CUET History Notes राजा, किसान और नगर Notes PDF Download

CUET History Notes In Hindi राजा , किसान और नगर Kings Farmers and Towns

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Class 12 History Chapter 2 राजा , किसान और नगर Notes In Hindi

 हड़प्पा सभ्यता के बाद डेढ़ हजार वर्षों के लंबे अंतराल में उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में हुए विकास  :-  

  • 1. सिंधु नदी और इसकी उपनदियों के किनारे रहने वाले लोगों द्वारा ऋग्वेद का लेखन किया गया।
  • 2. उत्तर भारत, दक्कन पठार क्षेत्र और कर्नाटक जैसे उपमहाद्वीप के कई क्षेत्रों में कृषक बस्तियाँ अस्तित्व में आईं।
  • 3. दक्कन और दक्षिण भारत के क्षेत्रों में चरवाहा बस्तियों के प्रमाण भी मिलते हैं।
  • 4. ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दि के दौरान मध्य और दक्षिण भारत में शवों के अंतिम संस्कार के नए तरीके भी सामने आए, जिनमें महापाषाण के नाम से ख्यात पत्थरों के बड़े-बड़े ढाँचे मिले हैं।
  • 5. कई स्थानों पर शवों के साथ विभिन्न प्रकार के लोहे से बने उपकरण और हथियारों को भी दफनाया गया था।
  • 6. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में आरंभिक राज्यों, साम्राज्यों और रजवाड़ों का विकास हुआ।
  • 7. कृषि उपज को संगठित किया गया।
  • 8. लगभग पूरे उपमहाद्वीप में नए नगरों का उदय हुआ।

उपरोक्त विकास की जानकारी के स्रोत :-

 अभिलेखों, ग्रंथों, सिक्कों तथा चित्रों द्वारा हड़प्पा सभ्यता के बाद डेढ़ हजार वर्षों के लंबे अंतराल में विभिन्न भागों में हुए विकास की जानकारी मिलती हैं। यह एक जटिल प्रक्रिया है, और इन स्रोतों से विकास की पूरी कहानी नहीं मिल पाती है।
अभिलेखशास्त्र :- अभिलेखों  के अध्ययन को अभिलेखशास्त्र कहते हैं।

1. प्रिंसेप और पियदस्सी :- 

भारतीय अभिलेख विज्ञान में एक उल्लेखनीय प्रगति 1830 के दशक में हुई, जब ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी “जेम्स प्रिंसेप” ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का उपयोग सबसे आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया था। अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी, यानी “मनोहर मुखाकृति वाले राजा” का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम असोक भी लिखा है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार असोक सर्वाधिक प्रसिद्ध शासकों में से एक था।
जेम्स प्रिंसेप के शोध कार्य से आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नई दिशा मिलना :-

  • 1. जेम्स प्रिंसेप के शोध से आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नयी दिशा मिली, क्योंकि भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया। परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास का एक सामान्य चित्र तैयार हो गया।
  • 2. उसके बाद विद्वानों ने अपना ध्यान राजनीतिक इतिहास के संदर्भ की ओर लगाया और यह छानबीन करने की कोशिश की कि क्या राजनीतिक परिवर्तनों और आर्थिक तथा सामाजिक विकासों के बीच कोई संबंध था। शीघ्र ही यह आभास हो गया कि इनमें संबंध तो थे लेकिन संभवतः सीधे संबंध हमेशा नहीं थे।

2. प्रारंभिक राज्य :-

  • सोलह महाजनपद
    आरंभिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई.पू. को एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है क्योंकि :-
    इस काल में प्रायः आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे का प्रयोग बढ़ा और सिक्कों का विकास हुआ।
  • इसी काल में बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ।
    बौद्ध और जैन धर्म के आरंभिक ग्रंथों में महाजनपद नाम से सोलह राज्यों का उल्लेख मिलता है।
  • यद्यपि महाजनपदों के नाम को सूची इन ग्रंथों में एकसमान नहीं है लेकिन वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और अवन्ति जैसे नाम प्रायः मिलते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि उक्त महाजनपद सबसे महत्वपूर्ण महाजनपदों में गिने जाते होंगे।

महाजनपदों का शासन :-

राजा या समूह द्वारा शासन :- 

अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था लेकिन गण और संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था, इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध  इन्हीं गणों से संबंधित थे। वज्जि संघ की ही भाँति कुछ राज्यों में भूमि सहित अनेक आर्थिक स्रोतों पर राजा गण सामूहिक नियंत्रण रखते थे। यद्यपि स्रोतों के अभाव में इन राज्यों के इतिहास पूरी तरह लिखे नहीं जा सकते लेकिन ऐसे कई राज्य लगभग एक हजार साल तक बने रहे।

  • धर्म शास्त्रों की रचना की आवश्यकता के कारण  :-
    प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जिसे प्राय: किले से घेरा जाता था। किलेबंद राजधानियों के रख-रखाव और प्रारंभी सेनाओं और नौकरशाही के लिए भारी आर्थिक स्रोत की आवश्यकता होती थी इसलिए लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से संस्कृत में ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचना शुरू की।
  • इनमें शासक सहित अन्य के लिए नियमों का निर्धारण किया गया और यह अपेक्षा की जाती थी कि शासक क्षत्रिय वर्ण से ही होंगे शासकों का काम किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलना माना जाता था।
  • संपत्ति जुटाने का एक वैध उपाय पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करके धन इकट्ठा करना भी माना जाता था।
    धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तंत्र तैयार कर लिए। बाकी राज्य अब भी सहायक-सेना पर निर्भर थे जिन्हें प्रायः कृषक वर्ग से नियुक्त किया जाता था।

सोलह महाजनपदों में प्रथम : मगध :-

  • • छठी से चौथी शताब्दी ई.पू. में मगध (आधुनिक बिहार) सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया। इसके निम्नलिखित कारण थे :-
    1. मगध क्षेत्र में खेती की उपज खास तौर पर अच्छी होती थी।
    2. लोहे की खदानें (आधुनिक झारखंड में) भी आसानी से उपलब्ध थीं जिससे उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था।
    3. जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे जो सेना के एक महत्वपूर्ण अंग थे।
    4. साथ ही गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।
    5. आरंभिक जैन और बौद्ध लेखकों ने मगध की महत्ता का कारण विभिन्न शासकों की नीतियों को बताया है। बिंबिसार, अजातसत्तु और महापद्मनंद जैसे प्रसिद्ध राजा अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक थे, और इनके मंत्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे।

मगध की राजधानियाँ :- 

  • प्रारंभ में, राजगाह मगध की राजधानी थी। इस शब्द का अर्थ है, ‘राजाओं का घर’। पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबंद शहर था।

नोट :- राजगाह आधुनिक बिहार के राजगीर का प्राकृत नाम है। चौथी शताब्दी ई.पू. में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया, जिसे अब पटना कहा जाता है जिसकी गंगा के रास्ते आवागमन के मार्ग पर महत्वपूर्ण अवस्थिति थी।

एक आरंभिक साम्राज्य :- 

मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक :- चंद्रगुप्त मौर्य थे। मौर्य साम्राज्य का विस्तार :- पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था।

मौर्य साम्राज्य की स्थापना :- 

लगभग 321 ई. पू.
आरंभिक भारत का सर्वप्रसिद्ध शासक चंद्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक जिन्होंने कलिंग (आधुनिक उड़ीसा)पर विजय प्राप्त की।राजा, किसान और नगर

♦ मौर्य साम्राज्य के इतिहास की रचना के स्रोत :- 

पुरातात्विक प्रमाण विशेषतया मूर्तिकला। समकालीन रचनाएँ भी मूल्यवान सिद्ध हुई हैं, जैसे चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा लिखा गया विवरण। आज इसके कुछ अंश ही उपलब्ध हैं। अर्थशास्त्र संभवत: इसके कुछ भागों की रचना कौटिल्य या चाणक्य ने की थी जो चंद्रगुप्त के मंत्री थे। मौर्य शासकों का उल्लेख परवर्ती जैन, बौद्ध और पौराणिक ग्रंथों तथा संस्कृत वाङ्मय में भी मिलता है। यद्यपि उक्त साक्ष्य बड़े उपयोगी हैं लेकिन पत्थरों और स्तंभों पर मिले असोक के अभिलेख प्रायः सबसे मूल्यवान स्रोत माने जाते हैं।

धम्म का अर्थ  :- 

असोक वह पहला सम्राट था जिसने अपने अधिकारियों और प्रजा के लिए संदेश प्राकृतिक पत्थरों और पॉलिश किए हुए स्तंभों पर लिखवाए थे। असोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से धम्म का प्रचार किया। इनमें बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे के धर्मों और परंपराओं का आदर शामिल हैं।
असोक ने अपने साम्राज्य को अखंड बनाए रखने का प्रयास किया। ऐसा उन्होंने धम्म के प्रचार द्वारा भी किया। धम्म के सिद्धांत बहुत ही साधारण और सार्वभौमिक थे। असोक के अनुसार धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा।

अशोक के अभिलेखों की भाषाएँ तथा लिपियाँ :- 

अशोक के अधिकांश अभिलेख “प्राकृत” में हैं जबकि पश्चिमोत्तर से मिले अभिलेख “अरामेइक और यूनानी” भाषा में हैं। प्राकृत के अधिकांश अभिलेख “ब्राह्मी लिपि” में लिखे गए थे जबकि पश्चिमोत्तर के कुछ अभिलेख खरोष्ठी में लिखे गए थे। अरामेइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग “अफगानिस्तान” में मिले अभिलेखों में किया गया था।

राजा; किसान और नगर: आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

साम्राज्य का प्रशासन :-

मौर्य साम्राज्य के प्रमुख राजनीतिक केंद्र :- 

मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केंद्र थे, राजधानी पाटलिपुत्र और चार प्रांतीय केंद्र-तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि और सुवर्णगिरि। मौर्य साम्राज्य आधुनिक पाकिस्तान के पश्चिमोतर सीमांत प्रांत से लेकर आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और उत्तराखंड तक विस्तृत था लेकिन इतने विशाल साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था समान नहीं थी। साम्राज्य में शामिल क्षेत्र बड़े विविध और भिन्न-भिन्न प्रकार के थे 

अफगानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र और उड़ीसा के तटवर्ती क्षेत्र थे। सबसे प्रबल प्रशासनिक नियंत्रण साम्राज्य की राजधानी तथा उसके आसपास के प्रांतीय केंद्रों पर था। इन केंद्रों का चयन बड़े ध्यान से किया गया। तक्षशिला और उन्जयिनी दोनों लंबी दूरी वाले महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर स्थित थे जबकि सुवर्णगिरि (अर्थात् सोने के पहाड़) कर्नाटक में सोने की खदान के लिए उपयोगी था।राजा, किसान और नगर

2. सैनिक गतिविधियाँ का संचालन :-  

साम्राज्य के संचालन के लिए भूमि और नदियों दोनों मार्गों से आवागमन था। राजधानी से प्रांतों तक जाने में कई सप्ताह या महीनों का समय लगता होगा। यात्रियों के लिए खान-पान की व्यवस्था और उनकी सुरक्षा भी करनी पड़ती होगी इसलिए सेना सुरक्षा का एक प्रमुख माध्यम थी।

मेगस्थनीज ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए एक समिति और छ: उपसमितियों का उल्लेख किया है :-
प्रथम उप-समिति का काम नौसेना का संचालन करना था,

  1. दूसरी यातायात और खान-पान का संचालन करती थी,
  2. तीसरी का काम पैदल सैनिकों का संचालन,
  3. चौथी का अश्वारोहियों,
  4. पाँचवी का रथारोहियों तथा
  5.  छठी का काम हाथियों का संचालन करना था।

नोट :- दूसरी उपसमिति का दायित्व विभिन्न प्रकार का था : उपकरणों के होने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था, सैनिकों के लिए भोजन और जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था करना तथा सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना।

धम्म महामात्र की नियुक्ति :- 

धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्र नाम से विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई।

सम्राट के अधिकारियों के कार्य :-

 मेगस्थनीज के अनुसार साम्राज्य के महान अधिकारियों में से कुछ नदियों की देख-रेख और भूमि मापन का कार्य करते थे। कुछ प्रमुख नहरों से उपनहरों के लिए छोड़े जाने वाले पानी के मुख द्वार का निरीक्षण करते है ताकि हर स्थान पर पानी की समान पूर्ति हो सके। अधिकारी शिकारियों का संचालन करते हैं तथा शिकारियों के कृत्यों के आधार पर ईनाम या दंड देते है। वे कर वसूली करते हैं और भूमि से जुड़े सभी व्यवसायों का निरीक्षण करते हैं। साथ ही लकड़हारों, बढ़ई, लौहारों और खननकर्ताओं का भी निरीक्षण करते हैं।

 मौर्य साम्राज्य का महत्व :-

 उन्नीसवीं सदी में जब इतिहासकारों ने भारत के आरंभिक इतिहास की रचना करनी शुरू की तो मौर्य साम्राज्य को इतिहास का एक प्रमुख काल माना गया। इसके निम्न कारण थे :-

  • 1. इस समय भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक औपनिवेशिक देश था।
  • 2. उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के भारतीय इतिहासकारों को प्राचीन भारत में एक ऐसे साम्राज्य की संभावना बहुत चुनौतीपूर्ण तथा उत्साहवर्धक लगी।
  • 3. प्रस्तर मूर्तियों सहित मौर्यकालीन सभी पुरातत्व एक अद्भुत कला के प्रमाण थे जो साम्राज्य की पहचान माने जाते हैं।
  • 4. इतिहासकारों को लगा कि अभिलेखों पर लिखें संदेश अन्य शासकों के अभिलेखों से भिन्न हैं।  अन्य राजाओं की अपेक्षा असोक एक बहुत शक्तिशाली और परिश्रमी शासक थे।
  • 5. साथ ही वे बाद के उन राजाओं की अपेक्षा विनीत भी थे जो अपने नाम के साथ बड़ी-बड़ी उपाधियाँ जोड़ते थे।

इसलिए इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी कि बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने भी असोक को प्रेरणा का स्रोत माना।

मौर्य साम्राज्य का पतन :- 

मौर्य साम्राज्य मात्र डेढ़ सौ साल तक ही चल पाया जिसे उपमहाद्वीप के इस लंबे इतिहास में बहुत बड़ा काल नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त मौर्य साम्राज्य उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में नहीं फैल पाया था। यहाँ तक कि साम्राज्य की सीमा के अंतर्गत भी नियंत्रण एकसमान नहीं था। दूसरी शताब्दी ई.पू आते-आते उपमहाद्वीप के कई भागों में नए-नए शासक और रजवाड़े स्थापित होने लगे।

4. राजधर्म के नवीन सिद्धांत :-

दक्षिण के राजा और सरदार :- 

उपमहाद्वीप के दक्कन और उससे दक्षिण के क्षेत्र में स्थित तमिलकम (अर्थात् तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश और केरल के कुछ हिस्से) में चोल, चेर और पाण्ड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ। ये राज्य बहुत ही समृद्ध और स्थायी सिद्ध हुए।

सरदार और सरदारी :-

 सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता है जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता है और नहीं भी। उसके समर्थक उसके खानदान के लोग होते हैं। सरदार के कार्यों में विशेष अनुष्ठान का संचालन, युद्ध के समय नेतृत्व करना और विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाना शामिल है। वह अपने अधीन लोगों से भेंट लेता है (जबकि राजा कर वसूली करते हैं), और अपने समर्थकों में उस भेंट का वितरण करता है। सरदारी में सामान्यतया कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते हैं।


प्राचीन तमिल संगम ग्रंथों में ऐसी कविताएँ हैं जो सरदारों का विवरण देती हैं तथा सरदारों द्वारा अपने स्रोतों के संकलन और वितरण के बारे में पता चलता है। कई सरदार और राजा लंबी दूरी के व्यापार द्वारा राजस्व जुटाते थे। इनमें मध्य और पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर शासन करने वाले सातवाहन (लगभग द्वितीय शताब्दी ई.पू.से द्वितीय शताब्दी ई. तक) और उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर और पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक शामिल थे।

दैविक राजा :-

1. राजाओं द्वारा उच्च स्थिति प्राप्ति के उपाय :- 

राजाओं के लिए उच्च स्थिति प्राप्त करने का एक साधन विभिन्न देवी-देवताओं के साथ जुड़ना था। मध्य एशिया से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक शासन करने वाले कुषाण शासकों ने (लगभग प्रथम शताब्दी ई.पू. से प्रथम शताब्दी ई. तक) इस उपाय का सबसे अच्छा उद्धरण प्रस्तुत किया। कुषाण इतिहास की रचना अभिलेखों और साहित्य परंपरा के माध्यम से की गई है। जिस प्रकार के राजधर्म को कुषाण शासकों ने प्रस्तुत करने की इच्छा की उसका सर्वोत्तम प्रमाण उनके सिक्कों और मूर्तियों से प्राप्त होता है।
उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ लगाई गई थीं। अफ़गानिस्तान के एक देवस्थान पर भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ मिली हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इन मूर्तियों के जरिए कुषाण स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे।

2. उपाधियाँ :- 

कई कुषाण शासकों ने अपने नाम के आगे ‘देवपुत्र’ की उपाधि भी लगाई थी। संभवतः वे उन चीनी शासकों से प्रेरित हुए होंगे, जो स्वयं को “स्वर्गपुत्र” कहते थे।
शासक तथा सामंत :-चौथी शताब्दी ई. में गुप्त साम्राज्य सहित कई बड़े साम्राज्यों के साक्ष्य मिलते हैं। इनमें से कई साम्राज्य सामंतों पर निर्भर थे। ये सामंत अपना निर्वाह स्थानीय संसाधनों द्वारा करते थे जिसमें भूमि पर नियंत्रण भी शामिल था। वे शासकों का आदर करते थे और उनकी सैनिक सहायता भी करते थे। जो सामंत शक्तिशाली होते थे वे राजा भी बन जाते थे और जो राजा दुर्बल होते थे, वे बड़े शासकों के अधीन हो जाते थे।

गुप्त साम्राज्य की जानकारी के स्रोत :- 

गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों की सहायता से लिखा गया है। साथ ही कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी की प्रशंसा में लिखी प्रशस्तियाँ भी उपयोगी रही हैं।
यद्यपि ये ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी देती हैं लेकिन उनके रचयिता तथ्यात्मक विवरण की अपेक्षा उन्हें काव्यात्मक ग्रंथ मानते थे।

समुद्रगुप्त की  प्रयाग प्रशस्ति :- 

इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख के नाम से प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति की रचना हरिषेण जो स्वयं गुप्त सम्राटों के संभवतः सबसे शक्तिशाली सम्राट समुद्रगुप्त के राजकवि थे, ने संस्कृत में की थी।


प्रयाग-प्रशस्ति में लिखा गया है कि :- धरती पर उसका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। अनेक गुणों और शुभ कार्यों से संपन्न उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया है। वे परामात्मा पुरुष है, साधु की समृद्धि और असाधु के विनाश के कारण है। वे अज्ञेय है। उनके कोमल हृदय को भक्ति और विनय से ही वश में किया जा सकता है। वे करुणा से भरे हुए है। वे अनेक सहस्र गायों के दाता है। उनके मस्तिष्क की दीक्षा दीन-दुखियों विरहणियों और पीड़ितों के उद्धार के लिए की गई है। वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति है। वे देवताओं में कुबेर, वरुण, इंद्र और यम के तुल्य है।

बदलता हुआ देहात :-

जनता में राजा की छवि :- 

वस्तुतः साधारण जनता द्वारा राजाओं के बारे में अपने विचारों और अनुभव के विवरण कम ही छोड़े गए हैं लेकिन “जातक और पंचतंत्र” जैसे ग्रंथों में वर्णित कथाओं की समीक्षा करके इतिहासकारों ने इसका पता लगाया है कि इनमें से अनेक कथाओं के स्रोत “मौखिक किस्से-कहानियाँ” हैं जिन्हें बाद में लिपिबद्ध किया गया होगा।
जातक कथाएँ पहली सहस्राब्दि ई. के मध्य में “पालि” भाषा में लिखी गईं। “गंदतिन्दु जातक” नामक एक कहानी में बताया गया है कि एक कुटिल राजा की प्रजा दुखी रहती है। इन लोगों में वृद्ध महिलाएँ, पुरुष, किसान, पशुपालक, ग्रामीण बालक और यहाँ तक कि जानवर भी शामिल हैं।


जब राजा अपनी पहचान बदल कर प्रजा के बीच में यह पता लगाने गया कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं तो एक-एक कर सबने अपने दुख के लिए राजा को भला-बुरा कहा। उनकी शिकायत थी कि रात में डकैत उन पर हमला करते हैं तो दिन में कर इकट्ठा करने वाले अधिकारी। ऐसी परिस्थिति से बचने के लिए लोग अपने-अपने गाँव छोड़ कर जंगल में बस गए। राजा और प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा, के बीच संबंध तनावपूर्ण रहते थे, क्योंकि शासक अपने राजकोष को भरने के लिए बड़े-बड़े कर की मांग करते थे जिससे किसान खासतौर पर त्रस्त रहते थे। इस जातक कथा से पता चलता है कि इस संकट से बचने का एक उपाय जंगल की ओर भाग जाना होता था। इसी बीच करों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए किसानों ने उपज बढ़ाने के और उपाए ढूँढ़ने शुरू किए।

उपज बढ़ाने के तरीके :-

1. हल का प्रचलन :- 

उपज बढ़ाने का एक तरीका हल का प्रचलन था। जो छठी शताब्दी ई. पू.से ही गंगा और कावेरी की घाटियों के उर्वर कछारी क्षेत्र में फैल गया था। जिन क्षेत्रों में भारी वर्षा होती थी वहाँ लोहे के फाल वाले हलों के माध्यम से उर्वर भूमि की जुताई की जाने लगी। यद्यपि लोहे के फाल वाले हाल की वजह से फसलों की उपज बढ़ने लगी लेकिन ऐसे हलों का उपयोग उपमहाद्वीप के कुछ ही हिस्से में सीमित था। पंजाब और राजस्थान जैसी अर्धशुष्क जमीन वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग बीसवीं सदी में शुरू हुआ।

2. धान की रोपाई :- 

गंगा की घाटी में धान की रोपाई की वजह से उपज में भारी वृद्धि होने लगी। हालाँकि किसानों को इसके लिए कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती थी। धान की रोपाई उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ पानी बहुतायत मात्रा में होता है। इसमें पहले धान के बीज अंकुरित करके पानी से भरे खेतों में पौधों की रोपाई की जाती है। चूँकि ज्यादा मात्रा में पौध बच जाती है अत: इससे धान की उपज बढ़ जाती है।

3. कुदाल का प्रयोग :- 

जो किसान उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर और मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे उन्होंने खेती के लिए “कुदाल” का उपयोग किया, जो ऐसे इलाके के लिए कहीं अधिक उपयोगी था।

4. कुओं, तालाबों, नहरों द्वारा सिंचाई :- 

उपज बढ़ाने का एक और तरीका कुओं, तालाबों और कहीं-कहीं नहरों के माध्यम से सिंचाई करना था। व्यक्तिगत लोगों और कृषक समुदायों ने मिलकर सिंचाई के साधन निर्मित किए। व्यक्तिगत तौर पर तालाबों, कुओं और नहरों जैसे सिंचाई साधन निर्मित करने वाले लोग प्रायः राजा या प्रभावशाली लोग थे जिन्होंने अपने इन कामों का उल्लेख अभिलेखों में भी करवाया।

सुदर्शन झील :-

 सुदर्शन झील एक कृत्रिम जलाशय था। हमें इसका ज्ञान लगभग दूसरी शताब्दी ई. के संस्कृत के एक पाषाण अभिलेख जो शक शासक “रुद्रदमन” की उपलब्धियों का उल्लेख करने के लिए बनवाया गया था।
इस अभिलेख में कहा गया है कि जलद्वारों और तटबंधों वाली इस झील का निर्माण मौर्य काल में एक स्थानीय राज्यपाल द्वारा किया गया था। लेकिन एक भीषण तूफान के कारण इसके तटबंध टूट गए और सारा पानी बह गया। बताया गया है कि तत्कालीन शासक रुद्रदमन ने इस झील की मरम्मत अपने खर्चे से करवाई थी, और इसके लिए अपनी प्रजा से कर भी नहीं लिया था। इसी पाषाण-खंड पर एक और अभिलेख (लगभग पाँचवीं सदी है) जिसमें कहा गया है कि गुप्त वंश के एक शासक ने एक बार फिर इस झील की मरम्मत करवाई थी।

ग्रामीण समाज में विभिन्नताएँ :- 

  • खेती की नयी तकनीकों से उपज बड़ी लेकिन इसके लाभ समान नहीं थे। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि खेती से जुड़े लोगों में उत्तरोत्तर भेद बढ़ता जा रहा था।
  • कहानियों में विशेषकर बौद्ध कथाओं में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों और बड़े-बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है। पालि भाषा में गहपति का प्रयोग छोटे किसानों और जमींदारों के लिए किया जाता था। बड़े-बड़े जमींदार और ग्राम प्रधान शक्तिशाली माने जाते थे जो प्रायः किसानों पर नियंत्रण रखते थे। ग्राम प्रधान का पद प्रायः वंशानुगत होता था।
  • आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है, जैसे कि वेल्लालर या बड़े जमींदारः हलवाहा या उल्वर और दास अणिमई।

वर्ग भेद के कारण :- 

वर्गों की यह विभिन्नता भूमि के स्वामित्व, श्रम और नयी प्रौद्योगिकी के उपयोग पर आधारित थी। भूमि का स्वामित्व महत्वपूर्ण था।

भूमिदान और नए संभात ग्रामीण :- 

 ईसवी की आरंभिक शताब्दियों से ही भूमिदान के प्रमाण मिलते हैं। इनमें से कई का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। कुछ अभिलेख पत्थरों पर लिखे गए थे लेकिन अधिकांश ताम्र पत्रों पर खुदे होते थे जिन्हें संभवतः उन लोगों को प्रमाण रूप में दिया जाता था जो भूमिदान लेते थे।
भूमिदान के जो प्रमाण मिले हैं वे साधारण तौर पर धार्मिक संस्थाओं या ब्राह्मणों को दिए गए थे। अधिकांश अभिलेख “संस्कृत” में थे। विशेषकर सातवीं शताब्दी के बाद के अभिलेखों के कुछ अंश संस्कृत में हैं और कुछ तमिल और तेलुगू जैसी स्थानीय भाषाओं में हैं।

 प्रभावती गुप्त :-

 प्रभावती गुप्त आरंभिक भारत के एक सबसे महत्वपूर्ण शासक चंद्रगुप्त द्वितीय (लगभग 375-415 ई.) की पुत्री थी। उसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक परिवार में हुआ था जो एक महत्वपूर्ण शासक वंश था। संस्कृत धर्मशास्त्रों के अनुसार, महिलाओं को भूमि जैसी संपत्ति पर स्वतंत्र अधिकार नहीं था लेकिन एक अभिलेख से पता चलता है कि प्रभावती भूमि की स्वामी थी और उसने दान भी किया था। इसका कारण है कि प्रभावती एक रानी थी। यह भी संभव है कि धर्मशास्त्रों को हर स्थान पर समान रूप से लागू नहीं किया जाता हो।

 ग्रामीण प्रजा के बारे में जानकारी :-  

अभिलेख से हमें ग्रामीण प्रजा का भी पता चलता है। इनमें ब्राह्मण, किसान तथा अन्य प्रकार के वर्ग शामिल थे जो शासकों या उनके प्रतिनिधियों को कई प्रकार की वस्तुएँ प्रदान करते थे। अभिलेख के अनुसार इन लोगों को गाँव के नए प्रधान की आज्ञाओं का पालन करना पड़ता था और संभवत: अपने भुगतान उसे ही देने पड़ते थे।इस प्रकार भूमिदान अभिलेख देश के कई हिस्सों में प्राप्त हुए हैं। क्षेत्रों में दान में दी गई भूमि की माप में अंतर है: कहीं-कहीं छोटे-छोटे टुकड़े.तो कहीं कहीं बड़े-बड़े क्षेत्र दान में दिए गए हैं।
• साथ ही भूमिदान में दान प्राप्त करने वाले लोगों के अधिकारों में भी क्षेत्रीय परिवर्तन मिलते हैं।

1. भूमिदान के कारण :-

  • भूमिदान के संबंध में विभिन्न इतिहासकारों के विचार अलग-अलग या भूमिदान शासक वंश द्वारा कृषि को नए क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की एक रणनीति थी।
  • भूमिदान से दुर्बल होते राजनीतिक प्रभुत्व का संकेत मिलता है अर्थात् राजा का शासन सामंतों पर दुर्बल होने लगा तो उन्होंने भूमिदान के माध्यम से अपने समर्थक जुटाने प्रारंभ कर दिए।
  • राजा स्वयं को उत्कृष्ट स्तर के मानव के रूप में प्रदर्शित करना चाहते थे। उनका नियंत्रण ढीला होता जा रहा था इसलिए वे अपनी शक्ति का आडंबर प्रस्तुत करना चाहते थे।
  • इस प्रकार भूमिदान के प्रचलन से राज्य तथा किसानों के बीच संबंध की झाँकी मिलती है।

नगर एवं व्यापार :-

नए नगर :-

 जिनका विकास लगभग छठी शताब्दी ई.पू. में उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे। पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदीमार्ग के किनारे बसे थे। उज्जयिनी जैसे अन्य नगर भूतल मार्गों के किनारे थे। इसके अलावा पुहार जैसे नगर समुद्रतट पर थे, जहाँ से समुद्री मार्ग प्रारंभ हुए। मथुरा जैसे अनेक शहर व्यावसायिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों के जीवंत केंद्र थे।

नगरीय जनसंख्या : संभ्रांत वर्ग और शिल्पकार

उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र :- 

शासक वर्ग और राजा किलेबंद नगरों में रहते थे। नगरों से उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। जिन्हें उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र कहा जाता है। संभवतः इनका उपयोग अमीर लोग किया करते होंगे।

शिल्पकार :- 

सोने चाँदी, कांस्य, ताँबे, हाथी दाँत, शीशे जैसे तरह-तरह के पदार्थों के बने गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन, सीप और पक्की मिट्टी मिली हैं। द्वितीय शताब्दी ई.पू. में कई नगरों में छोटे दानात्मक अभिलेख प्राप्त होते हैं। इनमें दाता के नाम के साथ-साथ प्रायः उसके व्यवसाय का भी उल्लेख होता है। इनमें नगरों में रहने वाले धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ाई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, अधिकारी, धार्मिक गुरु, व्यापारी और राजाओं के बारे में विवरण लिखे होते हैं।


उत्पादकों और व्यापारियों के संघ का उल्लेख  भी अभिलेखों से मिलता है जिन्हें “श्रेणी” कहा गया है। ये श्रेणियाँ पहले कच्चे माल को खरीदती थीं; फिर उनसे सामान तैयार कर बाजार में बेच देती थीं। शिल्पकारों ने नगर में रहने वाले संभ्रांत लोगों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कई प्रकार के लौह उपकरणों का प्रयोग किया।

उपमहाद्वीप और उसके बाहर का व्यापार :-

 छठी शताब्दी ई.पू. से ही उपमहाद्वीप में नदी मार्गों और भूमार्गों का जाल बिछ गया था और कई दिशाओं में फैल गया था। मध्य एशिया और उससे भी आगे तक भू-भाग थे। समुद्रतट पर बने कई बंदरगाहों से जलमार्ग अरब सागर से होते हुए, उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया तक फैल गया: और बंगाल की खाड़ी से यह मार्ग चीन और दक्षिणपूर्व एशिया तक फैल गया था। शासकों ने प्राय: इन मार्गों पर नियंत्रण करने की कोशिश की और संभवतः वे इन मार्गों पर व्यापारियों की सुरक्षा के बदले उनसे धन लेते थे।

व्यापारी :- 

विभिन्न मार्गों पर चलने वाले व्यापारियों में पैदल फेरी लगाने वाले व्यापारी तथा बैलगाड़ी और घोड़े-खच्चरों जैसे जानवरों के दल के साथ चलने वाले व्यापारी होते थे। साथ ही समुद्री मार्ग से भी लोग यात्रा करते थे जो खतरनाक तो थी, लेकिन बहुत लाभदायक भी होती थी। तमिल भाषा में “मसत्थुवन” और “प्राकृत” में “सत्थवाह” और “सेट्ठी” के नाम से प्रसिद्ध सफल व्यापारी बड़े धनी हो जाते थे।
नमक, अनाज, कपड़ा, धातु और उससे निर्मित उत्पाद, पत्थर, लकड़ी, जड़ी-बूटी जैसे अनेक प्रकार के सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाए जाते थे। रोमन साम्राज्य में काली मिर्च, जैसे मसालों तथा कपड़ों व जड़ी-बूटियों की भारी माँग थी। इन सभी वस्तुओं को अरब सागर के रास्ते भूमध्य क्षेत्र तक पहुँचाया जाता था।

सिक्के और राजा :-

 व्यापार के लिए सिक्के के प्रचलन से विनिमय कुछ हद तक आसान हो गया था।

आहत सिक्के :- 

चाँदी और ताँबे के आहत सिक्के छठी शताब्दी ई.पू. सबसे पहले ढाले गए और प्रयोग में आए। पूरे उपमहाद्वीप में खुदाई के दौरान इस प्रकार के सिक्के मिले हैं। आहत सिक्के पर बने प्रतीकों के मौर्य वंश जैसे राजवंशों के प्रतीकों के समान होने से पता चला कि इन सिक्कों को राजाओं ने जारी किया था। यह संभवत: व्यापारियों, धनपतियों और नागरिकों ने इस प्रकार के कुछ सिक्के जारी किए।

2. शासकों की प्रतिमा और नाम लिखे सिक्के :- 

शासकों की प्रतिमा और नाम के साथ सबसे पहले सिक्के “हिंद-यूनानी” शासकों ने जारी किए थे जिन्होंने द्वितीय शताब्दी ई. में उपमहाहीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित किया था।

3. कुषाण शासकों द्वारा जारी सिक्के :- 

सोने के सिक्के बड़े पैमाने पर प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण राजाओं ने जारी किए थे। इनके आकार और वजन तत्कालीन रोमन सम्राटों तथा ईरान के पार्थियन शासकों द्वारा जारी सिक्कों के बिलकुल समान थे। उत्तर और मध्य भारत के कई पुरास्थलों पर ऐसे सिक्के मिले हैं। सोने के सिक्कों के व्यापक प्रयोग से संकेत मिलता है कि बहुमूल्य वस्तुओं और भारी मात्रा में वस्तुओं का विनिमय किया जाता था। इसके अलावा, दक्षिण भारत के अनेक पुरास्थलों से बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि व्यापारिक तंत्र राजनीतिक सीमाओं से बँधा नहीं था क्योंकि दक्षिण भारत रोमन साम्राज्य के अंतर्गत न होते हुए भी व्यापारिक दृष्टि से रोमन सामान्य से संबंधित था।

4. यौधेय कबायली गणराज्यों द्वारा जारी सक्के :- 

पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों के यौधेय (प्रथम शताब्दी ई.) कबायली गणराज्यों ने भी सिक्के जारी किए थे।पुराविदों को यौधेय शासकों द्वारा जारी ताँबे के सिक्के हजारों की संख्या में मिले हैं जिनसे यौधेयों की व्यापार में रुचि और सहभागिता परिलक्षित होती है।

5. गुप्त शासकों द्वारा जारी सोने के भव्य सिक्के :- 

सोने के सबसे भव्य सिक्कों में से कुछ गुप्त शासकों ने जारी किए। इनके आंरभिक सिक्कों में प्रयुक्त सोना अति उत्तम था। सिक्कों के माध्यम से दूर देशों से व्यापार-विनिमय करने में आसानी होती थी जिससे शासकों को भी लाभ होता था।

 सोने के सिक्कों में कमी के कारण :-

 छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के मिलने कम हो गए। इतिहासकारों द्वारा बताए भिन्न-भिन्न कारण :

  • 1. उस काल में कुछ आर्थिक संकट पैदा हो गया था।
  • 2. रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में कमी आई जिससे उन राज्यों, समुदायों और क्षेत्रों की संपन्नता पर असर पड़ा जिन्हें दूरवर्ती व्यापार से लाभ मिलता था।
  • 3. इस काल में नए नगरों और व्यापार के नवीन तंत्रों का उदय होने लगा था।
    यद्यपि इस काल के सोने के सिक्कों का मिलना तोकम हो गया लेकिन अभिलेखों और ग्रंथों में सिक्के का उल्लेख होता रहा है। सिक्के इसलिए कम मिलते हैं क्योंकि वे प्रचलन में थे और उनका किसी ने संग्रह करके नहीं रखा था।

अभिलेखों का अर्थ :-

ब्राह्मी लिपि का अध्ययन :-

 आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों का मूल “ब्राह्मी लिपि” है। ब्राह्मी लिपि का प्रयोग “असोक” के अभिलेखों में किया गया है। अट्ठारहवीं सदी से यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय पंडितों की सहायता से आधुनिक बंगाली और देवनागरी लिपि में कई पांडुलिपियों का अध्ययन शुरू किया और उनके अक्षरों की प्राचीन अक्षरों के नमूनों से तुलना शुरू की। आरंभिक अभिलेखों का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने कई बार यह अनुमान लगाया कि ये संस्कृत में लिखें हैं जबकि प्राचीनतम अभिलेख वस्तुतः प्राकृत में थे। फिर कई दशकों बाद अभिलेख वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम के बाद “जेम्स प्रिंसेप” ने असोककालीन ब्राह्मी लिपि का 1838 ई. में अर्थ निकाल लिया।

खरोष्ठी लिपि का अध्ययन :-

 पश्चिमोत्तर क्षेत्र में शासन करने वाले हिंद-यूनानी राजाओं (लगभग द्वितीय-प्रथम शताब्दी ई.पू.) द्वारा बनवाए गए सिक्कों से खरोष्ठी लिपि को जानकारी हासिल करने में आसानी हुई है। इन सिक्कों में राजाओं के नाम यूनानी और खरोष्ठी में लिखे गए हैं। यूनानी भाषा पढ़ने वाले यूरोपीय विद्वानों ने अक्षरों का मेल किया। दोनों लिपियों में “अपोलोडोटस” का नाम लिखने में एक ही प्रतीक, मान लीजिए ‘अ’ प्रयुक्त किया गया।

अभिलेखों से प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्य :-

इतिहासकारों एवं अभिलेखशास्त्रियों के काम करने के तरीके :-

1. अभिलेख लिखवाने वाले शासक का पता लगाना :-

 अशोक के अभिलेख में शासक असोक का नाम नहीं लिखा है। उसमें असोक द्वारा अपनाई गई उपाधियों का प्रयोग किया गया है। जैसे कि देवानांपिय अर्थात् देवताओं का प्रिय और ‘पियदस्सी’ यानी ‘देखने में सुन्दर’। असोक नाम अन्य अभिलेखों में मिलता है जिसमें उनकी उपाधियाँ भी लिखी हैं। इन अभिलेखों का परीक्षण करने के बाद अभिलेखशास्त्रियों ने पता लगाया कि उनके विषय, शैली, भाषा और पुरालिपिविज्ञान सबमें समानता है, अतः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन अभिलेखों को एक ही शासक ने बनवाया था।

2. अभिलेखों के कथनों की सत्यता की जाँच करना :-

 असोक ने अपने अभिलेखों में कहा है कि उनसे पहले के शासकों ने रिपोर्ट एकत्र करने की व्यवस्था नहीं की थी। असोक से पहले के उपमहाद्वीपीय इतिहास पर विचार करने पर असोक का यह वक्तव्य सही नहीं लगता। इतिहासकारों को बार-बार अभिलेखों में लिखे कथनों का परीक्षण करना पड़ता है ताकि यह पता चल सके जो उनमें लिखा है, वह सत्य है. संभव है या फिर अतिशयोक्तिपूर्ण है।

3. वाक्यों के अर्थ स्पष्ट करना :- 

अभिलेखों में कुछ शब्द ब्रेकेट में लिखे होते हैं। अभिलेख शास्त्री प्रायः वाक्यों के अर्थ स्पष्ट करने के लिए ऐसा करते हैं। यह बड़े ध्यान से करना पड़ता है जिससे कि लेखक का मूल अर्थ बदल न जाए।

4. उन स्थानों के महत्व का पता लगाना जहाँ अभिलेख उत्कीर्ण करवाए जाते हैं :-

 इतिहासकारों को और भी परीक्षण करने पड़ते हैं। यदि राजा के आदेश यातायात मागों के किनारे और नगरों के पास प्राकृतिक पत्थरों पर उत्कीर्ण थे, तो क्या वहाँ से आने-जाने वाले लोग उन्हें पढ़ने के लिए उस स्थान पर रुकते थे? अधिकांश लोग प्रायः पढ़े-लिखे नहीं थे। क्या राजा के आदेशों का पालन किया जाता था? इन प्रश्नों के उत्तर पाना सदैव आसान नहीं हैं।

5. अन्य समस्याएँ :-

 इनमें से कुछ समस्याओं के प्रमाण हमें असोक के अभिलेख में मिलते हैं जिसकी व्याख्या प्राय: असोक की वेदना के प्रतिबिंब के रूप में की जाती है। साथ ही यह युद्ध के प्रति उनकी मनोवृत्ति में परिवर्तन को भी दर्शाता है। यद्यपि असोक के अभिलेख आधुनिक उड़ीसा से प्राप्त हुए हैं लेकिन उनकी वेदना को परिलक्षित करने वाला अभिलेख वहाँ नहीं मिला है अर्थात् यह अभिलेख उस क्षेत्र में नहीं उपलब्ध है जिस पर विजय प्राप्त की गई थी। इसका अर्थ लगाना बहुत कठिन है।

अभिलेख साक्ष्य की सीमा :- 

अभिलेखों से प्राप्त जानकारी की भी सीमा होती है। कभी-कभी इसकी तकनीकी सीमा होती है: अक्षरों को हलके ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है जिन्हें पढ़ पाना मुश्किल होता है। समय के साथ काल के क्रूर थपेड़ों से अभिलेख नष्ट भी हो जाते हैं जिनसे अक्षर लुप्त हो जाते हैं।अभिलेखों के शब्दों के वास्तविक अर्थ के बारे में पूर्ण रूप से ज्ञान हो पाना सदैव सरल नहीं होता क्योंकि कुछ अर्थ किसी विशेष स्थान या समय से संबंधित होते हैं।


यद्यपि कई हजार अभिलेख प्राप्त हुए हैं लेकिन सभी के अर्थ नहीं निकाले जा सके हैं या प्रकाशित किए गए हैं या उनके अनुवाद किए गए हैं। इनके अतिरिक्त और अनेक अभिलेख रहे होंगे जो कालांतर में सुरक्षित नहीं बचे हैं। जो अभिलेख अभी उपलब्ध हैं, वह संभवत: कुल अभिलेखों के अंश मात्र हैं।


इसके अतिरिक्त एक और मौलिक समस्या है। जिसे हम आज राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं उन्हें अभिलेखों में अंकित किया ही गया हो उदाहरण के तौर पर, खेती की दैनिक प्रक्रियाएँ और रोजमर्रा की जिंदगी के सुख-दुख का उल्लेख अभिलेखों में नहीं मिलता है क्योंकि प्राय: अभिलेख बड़े और विशेष अवसरों का वर्णन करते हैं। इसके अलावा अभिलेख हमेशा उन्हीं व्यक्तियों के विचार व्यक्त करते हैं जो उन्हें बनवाने थे। अर्थात् राजनीतिक और आर्थिक इतिहास का पूर्ण ज्ञान मात्र अभिलेख शास्त्र से ही नहीं मिलता है।


उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में और बीसवीं सदी के प्रारंभ में इतिहासकार प्रमुख रूप से राजाओं के इतिहास में रुचि रखते थे।बीसवीं सदी के मध्य से आर्थिक परिवर्तन, विभिन्न सामाजिक समुदायों के उदय के विषय में महत्वपूर्ण बन गए। हाल के दशकों में ऐसे समुदायों के प्रति इतिहासकारों की रुचि बड़ी है जो सामाजिक हाशिए पर रहे हैं।इससे संभवतः प्राचीन स्रोतों पर पुनर्विचार किया जाएगा और विश्लेषण की नयी विधियाँ विकसित होगी।

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