि प्रौद्योगिकी :- 

निम्नलिखित वस्तुएँ हड़प्पा सभ्यता में कृषि प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी देती है :-

  • 1. हल के प्रतिरूप :- चोलिस्तान के कई स्थानों और बनावली (हरियाणा) से मिट्टी के हल के प्रतिरूप मिले हैं।
  • 2. जुते हुए खेत के साक्ष्य :- कालीबंगा (राजस्थान)नामक स्थान पर जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला है। जो आरंभिक हड़प्पा स्तरों से संबद्ध है। इस खेत में हल रेखाओं के दो समूह एक दूसरे को समकोण पर काटते हुए विद्यमान है, जो दर्शाते हैं कि एक साथ दो अलग-अलग फसलें उगाई जाती थी।
  • 3. मुहरों पर किए गए रेखांकन तथा पक्की मिट्‌टी से बनी वृषभ की मृण्मूर्तियां :- हड़प्पा सभ्यता से मिली मुहरों पर किए गए रेखांकन तथा मृण्मूर्तियां यह स्पष्ट करती है कि हड़प्पावासी वृषभ के विषय में जानते थे। खेत जोतने के लिए बैलों का प्रयोग होता था।
  • नोट :- थार रेगिस्तान से लगा हुआ पाकिस्तान का रेगिस्तानी क्षेत्र चोलिस्तान कहलाता है।
  • 4. फसलों की कटाई के लिए प्रयुक्त औजार – फसलों की कटाई के लिए हड़प्पा के लोग लकड़ी के हत्थों में बिठाए गए पत्थर के फलकों, धातु के औजारों का प्रयोग करते थे।
  • 5. सिंचाई के साधन – अधिकांश हड़प्पा स्थल अर्ध – शुष्क क्षेत्रों में स्थित थे, जहां संभवतः कृषि के लिए सिंचाई की आवश्यकता पड़ती होगी। सिंचाई के लिए कुओं, नहरों तथा जलाशयों का प्रयोग किया जाता था।
    अफगानिस्तान में शोर्तुघई नामक हड़प्पा स्थल से नहरों के कुछ अवशेष मिले हैं। पंजाब तथा सिंध से नहरों के अवशेष प्राप्त नहीं होते हैं। संभवत: नहरें गाद से भर गई थी।
    धौलावीरा (गुजरात) से जलाशय प्राप्त हुआ है, संभवत कृषि के लिए यहां जल का संचयन किया जाता होगा। संभवत: कुओं से प्राप्त पानी का प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता होगा।

अर्नेस्ट मैके फर्दर एक्सकैवेशन्स एट मोहनजोदड़ो, 1937 से उद्धृत :-


भोजन तैयार करने की प्रक्रिया में अनाज पीसने के यंत्र तथा उन्हें आपस में मिलाने, मिश्रण करने तथा पकाने के लिए आवश्यक बर्तनों को पत्थर, धातु तथा मिट्‌टी से बनाया जाता था।

अवतल चक्कियाँ :- 

मोहनजोदड़ो में हुए उत्खननों द्वारा पता चलता है कि अनाज पीसने के लिए अवतल चक्कियाँ एक मात्र साधन थी। साधारणत: ये चक्कियाँ कठोर, कंकरीले, अग्निज या बलुआ पत्थर से निर्मित थी। इन चक्कियों के तल उत्तल हैं, निश्चित रूप से इन्हें जमीन में या मिट्‌टी में जमा कर रखा जाता था ताकि इन्हें हिलने से रोका जा सकें। इन पर एक छोटा पत्थर रखा मिला है जिसके द्वारा अनाज को पीसा जाता था। इसके अतिरिक्त दूसरे प्रकार का पत्थर जो जड़ी-बूटियों तथा मसालों को कूटने के लिए काम में लिया जाता था उसे “सालन पत्थर” का नाम दिया गया है।

मोहनजोदड़ो :-

  • 1. एक नियोज़ित शहरी केंद्र- हड़प्पा सभ्यता का सबसे अनूठा पहलू “शहरी केंद्रों का विकास” था।पहले चबूतरों का यथास्थान निर्माण किया गया उसके बाद शहर का सारा भवन निर्माण कार्य चबूतरों पर एक निश्चित क्षेत्र तक सीमित किया गया। इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि पहले बस्ती का नियोजन किया गया था और फिर इसके अनुसार कार्यान्वयन।
    बस्ती का विभाजन :- मोहनजोदड़ो की बस्ती दो भागों में विभाजित थी।
  • 2. निचला शहर :- एक छोटा भाग ऊंचाई पर बनाया गया और दूसरा कहीं अधिक बड़ा भाग नीचे बनाया गया। जिन्हें क्रमशः दुर्ग और निचला शहर का नाम दिया गया है। निचला शहर भी दीवार से घेरा गया था। इसके अतिरिक्त कई भवनों को ऊंचे चबूतरे पर बनाया गया था जो नींव का कार्य करते थे।
  • नोट :- हालाँकि अधिकांश हड़प्पा बस्तियों में एक छोटा ऊँचा पश्चिमी तथा एक बड़ा लेकिन निचला पूर्वी भाग है, परंतु इस नियोजन में विविधताएँ भी हैं। धौलावीरा तथा लोथल (गुजरात) जैसे स्थलों पर पूरी बस्ती किलेबंद थी तथा शहर के कई हिस्से भी दीवारों से घेर कर अलग किए गए थे। लोथल में दुर्ग दीवार से घिरा तो नहीं था पर कुछ ऊंचाई पर बनाया गया था।
  • 3. ईंटें :- नियोजन के अन्य लक्षणों में ईंटें शामिल हैं जो धूप में सुखाकर या भट्टी में पकाकर एक निश्चित अनुपात में निर्मित की गई थी। इन ईंटों की लंबाई और चौड़ाई, ऊंचाई की क्रमशः चारगुनी और दोगुनी होती थी। इस प्रकार की ईंटें सभी हड़प्पा बस्तियों में प्रयोग में लाई गई थीं।
  • 4. नियोजित जल निकासी प्रणाली :- हड़प्पाई शहरों की सबसे अनोखी विशिष्टता “नियोजित जल निकास प्रणाली” थी। पहले नालियों का निर्माण किया गया उसके साथ गलियों को बनाया गया थाऔर फिर उनके अगल-बगल आवासों का निर्माण किया गया था। घरों के गंदे पानी को गलियों की नालियों से जोड़ने के लिए प्रत्येक घर की एक दीवार गली से सटी हुई बनाई गई थी। सड़कों तथा गलियों को लगभग एक “ग्रिड” पद्धति में बनाया गया था और ये एक दूसरे को समकोण पर काटती थी।

नालियों के विषय में ‘मैके’ लिखते है : “निश्चित रूप से यह अब तक खोजी गई सर्वथा प्राचीन प्रणाली है” हर आवास, गली की नालियों से जोड़ा गया था। मुख्य नाले गारे में जमाई गई ईंटों से बने थे और इन्हें ऐसी ईंटों से ढका गया था जिन्हें सफाई के लिए हटाया जा सके। कुछ स्थानों पर ढकने के लिए चूना पत्थर की पट्टिका का प्रयोग किया गया था। घरों की नालियाँ पहले एक हौदी या मलकुंड में खाली होती थीं जिसमें ठोस पदार्थ जमा हो जाता था और गंदा पानी गली की नालियों में बह जाता था।

बहुत लंबे नालों पर कुछ अंतरालों पर सफाई के लिए हौदियाँ बनाई गई थीं। जल निकास प्रणालियाँ केवल बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि ये छोटी बस्तियों में भी मिली थी। लोथल में आवासों के निर्माण के लिए जहाँ कच्ची ईंटों का प्रयोग हुआ था, वहीं नालियाँ पक्की ईंटों से बनाई गई थीं।
मलबे, मुख्यत: रेत के छोटे-छोटे ढेरे सामान्यत: निकासी के नालों के अगल-बगल पड़े मिले हैं। नालों की सफाई के बाद कचरे को हमेशा हटाया नहीं जाता था।

5. गृह स्थापत्य की विशेषताएँ  :-


  • 1. आँगन पर केंद्रित कमरे :- मोहनजोदड़ो का निचला शहर आवासीय भवनों के उदाहरण प्रस्तुत करता है। इनमें से कई एक आँगन पर केंद्रित थे जिसके चारों ओर कमरे बने थे। ये कमरे खाना पकाने और कताई करने के काम आते थें।
  • 2. एकांतता को महत्व :- लोगों द्वारा अपनी एकांतता को महत्व दिया जाता था। उदाहरणार्थ :-
    (1) भूमि तल पर बनी दीवारों में खिड़कियाँ नहीं हैं।
    (2) मुख्य द्वार से आंतरिक भाग अथवा आँगन का सीधा अवलोकन नहीं होता है।
  • 3. स्नानघर :- हर घर का ईंटों के फ़र्श से बना अपना एक स्नानघर होता था जिसकी नालियाँ दीवार के माध्यम से सड़क की नालियों से जुड़ी हुई थीं।
  • 4. बहुमंजिला मकान:- कुछ घरों में दूसरे तल या छत पर जाने हेतु बनाई गई सीढ़ियों के अवशेष मिले थे, जो इस बात का संकेत है कि मकान बहुमंजिला भी होते थे।
  • 5. कुएँ :- कई आवासों में कुएँ थे जो अधिकांशत: एक ऐसे कक्ष में बनाए गए थे जिसमें बाहर से आया जा सकता था और जिनका प्रयोग संभवत: राहगीरों द्वारा किया जाता था।
    विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि मोहनजोदड़ो में कुओं की कुल संख्या लगभग 700 थी।

दुर्ग :- 

दुर्ग में ऐसी संरचनाओं के साक्ष्य मिले हैं जिनका प्रयोग संभवत: विशिष्ट सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए किया जाता था। दुर्ग को दीवार से घेरकर निचले शहर से अलग किया गया था। दुर्ग का निर्माण कच्ची ईंटों की चबूतरों पर ऊंचाई पर किया गया था।

  • 1. मालगोदाम :- यह एक ऐसी विशाल संरचना है जिसके ईंटों से बने केवल निचले हिस्से शेष हैं, जबकि ऊपरी हिस्से जो संभवत: लकड़ी से बने थे, बहुत पहले ही नष्ट हो गए थे। 
  • 2. विशाल स्नानागार :- मोहनजोदड़ो से आँगन में बना एक आयताकार जलाशय प्राप्त हुआ है जो चारों ओर से एक गलियारे से घिरा हुआ था। जलाशय के तल तक जाने के लिए इसके उत्तरी और दक्षिणी भाग में दो सीढ़ियाँ बनी थीं। जलाशय के किनारों पर ईंटों को जमाकर तथा जिप्सम के गारे के प्रयोग से इसे जलबद्ध किया गया था। इसमें सिन्धु नदी का जल डाला गया था। इसके तीनों ओर कक्ष बने हुए थे। इन कक्षों में से एक में बड़ा कुआँ था।


जलाशय की सफाई की भी उत्तम व्यवस्था की गई थी। जलाशय से पानी एक बड़े नाले में बह जाता था। इसके उत्तर में एक गली के दूसरे ओर एक अपेक्षाकृत छोटी संरचना थी जिसमें आठ स्नानघर बनाए गए थे। एक गलियारे के दोनों ओर चार-चार स्नानघर बने थे। प्रत्येक स्नानघर से नालियाँ, गलियारे के साथ-साथ बने एक नाले में मिलती थीं। इस संरचना का अनोखापन तथा दुर्ग क्षेत्र में कई विशिष्ट संरचनाओं के साथ इनके मिलने से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि इसका प्रयोग किसी प्रकार के विशेष आनुष्ठानिक स्नान के लिए किया जाता था।

सामाजिक भिन्नताओं का अवलोकन :-

शवाधान :- पुरातत्वविद सामाजिक तथा आर्थिक भिन्नताओं को जानने के लिए सामान्यत: कई विधियों का प्रयोग करते हैं :-


1. शवाधानों का अध्ययन :- 

मिस्र के विशाल पिरामिडों जिनमें से कुछ हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थे, इनमें से कई पिरामिड राजकीय शवाधान थे जहाँ बहुत बड़ी मात्रा में धन-संपत्ति दफनाई गई थी। हड़प्पा स्थलों से मिले शवाधानों में आमतौर पर मृतकों को गर्तों में दफनाया गया था। कभी-कभी शवाधान गर्त की बनावट एक-दूसरे से भिन्न होती थी-कुछ स्थानों पर गर्त की सतहों पर ईंटों की चिनाई की गई थी।


कुछ कब्रों में मृदभाण्ड तथा आभूषण मिले हैं जो संभवत: एक ऐसी मान्यता की ओर संकेत करते हैं जिसके अनुसार इन वस्तुओं का मृत्योपरांत प्रयोग किया जा सकता था। पुरुषों और महिलाओं, दोनों के शवाधानों से आभूषण मिले हैं।
1980 के दशक के मध्य में हड़प्पा के कब्रिस्तान में हुए उत्खननों में एक पुरुष की खोपड़ी के समीप शंख के तीन छल्लों, जैस्पर (एक प्रकार का उपरत्न) के मनके तथा सैकड़ों की संख्या में सूक्ष्म मनकों से बना एक आभूषण मिला था। कहीं-कहीं पर मृतकों को ताँबे के दर्पणों के साथ दफनाया गया था। हड़प्पा सभ्यता के निवासियों का मृतकों के साथ बहुमूल्य वस्तुएँ दफनाने में विश्वास नहीं था।

2. ‘विलासिता’ की वस्तुओं की खोज :-

 सामाजिक भिन्नता को पहचानने की एक अन्य विधि है ऐसी पुरावस्तओं का अध्ययन जिन्हें पुरातत्वविद मोटे तौर पर, उपयोगी तथा विलास की वस्तुओं में वर्गीकृत करते हैं।

  • (i) रोज़मर्रा के उपयोग की वस्तुएँ :- जिन्हें पत्थर अथवा मिट्‌टी जैसे सामान्य पदार्थों से आसानी से बनाया जा सकता  है। इनमें चक्कियाँ, मृदभाण्ड, सूइयाँ, झाँवा आदि शामिल हैं। ये वस्तुएँ सामान्य रूप से बस्तियों में सर्वत्र पाई गई हैं।
  • (ii) विलासिता की वस्तुएँ :- पुरातत्वविद उन वस्तुओं को कीमती मानते हैं जो दुर्लभ हों अथवा मँहगी। स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदार्थों से अथवा जटिल तकनीकों से बनी हों। इस प्रकार फ़यॉन्स (घिसी हुई रेत अथवा बालू तथा रंग और चिपचिपे पदार्थ के मिश्रण को पका कर बनाया कर पदार्थ) के छोटे पात्र संभवत: कीमती माने जाते थे क्योंकि इन्हें बनाना कठिन था।

मँहगे पदार्थों से बनी दुर्लभ वस्तुएँ सामान्यत: मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसी बड़ी बस्तियों में केंद्रित पाई गई हैं और छोटी बस्तियों में ये विरले ही मिलती हैं। उदाहरण के लिए, फयॉन्स से बने लघुपात्र जो संभवत: सुगंधित द्रव्यों के पात्रों के रूप में प्रयुक्त होते थे, अधिकांशत: मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से मिले हैं और कालीबंगन जैसी छोटी बस्तियों से बिल्कुल नहीं। सोना भी दुर्लभ तथा संभवत: आज की तरह कीमती था-हड़प्पा स्थलों से मिले सभी स्वर्णाभूषण संचयों से प्राप्त हुए थे।

शिल्प-उत्पादन के विषय में जानकारी :- 

चन्हुदड़ो मोहनजोदड़ो (125 हेक्टेयर) की तुलना में एक बहुत छोटी (7 हेक्टेयर) बस्ती है जो लगभग पूरी तरह से शिल्प-उत्पादन में संलग्न थी। शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातुकर्म, मुहर निर्माण तथा बाट बनाना सम्मिलित थे।

मनकों के निर्माण में प्रयुक्त पदार्थों की विविधता उल्लेखनीय है :

 कार्नीलियन (सुंदर लाल रंग का), जैस्पर, स्फटिक, कवार्ट्ज तथा सेलखड़ी जैसे पत्थर ; ताँबा, काँसा तथा सोने जैसी धातुएँ ; तथा शंख, फयॉन्स और पकी मिट्‌टी, सभी का प्रयोग मनके बनाने में होता था। कुछ मनके दो या उससे अधिक पत्थरों को आपस में जोड़कर बनाए जाते थे और कुछ सोने के टोप वाले पत्थर के होते थे। इनके कई आकार होते थे। जैसे – चक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार तथा खंडित। मनकों को उत्कीर्णन तथा चित्रकारी के माध्यम से सजाया गया था।


सेलखड़ी मुलायम पत्थर था अत: आसानी से इसके चूर्ण के लेप को सांचे में ढाल कर मनके तैयार किए जाते थे।
कार्नीलियन का लाल रंग, पीले रंग के कच्चे माल तथा उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनकों को आग में पका कर प्राप्त किया जाता था। पत्थर के पिंड़ों को पहले अपरिष्कृत आकारों में तोड़ा जाता था और फिर बारीकी से शल्क निकालकर इन्हें अंतिम रूप दिया जाता था। घिसाई, पॉलिश और इनमें छेद करने के साथ ही यह प्रक्रिया पूरी होती थी।


चन्हुदड़ो, लोथल और हाल ही में धौलावीरा से छेद करने के विशेष उपकरण मिले हैं। नागेश्वर तथा बालाकोट जो समुद्र तट के समीप स्थित है, शंख से बनी वस्तुओं  जिनमें चूड़ियां, करछियाँ तथा पच्चीकारी की वस्तुएँ सम्मिलित हैं, के निर्माण के विशिष्ट केंद्र थे जहाँ से यह माल दूसरी बस्तियों तक ले जाया जाता था। चन्हुदड़ो और लोथल से तैयार माल (जैसे – मनके) मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे बड़े शहरी केंद्रों तक लाया जाता था।

उत्पादन केंद्रों की पहचान :- 

पुरातत्वविद शिल्प उत्पादन के केंद्रों की पहचान निम्नलिखित वस्तुओं को ढूंढकर करते हैं :- प्रस्तर पिंड, पूरे शंख, ताँबा – अयस्क जैसा कच्चा माल, औजार, अपूर्ण वस्तुएँ, त्याग दिया गया माल, कूड़ा-करकट
कूड़ा-करकट शिल्पकार्य के सबसे अच्छे संकेतों में से एक हैं। वस्तुओं के निर्माण के बाद प्रयुक्त पदार्थों के टुकड़े कूड़े के रूप में उत्पादन के स्थान पर फेंक दिए जाते थे। ये टुकड़े इस ओर संकेत करते हैं कि छोटे विशिष्ट केंद्रों के अतिरिक्त मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा जैसे बड़े शहरों में भी शिल्प उत्पादन का कार्य किया जाता था।

माल प्राप्त करने संबंधी नीतियाँ :- 

हड़प्पाई लोग अनेक प्रकार के शिल्प उत्पादन में संलग्न थे- जैसे मनके बनाना, शंख की कटाई करना, धातुकर्म, मुहर निर्माण तथा बांट बनाना । शिल्प उत्पादन के लिए हड़प्पावासी कई प्रकार के कच्चे माल का प्रयोग करते थे। कुछ कच्चे माल जैसे मिट्टी, स्थानीय स्तर पर उपलब्ध थी, लेकिन कुछ अन्य पत्थर लकड़ी, धातु जैसे कच्चे माल बाहर के क्षेत्रों से मंगाने पड़ते थे।

हड़प्पाई क्षेत्रों में परिवहन के साधन-

  • 1. स्थलमार्गों द्वारा – बैलगाड़ियों के मिट्टी से बने खिलौनों के प्रतिरूप संकेत करते हैं कि लोगों तथा सामान के लिए स्थल मार्ग परिवहन के महत्वपूर्ण साधन थे।
  • 2. जलमार्गों द्वारा – सिंधु तथा इसकी उपनदियों के बगल में बने नदी मार्गों और साथ ही तटीय मार्गों का भी प्रयोग होता था।

हड़प्पावासियों द्वारा शिल्प उत्पादन हेतु माल प्राप्त करने संबंधी नीतियां :-

हड़प्पावासी शिल्प उत्पादन हेतु माल प्राप्त करने के लिए कई तरीके अपनाते थे :-

  • 1. बस्तियां स्थापित करना :- नागेश्वर और बालाकोट में जहां शंख आसानी से उपलब्ध  था, बस्तियां स्थापित की। अफगानिस्तान में शोर्तुघई जो अत्यंत कीमती माने जाने वाले नीले रंग के पत्थर लाजवर्द मणि के सबसे अच्छे स्रोत के निकट था, वहां बस्तियां स्थापित की। लोथल जो कार्नीलियन, सेलखड़ी और धातु के स्रोतों के निकट था वहां पर भी बस्तियां स्थापित की गयी।
  • 2. अभियान भेजना – कच्चा माल प्राप्त करने के लिए हड़प्पावासियों ने अभियान भेजने की नीति अपनाई । राजस्थान के खेतड़ी अँचल से तांबे की प्राप्ति के लिए तथा दक्षिणी भारत क्षेत्रों से सोने की प्राप्ति के लिए अभियान भेजे गए।

गणेश्वर जोधपुरा संस्कृति :- 

कच्चा माल प्राप्त करने के लिए हड़प्पा लोग अभियान भेजते थे। इन अभियानों के माध्यम से स्थानीय समुदायों के साथ संपर्क स्थापित किया जाता था। संपर्कों के संकेतक के रूप में हड़प्पाई वस्तुएं इन स्थानों से प्राप्त हुई है। खेतड़ी क्षेत्र में मिले साक्ष्यों को पुरातत्वविदों ने गणेश्वर – जोधपुरा संस्कृति का नाम दिया है।

हड़प्पा वासियों का सुदूर देशों से संपर्क :- 

सुदूर प्रदेशों से प्राप्त हड़प्पाई पुरावस्तुएं तथा लेख इस बात के साक्ष्य है कि हड़प्पा वासियों का सुदूर देशों के साथ संपर्क था।

1. अरब प्रायद्वीप के दक्षिणी पूर्वी छोर पर स्थित ओमान क्षेत्र के साथ संबंध :- 

  • अरब प्रायद्वीप के दक्षिणी पूर्वी छोर पर स्थित ओमान से हड़प्पा वासियों का व्यापारिक संपर्क था।
  • i. रासायनिक विश्लेषण दर्शाते हैं कि ओमानी ताँबे तथा हड़प्पाई पुरावस्तुओं, दोनों में निकल के अंश मिले हैं, जो दोनों के सांझा उद्भव की ओर संकेत करते हैं।
  • ii. एक विशिष्ट प्रकार का हड़प्पाई मर्तबान जिसके ऊपर काली मिट्टी की मोटी परत चढ़ाई गई थी, ओमानी स्थलों से मिला है। यह मोटी परत तरल पदार्थों के रिसाव को रोक देती थी।
  • संभवत: हड़प्पा सभ्यता के लोग इनमें रखे सामान का ओमानी ताँबे से विनिमय करते थे।

2. मेसोपोटामिया से संबंध :- 

  • मेसोपोटामिया के स्थलों से प्राप्त ताँबे में भी निकल के अंश मिले हैं जो सांझा उद्भव की ओर संकेत करते हैं। मेसोपोटामिया से हड़प्पाई मुहरें, बाट, पासे और मनके प्राप्त हुए हैं।

मेसोपोटामिया से प्राप्त लेख से दिलमुन, मगान तथा मेलुहा नामक हड़प्पाई क्षेत्रों से संपर्क की जानकारी मिलती है। इस लेख में मेलुहा से प्राप्त कार्नीलियन, लाजवर्द मणि, ताँबा सोना तथा विविध प्रकार की लकड़ियाँ आदि उत्पादों का उल्लेख मिलता है। हाजापक्षी का विवरण मेसोपोटामिया के लेख में मेलुहा को नाविकों का देश कहा गया है। मेसोपोटामिया से प्राप्त एक विशिष्ट बेलनाकर मुहर पर कूबड़दार वृषभ का चित्र प्राप्त हुआ है जो संभवत सिंधु क्षेत्र से लिया गया प्रतीत होता है।

3. बहरीन द्वीप से संबंध :-

 बहरीन में मिली गोलाकार फारस की खाड़ी प्रकार की मुहर पर भी कभी-कभी हड़प्पा चित्र मिलते हैं। दिलमुन  के स्थानीय बाट हड़प्पाई मानक का अनुसरण करते थे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ओमान, बहरीन तथा मेसोपोटामिया से संपर्क था तथा ये संपर्क सामुद्रिक मार्ग से होता था। मुहरों पर जहाजों तथा नावों के चित्रांकन इसे स्पष्टत: प्रमाणित करते है।

मुहरें, लिपि तथा बाट :-

मुहरों और मुद्रांकनों का प्रयोग :- 

मुहरोंऔर मुद्रांकनों  का प्रयोग लंबी दूरी के संपर्कों को सुविधाजनक बनाने के लिए होता था। सामान से भरा एक थैला एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने के समय उसके मुख को रस्सी से बांध दिया जाता था। गाँठ पर थोड़ी गीली मिट्टी जमा करके एक या अधिक मोहरों को दबा दिया जाता था। जिससे मिट्टी पर मोहरों की छाप पड़ जाती थी। मुद्रांकन से प्रेक्षक की पहचान का पता चल जाता था।

हड़प्पा लिपि एक रहस्यमय लिपि :- 

हड़प्पा लिपि एक रहस्यमय लिपि थी, यह लिपि आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है। निश्चित रूप से यह वर्णमालीय नहीं थी। अधिकांश अभिलेख संक्षिप्त है। सबसे लंबे अभिलेख में लगभग 26 चिह्न है। हड़प्पा लिपि में चिह्नों की संख्या अधिक थी। लगभग 375 से 400 के बीच चिह्न प्राप्त हुए है।


यह लिपि दाईं से बाईं और लिखी जाती थी। मुहरों पर दाईं ओर चौड़ा अंतराल है और बाईं ओर यह संकुचित है जिससे लगता है कि उत्कीर्णक ने दाईं ओर से लिखना आरंभ किया और बाद में बाईं ओर स्थान कम पड़ गया।

सामान्यतः हड़प्पाई मुहरों पर एक पंक्ति में कुछ लिखा है जो संभवतः मालिक के नाम व पदवी को दर्शाता है। मुहरों पर बना चित्र, आमतौर पर जो एक जानवर का है , संभवतः अनपढ़ लोगों को सांकेतिक रूप से इसका अर्थ बताता था।

हड़प्पा लिपि निम्न वस्तुओं पर लिखी हुई मिली है – मुहरें, ताँबे के औजार, मर्तबान के अंवठ, ताँबे तथा मिट्टी      की लघु पट्टिकाएँ, आभूषण, अस्थि-छड़ें तथा प्राचीन सूचना पट्ट। नष्ट प्राय: वस्तुओं पर भी लिखा जाता था । संभवत:  साक्षरता व्यापक थी।

बाट :- हड़प्पाई क्षेत्रों में विनिमय बाटों की एक सूक्ष्म या परिशुद्ध प्रणाली द्वारा नियंत्रित थे। बाट सामान्यतः चर्ट नामक पत्थर से बनाए जाते थे। बाट किसी भी तरह के निशान से रहित थे। बाट घनाकार आकृति के होते थे।


इन बाटों के निचले मानदंड द्विआधारी (1, 2, 4, 8,16, 32 इत्यादि 12,800 तक)तथा ऊपरी मानदंड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे। छोटे बाटों का प्रयोग संभवत: आभूषण और मनकों को तोलने के लिए किया जाता था। धातु से बने तराजू के पलड़े भी प्राप्त हुए हैं।

शासक का अस्तित्व :- हड़प्पाई समाज में सभी क्रियाकलापों को संगठित करने, जटिल फैसलों को लेने और उन्हें क्रियान्वित करने के संकेत मिलते हैं । संभवतः कोई सत्ता अवश्य रही होगी।लेकिन सत्ता के केंद्र या सत्ताधारी लोगों के विषय में पुरातात्विक विवरण कोई त्वरित उत्तर नहीं देते हैं।

  • निम्नलिखित तथ्यों से ज्ञात होता है कि हड़प्पा सभ्यता में सत्ता अस्तित्व में थी –
  • 1. विभिन्न हड़प्पाई पुरावस्तुओं में असाधारण एकरूपता प्राप्त हुई है, जैसा कि मृदभांडों, मुहरों, बाटों तथा ईंटों से स्पष्ट है।
  • 2. जम्मू से गुजरात तक पूरे क्षेत्र में समान अनुपात की ईंटें प्राप्त हुई हैं।
  • 3. ईंटें बनाने, विशाल दीवारें बनाने तथा चबूतरों के निर्माण के लिए सभी स्थानों पर श्रम को संगठित किया गया था।
  • 4. मोहनजोदड़ो से एक विशाल भवन के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। पुरातत्वविदों ने मोहनजोदड़ो में  मिले इस विशाल भवन को एक प्रासाद की संज्ञा दी है परंतु इससे संबंधित कोई भव्य वस्तुएं नहीं प्राप्त हुई हैं।
  • 5. उत्खनन से प्राप्त एक पत्थर की मूर्ति को पुरोहित राजा की संज्ञा दी गई थी और यह नाम आज भी प्रचलित है।
  • 6. हड़प्पा सभ्यता में अनेक आनुष्ठानिक प्रथाएं विद्यमान थी। लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इन अनुष्ठानों का निष्पादन करने वाले राजनीतिक सत्ताधारी अर्थात् शासक थे।


कुछ पुरातत्वविद यह मानते हैं कि हड़प्पाई क्षेत्रों में अनेक शासक थे। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि के अपने अलग-अलग राजा  होते थे। जबकि कुछ पुरातत्त्वविदों का मानना है कि संपूर्ण हड़प्पा क्षेत्र एक ही राज्य था, जैसा कि पुरावस्तुओं में समानताओं, नियोजित बस्तियों के साक्ष्यों, ईंटों के आकार में निश्चित अनुपात तथा बस्तियों के कच्चे माल के स्त्रोतों के समीप स्थापित होने से स्पष्ट है।


इसके विपरीत कुछ पुरातत्वविद इस मत के हैं कि हड़प्पाई समाज में शासक नहीं थे तथा सभी की सामाजिक स्थिति समान थी। इन सभी मतों को देखते हुए कदाचित संभव नहीं लगता कि पूरे के पूरे समुदायों द्वारा इकठ्ठे  ऐसे जटिल निर्णय लिए तथा कार्यान्वित किए जाते होंगे अर्थात राजा का अस्तित्व अवश्य ही रहा होगा।

सभ्यता का अंत :-

 ऐसे साक्ष्य मिले हैं जिनके अनुसार लगभग 1800 ईसा पूर्व तक चोलिस्तान जैसे क्षेत्रों में अधिकांश विकसित हड़प्पा स्थलों का त्याग दिया गया था। इसके साथ ही गुजरात, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नयी बस्तियों में आबादी बढ़ने लगी थी।

उत्तर हड़प्पा संस्कृति :

 1900 ईसा पूर्व के बाद हड़प्पाई स्थलों की भौतिक संस्कृति में बदलाव आया। सभ्यता की विशिष्ट पुरावस्तुएं जैसे बाट, मोहरें विशिष्ट मनके समाप्त हो गए। लेखन तथा लंबी दूरी का व्यापार समाप्त हो गया। शिल्प विशेषज्ञता भी समाप्त हो गई। आवास के निर्माण की तकनीकों का ह्रास हो गया। बड़ी सार्वजनिक संरचनाओं का निर्माण बंद हो गया।

सामान्य थोड़ी वस्तुओं के निर्माण के लिए थोड़ा ही माल प्रयोग में लाया जाता था। कुल मिलाकर पुरावस्तुएँ तथा बस्तियाँ इन संस्कृतियों में एक ग्रामीण जीवन शैली की ओर संकेत करती है। इन संस्कृतियों को उत्तर हड़प्पा या अनुवर्ती संस्कृति या कहा गया।

हडप्पा सभ्यता के पतन के कारण :-


1. बाढ़-

जॉन मार्शल, अर्नेस्ट मैके तथा एस आर राव आदि विद्वानों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता का विनाश एकमात्र नदी की बाढ़ के कारण हुआ। सैंधव नगर नदियों के तट पर बसे थे जिनमें प्रतिवर्ष बाढ़ आती थी। खुदाईयों से पता चलता है कि कई बार इन नगरों का पुनर्निर्माण किया गया था। जॉन मार्शल ने मोहनजोदड़ो से, मैके ने चन्हूदडो से तथा राव ने लोथल से बाढ़ से सभ्यता के विनाश के साक्ष्य प्राप्त किए हैं।

2. जलवायु परिवर्तन :-

 आर एल स्टीन, ए एन घोष आदि विद्वानों के अनुसार सभ्यता का विनाश जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ। ईंटों को पकाने, मकानों के निर्माण के लिए जंगलों की कटाई की गई। परिणाम स्वरूप पानी बरसना काफी कम हो गया। वर्षा की कमी से कृषि पैदावार घट गई।

3. भारी जलप्लावन :- 

भूतत्व वैज्ञानिक एम आर साहनी का विचार है कि सैंधव नगरों का विनाश भारी जल प्लावन के कारण।

4. नदियों द्वारा मार्ग परिवर्तन :-

 लैम्ब्रिक तथा माधोस्वरूप वत्स  सिंधु एवं अन्य नदियों के मार्ग परिवर्तन को इस सभ्यता के विनाश का कारण मानते हैं। वत्स के अनुसार हड़प्पा नगर का विनाश रावी नदी के मार्ग परिवर्तन के कारण हुआ। डेल्स के अनुसार कालीबंगन का विनाश घग्गर तथा उसकी सहायक नदियों की मार्ग परिवर्तन के कारण हुआ। नदियों के मार्ग परिवर्तन से पीने के पानी तथा खेती के पानी का अभाव हो गया। जलीय व्यापार ठप हो गया।

5. प्राकृतिक आपदाएं :- 

के. यू. आर. कैनेडी ने मोहनजोदड़ो के नर कंकालों का परीक्षण करने के पश्चात यह निष्कर्ष दिया है कि सैंधव निवासी मलेरिया महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हुए। इन आकस्मिक बीमारियों ने उनके जीवन का अंत कर दिया।

6. आर्थिक दुर्व्यवस्था :- 

सैंधव नगरों की समृद्धि का मुख्य आधार उनका पश्चिमी एशिया में विशेषकर मेसोपोटामिया के साथ व्यापार था। यह व्यापार 1750 ईसा पूर्व के लगभग अचानक समाप्त हो गया इस कारण सैंधव सभ्यता का नगरीय स्वरूप भी समाप्त हो गया।

7. बाह्य आक्रमण :- 

गार्डन चाइल्ड स्टुअर्ट पिगट तथा आर एम व्हीलर के अनुसार हड़प्पा सभ्यता के विनाश का कारण बाह्य आक्रमण था।

8. व्हीलर में सैंधव सभ्यता की अंतिम तिथि का समर्थन ऋग्वेद के साक्ष्य से किया है। इससे पता चलता है कि इंद्र ने रक्षा प्राचीरों से युक्त नगरों को ध्वस्त कर दिया। जिसके कारण उसे “पुरंदर” कहा गया। मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चलता है कि वहां के निवासियों की अत्यंत निर्दयता पूर्वक हत्या कर दी गई थी।

9. भूकंप :-

 एम. आर. साहनी, राइक्स, व डेल्स के अनुसार भूतात्विक परिवर्तन द्वारा हड़प्पा सभ्यता का विनाश हो गया।

10. प्रशासनिक शिथिलता :-

 कुछ विद्वानों का विचार है कि शासक का अपने अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं रहा होगा। एक सुदृढ़ एकीकरण के अभाव में संभवत हड़प्पा सभ्यता का अंत हो गया होगा। मुहरों, लिपि, विशिष्ट मनको, मृदभांडों, के लोप, मानकीकृत बाट प्रणाली के स्थान पर स्थानीय बांटो के प्रयोग, स्थानीय बाटों के प्रयोग, शहरों के पतन तथा परित्याग जैसे परिवर्तनों से इस तर्क को बल मिलता है।

11. पारिस्थितिकी असंतुलन :-

 फेयर सर्विस तथा रफीक मुगल के अनुसार पारिस्थितिकी असंतुलन के कारण हड़प्पा सभ्यता का विनाश हो गया। ऐसे साक्ष्य मिले हैं जिनके अनुसार लगभग 1800 ईसा पूर्व तक चोलिस्तान जैसे क्षेत्रों में अधिकांश विकसित हड़प्पा स्थलों को त्याग दिया गया था। इसके साथ  गुजरात, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नयी बस्तियों में आबादी बढ़ने लगी थी।

एक “आक्रमण” के साक्ष्य :-


जॉन मार्शल द्वारा रचित मोहनजोदड़ो एंड द इंडस सिविलाइजेशन, 1931 से डेडमैन लेन नामक एक संकरी गली के बारे में पता चलता है।इस गली के पश्चिम की और 4 फीट तथा 2 इंच की गहराई पर एक खोपड़ी का भाग तथा एक वयस्क की छाती, हाथ के ऊपरी भाग की हड्डियां प्राप्त हुई जो सभी भुरी भुरी अवस्था में थी।

यह धड़ पीठ के बल गली में आड़ा पड़ा हुआ था। पश्चिम की ओर 15 इंच की दूरी पर  एक छोटी खोपड़ी के भी साक्ष्य मिले हैं। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर इस गली का नाम डेडमैन लेन रखा गया। 1925 में मोहनजोदड़ो के इसी भाग से 16 लोगों के अस्थि पंजर आभूषणों सहित प्राप्त हुए।


1947 में तात्कालिक भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल आर एम व्हीलर ने इन पुरातात्विक साक्ष्यों का उपमहाद्वीप में ज्ञात प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के साक्ष्य से संबंध स्थापित किया। व्हीलर के अनुसार ऋग्वेद में आर्यों के युद्ध के देवता इंद्र को पुरंदर अर्थात गढ़- विध्वंसक कहा गया है।

व्हीलर ने 1947 ईस्वी में, हड़प्पा 1946, एंशिएंट इंडिया (जर्नल) में लिखा कि मोहनजोदड़ो के अंतिम चरण में आभास होता है कि यहां पुरुषों महिलाओं तथा बच्चों का जनसंहार किया गया था परिस्थितिक साक्ष्यों के आधार पर इंद्र अभियुक्त माना जाता है।

उन्होंने बताया कि अनार्य प्रकार की एक बहुत विकसित सभ्यता की विशाल किलेबंदियां की गयी थी तथा अधिक संभावना इस बात की है कि बड़े पैमाने पर किए गए विनाश ने हड़प्पा सभ्यता को अंतिम रूप से समाप्त कर दिया।

यह मात्र संयोग ही नहीं हो सकता।
1960 के दशक में जॉर्ज डेल्स ने मोहनजोदड़ो में जनसंहारों के साक्ष्य पर सवाल उठाए। उन्होंने बताया कि सभी अस्थि पंजर एक ही काल से संबंधित नहीं थे। डेल्स द्वारा लिखित “मिथिकल मैसेकर एट मोहनजोदड़ो “, एक्सपीडिशन, 1964  के अनुसार मोहनजोदड़ो से प्राप्त साक्ष्यों से संहार के संकेत मिलते हैं, परंतु अधिकांश अस्थियां इंगित करती हैं कि यह अत्यंत लापरवाही तथा श्रद्धाहीन तरीके से बनाए गए शवाधान थे।


शहर के अंतिम काल से संबंधित विनाश का कोई स्तर प्राप्त नहीं होता ना ही व्यापक स्तर पर अग्निकांड के चिह्न प्राप्त हुए हैं। चारों ओर फैले हत्यारों के बीच कवच धारी सैनिकों के शव भी प्राप्त नहीं हुए हैं। दुर्ग से जो शहर का एकमात्र किले बंद भाग था अंतिम आत्मरक्षण के कोई साक्ष्य यहां से नहीं मिले हैं। जिससे प्रमाणित होता है कि हड़प्पा सभ्यता का पूर्णतः विनाश नरसंहार से नहीं हुआ।

हड़प्पा सभ्यता की खोज :-

 भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पहले डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पुरातात्विक उत्खनन प्रारंभ किए। उस समय तक पुरातत्वविद लिखित स्त्रोतों जैसे साहित्य तथा अभिलेखों का प्रयोग अधिक पसंद करते थे।

कनिंघम की मुख्य रूचि भी छठी शताब्दी ईसा पूर्व से चौथी शताब्दी ईस्वी तक इन्हीं स्रोतों के प्रयोग में थी। उन्होंने चौथी से सातवीं शताब्दी ईस्वी के बीच भारत आए चीनी  बौद्ध तीर्थ यात्रियों द्वारा छोड़े गए वृत्तांतो का प्रयोग किया। अभिलेखों का संग्रहण प्रलेखन तथा अनुवाद भी किया। उत्खनन के समय भी सांस्कृतिक महत्व की पुरावस्तुओं को खोजते थे।


कनिंघम का मानना था कि भारतीय इतिहास का प्रारंभ गंगा की घाटी में पनपे पहले शहरों के साथ ही हुआ था। एक अंग्रेज ने कनिंघग को एक हड़प्पाई  मुहर दी थी।

हड़प्पाई पुरावस्तुएं  जो 19वीं शताब्दी में प्राप्त हुई थी, तथा कुछ कनिंघम तक पहुंची भी थी परंतु वे समझ नहीं पाए कि ये पुरावस्तुएं कितनी प्राचीन थी। कनिंघम हड़प्पा के महत्व को समझने में चूक गए। उन्होंने हड़प्पा जैसे पुरास्थल को जो ऐतिहासिक शहर नहीं था, उसे महत्व ही नहीं दिया।

प्राचीन पुरास्थल, टीले, स्तर :-


1. पुरास्थल – 

वस्तुओं और संरचना के निर्माण प्रयोग और फिर उन्हें त्याग दिए जाने से पुरातात्विक पुरास्थल बनते हैं।

2. टीला – 

जब लोग एक ही स्थान पर नियमित रूप से रहते हैं तो भूमि खंड के अनवरत उपयोग तथा पुनः उपयोग से आवासीय मलबों का निर्माण हो जाता है जिन्हें टीला कहते हैं।

3. बंजर स्तर – 

अल्पकालीन या स्थाई परित्याग की स्थिति में हवा या पानी की क्रियाशीलता और कटाव के कारण भूमि- खंड के स्वरूप में बदलाव आ जाता है। इन टीलों में मिले इस तरह से प्राप्त प्राचीन वस्तुओं से आवास का पता चलता है। ये स्तर एक दूसरे से रंग, प्रकृति और इनमें मिली पुरावस्तुओं के संदर्भ में भिन्न होते हैं। परित्यक्त स्तरों को “बंजर स्तर” कहा जाता है। इनकी पहचान उपरोक्त सभी लक्षणों के अभाव से की जाती है।

एक नवीन प्राचीन सभ्यता :

 बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में “दयाराम साहनी” ने हड़प्पा से तथा उसके पश्चात “राखलदास बनर्जी” ने उसी प्रकार की मुहरें मोहनजोदड़ो से खोज निकाली। जिससे अनुमान लगाया गया कि ये दोनों पुरास्थल एक ही पुरातात्विक संस्कृति के भाग थे। इन्हीं खोजों के आधार पर 1924 ईस्वी में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल जॉन मॉर्शल ने पूरे विश्व के समक्ष सिंधु घाटी में एक नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की।


एस एन राव “द स्टोरी ऑफ़ इंडियन आर्कियोलॉजी” में लिखा है कि मॉर्शल ने भारत को जहां पाया था, उसे उससे 3000 वर्ष पीछे छोड़ा। ऐसा इसलिए था क्योंकि मेसोपोटामिया के पुरास्थलों में हुए उत्खननों से हड़प्पा पुरास्थलों पर मिली मुहरों जैसी, पर तब तक पहचानी न जा सकीं, मुहरें मिली थीं। इस प्रकार विश्व को न केवल एक नयी सभ्यता की जानकारी मिली पर यह भी कि वह मेसोपोटामिया के समकालीन थी।


जॉन मार्शल, पुरास्थल के स्तर विन्यास की बजाय पूरे टीले में समान परिमाण वाली नियमित क्षैतिज इकाईयों के साथ-साथ उत्खनन करने का प्रयास करते थे। जिसके परिणाम स्वरूप अलग-अलग स्थानों से संबंध होने पर भी एक ही इकाई विशेष से प्राप्त सभी पुरावस्तुओं को सामूहिक रूप से वर्गीकृत कर दिया जाता था। जिससे बहुमूल्य जानकारी हमेशा के लिए लुप्त हो जाती थी।

नई तकनीकें तथा प्रश्न :- 

1944 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल बने आर ई एम व्हीलर ने एक समान क्षैतिज इकाईयों के आधार पर खुदाई की बजाय टीले के स्तर विन्यास का अनुसरण किया।

1947 के बाद उत्खनित हड़प्पाई स्थल :-

 हड़प्पा सभ्यता की भौगोलिक सीमाओं का राष्ट्रीय सीमाओं से बहुत थोड़ा लगभग नगण्य संबंध है। उपमहाद्वीप के विभाजन तथा पाकिस्तान के बनने के बाद सभ्यता के प्रमुख स्थल पाकिस्तान में चले गए इसी कारण भारतीय पुरातत्विदों ने भारत में पुरास्थलों को चिन्हित करने का प्रयास किया ।


कच्छ में हुए व्यापक सर्वेक्षण से कई हड़प्पाई बस्तियां प्रकाश में आई तथा पंजाब और हरियाणा में किए गए निवेश से हड़प्पा स्थलों की सूची में कई और नाम जुड़े। कालीबंगा, लोथल, राखीगढ़ी तथा धौलावीरा की खोज वहां हुए अन्वेषण और उत्खनन इन्हीं प्रयासों का हिस्सा है।

खोजों का वर्गीकरण :- 

पुरावस्तुओं की पुनः प्राप्ति पुरातात्विक उद्यम का आरंभ मात्र है। इसके बाद पुरातत्वविद अपनी खोजों को वर्गीकृत करते हैं।

वर्गीकरण के सामान्य सिद्धांत :-


1. वर्गीकरण का एक सामान्य सिद्धांत प्रयुक्त पदार्थों ; जैसे – पत्थर, मिट्टी, धातु, अस्थि, हाथीदांत आदि के संबंध में होता है।
2. उपयोगिता के आधार पर पुरातत्विदों को यह तय करना पड़ता है कि उदाहरणत: कोई पुरावस्तु एक औजार   है या एक आभूषण है या फिर दोनों अथवा अनुष्ठानिक प्रयोग की कोई वस्तु।


किसी पुरावस्तु की उपयोगिता आधुनिक समय में प्रयुक्त वस्तुओं से उनकी समानता पर आधारित होती है – मनके, चक्कियां, पत्थर के फलक तथा पात्र इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। पुरावस्तु की उपयोगिता उस संदर्भ के परीक्षण के माध्यम से भी होती है जिसमें वह मिली थी घर में, नाले में, कब्र में या फिर भट्टी में।


कभी-कभी पुरातत्त्वविदों को अप्रत्यक्ष साक्ष्यों का भी सहारा लेना पड़ता है ।उदाहरणार्थ- हड़प्पा स्थलों से कपास के टुकड़े मिले ।पर पहनावे के विषय में जानने के लिए अप्रत्यक्ष साक्ष्यों जैसे मूर्तियों के चित्रण पर निर्भर रहना पड़ता है। धार्मिक प्रथाओं के पुनर्निर्माण में पुरातात्विक व्याख्या की समस्याएं सबसे अधिक सामने आती है। पुरातत्वविदों ने असामान्य और अपरिचित लगने वाली वस्तुओं को धार्मिक महत्व की माना।

हड़प्पा सभ्यता और धार्मिक प्रथाएं :-

  • 1. आभूषणों से लदी हुई नारी की मृण मूर्तियां जिनमें कुछ के शीर्ष पर विस्तृत प्रसाधन थे, उन्हें मातृदेवियों की संज्ञा दी गई थी।
  • 2. पुरुषों की दुर्लभ पत्थर से बनी मूर्तियां जिनमें उन्हें एक लगभग मानकीकृत मुद्रा में एक हाथ घुटने पर रख बैठा हुआ दिखाया गया था।
  • 3. अनेक संरचनाओं – जैसे विशाल स्नानागार कोआनुष्ठानिक महत्व का माना गया।
  • 4. कालीबंगा और लोथल से अनेक वेदियां मिली है। जो भी संभवत: धार्मिक महत्व की रही होगी।
  • 5. मुहरों पर अनुष्ठान के दृश्य बने हैं, जो धार्मिक आस्थाओं और प्रथाओं के बारे में बताते हैं।
  • 6. कुछ मुहरों पर पेड़ पौधे उत्कीर्णित है ।मान्यतानुसार प्रकृति की पूजा के संकेत देते हैं।
  • 7. मुहरों पर बनाए गए कुछ जानवर – जैसे कि एक सिंग वाला जानवर, जिसे आमतौर पर एकश्रृंगी कहा जाता है – कल्पित तथा संश्लिष्ट लगते हैं।
  • 8. मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर एक आकृति योग मुद्रा में बैठी दिखाई गई है, जो जानवरों से घिरी है इसे “आद्य शिव” अर्थात हिंदू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक का आरंभिक रूप की संज्ञा दी गई है।
  • 9. इसके अतिरिक्त पत्थर की शंक्वाकार वस्तुओं को संभवतः लिंग के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

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