इन हिंदी नोट्स के साथ NCERT भूगोल के ‘संसाधन एवं विकास‘ अध्याय में महारत हासिल करें! इस सरल PDF में Class 10 Geography वर्गीकरण, विकास, और संसाधन नियोजन के बारे में विस्तृत जानकारी शामिल है। भूमि, मृदा, जल – भारत में प्रमुख संसाधनों की गहन समझ प्राप्त करें। आज ही मुफ्त में डाउनलोड करें!
Table of Contents
Textbook | NCERT |
Class | Class 10 |
Subject | Geography |
Chapter | Chapter 1 |
Chapter Name | संसाधन एवं विकास |
Category | Class 10 Geography Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
यह अध्याय CBSE,RBSE,UP Board(UPMSP),MP Board, Bihar Board(BSEB),Haryana Board(BSEH), UK Board(UBSE),बोर्ड परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, और यह उन छात्रों के लिए भी उपयोगी है जो प्रतियोगी परीक्षाओं(UPSC) की तैयारी कर रहे हैं।
Class 10 भूगोल Chapter 1 संसाधन एवं विकास Notes in hindi
सामाजिक विज्ञान (भूगोल) अध्याय-1: संसाधन एवं विकास
साधन / Resource
पर्यावरण में उपलब्धता: साधन वे समस्त प्राकृतिक और नैसर्गिक संसाधन हैं जो हमें अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं। इनमें वायु, जल, भूमि, ऊर्जा सहित विभिन्न प्रकार की वस्तुएं शामिल होती हैं।
प्रौद्योगिकी का उपयोग: साधन को बनाने और प्रयोग करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग होता है। यह तकनीकी, वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान का उपयोग करता है ताकि संसाधनों को सही तरीके से उपयोग किया जा सके।
आर्थिक और सांस्कृतिक महत्व: साधन का उपयोग आर्थिक और सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे आर्थिक प्रगति होती है और समाज में सांस्कृतिक विविधता बढ़ती है।
संसाधनों का वर्गीकरण / Classification of resources
उत्पत्ति के आधार पर:
जैव और अजैव: यह वर्गीकरण संसाधनों के उत्पादन में उनकी प्राकृतिकता के आधार पर होता है। जैव संसाधन जैसे कि जल, जमीन, वनस्पति और जीवाणु आदि प्राकृतिक होते हैं, जबकि अजैव संसाधन जैसे कि ऊर्जा स्रोत (ऊर्जा संसाधन), खनिज, और अवशेष उत्पाद (यानि, कचरा) उनकी प्राकृतिकता से अलग होते हैं।
समाप्यता के आधार पर:
नवीकरण योग्य और अनवीकरण योग्य: संसाधनों के उपयोग की विशेषता के आधार पर इस वर्गीकरण को किया जाता है। नवीकरण योग्य संसाधनें जिनका उपयोग किया जा सकता है, निरंतर बदलते रहते हैं, जबकि अनवीकरण योग्य संसाधनें एक बार उपयोग किये जाने के बाद पुनः प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं।
स्वामित्व के आधार पर:
व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय: यह वर्गीकरण संसाधनों के स्वामित्व के आधार पर होता है। व्यक्तिगत संसाधन व्यक्तियों के मालिकाना होते हैं, सामुदायिक संसाधन समुदाय के सदस्यों के साझा की जाती हैं, जबकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संसाधन संबंधित राष्ट्र के सरकार या अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से काब्ज़े में होते हैं।
विकास के स्तर के आधार पर:
संभावी, संभावी विकसित भंडार और संचित कोष: इस वर्गीकरण में संसाधनों के विकास के स्तर के आधार पर उन्हें वर्गीकृत किया जाता है। “संभावी” संसाधनें जो आत्मा विकास के संरूप होती हैं, “संभावी विकसित भंडार” जिन्हें विकसित किया जा सकता है और “संचित कोष” जो पहले से ही उपलब्ध होते हैं।
उत्पत्ति के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण
Classification of resources on the basis of origin
- जैव संसाधन:- ऐसे संसाधन जो हमें जीवमंडल से प्राप्त होते हैं, एवं जिनमें जीवन है जैव संसाधन कहलाते हैं।
उदाहरण: मानव, पशु, पौधे, और जीवाणुओं के अलावा अन्य जीवों से प्राप्त किये जाने वाले संसाधन।
- जैव संसाधन:- वे सभी संसाधन जो निर्जीव वस्तुओं से बने हैं, अजैव संसाधन कहलाते हैं।
उदाहरण: चट्टानें, धातुएं, पेट्रोलियम, बिजली, और जलसंसाधन।
समाप्यता के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण
Classification of resources on the basis of exhaustibility
- नवीकरणीय संसाधन: ये संसाधन विभिन्न भौतिक, रासायनिक, या यांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से पुनः उपयोगी बनाया जा सकता है।
उदाहरण: वायु और जल, जो प्रदूषण के लिए शुद्ध किया जा सकता है और पुनः उपयोग में लाया जा सकता है।
- अनवीकरणीय संसाधन: ये संसाधन हैं जिन्हें एक बार उपयोग के बाद पुनः उपयोग में लाना असंभव है।
उदाहरण: खनिज धातु, जो एक बार उच्च गुणवत्ता धातु के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं, लेकिन फिर उनका पुनः उपयोग नहीं हो सकता।
स्वामित्व के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण
Classification of resources on the basis of ownership
- व्यक्तिगत संसाधन:
ये संसाधन उन्हें कहते हैं जिनका स्वामित्व निजी व्यक्तियों के पास होता है।
उदाहरण: किसान की जमीन, घर, आदि।
- सामुदायिक संसाधन:
इन संसाधनों का उपयोग समुदाय के सभी लोग करते हैं।
उदाहरण: सामुदायिक नहरें, पानी की खाद्य संस्थाएँ, आदि।
- राष्ट्रीय संसाधन:
इन संसाधनों को वह संसाधन कहा जाता है जो किसी राष्ट्र की भौगोलिक सीमा के भीतर मौजूद होते हैं।
उदाहरण: राष्ट्रीय पार्क, नेशनल हाईवे, आदि।
- अंतर्राष्ट्रीय संसाधन:
ये संसाधन वह हैं जिनका उपयोग एक देश से बाहर के विभिन्न देशों द्वारा किया जाता है और उनका प्रबंधन अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की निगरानी में होता है।
उदाहरण: अंतर्राष्ट्रीय जल संधि, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन, आदि।
विकास के स्तर के आधर पर संसाधनों का वर्गीकरण
Classification of resources on the basis of level of development
संभावी संसाधन:
ये संसाधन उन्हें कहलाते हैं जो किसी प्रदेश में विद्यमान हैं, परंतु उनका उपयोग नहीं किया गया है।- उदाहरण: सौर ऊर्जा, बारिश से संचित जल, आदि।
विकसित संसाधन:
इन संसाधनों का उपयोग की गुणवत्ता और मात्रा निर्धारित की गई है।- उदाहरण: पानी की सफाई के लिए निर्मित जलशोधन प्लांट, ऊर्जा संयंत्र, आदि।
भंडारित संसाधन:
ये संसाधन पर्यावरण में उपलब्ध हैं, परंतु इनका उपयोग अभी प्रौद्योगिकी के अभाव में मानव की पहुंच से बाहर है।- उदाहरण: हैड्रोजन, मिट्टी में निहित खनिज, आदि।
संचित संसाधन:
इन संसाधनों का उपयोग तकनीकी ज्ञान के उपयोग से प्रयोग में लाया जा सकता है, परंतु इनका उपयोग अभी आरंभ नहीं हुआ है।- उदाहरण: जैविक ऊर्जा, नवीनतम ऊर्जा संचार तकनीक, आदि।
संसाधनों का विकास / Development of resources
मानव अस्तित्व और संसाधन:
संसाधन मानव अस्तित्व के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
परंतु, संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग से कई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
मुख्य समस्याएँ:
- संसाधनों का ह्रास: कुछ व्यक्तियों के लालचवश संसाधनों का ह्रास हो रहा है।
- समाज में असमान बँटवारा: संसाधन समाज के कुछ ही लोगों के हाथ में आ गए हैं, जिससे समाज दो हिस्सों में विभाजित हो गया है।
- वैश्विक संकट: संसाधनों के अंधाधुंध शोषण से वैश्विक संकट पैदा हो रहा है, जैसे भूमंडलीय तापन, ओजोन परत का अवक्षय, पर्यावरण प्रदूषण, भूमि निम्नीकरण आदि।
संसाधनों का न्यायसंगत बँटवारा:
मानव जीवन की गुणवत्ता और वैश्विक शांति के लिए, समाज में संसाधनों का न्यायसंगत बँटवारा अत्यंत आवश्यक है।
सतत् पोषणीय विकास / Sustainable Development
संसाधनों का ऐसा विवेकपूर्ण प्रयोग ताकि न केवल वर्तमान पीढ़ी की अपितु भावी पीढ़ियों की आवश्यकताएं भी पूरी होती रहें, सतत् पोषणीय विकास कहलाता है।
यह अभिप्रेत है कि संसाधनों का उपयोग इस प्रकार किया जाए कि वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को भी पूरा किया जा सके। इससे सामाजिक और आर्थिक सुधार होता है, जो एक साथ ही समृद्धि और समाज की समृद्धि को सुनिश्चित करता है।
एजेंडा 21 / Agenda 21
विवरण:
1992 में ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन के तत्वाधान में राष्ट्राध्यक्षों ने एजेंडा 21 पारित किया। इस एजेंडा का मुख्य उद्देश्य था विश्व सहयोग के द्वारा पर्यावरणीय क्षति, गरीबी और रोगों से निपटना।
मुख्य उद्देश्य:
एजेंडा 21 का मुख्य उद्देश्य था समान हितों, पारस्परिक आवश्यकताओं और सम्मिलित जिम्मेदारियों के अनुसार विश्व सहयोग के माध्यम से पर्यावरणीय क्षति, गरीबी और रोगों से निपटना।
महत्व:
- विश्व सहयोग: एजेंडा 21 ने विश्व सहयोग को बढ़ावा दिया ताकि पर्यावरणीय मुद्दों का समाधान हो सके।
- सामाजिक न्याय: इसने सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए भी कार्य किया।
- विकास का समर्थन: यह विकास को समर्थन देने के लिए अद्यतन और संशोधन किया।
संसाधन नियोजन / Resource Planning
परिभाषा:
संसाधन नियोजन एक प्रकार का उपाय या तकनीक है जिसके द्वारा संसाधनों का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है।
भारत में संसाधन नियोजन:
प्राथमिकता:
संसाधनों के सही और समुचित उपयोग के लिए, योजना बनाते समय टेक्नॉलोजी, कौशल, और संस्थागत बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
प्रथम पंचवर्षीय योजना:
भारत में संसाधन नियोजन का आरंभ प्राथमिक पंचवर्षीय योजना के साथ ही हुआ।
मुख्य बिंदु:
- संसाधनों की पहचान: पूरे देश के विभिन्न प्रदेशों के संसाधनों की पहचान कर उनकी तालिका बनाई जाती है।
- कौशल और टेक्नॉलोजी का इस्तेमाल: उपयुक्त कौशल, टेक्नॉलोजी, और संस्थागत ढाँचे का सही इस्तेमाल करते हुए नियोजन ढाँचा तैयार किया जाता है।
- संसाधन नियोजन और विकास नियोजन के बीच सही तालमेल: संसाधन नियोजन और विकास नियोजन के बीच सही तालमेल बैठाया जाता है ताकि उनका संगठन और प्रयोग सुगम और प्रभावी हो।
संसाधन संरक्षण / Resource Conservation
परिभाषा:
संसाधन संरक्षण का अर्थ है संसाधनों का उचित प्रबंधन ताकि जल, भूमि, वनस्पति, और मृदा का इस प्रकार से प्रयोग किया जाए कि भावी पीढ़ी की जरूरतों का भी ख्याल रखा जा सके।
महत्व:
संसाधन संरक्षण महत्वपूर्ण है क्योंकि यह समृद्धि और सामर्थ्यशाली भविष्य के लिए आवश्यक है।
यह सामाजिक, आर्थिक, और पर्यावरणीय समृद्धि को बनाए रखने में मदद करता है।
कदम:
- जल संरक्षण: जल संसाधन के उपयोग में प्रतिबद्धता, जल संचयन, और जल संवारण को बढ़ावा देना।
- भूमि संरक्षण: अवैध वनस्पति उत्पादन, भूमि संरक्षण के कारणों का नियंत्रण, और शिक्षा कार्यक्रम के माध्यम से सार्वजनिक जागरूकता को बढ़ाना।
- वनस्पति संरक्षण: वन्यजीव संरक्षण, वृक्षारोपण, और वन्यजीव संरक्षण के कार्यक्रमों का समर्थन करना।
- मृदा संरक्षण: मृदा संरक्षण के लिए उपयोग की जाने वाली उपयुक्त खेती तकनीकों को प्रोत्साहित करना।
भू – संसाधन / Earth resources
परिभाषा:
भूमि एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है जो विभिन्न उपयोगों के लिए आधार बनती है।
महत्व:
भूमि प्राकृतिक वनस्पति, वन्य – जीवन, मानव जीवन, आर्थिक क्रियाएँ, परिवहन, और संचार व्यवस्थाओं के लिए महत्वपूर्ण है।
यह समृद्धि और विकास के लिए आवश्यक है।
संरक्षण:
भूमि एक सीमित संसाधन है, इसलिए हमें इसका सावधानीपूर्वक उपयोग करना चाहिए।
अवैध भूमि का विकास और अनुधान रोकने के लिए विभिन्न कदम उठाने चाहिए।
भूमि के उपयोग में जल, जलवायु, और वनस्पति संरक्षण को प्राथमिकता देनी चाहिए।
भारत में भूमि – संसाधन / Land resources in India
मैदान क्षेत्र:
लगभग 43 प्रतिशत भू – क्षेत्र मैदान हैं, जो कृषि और उद्योग के विकास के लिए उपयुक्त हैं।
पर्वतीय क्षेत्र:
लगभग 30 प्रतिशत भू – क्षेत्र पर विस्तृत रूप से पर्वत स्थित हैं।
इन पर्वतों में बारहमासी नदियों का प्रवाह होता है जो कृषि के लिए महत्वपूर्ण हैं।
ये क्षेत्र पारिस्थितिकी, पर्यटन, और वन्यजीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं।
पठारी क्षेत्र:
लगभग 27 प्रतिशत हिस्सा पठारी क्षेत्र है।
यहां खनिज, जीवाश्म ईंधन, और वनों का अपार संचय है।
भू – उपयोग / Land use
परिभाषा:
भौगोलिक प्रक्रिया जिसे अनुसार भूमि का प्रयोग विभिन्न आर्धिक गतिविधियों के लिए किया जाता है, भू – उपयोग कहलाता है।
तत्व:
- वन: पेड़ों से आच्छदित एक विशाल क्षेत्र होता है जो वन के रूप में प्रयोग किया जाता है।
- कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि: बंजर तथा कृषि अयोग्य भूमि जो इमारतें, सड़कें, उद्योगों आदि के लिए प्रयोग में लाई जाती है।
- परती भूमि: वर्तमान परती जहां कृषि एक वर्ष से कम समय खेती नहीं की गई हो।
- अन्य परती: अन्य परती जहां 1-5 वर्षों तक कोई खेती नहीं की गई हो।
- अन्य कृषि योग्य भूमि: इसमें स्थाई चरागाहें और अन्य गदोचर भूमि शामिल होती है, जिस पर विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं।
- शुद्ध बोया गया क्षेत्र: एक कृषि वर्ष में एक बार से अधिक बोए गए क्षेत्र को शुद्ध बोया गया क्षेत्र कहा जाता है।
भारत में भू – उपयोग प्रारूप के प्रकार / Types of land use patterns in India
भू – आकृति:
इसमें भूमि के प्राकृतिक आकार, जलवायु, जलस्रोत, पहाड़ी, मैदान, नदियाँ, झीलें, आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
मृदा जलवायु:
भूमि की मृदा और जलवायु उपयोग के लिए महत्वपूर्ण होती है। उचित मृदा और उचित जलवायु उपलब्ध होना आवश्यक है ताकि उचित उपयोग हो सके।
मानवीय कारक:
जनसंख्या घनत्व, आबादी की संरचना, प्रौद्योगिक क्षमता, लोगों की संस्कृति और परंपराएँ भू – उपयोग के प्रारूप को प्रभावित करते हैं।
भू – निम्नीकरण के कारण / Reasons for land degradation
खनन:
खनन कार्यों के लिए भूमि का अधिक उपयोग किया जाता है, जिससे भूमि की निम्नीकरण होता है। खनिज खनन के लिए भूमि की अधिकतम शोध की जाती है, जो भूमि की संतुलन और प्राकृतिक संस्थितियों को प्रभावित करता है।
अतिचारण:
अतिचारण भूमि के पौधों, वनस्पतियों, या अन्य प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग है। यह अक्सर जल, मृदा और वायु प्रदूषण का कारण बनता है और भूमि की उपयोगिता को कम करता है।
अतिसिंचाई:
अतिसिंचाई से भूमि की पानी की स्तर में वृद्धि होती है, जिससे भूमि का स्थायित्व प्रभावित होता है। इससे भूमि की संरचना बिगड़ती है और जल अभाव की समस्या पैदा हो सकती है।
औद्योगिक प्रदूषण:
औद्योगिक कारखानों, उद्योगिक क्षेत्रों, और विभिन्न उद्यमों से निकलने वाले प्रदूषण मानव और प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावित करते हैं, जिससे भूमि की गुणवत्ता कम हो जाती है।
वनोन्मूलन:
वनों का अत्यधिक कटाव, वनों की नष्टि और अवैध वनों का उपयोग भूमि के संरचनात्मक और पर्यावरणीय संतुलन को प्रभावित करता है। यह भूमि की प्राकृतिक संस्थितियों को बिगाड़ता है और जलवायु परिवर्तन का कारण बनता है।
भूमि संरक्षण के उपाए / Land conservation measures
वनारोपण:
वनारोपण भूमि पर वनस्पतियों के निर्माण और पुनर्नवीकरण की प्रक्रिया है। यह जलवायु और पारिस्थितिकी की संतुलन को बनाए रखने में मदद करता है और जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद कर सकता है।
पशुचारण नियंत्रण:
पशुचारण और चारा प्रबंधन के उपायों का अनुपालन करने से भूमि संरक्षण किया जा सकता है। यह प्राकृतिक बायोडिवर्सिटी को संरक्षित रखने में मदद करता है और भूमि की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
रक्षक मेखला:
रक्षक मेखला का उपयोग भूमि की रक्षा के लिए किया जाता है। इससे भूमि पर अवैध प्रवेश और अतिचारण को रोका जा सकता है, जिससे भूमि की सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण होता है।
खनन नियंत्रण:
खनन क्षेत्रों में नियंत्रण के माध्यम से, भूमि के उपयोग को समायोजित किया जा सकता है ताकि इसका प्रभाव मिनिमम हो। इससे खनन के प्रभावों को कम किया जा सकता है और प्राकृतिक संसाधनों की हानि से बचा जा सकता है।
औद्योगिक जल का परिष्करण:
औद्योगिक जल का परिष्करण भूमि संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। इससे उद्योगिक प्रदूषण को कम किया जा सकता है और प्राकृतिक जल स्रोतों को सुरक्षित रखने में मदद मिलती है।
मृदा संसाधन / Soil Resources
मृदा एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। मिट्टी में ही खेती होती है। मिट्टी कई जीवों का प्राकृतिक आवास भी है।
मृदा का निर्माण / Formation of soil
मिट्टी के निर्माण की धीमी प्रक्रिया:
मिट्टी का निर्माण एक धीमी प्रक्रिया होती है जिसमें हजारों वर्षों का समय लगता है। इसके दौरान शैलों के अपघटन, पानी का बहाव, पवन और अन्य प्राकृतिक कारकों का सहयोग होता है।
शैलों के अपघटन क्रिया:
मृदा का निर्माण शैलों के अपघटन क्रिया से होता है। जब पाथरों या शैलों के टुकड़े धीमी गति से उपघाटित होते हैं, तो यह मिट्टी के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं।
प्राकृतिक कारकों की भूमिका:
मृदा के निर्माण में तापमान, पानी का बहाव, पवन और अन्य प्राकृतिक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ये कारक मिट्टी की संरचना और गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।
भौतिक और रासायनिक परिवर्तनों का योगदान:
मृदा के निर्माण में भौतिक और रासायनिक परिवर्तनों का योगदान होता है। ये परिवर्तन धरातल की संरचना और गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं और मिट्टी की उपयोगिता को निर्धारित करते हैं।
मृदा के प्रकार / Types of soil
जलोढ़ मृदा
काली मृदा
वन मृदा
मरूस्थलीय मृदा
लेटराइट मृदा
जलोढ़ मृदा / Alluvial soil
क्षेत्रफल पर पाई जाने वाली मृदा:
भारत में लगभग 45 प्रतिशत क्षेत्रफल पर जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
पोटाश की बहुलता:
इस मृदा में पोटाश की बहुलता होती है, जो उपजाऊता में मदद करती है।
नदी तंत्रों के द्वारा विकसित:
सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी तंत्रों द्वारा विकसित हैं और इन नदियों के तटीय क्षेत्रों में जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
विभिन्न अनुपातों में रेत, सिल्ट और मृत्तिका:
इस मृदा में रेत, सिल्ट और मृत्तिका के विभिन्न अनुपात पाए जाते हैं, जो खेती के लिए उपयुक्त होते हैं।
पुरानी और नई जलोढ़:
इस मृदा को आयु के आधार पर पुरानी जलोढ़ (बांगर) और नई जलोढ़ (खादर) में विभाजित किया जा सकता है।
उपजाऊ फसलों के लिए उपयोगी:
जलोढ़ मृदा बहुत उपजाऊ होती है और गन्ना, चावल, गेहूं आदि फसलों के लिए उपयोगी होती है।
काली मृदा / Black soil
रेगर मृदा:
काली मृदा को रेगर मृदा भी कहा जाता है।
उपस्थिति:
इसमें टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट और जीवांश की उपस्थिति होती है।
निर्माण कारण:
यह मृदा बेसाल्ट चट्टानों के टूटने और फूटने के कारण निर्मित होती है।
धातु की बहुलता:
इसमें आयरन, चूना, एल्युमीनियम और मैग्नीशियम की बहुलता होती है।
खेती के लिए उपयुक्तता:
काली मृदा कृषि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है, विशेष रूप से कपास की खेती के लिए।
प्रमुख क्षेत्र:
यह मृदा महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठारों में पाई जाती है।
लाल एवं पीली मृदा / Red and yellow soil
रंग का कारण:
इन मृदाओं में लोहे के कणों की अधिकता होती है, जिसके कारण मिट्टी का रंग लाल या पीला होता है।
मिट्टी की प्रकृति:
ये मृदाएं अम्लीय प्रकृति की होती हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ सकती है।
चूने का इस्तेमाल:
इन मृदाओं में चूने के इस्तेमाल से उर्वरता को बढ़ाया जा सकता है।
प्रमुख क्षेत्र:
लाल और पीली मृदा उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा के मैदान, गारो, खासी, और जयंतिया पहाड़ों पर पाई जाती है।
लेटराइट मृदा / Laterite soil
तापमान और वर्षा:
यह मृदा उच्च तापमान और अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है।
निक्षेत्रण की प्रक्रिया:
भारी वर्षा से अत्यधिक निक्षालन का परिणाम रूप में यह मृदा बनती है।
उपयोगिता:
चाय और काजू के लिए इस मृदा का उपयोग किया जाता है।
प्रमुख क्षेत्र:
यह मृदा कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, और असम के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होती है।
मरूस्थलीय मृदा / Desert soil
रंग और संरचना:
यह मृदा लाल और भूरे रंग की होती है।
इसकी संरचना रेतीली और लवणीय होती है।
जलवायु तथा तापमान:
यह मृदा शुष्क जलवायु और उच्च तापमान के क्षेत्रों में पाई जाती है।
जल वाष्पन की दर इस मृदा में अधिक होती है।
ह्यूमस और नमी:
इस मृदा में ह्यूमस और नमी की मात्रा कम होती है।
सिंचाई प्रबंधन:
उपजाऊता को बढ़ाने के लिए, उचित सिंचाई प्रबंधन द्वारा मरूस्थलीय मृदा को उपजाऊ बनाया जा सकता है।
पहाड़ी पद ( पीडमाऊँट जोन ) / Hilly Zone (Piedmount Zone)
परिभाषा:
पहाड़ी पद या पीडमाऊँट जोन एक क्षेत्र है जो किसी पर्वत या पर्वत श्रृंखला के तल पर स्थित होता है। यह क्षेत्र अक्सर जलवायु में शीतलता, वनस्पति और जीवन की विविधता के लिए प्रसिद्ध होता है।
विशेषताएं:
- स्थान: पहाड़ी पद किसी पर्वत श्रृंखला के तल पर स्थित होता है। यह क्षेत्र उच्च ऊँचाई पर स्थित होता है लेकिन पर्वतों की ऊँचाई से कम होता है।
- जलवायु: पहाड़ी पद की जलवायु अक्सर शीतल और मिल्ड होती है। यहाँ पर बर्फ, बारिश और धुंध की बारिश होती है।
- वनस्पति और जीवन: इस क्षेत्र में वनस्पति और जीवन की विविधता होती है। यहाँ पर वन्यजीवन, वन्यप्राणियों, और विभिन्न प्रकार की पौधों की प्रजातियों को देखा जा सकता है।
- प्रमुखता: पहाड़ी पद का मुख्यतः पर्यावरणीय और पर्यटनिक महत्व होता है। यहाँ पर पर्वतारोहण, प्राकृतिक सौंदर्य, और प्राकृतिक वातावरण का आनंद लिया जा सकता है।
उदाहरण:
पश्चिमी घाट, हिमालय, आदि।
दक्कन ट्रैप / Deccan Trap
परिभाषा:
दक्कन ट्रैप एक प्रायद्वीपीय पठार का काली मृदावाला क्षेत्र है जो भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित है। इसका निर्माण लावा मिट्टी के द्वारा हुआ है। यह क्षेत्र अप्रत्याशित प्राकृतिक सौंदर्य और उपजाऊ माटी के लिए प्रसिद्ध है।
विशेषताएं:
- भूमिरेखा: दक्कन ट्रैप क्षेत्र भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य भाग में स्थित है। यह उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 1500 किलोमीटर तक फैला हुआ है।
- मृदा: इस क्षेत्र में काली मृदा की अधिकता होती है, जो अत्यधिक उपजाऊ होती है और कपास की खेती के लिए उपयुक्त होती है।
- भूमि: दक्कन ट्रैप क्षेत्र अप्रत्याशित प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यहाँ पर प्राकृतिक परिसर, नदियाँ, झरने, और गहरी घाटियों का दृश्य मनमोहक होता है।
- जलवायु: इस क्षेत्र की जलवायु अक्सर उष्ण होती है, और यहाँ पर समय-समय पर मौसमी बदलाव होते रहते हैं।
- उपयोग: दक्कन ट्रैप क्षेत्र में कपास, ज्वार, बाजरा, गेहूं, और धान जैसी फसलों की खेती की जाती है। इसके अलावा, यहाँ पर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लिया जा सकता है और पर्यटन विकास के लिए यहाँ कई जगह उपलब्ध हैं।
वन मृदा / Forest soil
परिभाषा:
वन मृदा वह मृदा है जो पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता है और जो वनस्पतियों की गर्भित और संजीवनीय विशेषताओं के कारण विशेष महत्व रखता है।
विशेषताएं:
- स्थान: वन मृदा पर्वतीय क्षेत्रों में पायी जाती है, जैसे कि हिमालय, अरावली, वेस्टर्न घाट्स, इत्यादि।
- गठन और संरचना: इस मृदा का गठन पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार होता है और यहाँ पर प्राकृतिक तत्वों के प्रभाव से विविधता होती है।
- मृदा का प्रकार: वन मृदा अक्सर नदी घाटियों में पायी जाती है और यहाँ पर दोमट और सिल्टदार मृदा पाये जाते हैं।
- गुणवत्ता: वन मृदा अधिसिलक और ह्यूमस रहित होती है, जिससे यह रेतीली और जल सुष्क मृदा होती है।
- उपयोग: वन मृदा वनस्पतियों के लिए उपयुक्त होती है और वनों की गर्भितता, जलसंचरण, और पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अलावा, यह मृदा वनों की संरक्षा और प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
खादर एवं बांगर में अंतर / Difference between Khadar and Bangar
खादर | बांगर |
नवीन जलोढ़ मृदा। | प्राचीन जलोढ़ मृदा। |
अधिक बारीक व रेतीली। | कंकड़ व कैल्शियम कार्बोनेट। |
बार – बार नवीकरण संभव | बार – बार नवीकरण नहीं। |
नदी के पास डेल्टा तथा बाढ़ निर्मित मैदानों में पाई जाती है। | नदी से दूर ऊँचे स्तर पर पाई जाती है। |
मृदा अपरदन / Soil erosion
मृदा अपरदन एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रतिक्रिया को दर्शाती है। इस प्रक्रिया में मृदा का अधिक से अधिक भाग कटा जाता है और वह अन्य स्थानों पर बहाया जाता है।
मृदा अपरदन के कारण:-
- वनोन्मूलन: वनों के कटाव और उनके परिवर्तन से मृदा का अपरदन होता है।
- अति पशुचारण: अधिक पशुओं के ग्रामीण क्षेत्रों में पालन से मृदा की उपयोगिता का अतिक्रमण होता है और इससे मृदा का अपरदन होता है।
- निर्माण और खनन प्रक्रिया: बड़े परियोजनाओं के निर्माण और खनन कार्यों से मृदा का अपरदन होता है।
- प्राकृतिक तत्वों का प्रभाव: पतन, हिमनदी, जल आदि प्राकृतिक प्रक्रियाओं से मृदा का अपरदन हो सकता है।
- कृषि के गलत तरीके: अशोचित जुताई और अन्य गलत कृषि तकनीकों से मृदा का अपरदन हो सकता है।
- पवन का प्रभाव: ऊर्जा के जलने के कारण, मृदा को उड़ा ले जाना भी मृदा का अपरदन का कारण बन सकता है।
मृदा अपरदन के समाधान / Solutions to soil erosion
ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के समानांतर हल चलाने से: इस समाधान में, ढाल वाली भूमि पर खेती करते समय समोच्च रेखाओं के समानांतर हल चलाकर भूमि को बचाया जा सकता है। इससे भूमि में जल अवशोषण में सुधार होता है और अपरदन कम होता है।
ढाल वाली भूमि पर सीढ़ी बनाकर खेती करने से: इस समाधान में, ढाल वाली भूमि पर सीढ़ी बनाकर खेती की जा सकती है, जिससे भूमि का अपरदन कम होता है और उत्पादकता बढ़ती है।
बड़े खेतों को पट्टियों में बांटकर फसलों के बीच में धास की पट्टी उगाकर: इस समाधान में, बड़े खेतों को छोटे-छोटे पट्टियों में विभाजित करके फसलों के बीच में धास की पट्टियाँ उगाकर मृदा का अपरदन कम किया जा सकता है।
खेत के चारों तरफ पेड़ों को कतार में लगातार एक मेखला बनाना: इस समाधान में, खेत के चारों तरफ पेड़ों को कतार में लगाकर एक मेखला बनाया जा सकता है, जो मृदा को अपरदन से बचाता है और खेत की भूमि को स्थिरता प्रदान करता है।
वनोन्मूलन को नियंत्रित करना: अन्य विकास कार्यों के साथ-साथ वनों के कटाव को नियंत्रित करना मृदा अपरदन को कम करने में मदद कर सकता है।
अति पशुचारण को नियंत्रित करना: अति पशुचारण को नियंत्रित करके भूमि को सुरक्षित रखा जा सकता है और मृदा के अपरदन को कम किया जा सकता है।
अवनलिकाएँ / Downpipes
अवनलिकाएँ उन गहरी वाहिकाओं को कहते हैं जो बहते हुए जल मृत्तिकायुक्त मृदाओं को काटते हैं। ये गहरी वाहिकाएं मृदा अपरदन को रोकती हैं और जल वाहिकाओं को प्रणालीबद्ध रूप से निकालती हैं। अवनलिकाएँ खेतों में जल संचार को बढ़ावा देती हैं और मृदा को निर्यात करने में मदद करती हैं। इसके अलावा, ये जल संचार को सुधारकर भूमि की उपजाऊता को बढ़ाती हैं। अवनलिकाएँ खेती क्षेत्रों में जल प्रवाह को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और उत्पादकता को बढ़ाती हैं।
उत्खात भूमि / Excavated land
उत्खात भूमि वह भूमि है जो कृषि या अन्य उपयोगों के लिए जोतने योग्य नहीं होती है। ये भूमि में अकारणीय रूप से पत्थर, चट्टान, या अन्य अविकसित कचरे हो सकते हैं, जिससे उसे जोतने या कृषि के उद्यानों के रूप में उपयोग करना मुश्किल होता है। उत्खात भूमि को सामान्यतः अन्य उपयोगों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है, लेकिन यह विभिन्न प्राकृतिक या वाणिज्यिक कार्यों के लिए उपयोगी हो सकती है जैसे कि माइनिंग, शिलाई, या अन्य उद्योग।
खड्ड भूमि / Ravine land
खड्ड भूमि वह भूमि होती है जो चंबल बेसिन में पाई जाती है। यह भूमि चंबल नदी के किनारे पायी जाती है और इसकी धरा में चट्टानों और गहरे खाईयों की अधिकता होती है। खड्ड भूमि में वृद्धि दरियादिल और फसलों की खेती के लिए अनुकूल नहीं होती है, लेकिन यहां उपजाऊ मिट्टी की कमी को पूरा करने के लिए कृषि की खेती की जा सकती है। चंबल बेसिन की खड्ड भूमि अक्सर अपर्याप्त वर्षा और अर्ध-शुष्क जलवायु की स्थिति में पाई जाती है।
पवन अपरदन / Wind erosion
पवन अपरदन एक प्रकार की प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें पवन (हवा) द्वारा मैदान और ढालू क्षेत्र से मृदा को उड़ा ले जाने का प्रक्रिया होता है। यह प्रक्रिया विशेष रूप से बड़े खुले क्षेत्रों और पर्वतीय क्षेत्रों में देखा जाता है। इसका कारण पवन की शक्तिशाली धारा होती है जो मैदान या ढालू क्षेत्रों में उच्चतम चालान मृदा को अपणे विचरण के लिए उड़ा ले जाती है। यह प्रक्रिया भूमि के उपयुक्तता को कम कर सकती है और अधिक अपदूस्त वातावरण की स्थिति का कारण बन सकती है। इसे रोकने के लिए पेड़ों की वृद्धि, परिस्थितिकी संरक्षण, और वन संरक्षण के उपाय अपनाए जाते हैं।
आशा करते है इस पोस्ट NCERT Class 10 Geography: संसाधन एवं विकास Notes में दी गयी जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी । आप हमें नीचे Comment करके जरुर बताये और अपने दोस्तों को जरुर साझा करे। यह पोस्ट Class 10 भूगोल Chapter 1 संसाधन एवं विकास Notes पढ़ने के लिए धन्यवाद ! आपका समय शुभ रहे !!
NCERT Notes
स्वतंत्र भारत में, कांग्रेस पार्टी ने 1952 से 1967 तक लगातार तीन आम चुनावों में जीत हासिल करके एक प्रभुत्व स्थापित किया था। इस अवधि को 'कांग्रेस प्रणाली' के रूप में जाना जाता है। 1967 के चुनावों में, कांग्रेस को कुछ राज्यों में हार का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 'कांग्रेस प्रणाली' को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
URL: https://my-notes.in
Author: NCERT
5
Pros
- Best NCERT Notes Class 6 to 12