NCERT Class 10 History Chapter 3 भूमंडलीकृत विश्व का बनना Notes in Hindi

NCERT 10 Class History Chapter 3 भूमंडलीकृत विश्व का बनना Notes in hindi

NCERT Class 10 History Chapter 3 भूमंडलीकृत विश्व का बनना Notes in hindi. जिसमे हम ब्रिटेन और भारत में औद्योगीकरण के स्वरूप में अंतर कीजिए, आधुनिक युग से पहले की यात्राएँ ,

हस्तशिल्प और औद्योगिक उत्पादन, औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों के बीच संबंध , श्रमिकों की आजीविका , केस स्टडी: ब्रिटेन और भारत। के बारे में पढ़ेगे।

TextbookNCERT
ClassClass 10
SubjectHistory
ChapterChapter 3
Chapter Nameभूमंडलीकृत विश्व का बनना
CategoryClass 10 History Notes in Hindi
MediumHindi
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NCERT Class 10 History Chapter 3 भूमंडलीकृत विश्व का बनना Notes in hindi

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📚 अध्याय = 3 📚
💠 भूमंडलीकृत विश्व का बनना 💠

❇️ वैश्वीकरण :-

🔹 वैश्वीकरण एक आर्थिक प्रणाली है और व्यक्तियों सामानों और नौकरियों का एक देश से दूसरे देश तक के स्थानांतरण को वैश्वीकरण कहते हैं ।

❖ आधुनिक युग से पहले की यात्राएँ


➤ जब हम ‘वैश्वीकरण’ की बात करते हैं तो आमतौर पर हम एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था की बात करते हैं जो मोटे तौर पर पिछले लगभग पचास सालों में ही हमारे सामने आई है।


❒ भूमंडलीकृत विश्व के बनने की प्रक्रिया –

  •  व्यापार का काम की तलाश में एक जगह से दुसरी जगह जाते लोगों का, पूँजी व बहुत सारी चीजों की वैश्विक आवाजाही का एक लंबा इतिहास रहा है।
  • ➤ वर्तमान के वैश्विक संबंधों को देखकर सोचना पड़ता है कि यह दुनिया के संबंध किस प्रकार बने।
  • ➤ इतिहास के हर दौर में मानव समाज एक दूसरे के ज्यादा नजदीक आते गए हैं।
  • ➤ प्राचीन काल से ही यात्री, व्यापारी, एक पुजारी और तीर्थयात्री ज्ञान, अवसरों और आध्यात्मिक शांति के लिए या उत्पीड़न  (यातनापूर्ण) जीवन से बचने के लिए दूर-दूर की यात्राओं पर जाते रहे हैं।
  • ➤ अपनी यात्राओं में ये लोग तरह तरह की चीजें, पैसा, मूल्य-मान्यताएँ, हुनर, विचार, आविष्कार और यहाँ तक कि कीटाणु और बीमारियाँ भी साथ लेकर चलते रहे हैं।
  • ➤ 3000 ईसा पूर्व में समुद्री तटों पर होने वाले व्यापार के माध्यम से सिंधु घाटी की सभ्यता उस इलाके से भी जुड़ी हुई थी जिसे आज हम पश्चिमी एशिया के नाम से जानते हैं।
  • ➤ हज़ार साल से भी ज्यादा समय से मालदीव के समुद्र में पाई जाने वाली कौड़ियाँ (जिन्हें पैसे या मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किया जाता था) चीन और पूर्वी अफ्रीका तक पहुँचती रही हैं।
  • ➤ बीमारी फैलाने वाले कीटाणुओं का दूर-दूर तक पहुँचने का इतिहास भी सातवीं सदी तक ढूँढ़ा जा सकता है। तेरहवीं सदी के बाद तो इनके प्रसार को निश्चय ही साफ देखा जा सकता है।

❖ रेशम मार्ग (सिल्क रूट) का महत्व

  • ➤ आधुनिक काल से पहले के युग में दुनिया के दूर दूर स्थित भागों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्कों का सबसे जीवंत उदाहरण सिल्क मार्गों के रूप में दिखाई  देता है।
  • ➤ ‘सिल्क मार्ग’ नाम से पता चलता है कि इस मार्ग से पश्चिम को भेजे जाने वाले चीनी रेशम (सिल्क) का कितना महत्त्व था।
  • ➤ इतिहासकारों ने बहुत सारे सिल्क मार्गों के बारे में बताया है।
  • ➤ जमीन या समुद्र से होकर गुजरने वाले ये रास्ते न केवल एशिया के विशाल क्षेत्रों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करते थे बल्कि एशिया को यूरोप और उत्तरी अफ्रीका से भी जोड़ते थे।
  • ➤ ऐसे मार्ग ईसा पूर्व के समय में ही सामने आ चुके थे और लगभग पंद्रहवीं शताब्दी तक अस्तित्व में थे।
  • ➤ रेशम मार्ग से चीनी पॉटरी जाती थी और इसी रास्ते से भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया के कपड़े व मसाले दुनिया के दूसरे भागों में पहुँचते थे।
  • ➤ वापसी में सोने-चाँदी जैसी कीमती धातुएँ यूरोप से एशिया पहुँचती थी।
  • ➤ व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती थी।
  • ➤ शुरुआती काल के ईसाई मिशनरी निश्चय ही इसी मार्ग से एशिया में आते होंगे।
  • ➤ कुछ सदी बाद मुस्लिम धर्मोपदेशक भी इसी रास्ते से दुनिया में फैले।
  • ➤ इससे भी बहुत पहले पूर्वी भारत में उपजा बौद्ध धर्म सिल्क मार्ग की विविध शाखाओं से ही कई दिशाओं में फैल चुका था।

❖ भोजन की यात्रा-स्पैघेत्ती और आलू :-

  • ➤ हमारे खाद्य पदार्थ दूर देशों के बीच सांस्कृतिक आदान – प्रदान के कई उदाहरण पेश करते हैं।
  • ➤ जब भी व्यापारी और मुसाफिर किसी नए  देश में जाते थे, जाने अनजाने वहाँ नयी फसलों के बीज बो आते थे।
  • ➤ संभव दुनिया के विभिन्न भागों में मिलने वाले ‘झटपट तैयार होने वाले’ (Ready) खाद्य पदार्थों का इसी तरह दुनिया में पहुँचाया हों।
  • ➤ स्पैघेत्ती (Spaghetti) और नूडल्स इसके उदाहरण हैं।
  • ➤ नूडल्स चीन से पश्चिम में पहुँचे और वहाँ उन्हीं से स्पैघेत्ती (पास्ता) का जन्म हुआ।
  • ➤ अरब यात्रियों के साथ पाँचवीं सदी में सिसली पहुँचा जो अब इटली का ही एक टापू है। नूडल्स स्पैघेत्ती के जैसे आहार भारत और जापान में भी पाए जाते हैं इसलिए हो सकता कि हम कभी यह न जान सकें कि उनका जन्म कैसे हुआ होगा। फिर भी, इन अनुमानों के आधार पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि आधुनिक काल से पहले भी दूर देशों के बीच सांस्कृतिक लेन- देन चल रहा होगा।
  • ➤ आलू, सोया, मूँगफली, मक्का, टमाटर, मिर्च, शकरकंद और ऐसे ही बहुत सारे दूसरे खाद्य पदार्थ लगभग पाँच सौ साल पहले हमारे पूर्वजों के पास नहीं थे।
  • ➤ ये खाद्य पदार्थ यूरोप और एशिया में तब पहुँचे जब क्रिस्टोफर कोलंबस गलती से 1492 में उन अज्ञात महाद्वीपों में पहुँच गया था जिन्हें बाद में अमेरिका के नाम से जाना जाने लगा। (यहाँ ‘अमेरिका’ का मतलब उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका और कैरीबियन द्वीपसमूह, सभी से है।)
  • ➤ दरअसल, हमारे बहुत सारे खाद्य पदार्थ अमेरिका के मूल निवासियों यानी अमेरिकन इंडियनों से हमारे पास आए हैं।
  • ➤ नयी फसलों के आने से होने वाले परिवर्तन :-
  • ➤ कई बार नयी फसलों के आने से जीवन में जमीन-आसमान का फर्क आ जाता था।
  • ➤ साधारण से आलू का इस्तेमाल शुरू करने पर यूरोप के गरीबों की जिंदगी आमूल रूप से बदल गई थी। उनका भोजन बेहतर हो गया और उनकी औसत उम्र बढ़ने लगी।
  • ➤ आयरलैंड के गरीब काश्तकार तो आलू पर इस हद तक निर्भर हो चुके थे कि जब 1840 के दशक के मध्य में किसी बीमारी के कारण आलू की फसल खराब हो गई तो लाखों लोग भुखमरी के कारण मौत के मुँह में चले गए।

❖ विजय, बीमारी और व्यापार

  • ➤ सोलहवीं सदी में जब यूरोपीय जहाजियों ने एशिया तक का समुद्री रास्ता ढूँढ़ लिया।
  • ➤ वे पश्चिमी सागर को पार करते हुए अमेरिका तक जा पहुँचे तो पूर्व-आधुनिक विश्व बहुत छोटा सा दिखाई देने लगा।
  • ➤ इससे पहले कई सदियों से हिंद महासागर के पानी में फलता-फूलता व्यापार, तरह – तरह के सामान,लोग, ज्ञान और परंपराएँ एक जगह से दूसरी जगह आ जा रही थीं।
  • ➤ भारतीय उपमहाद्वीप इन प्रवाहों के रास्ते में एक अहम बिंदु था। पूरे नेटवर्क में इस इलाके का भारी महत्त्व था।
  • ➤ यूरोपीयों के आ जाने से यह आवाजाही और बढ़ने लगी और इन प्रवाहों की दिशा यूरोप की तरफ भी मुड़ने लगी।
  • ➤ अपनी ‘खोज’ से पहले लाखों साल से अमेरिका का दुनिया से कोई संपर्क नहीं था। लेकिन सोलहवीं सदी से उसकी विशाल भूमि और बेहिसाब फसलें व खनिज पदार्थ हर दिशा में जीवन का रूपरंग बदलने लगे।
  • ➤ आज के पेरू और मैक्सिको में मौजूद खानों से निकलने वाली कीमती धातुओं, खासतौर से चाँदी, ने भी यूरोप की संपदा को बढ़ाया और पश्चिम एशिया के साथ होने वाले उसके व्यापार को गति प्रदान की।
  • ➤ सत्रहवीं सदी के आते – आते पूरे यूरोप में दक्षिणी अमेरिका की धन – सम्पदा के बारे में तरह – तरह के किस्से बनने लगे थे।
  • ➤ इन्हीं बातों की बदौलत यूरोप के लोग एल डोराडो को सोने का जहर मानने लगे और उसकी खोज में बहुत सारे खोजी अभियान शुरू किए गए।

❖ बिमारी से विजय प्राप्त करना –

  • ➤ सोलहवीं सदी के मध्य तक आते आते पुर्तगाली और स्पेनिश सेनाओं की विजय का सिलसिला शुरू हो चुका था। उन्होंने अमेरिका को उपनिवेश बनाना शुरू कर दिया था।
  • ➤ यूरोपीय सेनाएँ केवल अपनी सैनिक ताकत के दम पर नहीं जीतती थीं।
  • ➤ स्पेनिश विजेताओं के सबसे शक्तिशाली हथियारों में परंपरागत किस्म का सैनिक हथियार तो कोई था ही नहीं। यह हथियार तो चेचक जैसे कीटाणु थे जो स्पेनिश सैनिकों और अफसरों के साथ वहाँ जा पहुँचे थे।
  • ➤ लाखों साल से दुनिया से अलग-थलग रहने के कारण अमेरिका के लोगों के शरीर में यूरोप से आने वाली इन बीमारियों से बचने की रोग प्रतिरोधी क्षमता नहीं थी। फलस्वरूप, इस नए स्थान पर चेचक बहुत मारक साबित हुई।
  • ➤ एक बार संक्रमण शुरू होने के बाद तो यह बीमारी पूरे महाद्वीप में फैल गई ।
  • ➤ जहाँ यूरोपीय लोग नहीं पहुँचे थे वहाँ के लोग भी इसकी चपेट में आने लगे।
  • ➤ चेचक की बीमारी ने पूरे के पूरे समुदायों को खत्म कर डाला। इस तरह घुसपैठियों की जीत का रास्ता आसान होता चला गया। बंदूकों को तो खरीद कर या छीन कर हमलावरों के ख़िलाफ भी इस्तेमाल किया जा सकता था।
  • ➤ चेचक जैसी बीमारियों के मामले में तो ऐसा नहीं किया जा सकता था क्योंकि हमलावरों के पास उससे बचाव का तरीका भी था और उनके शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता भी विकसित हो चुकी थी।

❖ अमेरिका में बाहरी लोगों का आगमन

  • ➤ उन्नीसवीं सदी तक यूरोप में गरीबी और भूख का ही साम्राज्य था। शहरों में बेहिसाब भीड़ थी और बीमारियों का बोलबाला था। धार्मिक टकराव आम थे। धार्मिक असंतुष्टों को कड़ा दंड दिया जाता था। इस वजह से हजारों लोग यूरोप से भागकर अमेरिका जाने लगे।
  • ➤ अठारहवीं सदी तक अमेरिका में अफ्रीका से पकड़ कर लाए गए गुलामों को काम में झोंक कर यूरोपीय बाजारों के लिए कपास और चीनी का उत्पादन किया जाने लगा था।
  • ➤ अठारहवीं शताब्दी का काफी समय बीत जाने के बाद भी चीन और भारत को दुनिया के सबसे धनी देशों में गिना जाता था। एशियाई व्यापार में भी उन्हीं का दबदबा था।
  • ➤ विशेषज्ञों का मानना है कि पंद्रहवीं सदी से चीन ने दूसरे देशों के साथ अपने संबंध कम करना शुरू कर दिए और वह दुनिया से अलग-थलग पड़ने लगा।
  • ➤ चीन की घटती भूमिका और अमेरिका के बढ़ते महत्त्व के चलते विश्व व्यापार का केंद्र पश्चिम की ओर खिसकने लगा। अब यूरोप ही विश्व व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र बन गया।

❖ 19वीं शताब्दी का विश्व (1815 -1914)

  • ➤ उन्नीसवीं सदी में दुनिया तेजी से बदलने लगी। आर्थिक, राजनीतिक,सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी कारकों ने पूरे के पूरे समाजों की कायापलट कर दी और विदेश संबंधों को नए ढर्रे में ढाल दिया।
  • ➤ अर्थशास्त्रिायों ने अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में तीन तरह की गतियों या ‘प्रवाहों’ का उल्लेख किया है।
  • 1. व्यापार प्रवाह – व्यापार प्रवाह जो उन्नीसवीं सदी में मुख्य रूप से वस्तुओं (जैसे कपड़ा या गेहूँ आदि) के व्यापार तक ही सीमित था।
  • 2. श्रम का प्रवाह – इसमें लोग काम या रोजगार की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं।
  • 3. प्रवाह पूँजी – जिसे अल्प या दीर्घ अवधि के लिए दूर-दराज के इलाकों में निवेश कर दिया जाता है।
  • ➤ ये तीनों तरह के प्रवाह एक-दूसरे से जुड़े हुए थे और लोगों के जीवन को प्रभावित करते थे।
  • ➤ कभी – कभी इन कारकों के बीच मौजूद संबंध टूट भी जाते थे।
  • ➤ उदाहरण के लिए, वस्तुओं या पूँजी की आवाजाही के मुकाबले श्रमिकों की आवाजाही पर प्रायः ज्यादा शर्तें और बंदिशें लगाई जाती थीं।

❖ विश्व अर्थव्यवस्था का उदय

  • ➤ सभी देश भोजन के मामले में आत्मनिर्भर होने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन उन्नीसवीं सदी के ब्रिटेन की बात अलग थी।
  • ➤ अगर उस समय ब्रिटेन खाद्य आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलता तो वहाँ के लोगों का जीवनस्तर गिर जाता और सामाजिक तनाव फैल जाता।
  • ➤ अठारहवीं सदी के आखिरी दशकों में ब्रिटेन की आबादी तेजी से बढ़ने लगी थी।
  • ➤ नतीजा, देश में भोजन की माँग भी बढ़ी।
  • ➤ जैसे-जैसे शहर फैले और उद्योग बढ़ने लगे, कृषि उत्पादों की माँग भी बढ़ने लगी। कृषि उत्पाद मँहगे होने लगे।
  • ➤ कार्न लॉ – बड़े भूस्वामियों के दबाव में सरकार ने मक्का के आयात पर भी पाबंदी लगा दी थी। जिन कानूनों के सहारे सरकार ने यह पाबंदी लागू की थी। उसे ‘कॉर्न लॉ’ कहा जाता था।
  • ➤ खाद्य पदार्थों की  ऊँची कीमतों से परेशान उद्योगपतियों और शहरी बाशिंदों ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वह ‘कॉर्न लॉ’ फौरन समाप्त कर दे।

❒ कॉर्न लॉ समाप्त होने के बाद आने वाले परितर्वन :-

  • ➤ कॉर्न लॉ के निरस्त हो जाने के बाद बहुत कम कीमत पर खाद्य पदार्थों का आयात किया जाने लगा।
  • ➤ आयातित खाद्य पदार्थों की लागत ब्रिटेन में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों से भी कम थी।
  • ➤ फलस्वरूप, ब्रिटिश किसानों की हालत बिगड़ने लगी क्योंकि वे बाहर से आने वाले (आयातित) माल की कीमत का मुकाबला नहीं कर सकते थे।
  • ➤ विशाल भूभागों पर खेती बंद हो गई हजारों लोग बेरोजगार हो गए, गाँवों से उजड़ कर वे या तो शहरों में या दूसरे देशों में जाने लगे।
  • ➤ जब खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट आई तो ब्रिटेन में उपभोग का स्तर बढ़ गया।

❒ ब्रिटेन के लिए कृषि उत्पादन :-

  • ➤ उन्नीसवीं सदी के मध्य से ब्रिटेन की औद्योगिक प्रगति काफी तेज रही जिससे लोगों की आय में वृद्धि हुई। इससे लोगों की जरूरतें बढ़ीं।
  • ➤ खाद्य पदार्थों का और भी ज्यादा मात्रा में आयात होने लगा। पूर्वी यूरोप, रूस, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, दुनिया के हर हिस्से में ब्रिटेन का पेट भरने के लिए जमीनों को साफ करके खेती की जाने लगी।
  • ➤ खेती के लिए जमीन को साफ कर देना ही  काफी नहीं था।खेतिहर इलाकों को बंदरगाहों से जोड़ने के लिए रेलवे की भी जरूरत थी।
  • ➤ ज्यादा तादाद में माल ढुलाई के लिए नयी गोदियाँ बनाना और पुरानी गोदियों को फैलाना जरूरी था।
  • ➤ नयी जमीनों पर खेती करने के लिए यह आवश्यक था कि दूसरे इलाकों के लोग वहाँ आकर बसें। यानी नए घर बनाना और नयी बस्तियाँ बसाना भी जरूरी था।
  • ➤ इन सारे कामों के लिए पूँजी और श्रम की जरूरत थी। इसके लिए लंदन जैसे वित्तीय केंद्रों से पूँजी आने लगी।
  • ➤ अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे जिन स्थानों पर मजदूरों की कमी थी वहाँ लोगों को ले जाकर बसाया जाने लगा यानी श्रम प्रवाह होने लगा।
  • ➤ उन्नीसवीं सदी में यूरोप के लगभग पाँच करोड़ लोग अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में जाकर बस गए।
  • ➤ माना जाता है कि पूरी दुनिया में लगभग पंद्रह करोड़ लोग बेहतर भविष्य की चाह में अपने घर-बार छोड़कर दूर-दूर के देशों में जाकर काम करने लगे थे।
  • ➤ इस प्रकार 1890 तकएक वैश्विक कृषि अर्थव्यवस्था सामने आ चुकी थी।

❖ वैश्विक कृषि अर्थव्यवस्था से होने वाले बदलाव

  • ➤ इसी के साथ ही श्रम विस्थापन रुझानों, पूँजी प्रवाह, पारिस्थितिकी और तकनीक में गहरे बदलाव आ चुके थे।
  • ➤ अब भोजन किसी आसपास के गांव या कस्बे से नहीं बल्कि हजारों मील दूर से आने लगा था।
  • ➤ अब अपने खेतों पर खुद काम करने वाले किसान ही खाद्य पदार्थ पैदा नहीं कर रहे थे। यह काम अब ऐसे औद्योगिक मजदूर करने लगे थे जो संभवतः हाल ही में वहाँ आए थे और ऐसे खेतों में काम कर रहे थे जहाँ महज एक पीढ़ी पहले संभवतः पूरे जंगल रहे होंगे।
  • ➤ खाद्य पदार्थों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने के लिए रेलवे का इस्तेमाल किया जाता था।
  • ➤ रेल का नेटवर्क इसी काम के लिए बिछाया गया था।
  • ➤ पानी के जहाजों से इसे दूसरे देशों में पहुँचाया जाता था।
  • ➤ इन जहाजों पर दक्षिण यूरोप, एशिया, अफ्रीका और कैरीबियाई द्वीपसमूह के मजदूरों से बहुत कम वेतन पर काम करवाया जाता था।

❖ वैश्विक कृषि अर्थव्यवस्था का भारत में प्रभाव

  • ➤ बहुत छोटे पैमाने पर ही सही लेकिन इसी तरह के नाटकीय बदलाव हम पंजाब मे  देख सकते हैं।
  • ➤ यहाँ ब्रिटिश भारतीय सरकार ने अर्द्ध-रेगिस्तानी परती जमीनों को उपजाऊ बनाने के लिए नहरों का जाल बिछा दिया ताकि निर्यात के लिए गेहूँ और कपास की खेती की जा सके।

❒ केनाल कॉलोनी – केनाल कॉलोनी नयी नहरों की सिंचाई वाले इलाकों में पंजाब के अन्य स्थानों के लोगों को लाकर बसाया गया। उनकी बस्तियों को केनाल कॉलोनी (नहर बस्ती) कहा जाता था।
➤ कपास की भी दुनिया भर में बड़े पैमाने पर खेती की जाने लगी थी ताकि ब्रिटिश कपड़ा मिलों की माँग को पूरा किया जा सके।
➤ रबड़ की कहानी भी इससे अलग नहीं है।
➤ विभिन्न चीजों के उत्पादन में विभिन्न इलाकों ने इतनी महारत हासिल कर ली थी कि 1820 से 1914 के बीच विश्व व्यापार में 25 से 40 गुना वृद्धि हो चुकी थी।
➤ इस व्यापार में लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा ‘प्राथमिक उत्पादों’ यानी गेहूँ और कपास जैसे कृषि उत्पादों तथा कोयले जैसे खनिज पदार्थों का था।

❖ तकनीक की भूमिका

  • ➤ वैश्विक अर्थव्यवस्था में  रेलवे, भाप के जहाज, टेलिग्राफ, ये सब तकनीकी बदलाव बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।
  • ➤ उनके बिना उन्नीसवीं सदी में आए परिवर्तनों की कल्पना नहीं की जा सकती थी।
  • ➤ तकनीकी प्रगति अकसर चौतरफा सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों का परिणाम भी होती है। उदाहरण के  लिए, औपनिवेशीकरण के कारण यातायात और परिवहन साधनों में भारी सुधार किए गए।
  • ➤ तेज चलने वाली रेलगाड़ियाँ बनीं, बोगियों का भार कम किया गया, जलपोतों का आकार बढ़ा जिससे किसी भी उत्पाद को खेतों से दूर-दूर के बाजारों में कम लागत पर और ज्यादा आसानी से पहुँचाया जा सके।

❖ मांस व्यापार में तकनीकी का योगदान

  • ➤ 1870 के दशक तक अमेरिका से यूरोप को मांस का निर्यात नहीं किया जाता था।
  • ➤ उस समय केवल जिंदा जानवर ही भेजे जाते थे जिन्हें यूरोप ले जाकर ही काटा जाता था।
  • ➤ लेकिन जिन्दा जानवर बहुत ज्यादा जगह घेरते थे। बहुत सारे जानवर तो लंबे सफर में मर जाते थे या बीमार पड़ जाते थे।
  • ➤ बहुतों का वजन गिर जाता था या वे खाने के लायक नहीं रह जाते थे।
  • ➤ इसी वजह से मांस खाना एक मँहगा सौदा था और यूरोप के गरीबों की पहुँच से बाहर था तथा ऊँची कीमतों के कारण मांस उत्पादों की माँग और उत्पादन भी कम रहता था।

❒ नयी तकनीकी के कारण मांस व्यापार में आए बदलाव

  • ➤ नयी तकनीक के आने पर यह स्थिति बदल गई। पानी के जहाजों में रेफ्रिजरेशन की तकनीक स्थापित कर दी गई जिससे जल्दी खराब होने वाली चीजों को भी लंबी यात्राओं पर ले जाया जा सकता था।
  • ➤ इसके बाद तो जानवरों को यात्रा से पहले ही मारा जाने लगा। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड, सब जगह से जानवरों की बजाय उनका मांस ही यूरोप भेजा जाने लगा।
  • ➤ इससे न केवल समुद्री यात्रा में आने वाला खर्चा कम हो गया बल्कि यूरोप में मांस के दाम भी गिर गए। यूरोप के गरीबों को ज्यादा विविधतापूर्ण खुराक मिलने लगी।
  • ➤ पहले उनके पास सिर्फ आलू और ब्रेड होते थे। अब बहुत सारे लोगों के भोजन में मांसाहार (और मक्खन व अंडे) भी शामिल हो गया।
  • ➤ जीवनस्थिति सुधरी तो देश में शांति स्थापित होने लगी और दूसरे देशों में साम्राज्यवादी मंसूबों को समर्थन मिलने लगा।

❖ उन्नीसवीं सदी के आखिर में उपनिवेशवाद

➤ उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में व्यापार बढ़ा और बाजार तेजी से फैलने लगे।
➤ यह केवल फैलते व्यापार और संपन्नता का ही दौर नहीं था।

❒ तकनीकी विकास व भूमण्डलीकरण के नकारात्मक परिणाम :-

  • ➤ हमें इस प्रक्रिया के नकारात्मक पक्ष को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। व्यापार में इजाफे और विश्व अर्थव्यवस्था के साथ निकटता का एक परिणाम यह हुआ कि दुनिया के बहुत सारे भागों में स्वतंत्राता और आजीविका के साधन छिनने लगे।
  • ➤ उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में यूरोपीयों की विजयों से बहुत सारे कष्टदायक आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकीय परिवर्तन आए और औपनिवेशिक समाजों को विश्व अर्थव्यवस्था में समाहित कर लिया गया।
  • ➤ वहाँ के कुछ देशों की सीमाएँ तो बिलकुल सीधी लकीर जैसी हैं मानो उन्हें स्केल रखकर खींचा गया हो। दुर्भाग्यवश, अफ्रीका के देशों के साथ ऐसा ही हुआ था।
  • ➤ अफ्रीका पर कब्जे की कोशिश में लगी प्रतिद्वंद्वी यूरोपीय ताकतों ने अपने-अपने इलाकें बाँटने के लिए प्रायः इसी तरीके का सहारा लिया था।
  • ➤ 1885 में यूरोप के ताकतवर देशों की बर्लिन में एक बैठक हुई जिसमें अफ्रीका के नक़्शे पर इसी तरह लकीरें खींचकर उसको आपस में बाँट लिया गया था।
  • ➤ उन्नीसवीं सदी के आखिर में ब्रिटेन और फ्रांस ने अपने शासन वाले विदेशी क्षेत्रफल में भारी  वृद्धि कर ली थी।
  • ➤ बेल्जियम और जर्मनी नयी औपनिवेशिक ताकतों के रूप में सामने आए। पहले स्पेन के कब्जे में रह चुके कुछ उपनिवेशों पर कब्जा करके 1890 के दशक के आखिरी वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका भी औपनिवेशिक ताकत बन गया।

❖ रिंडरपेस्ट या मवेशी प्लेग

  • ➤ अफ्रीका में 1890 के दशक में रिंडस्पेस्ट नामक बीमारी बहुत तेजी से फैल गई।
  • ➤ मवेशियों में प्लेग की तरह फैलने वाली इस बीमारी से लोगों की आजीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा।
  • ➤ हमलों और विजयों के इस युग में दुर्घटनावश फैल गई मवेशियों की बीमारी ने भी हजारों लोगों का जीवन व भाग्य बदल कर रख दिया और दुनिया के साथ उनके संबंधों को नयी शक्ल में ढाल दिया।
  • ➤ प्राचीन काल से ही अफ्रीका में जमीन की कभी कोई कमी नहीं रही जबकि वहाँ की आबादी बहुत कम थी। सदियों तक अफ्रीकियों की जिंदगी व कामकाज जमीन और पालतू पशुओं के सहारे ही चलता रहा है।
  • ➤ वहाँ पैसे या वेतन पर काम करने का चलन नहीं था। उन्नीसवीं सदी के आखिर में अफ्रीका में ऐसे उपभोक्ता सामान बहुत कम थे जिन्हें वेतन के पैसे से खरीदा जा सकता था।
  • ➤ उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोपीय ताकतें अफ्रीका के विशाल भूक्षेत्र और खनिज भंडारों को देखकर इस महाद्वीप की ओर आकर्षित हुई थीं।
  • ➤ यूरोपीय लोग अफ्रीका में बागानी खेती करने और खदानों का दोहन करना चाहते थे ताकि उन्हें वापस यूरोप भेजा जा सके। लेकिन वहाँ एक ऐसी समस्या पेश आई  जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी।

❖ अफ्रीकी लोगों से काम करवाने हेतु यूरोपीय ताकतों द्वारा अपनाए गए हथकंडे
➤ अफ्रीका के लोग तनख़्वाह पर काम नहीं करना चाहते थे। मजदूरों की भर्ती और उन्हें अपने पास रोके रखने के लिए मालिकों ने बहुत सारे हथकंडे आजमा कर देख लिए लेकिन बात नहीं बनी।
1. कर वृद्धि – उन पर भारी भरकम कर लाद दिए गए जिनका भुगतान केवल तभी किया जा सकता था जब करदाता बागानों या खदानों में काम करता हो।
2. सम्पत्ति के उत्तराधिकार कानुन में बदलाव – काश्तकारों को उनकी जमीन से हटाने के लिए उत्तराधिकार कानून भी बदल दिए गए। नए कानून में यह व्यवस्था कर दी गई कि अब परिवार के केवल एक ही सदस्य को पैतृक संपत्ति मिलेगी।
➤ इस कानून के जरिए परिवार के बाकी लोगों को श्रम बाजार में ढकेलने का प्रयास किया जाने लगा। खानकर्मियों को बाड़ों में बंद कर दिया गया।
➤ उनके खुलेआम घूमने-फिरने पर पाबंदी लगा दी गई तभी वहाँ रिंडरपेस्ट नामक विनाशकारी पशु रोग फैल गया।

❖ अफ्रीका में रिंडरपेस्ट का आना

  • ➤ अफ्रीका में रिंडरपेस्ट नाम की बीमारी सबसे पहले 1880 के दशक के आखिरी सालों में दिखाई दी।
  • ➤ उस समय पूर्वी अफ्रीका में एरिट्रिया पर हमला कर रहे इतालवी सैनिकों का पेट भरने के लिए एशियाई देशों से जानवर लाए जाते थे।
  • ➤ यह बीमारी ब्रिटिश अधिपत्य वाले एशियाई देशों से आए उन्हीं जानवरों के जरिए अफ्रीका पहुँची थी।
  • ➤ अफ्रीका के पूर्वी हिस्से से महाद्वीप में दाखिल होने वाली यह बीमारी ‘जंगल की आग’ की तरह पश्चिमी अफ्रीका की तरफ बढ़ने लगी 1892 में यह अफ्रीका के अटलांटिक तट तक जा पहुँची।
  • ➤ पाँच साल बाद यह केप (अफ्रीका का धुर दक्षिणी हिस्सा) तक पहुँच गई।
  • ➤ रिंडरपेस्ट ने अपने रास्ते में आने वाले 90 प्रतिशत मवेशियों को मौत की नींद सुला दिया।
  • ➤ पशुओं के खत्म हो जाने से तो अफ्रीकियों के रोजी-रोटी के साधन ही खत्म हो गए।
  • ➤ अपनी सत्ता को और मजबूत करने तथा अफ्रीकियों को श्रम बाजार में ढकेलने के लिए वहाँ के बागान मालिकों, खान मालिकों और औपनिवेशिक सरकारों ने बचे-खुचे पशु भी अपने कब्जे में ले लिए।
  • ➤ बचे-खुचे पशु संसाधनों पर कब्जे से यूरोपीय उपनिवेशकारों को पूरे अफ्रीका को जीतने जीतने व गुलाम बना लेने का बेहतरीन मौका हाथ लग गया था।

❖ भारत से अनुबंधित श्रमिकों का जाना

  • ➤ भारत से अनुबंधित (गिरमिटिया) श्रमिकों को ले जाया जाना भी उन्नीसवीं सदी की दुनिया की विविधता को प्रतिबिंबित करता है।
  • ➤ यह तेज आर्थिक वृद्धि के साथ साथ जनता के कष्टों में वृद्धि, कुछ लोगों की आय में वृद्धि और दूसरों के लिए बेहिसाब गरीबी, कुछ क्षेत्रों में भारी तकनीकी प्रगति और दूसरे क्षेत्रों में उत्पीड़न के नए रूपों की ईजाद की दुनिया थी।
  • ➤ उन्नीसवीं सदी में भारत और चीन के लाखों मजदूरों को बागानों, खदानों और सड़क व रेलवे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए दूर-दूर के देशों में ले जाया जाता था।
  • ➤ भारतीय अनुबंधित श्रमिकों को खास तरह के अनुबंध या एग्रीमेंट के तहत ले जाया जाता था।
  • ➤ इन अनंबुधों में यह शर्त होती थी कि यदि मजदूर अपने मालिक के बागानों में पाँच साल काम कर लेंगे तो वे स्वदेश लौट सकते हैं।
  • ➤ भारत के ज्यादातर अनुबंधित श्रमिक मौजूदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु के सूखे इलाकों से जाते थे।
  • ➤ उन्नीसवीं सदी के मध्य में इन इलाकों में भारी बदलाव आने लगे थे। कुटीर उद्योग खत्म हो रहे थे, जमीन का भाड़ा बढ़ गया था, खानों और बागानों के लिए जमीनों को साफ किया जा रहा था।
  • ➤ इन परिवर्तनों से गरीबों के जीवन पर गहरा असर पड़ा। वे किराए पर जमीन तो ले लेते थे लेकिन उसका भाड़ा नहीं चुका पाते थे, उन पर कर्जा चढ़ने लगा। काम की तलाश में उन्हें अपने घर – बार छोड़ने पड़े।
  • ➤ भारतीय अनुबंधित श्रमिकों को मुख्य रूप से कैरीबियाई द्वीपसमूह (मुख्यतः त्रिनिदाद, गुयाना और सुरीनाम), मॉरिशस व फिजी ले जाया जाता था। तमिल आप्रवासी सीलोन और मलाया जाकर काम करते थे।
  • ➤ बहुत सारे अनुबंधित श्रमिकों को असम के चाय बागानों में काम करवाने के लिए भी ले जाया जाता था।
  • ➤ मजदूरों की भर्ती का काम मालिकों के एजेंट किया करते थे। एजेंटों को कमीशन मिलता था। बहुत सारे आप्रवासी अपने गाँव में होने वाले उत्पीड़न और गरीबी से बचने केलिए भी इन अनुबंधों को मान लेते थे।
  • ➤ एजेंट भी भावी आप्रवासियों को फुसलाने के लिए झूठी जानकारियाँ देते थे। कहाँ जाना है, यात्रा के साधन क्या होंगे, क्या काम करना होगा, और नयी जगह पर काम व जीवन के हालात कैसे होंगे, इस बारे में उन्हें सही जानकारी नहीं दी जाती थी।
  • ➤ बहुत सारे आप्रवासियों को तो यह भी नहीं बताया जाता था कि उन्हें लंबी समुद्री यात्रा पर जाना है। अगर कोई मजदूर अनुबंध के लिए राजी नहीं होता था तो एजेंट उसका अपहरण तक कर लेते थे।

❖ अनुबंधित मजदुरों द्वारा स्वंय को परिस्थितियों के अनुकूल बनाना :-

  • ➤ उन्नीसवीं सदी की इस अनुबंध व्यवस्था को बहुत सारे लोगों ने ‘नयी दास प्रथा’ का भी नाम दिया है।
  • ➤ बागानों में या कार्यस्थल पर पहुँचने के बाद मजदूरों को पता चलता था कि वे जैसी उम्मीद कर रहे थे यहाँ वैसे हालात नहीं हैं।
  • ➤ नयी जगह की जीवन एवं कार्य स्थितियाँ कठोर थीं और मजदूरों के पास कानूनी अधिकार कहने भर को भी नहीं थे।
  • ➤ इसके बावजूद मजदूरों ने ने भी जिंदगी बसर करने के अपने तरीके ढूँढ़ निकाले। बहुत सारे तो भाग कर जंगलों में ही चले गए। अगर ऐसे मजदूर पकड़े जाते तो उन्हें भारी सज़ा दी जाती थी।
  • ➤ बहुतों ने अपनी पुरानी और नयी संस्कृतियों का सम्मिश्रण करते हुए व्यक्तिगत और सामूहिक आत्माभिव्यक्ति के नए रूप खोज लिए।
  • ❒ होसे –  होसे त्रिनिदाद में मुहर्रम के सालाना जुलूस को एक विशाल उत्सवी मेले का रूप दे दिया गया। इस मेले को ‘होसे’ (इमाम हुसैन के नाम पर) नाम दिया गया। उसमें सभी धमो व नस्लों के मजदूर हिस्सा लेते थे।
  • ❒ रास्ताफारियानवाद – रास्ताफारियानवाद नामक विद्रोही धर्म (जिसे जमैका के रैगे गायक बॉब मार्ले ने ख्याति के शिखर पर पहुँचा दिया) में भी भारतीय आप्रवासियों और कैरीबियाई द्वीपसमूह के बीच इन संबंधों की झलक देखी जा सकती है।
  • ➤ त्रिनिदाद और गुयाना में मशहूर ‘चटनी म्यूज़िक’ भी भारतीय आप्रवासियों के वहाँ पहुँचने के बाद सामने आई रचनात्मक अभिव्यक्तियों का ही उदाहरण है।

NCERT Class 10 History Chapter 3 The Making of a Globalized World Notes

❖ सांस्कृतिक समागम से वैश्विक दुनिया का उदय

  • ➤ सांस्कृतिक समागम के ये स्वरूप एक नयी वैश्विक दुनिया के उदय की प्रक्रिया का अंग थे। यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें अलग-अलग स्थानों की चीजें आपस में घुल-मिल जाती थी, उनकी मूल पहचान और विशिष्टताएँ गुम हो जाती थीं और बिलकुल नया रूप सामने आता था।
  • ➤ ज्यादातर अनुबंधित श्रमिक अनुबंध समाप्त हो जाने के बाद भी वापस नहीं लौटे। जो वापस लौटे उनमें से भी अधिकांश केवल कुछ समय यहाँ बिता कर फिर अपने नए ठिकानों पर वापस चले गए।
  • ➤ इसी कारण इन देशों में भारतीय मूल के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा पाई जाती है। जैसे आपने नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार वी. एस. नायपॉल का नाम सुना होगा।
  • ➤ वेस्ट इंडीज के क्रिकेट खिलाड़ी शिवनरैन चंद्रपॉल और रामनरेश सरवन का नाम भी हम भारतीयों जैसें है इस बात का भी यही कारण है कि वे भारत से गए अनुबंधित मजदूरों के ही वंशज हैं।
  • ➤ बीसवीं सदी के शुरुआती सालों से ही हमारे देश के राष्ट्रवादी नेता इस दास (गिरमिटिया मजदुर) प्रथा का विरोध करने लगे थे।
  • ➤ उनकी राय में यह बहुत अपमानजनक और क्रूर व्यवस्था थी। इसी दबाव के कारण 1921 में इसे खत्म कर दिया गया लेकिन इसके बाद भी कई दशक तक भारतीय अनुबंधित मजदूरों के वंशज कैरीबियाई द्वीप समूह में बेचैन अल्पसंख्यकों का जीवन जीते रहे।
  • ➤ वहाँ के लोग उन्हें ‘कुली’ मानते थे और उनके साथ कुलियों जैसा बर्ताव करते थे। नायपॉल के कुछ प्रारंभिक उपन्यासों में विद्रोह और परायेपन के इस अहसास को खूब देखा जा सकता है।

❖ विदेश में भारतीय उद्यमी

  • ➤ विश्व बाजार के लिए खाद्य पदार्थ व फसलें उगाने के वास्ते पूँजी की आवश्यकता थी ।
  • ➤ बड़े बागानों के लिए तो बाजार और बैंकों से पैसा लिया जा सकता था। लेकिन छोटे-मोटे किसानों का क्या होता?
  • ➤ यहीं से देशी साहूकार ओर महाजन दृश्य में आते हैं। आपने शिकारीपूरी श्रॉफ और नट्‌टूकोट्‌टई चेटिट्यारों के बारे में सुना होगा। ये उन बहुत सारे बैंकरों और व्यापारियों में से थे जो मध्य एवं दक्षिण पूर्व एशिया में निर्यातोन्मुखी खेती के लिए कर्जे देते थे।
  • ➤ इसके लिए वे या तो अपनी जेब से पैसा लगाते थे या यूरोपीय बैंकों से कर्ज लेते थे। उनके पास दूर-दूर तक पैसे पहुँचाने की एक व्यवस्थित पद्धति होती थी। यहाँ तक कि उन्होनें व्यावसायिक संगठनों और क्रियाकलापों के देशी स्वरूप भी विकसित कर लिए थे।
  • ➤ अफ्रीका में यूरोपीय उपनिवेशकारों के पीछे-पीछे भारतीय व्यापारी और महाजन भी जा पहुँचे।
  • ➤ हैदराबादी सिंधी व्यापारी तो यूरोपीय उपनिवेशों से भी आगे तक जा निकले। 1860 के दशक से उन्होनें दुनिया भर के बंदरगाहों पर अपने बड़े-बडे एम्पोरियम खोल दिए।
  • ➤ इन दुकानों में सैलानियों को आकर्षक स्थानीय और विदेशी चीजें मिलती थीं। यह एक फलता-फूलता कारोबार था क्योंकि सुरक्षित और आरामदेह जलपोतों के आ जाने से सैलानियों की संख्या भी दिनोंदिन बढ़ने लगी थी।

❖ भारतीय व्यापार, उपनिवेशवाद और वैश्विक व्यवस्था

  • ➤ भारत में पैदा होने वाली महीन कपास का यूरोपीय देशों को निर्यात किया जाता था।
  • ➤ औद्योगीकरण के बाद ब्रिटेन में भी कपास का उत्पादन बढ़ने लगा था।
  • ➤ इसी कारण वहाँ के उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह कपड़े के आयात पर रोक लगाए और स्थानीय उद्योगों की रक्षा करे। फलस्वरूप ब्रिटेन में आयातित कपड़ों पर सीमा शुल्क थोप दिए गए। वहाँ महीन भारतीय कपड़े का आयात कम होने लगा।
  • ➤ उन्नीसवीं शताब्दी की शुरूआत से ही ब्रिटिश कपड़ा उत्पादक दूसरे देशों में भी अपने कपड़े के लिए नए-नए बाजार ढूँढने लगे थे।
  • ➤ सीमा शुल्क की व्यवस्था के कारण ब्रिटिश बाजारों से बेदखल हो जाने के बाद भारतीय कपड़ों को दूसरे अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।
  • ➤ भारतीय निर्यात के आँकड़ों का अध्ययन सें पता चलता है कि सूती कपड़े के निर्यात में लगातार गिरावट का  रुझान दिखाई देता है।
  • ➤ सन् 1800 के आसपास निर्यात में सूती कपड़े का प्रतिशत 30 था जो 1815 में घट कर 15 प्रतिशत रहा गया।

❖ भारत ने किन चीजों का निर्यात किया।

  • ➤ निर्मित वस्तुओं का निर्यात घटता जा रहा था और उतनी ही तेजी से कच्चे मालों का निर्यात बढ़ता जा रहा था।
  • ➤ 1812 से 1871 के बीच कच्चे कपास का निर्यात 5 प्रतिशत से बढ़ कर 35 प्रतिशत तक पहुँच गया था।
  • ➤ कपड़ों की रँगाई के लिए इस्तेमाल होने वाले नील का भी कई दशक तक बड़े पैमाने पर निर्यात होता रहा। जैसा कि आपने पिछली कक्षा में पढ़ा ही था।
  • ➤ 1820 के दशक से चीन को बड़ी मात्रा में अफीम का निर्यात भी किया जाने लगा। कुछ समय तक तो भारतीय निर्यात में अफीम का हिस्सा ही सबसे ज्यादा रहा।
  • ➤ ब्रिटेन की सरकार भारत में अफीम की खेती करवाती थी और उसे चीन को निर्यात कर देती थी।
  • ➤ अफीम के निर्यात से जो पैसा मिलता था उसके बदले चीन से ही चाय और दूसरे पदार्थों का आयात किया जाता था
  • ➤ उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय बाजारों में ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों की बाढ़ ही आ गई थी।
  • ➤ भारत से ब्रिटेन और शेष विश्व को भेजे जाने वाले खाद्यान्न व कच्चे मालों के निर्यात में बढ़ोतरी हुई है।

❖ भारत के साथ – व्यापार से ब्रिटेन का लाभ –

  • ➤ ब्रिटेन से जो माल भारत भेजा जाता था उसकी कीमत भारत से ब्रिटेन हमेशा ‘व्यापार अधिशेष’ की अवस्था में रहता था। इसका मतलब है कि आपसी व्यापार में हमेशा ब्रिटेन को ही फायदा रहता था।
  • ➤ ब्रिटेन इस मुनाफे के सहारे दूसरे देशों के साथ होने वाले व्यापारिक घाटे की भरपाई कर लेता था।,
  • ➤ बहुपक्षीय बंदोबस्त ऐसे ही काम करता है। इसमें एक देश के मुकाबले दूसरे देश को होने वाले घाटे की भरपाई किसी तीसरे देश के साथ व्यापार में मुनाफा कमा कर की जाती है।
  • ➤ ब्रिटेन के घाटे की भरपाई में मदद देते हुए भारत ने उन्नीसवीं सदी की विश्व अर्थव्यवस्था का रूप तय करने में एक अहम भूमिका अदा की थी।
  • ➤ ब्रिटेन के व्यापार से जो अधिशेष हासिल होता था उससे तथाकथित ‘होम चार्जेज’ (देसी खर्चे) का निबटारा होता था। इसके तहत ब्रितानी अफसरों और व्यापारियों द्वारा अपने घर में भेजी गई निजी रकम, भारतीय बाहरी कर्जे पर ब्याज ओर भारत मे काम कर चुके ब्रितानी अफसरों की पेंशन शामिल थी।

❖ महायुद्धों के बीच अर्थव्यवस्था

  • ➤ पहला महायुद्ध मुख्य रूप से यूरोप में ही लड़ा गया। लेकिन उसके असर सारी दुनिया में महसूस किए गए।
  • ➤ इस युद्ध ने विश्व अर्थव्यवस्था को एक ऐसे संकट में ढकेल दिया जिससे उबरने में दुनिया को तीन दशक से भी ज्यादा समय लग गया।
  • ➤ इस दौरान पुरी दुनिया में चारौ तरफ आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता बनी रही और अंत में मानवता एक और विनाशकारी महायुद्ध के नीचे कराहने लगी।

❒ युद्ध के दौरान होने वाले बदलाव :-
➤ पहला विश्वयुद्ध दो खेमों के बीच लड़ा गया था।
(i) मित्र राष्ट्र
(ii) धुरी राष्ट्र
❒ मित्र राष्ट्र – एक पाले में मित्र राष्ट्र यानी ब्रिटेन, फ्रांस और रूस थे।
❒ धुरी राष्ट्र – दूसरे पाले में केन्द्रीय शक्तियाँ यानी जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन तुर्की थे।
➤ अगस्त 1914 में जब युद्ध हुआ उस समय बहुत सारी सरकारों को यही लगता था कि यह युद्ध ज्यादा से ज्यादा क्रिसमस तक खत्म हो जाएगा। पर यह युद्ध तो चार साल से भी ज्यादा समय तक चलता रहा।
➤ मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसा भीषण युद्ध पहले कभी नहीं हुआ था। इस युद्ध में दुनिया के सबसे अगुआ औद्योगिक राष्ट्र एक-दूसरे से जूझ रहे थे और शत्रुओं को नेस्तनाबूद करने के लिए उनके पास बेहिसाब आधुनिक औद्यौगिक शक्ति इकट्‌ठा हो चुकी थी।
➤ यह पहला आधुनिक औद्योगिक युद्ध था। इस युद्ध में मशीनगनों, टैंकों, हवाई जहाहों और रासायनिक हथियारों का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया।
➤ ये सभी चीजें आधुनिक विशाल उद्योगों की देन थीं। युद्ध के लिए दुनिया भर से असंख्य सिपाहियों की भर्ती की जानी थी और उन्हें विशाल जलपोतों व रेलगाड़ियों में भर कर युद्ध के मोर्चों पर ले जाया जाना था।
➤ इस युद्ध ने मौत और विनाश की जैसी विभिषिका रची उसकी औद्योगिक युग से पहले और औद्योगिक शक्ति के बिना कल्पना नही की जा सकती थी।

❖ प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम

  • ➤ युद्ध में 90 लाख से ज्यादा लोग मारे गए और 2 करोड़ घायल हुए। मृतकों और घायलों में से ज्यादातर कामकाजी उम्र के लोग थे।
  • ➤ इस महाविनाश के कारण यूरोप में कामकाज के लायक लोगों की संख्या बहुत कम रह गई। परिवार के सदस्य घट जाने से युद्ध के बाद परिवारों की आय भी गिर गई।
  • ➤ युद्ध संबंधी सामग्री का उत्पादन करने के लिए उद्योगों का पुनर्गठन किया गया। युद्ध की जरूरतों के मद्देनजर पूरे के पूरे समाजों को बदल दिया गया।
  • ➤ पुरुष युद्ध मोर्चे पर जाने लगे तो उन कामों को सँभालने के लिए घर की औरतों को  घरो से बाहर आना पड़ा जिन्हें अब तक केवल मर्दों का ही काम माना जाता था। वह काम अब औरते करने लगी।
  • ➤ युद्ध के कारण दुनिया की कुछ सबसे शक्तिशाली आर्थिक ताकतों के बीच आर्थिक संबंध टूट गए। अब वे देश एक दुसरे से बदला लेने पर उतारू थे।
  • ➤ इस युद्ध के लिए ब्रिटेन को अमेरिका बैंकों और अमेरिका जनता से भारी कर्जा लेना पड़ा। फलस्वरूप, इस युद्ध ने अमेरिका को कर्जदार की बजाय कर्जदाता देश बना दिया।
  • ➤ युद्ध के बाद दूसरे देशों में अमेरिका व उसके नागरिकों की संपत्तियों की कीमत अमेरिका में दूसरे देशों की सरकारों या उन नागरिकों के स्वामित्व अथवा नियंत्रण वाली संपदाओं से कहीं ज्यादा हो चुकी थी।

❖ प्रथम विश्व युद्धों के बाद हुए सुधार

  • ➤ युद्ध के बाद आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने का रास्ता काफी मुश्किल साबित हुआ।
  • ➤ युद्ध से पहले ब्रिटेन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था किन्तु युद्ध के बाद सबसे लंबा संकट उसे ही झेलना पड़ा। जिस समय ब्रिटेन युद्ध से जूझ रहा था उसी समय भारत और जापान में उद्योग विकसित होने लगे थे।
  • ➤ युद्ध के बाद भारतीय बाजार में पहले वाली वर्चस्वशाली स्थिति प्राप्त करना ब्रिटेन के लिए बहुत मुश्किल हो गया था। अब उसे जापान से भी मुकाबला करना था, सो अलग।
  • ➤ युद्ध के खर्चे की भरपाई करने के लिए ब्रिटेन ने अमेरिका से जम कर कर्जे लिए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि युद्ध खत्म होने तक ब्रिटेन भारी विदेशी कर्जों में दब चुका था।
  • ➤ युद्ध के कारण आर्थिक उछाह का माहौल पैदा हो गया था क्योंकि माँग उत्पादन और रोजगारों में भारी इजाफा हुआ था।  
  • ➤ जब युद्ध के कारण पैदा हुआ उछाह शांत होने लगा तो उत्पादन गिरने लगा और बेरोजगारी बढ़ने लगी।  परन्तु दूसरी ओर सरकार ने भारी-भरकम युद्ध संबंधी व्यय में भी कटौती शुरू कर दी ताकि शांतिकालीन करों के सहारे ही उनकी भरपाई की जा सके।
  • ➤ इन सारे प्रयासों से रोजगार भारी तादाद में खत्म हुए। 1921 में हर पाँच में से एक ब्रिटिश मजदूर के पास काम नहीं था। रोजगार के बारे में बेचैनी और अनिश्चितता युद्धोत्तर वातावरण का अंग बन गई थी।
  • ➤ बहुत सारी कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाएँ भी संकट में थीं। जैसे – गेहूँ उत्पादन।
  • ➤ युद्ध से पहले पूर्वी यूरोप विश्व बाजार में गेहूँ की आपूर्ति करने वाला एक बड़ा केन्द्रं था।
  • ➤ युद्ध के दौरान यह आपूर्ति अस्त-व्यस्त हुई तो कनाडा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में गेहूँ की पैदावार अचानक बढ़ने लगी।
  • ➤ लेकिन जैसे ही युद्ध समाप्त हुआ पूर्वी यूरोप में गेहूँ की पैदावार सुधरने लगी और विश्व बाजारों में गेहूँ की अति के हालात पैदा हो गए।
  • ➤ अनाज की कीमतें गिर गई, ग्रामीण आय कम हो गई किसान गहरे कर्ज संकट में फँस गए।

❖ अमेरिका में बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग

  • ➤ अमेरिका में सुधार की गति तेज रही। युद्ध से अमेरिका की अर्थव्यवस्था को फायदा पहुँचा।
  • ➤ युद्ध के बाद कुछ समय के लिए तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी झटका लगा लेकिन बीस के दशक के शुरूआती सालों से ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था तेजी से तरक्की के रास्ते पर बढ़ने लगी।
  • ➤ 1920 के दशक की अमेरिकी अर्थव्यवस्था की एक बड़ी खासियत थी बृहत उत्पादन का चलना। बृहत उत्पादन की ओर बढ़ने का सिलसिला तो उन्नीसवीं सदी के आखिर में ही शुरू हो चुका था लेकिन 1920 के दशक में तो यह अमेरिकी औद्यौगिक उत्पादन की विशेषता ही बन गया था।
  • ➤ कार निर्माता हेनरी फोर्ड बृहत उत्पादन के विख्यात प्रणेता थे। उन्होनें शिकागो के एक बूचड़खाने की असेंबली लाइन स्थापित की थी।
  • ➤ शिकागो के बूचड़खाने में मरे हुए जानवरों को एक कन्वेयर बेल्ट पर रख दिया जाता था और उसके दूसरे सिरे पर खड़े मांस विक्रेता अपने हिस्से का मांस उठा कर निकलते जाते थे।
  • ➤ यह देख कर फोर्ड को लगा कि गाडियों के उत्पादन के लिए भी असेंबली लाइन का तरीका समय और पैसे, दोनों के लिहाज से किफायती साबित हो सकता है।
  • ➤ असेंबली लाइन पर मजदूरों को एक ही काम – जैसे कार के किसी खास पुर्जे को ही लगाते रहना – मशीनी ढंग से बार-बार करते रहना होता था।
  • ➤ कार की रफ्तार इस बात से तय होती थी कि कन्वेयर बेल्ट किस रफ्तार से चलती है। यह काम की गति बढ़ाकर प्रत्येक मजदूर की उत्पादकता बढ़ाने वाला तरीका था।
  • ➤ कन्वेयर बेल्ट के साथ खड़े होने के बाद कोई मजदूर अपने काम में ढील करने या कुछ पल के लिए भी अवकाश लेने का जोखिम नहीं उठा सकता था और तो और इस व्यवस्था में मजदूर अपने साथियों के साथ बातचीत भी नहीं कर सकते थे।
  • ➤ इस तकनीकी का नतीजा यह हुआ की हेनरी फोर्ड के कारखाने की असेंबली लाइन से हर तीन मिनट में एक कार तैयार होकर निकलने लगी।
  • ➤ इससे पहले की पद्धतियों के मुकाबले यह रफ्तार कई गुना ज्यादा थी। टी-मॉडल नामक कार बृहत उत्पादन पद्धति से बनी पहली कार थी।
  • ➤ शुरुआत में फोर्ड फैक्ट्री के मजदूरों को असेंबली लाइन पर पैदा होने वाली थकान झेलने मे काफी मुश्किल महसूस हुई क्योंकि वे उसकी रफ्तार को किसी भी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते थे।
  • ➤ बहुत सारे मजदूरों ने काम छोड़ दिया। इस चुनौती से निपटने के लिए फोर्ड ने हताश होकर जनवरी 1914 से वेतन दोगुना यानी 5 डॉलर प्रतिदिन कर दिया। साथ ही उन्होंने अपने कारखानों में ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर भी पाबंदी लगा दी।
  • ➤ तनख्वाह बढ़ाने से हेनरी फोर्ड के मुनाफे में जो कमी आई थी उसकी भरपाई करने के लिए वे अपनी असेंबली लाइन की रफ्तार बार-बार बढ़ाने लगे।
  • ➤ उनके मजदूरों पर काम को बोझ लगातार बढ़ता रहता था। अपने इस फैसले से फोर्ड बहुत संतुष्ट थे। कुछ समय बाद उन्होनें कहा था कि लागत कम करने के लिए अपनी जिंदगी में उन्होंने इससे अच्छा फैसला कभी नहीं लिया।
  • ➤ फोर्ड द्वारा अपनाई गई उत्पादन पद्धतियों को जल्दी ही पूरे अमेरिका में अपनाया जाने लगा। बीस के दशक में ही यूरोप में भी उनकी नकल की जाने लगी।
  • ➤ बृहत उत्पादन पद्धति ने इंजीनियरिंग आधारित चीजों की लागत और कीमत में कमी ला दी। बेहतर वेतन के चलते अब बहुत सारे मजदूर भी कार जैसी टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएँ खरीद सकते थे।
  • ➤ 1919 में अमेरिका में 20 लाख कारों का उत्पादन होता था जो 1929 में बढ़कर 50 लाख कार प्रतिवर्ष से भी ऊपर जा पहुँचा।
  • ➤ इसके साथ ही बहुत सारे लोग फ्रिज, वॉशिंग मशीन, रेडिया, ग्रामोफोन प्लेयर्स आदि भी खरीदने लगे।
  • ➤ ये सब चीजें ‘हायर-परचेज’ व्यवस्था के तहत खरीदी जाती थीं।
  • ❒ हायर- परचेज – हायर- परचेज सारी चीजें कर्जे पर खरीदते थे और उनकी कीमत साप्ताहिक या मासिक किस्तों में चुकाई जाती थी।
  • ➤ मकानों के निर्माण और निजी मकानों की संख्या में वृद्धि से भी फ्रिज, वॉशिग मशीन आदि उपकरणों की माँग में इजाफा हुआ। घरों का निर्माण या खरीदारी भी कर्जें पर ही की जा रही थी।
  • ➤ 1920 के दशक में आवास एव निर्माण क्षेत्र में आए उछाल से अमेरिकी संपन्नता का आधार पैदा हो चुका था। मकानों के निर्माण और घरेलु जरूरत की चीजों मे निवेश से रोजगार और माँग बढ़ती थी तो दूसरी और उपभोग भी बढ़ता था। बढ़ते उपभोग के लिए और ज्यादा निवेश की जरूरत थी जिससे और नए रोजगार व आमदनी में वृद्धि होने लगती थी।
  • ➤ 1923 में अमेरिका शेष विश्व को पूँजी का निर्यात दोबारा करने लगा और वह दुनिया में सबसे बड़ा कर्जदाता देश बन गया।
  • ➤ अमेरिका द्वारा आयात और पूँजी निर्यात ने यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को भी संकट से उबरने में मदद दी। अगले छह साल मे विश्व व्यापार व आय वृद्धि दर में काफी सुधार आया।
  • ➤ लेकिन यह स्थिति लंबे समय तक कायम नहीं रह पाई। 1929 तक आते-आते दुनिया एक ऐसे आर्थिक संकट में फँस गई जिसका दुनिया ने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।

❖ महामंदी

  • ➤ आर्थिक महामंदी की शुरूआत 1929 से हुई और यह संकट तीस के दशक के मध्य तक बना रहा। इस दौरान दुनिया के ज्यादातर उत्पादन, रोजगार, आय और व्यापार में भयानक गिरावट दर्ज की गई।
  • ➤ इस मंदी का समय और असर अब देशों में एक जैसा नहीं था लेकिन आमतौर पर ऐसा माना जा सकता है कि कृषि क्षेत्रों और समुदायों पर इसका सबसे बुरा असर पड़ा।क्योंकि औद्यौगिक उत्पादों की तुलना में खेतिहर उत्पादों की कीमतों में ज्यादा भारी और ज्यादा समय तक कमी बनी रही।

❖ महामंदी के कारण

  • 1. युद्ध के बाद विश्व अर्थव्यवस्था का कमजोर होना ।
  • ➤ कृषि क्षेत्र में अति उत्पादन की समस्या बनी हुई थी। कृषि उत्पादों की गिरती कीमतों के कारण स्थिति और खराब हो गई थी।
  • ➤ कीमतें गिरीं और किसानों की आय घटने लगी तो आमदनी बढ़ाने के लिए किसान उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करने लगे ताकि कम कीमज पर ही सही लेकिन ज्यादा माल पैदा करके वे अपना स्तर बनाए रख सकें।
  • ➤ फलस्वरूप बाजार, में कृषि उत्पादों की आमद और भी बढ़ गई तथा कीमतें और नीचे चली गई। खरीदारों के अभाव में कृषि उपज पड़ी-पड़ी सड़ने लगी।
  • 2. अमेरिकी कर्ज
  • ➤ 1920 के दशक के मध्य में बहुत सारे देशों ने अमेरिका से कर्जे लेकर अपनी निवेश संबंधी जरूरतों को पूरा किया था। जब हालात अच्छे थे तो अमेरिका से कर्जा जुटाना बहुत आसान था लेकिन संकट का संकेत मिलते ही अमेरिकी अद्यमियों के होश उड़ गए।
  • ➤ 1928 के पहले छह माह तक विदेशों में अमेरिका का कर्जा एक अरब डॉलर था। साल भर के भीतर यह कर्जा घटकर केवल चौथाई रह गया था। जो देश अमेरिकी कर्जे पर सबसे ज्यादा निर्भर थे उनके सामने गहरा संकट आ खड़ा हुआ।
  • ➤ सब देशों में एक जैसा प्रभाव न पड़ा हो लेकिन अमेरिकी पूँजी के लौट जाने से पूरी दुनिया पर असर जरूर पड़ा। यूरोप में कई बड़े बैंक धराशायी हो गए। कई देशों की मुद्रा की कीमत बुरी तरह गिर गई।

3. आयात पर रोक
➤ इस मन्दी से ब्रिटिश पाउंड भी नहीं बच पाया।
➤ लैटिन अमेरिका और अन्य स्थानों पर कृषि एवं कच्चे मालों की कीमतें तेजी से लुढ़कने लगीं।
➤ अमेरिकी सरकार इस महामंदी से अपनी अर्थव्यवस्था का बचाने के लिए आयातित पदार्थों पर दो गुना सीमा शुल्क वसूल करने लगी। इस ने तो विश्व व्यापार की कमर ही तोड़ दी।
➤ औद्योगिक देशों में भी मंदी का सबसे बुरा असर अमेरिका को ही झेलना पड़ा। कीमतों में कमी और मंदी की आशंका को देखते हुए अमेरिकी बैंकों ने घरेलू कर्जे देना बंद कर दिया। जो कर्जे दिए जा चुके थे उनकी वसूली तेज कर दी गई।
➤ किसान उपज नहीं बेच पा रहे थे, परिवार तबाह हो गए, कारोबार ठप पड़ गए।
➤ आमदनी में गिरावट आने पर अमेरिका के बहुत सारे परिवार कर्जे चुकाने में नाकामयाब हो गए जिसके चलते उनके मकान, कार और सारी जरूरी चीजें कुर्क कर ली गईं।
➤ बीस के दशक में जो उपभोक्तावादी संपन्नता दिखाई दे रही थी वह धूल के गुबार की तरह रातोंरात काफूर हो गई थी।
➤ बेरोजगारी बढ़ी तो लोग काम की तलाश में दूर-दूर तक जाने लगे। आखिरकार अमेरिकी बैंकिंग व्यवस्था भी धराशायी हो गई।
➤ निवेश से अपेक्षित लाभ न पा सकने, कर्जे वसूल न कर पाने और जमाकर्ताओं की जमा पूँजी न लौटा पाने के कारण हजारों बैंक दिवालिया हो गए और बंद कर दिए गए। इस परिघटना से जुड़े आँकडे सकते में डाल देने वाले हैं: 1933 तक 4,000 से ज्यादा बैंक बंद हो चुके थे और 1929 से 1932 के बीच तकरीबन 1,10,000 कंपनियाँ चौपट हो चुकी थीं।
➤ यद्यपि 1935 तक ज्यादातर औद्यौगिक देशों में आर्थिक संकट से उबरने के संकेत दिखाई देने लगे थे लेकिन समाजों, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और राजनीति तथा लोगों के दिलो-दिमाग पर उसकी जो छाप पड़ी वह जल्दी मिटने वाली नहीं थी।

❖ भारत और महामंदी

  • ➤ दुनिया के एक हिस्से में पैदा होने वाले संकट की कँपकँपाहट बाकी हिस्सों तक भी पहुँच जाती थी और उससे दुनिया भर में लोगों की जिंदगी, अर्थव्यवस्थाएँ और समाज प्रभावित हो उठते थे।
  • ➤ औपनिवेशिक भारत कृषि वस्तुओं का निर्यातक और तैयार मालों का आयातक बन चुका था।
  • ➤ महांमदी ने भारतीय व्यापार को भी तुरन्त प्रभावति किया।1928 से 1934 के बीच देश के आयात-निर्यात घट कर लगभग आधे रह गए थे। जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतें गिरने लगीं तो भारत में भी कीमतें नीचे आ गईं।
  • ➤ 1928 से 1934 के बीच भारत में गेहूँ की कीमत 50 प्रतिशत गिर गई।
  • ➤ शहरी निवासियों के मुकाबले किसानों और काश्तकारों को ज्यादा नुकसान हुआ।
  • ➤ कृषि उत्पादों की कीमत तेजी से नीचे गिरी लेकिन सरकार ने लगान वसूली में छूट देने से साफ इनकार कर दिया।
  • ➤ सबसे बुरी मार उन काश्तकारों पर पडी जो विश्व बाजार के लिए उपज पैदा करते थे।

❖ बंगाल के जूट/पटसन उत्पादक

➤ वे कच्चा पटसन उगाते थे जिससे कारखानों में  टाट की बोरियाँ बनाई जाती थीं।
➤ जब टाट का निर्यात बंद हो गया तो कच्चे पटसन की कीमतों में 60 प्रतिशत से भी ज्यादा गिरावट आ गई।
➤ जिन काश्तकारों ने दिन फिरने की उम्मीद में या बेहतर आमदनी के लिए उपज बढ़ाने के वास्ते कर्जे ले लिए थे उनकी हालत भी उपज का सही मोल न मिलने के कारण खराब थी। वे दिनोंदिन और कर्ज में डूबते जा रहे थे। पूरे देश में काश्तकार पहले से भी ज्यादा कर्जं में डूब गए।
➤ खर्चे पूरे करने के चक्कर में उनकी बचत खत्म हो चुकी थी, जमीन सूदखोरों के पास गिरवी पड़ी थी, घर में जो भी गहने-जेवर थे बिक चुके थे।
➤ मंदी के इन्हीं सालों में भारत कीमती धातुओं खासतौर से सोने का निर्यात करने लगा। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स का मानना था कि भारतीय सोने के निर्यात से भी वैश्विक अर्थव्यवस्था को पुनजीवित करने में काफी मदद मिली।

❖ भारत से सोने चाँदी का निर्यात


➤ भारत से सोने चाँदी का निर्यात ने ब्रिटेन की आर्थिक दशा सुधारने में तो निश्चय की मदद दी लेकिन भारतीय किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ।
➤ 1931 में मंदी अपने चरम पर थी और ग्रामीण भारत असंतोष व उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। उसी समय महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा (सिविल नाफरमानी) आंदोलन शुरू किया।
➤ यह मंदी शहरी भारत के लिए इतनी दुखदाई नहीं रही।
➤ कीमतें गिर जाने के बावजूद शहरों मे रहने वाले ऐसे लोगों की हालत ठीक रही जिनकी आय निश्चित थी। जैसे, शहर में रहने वाले जमींदार जिन्हें अपनी जमीन पर बँधा-बँधाया भाड़ा मिलता था, या मध्यवर्गीय वेतनभोगी कर्मचारी।
➤ राष्ट्रवादी खेमे के दबाव में उद्योगों की रक्षा के लिए सीमा शुल्क बढ़ा दिए गए थे जिससे औद्योगिक क्षेत्र में भी निवेश में तेजी आई।

❖ विश्व अर्थव्यवस्था का पुननिर्माण : युद्धोत्तर काल


➤ पहला विश्व युद्ध खत्म होने के केवल बीस साल बाद दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया।
➤ यह युद्ध भी दो बड़े खेमों के बीच था।
1. एक गुट में धुरी शक्तियाँ नात्सी जर्मनी, जापान और इटली थीं
2. मित्र राष्ट्रों ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस और अमेरिका थे।
➤ द्वितीय विश्व युद्ध छह साल तक चला यह युद्ध जमीन, हवा और पानी में असंख्य मोर्चों पर लड़ा गया।
➤ इस युद्ध में मौत और तबाही की कोई हद बाकी नहीं बची थी। माना जाता है कि इस जंग के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करीब 6 करोड़ लोग मारे गए।
➤ यह 1939 की वैश्विक जनसंख्या का लगभग 3 प्रतिशत था। करोड़ो लोग घायल हुए।
➤ अब तक के युद्धों में मोर्चे पर मरने वालों की संख्या ज्यादा होती थी। इस युद्ध में ऐसे लोग ज्यादा मरे जो किसी मोर्चे पर लड़ नहीं रहे थे।
➤ यूरोप और एशिया के विशाल भूभाग तबाह हुए। कई शहर हवाई बमबारी या लगातार गोलावारी के कारण मिट्‌टी में मिल गए।
➤ इस युद्ध ने बेहिसाब आर्थिक और सामाजिक तबाही को जन्म दिया। ऐसे हालात में पुननिर्माण का काम कठिन और लंबा साबित होने लगा था।
➤ युद्ध के बाद के काल में पुनर्निर्माण का काम दो बड़े प्रभावों के साये में आगे बढ़ा।
1. पश्चिमी विश्व में अमेरिका आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से एक वर्चस्वशाली ताकत बन चुका था।
2. दूसरी ओर सोवियत संघ भी एक वर्चस्वशाली शक्ति के रूप मं सामने आया।
➤ नात्सी जर्मनी को हराने के लिए सोवियत संघ की जनता ने भारी कुर्बानियाँ दी थीं। जिस समय पूँजीवादी दुनिया महामंदी से जूझ रही थी उसी दौरान सोवियत संघ के लोगों ने अपने देश को एक पिछड़े खेतिहर देश की जगह एक विश्व शक्ति की हैसियत में ला खड़ा किया था।

❖ युद्धोत्तर बंदोबस्त और ब्रेटन-वुड्‌स संस्थान

➤ दो महायुद्धों के बीच मिले आर्थिक अनुभवों से अर्थशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों ने दो अहम सबक निकाले।

1. बृहत उत्पादन :- वृहत उत्पादन पर आधारित किसी औद्योगिक समाज को व्यापक उपभोग के बिना कायम नहीं रखा जा सकता।
➤ लेकिन व्यापक उपभोग को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक था कि आमदनी काफी ज्यादा और स्थिर हो। यदि रोजगार अस्थिर होंगे तो आय स्थिर नहीं हो सकती थी। स्थिर आय के लिए पूर्ण रोजगार भी जरूरी था।
➤ लेकिन बाजार पूर्ण रोजगार की गांरटी नहीं दे सकता। कीमत, उपज और रोजगार में आने वाले उतार-चढ़ावों को नियंत्रित करने के लिए सरकार का दखल जरूरी था। आर्थिक स्थिरता केवल सरकारी हस्तक्षेप के जरिये ही सुनिश्चित की जा सकती थी।

2. दुसरे देशों के साथ आर्थिक संबंधों पर नियंत्रण :- दूसरा सबक बाहरी दुनिया के साथ आर्थिक संबंधों के बारे में था। पूर्ण रोजगार का लक्ष्य केवल तभी हासिल किया जा सकता है जब सरकार के पास वस्तुओं पूँजी और श्रम की आवाजाही को नियंत्रित करने की ताकत उपलब्ध हो।
➤ अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य यह था कि औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता एवं पूर्ण रोजगार बनाए रखा जाए।

❒ ब्रेटन वुड्स संस्थाएँ – जुलाई 1944 में अमेरिका स्थित न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन में सहमति बनी थी। सयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों के विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने के लिए ब्रिटेन वुड्स सम्मेलन में ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) की स्थापना की गई।

➤ युद्धोत्तर पुननिर्माण के लिए पैसे का इंतजाम करने के वास्ते अंतर्राष्ट्रीय पुननिर्माण एवं विकास बैंक (जिसे आम बोलचाल में विश्व बैंक कहा जाता है) का गठन किया गया। इसी वजह से विश्व बैंक और आई.एम.एफ. को ब्रेटन वुड्स संस्थान या बेटन वुड्स टिवन (ब्रेटन वुड्स की जुड़वाँ संतान) भी कहा जाता है। इसी आधार पर युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को अकसर ब्रेटन वुड्स व्यवस्था भी कहा जाता है।
➤ विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 1947 में औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया। इन संस्थानों की निर्णय प्रक्रिया पर पश्चिमी औद्योगिक देशों का  नियंत्रण रहता है। अमेरिका विश्व बैंक और आई.एम.एफ. के किसी भी फैसले को वीटो कर सकता है।
➤ अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था राष्ट्रीय मुद्राओं और मौद्रिक व्यवस्थाओं को एक-दूसरे से जोड़ने वाली व्यवस्था है। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था निश्चित विनिमय दरों पर आधरित होती थी।
➤ इस व्यवस्था में राष्ट्रीय मुद्राएँ, जैसे भारतीय मुद्रा-रुपया डॉलर के साथ एक निश्चित विनिमय दर से बाँध हुआ था। एक डॉलर के बदले में कितने रुपये देने होंगे, यह स्थिर रहता था। डॉलर का मूल्य भी सोने से बँधा हुआ था।
➤ एक डॉलर की कीमत 35 औंस सोने के बराबर निर्धारित की गई थी।

❖ युद्ध के बाद  के प्रारंभिक वर्ष

➤ ब्रेटन वुड्स व्यवस्था ने पश्चिमी औद्योगिक राष्ट्रों और जापान के लिए व्यापार तथा आय में वृद्धि के एक अप्रतिम युग का सूत्रपात किया।
➤ 1950 से 1970 के बीच विश्व व्यापार की विकास दर सालाना 8 प्रतिशत से भी ज्यादा रही।
➤ इस दौरान वैश्विक आय में लगभग 5 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही थी। विकास दर भी कमोबेश स्थिर ही थी। उसमें ज्यादा उत्तार-चढ़ाव नहीं आए।
➤ इस दौरान ज्यादातर समय अधिकांश औद्यौगिक देशों में बेरोजगारी औसतन 5 प्रतिशत से भी कम ही रही। इन दशकों में तकनीक और उद्यम का विश्वव्यापी प्रसार हुआ। विकासशील देश विकसित औद्यौगिक देशों के बराबर पहुँचने की जीतोड़ कोशिश कर रहे थे इसीलिए उन्होंने आधुनिक तकनीक से चलने वाले संयंत्रों और उपकरणों के आयात पर बेहिसाब पूँजी का निवेश किया।

❖ अनौपनिवेशीकरण और स्वतंत्रता


➤ दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भी दुनिया का एक बहुत बड़ा भाग यूरोपीय औपनिवेशिक शासन के अधीन था। अगले दो दशकों में एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर उपनिवेश स्वतंत्र, स्वाधीन राष्ट्र बन चुके थे।
➤ ये सभी देश गरीबी व संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे। उनकी अर्थव्यवस्थाएँ और समाज लंबे समय तक चले औपनिवेशिक शासन के कारण अस्त-व्यस्त हो चुके थे।
➤ आई.एम.एफ. और विश्व बैंक का गठन तो औद्योगिक देशों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही किया गया था। ये संस्थान भूतपूर्व उपनिवेशों में गरीबी की समस्या और विकास की कमी से निपटने में दक्ष नहीं थे। लेकिन जिस प्रकार यूरोप और जापान ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्गठन किया था उसके कारण ये देश आई.एम.एफ. और विश्व बैंक पर बहुत निर्भर भी नहीं थे।
➤ इसी कारण पचास के दशक के आखिरी सालों में आकर ब्रेटन वुड्स संस्थान विकासशील देशों पर भी पहले से ज्यादा ध्यान देने लगे।
➤ दुनिया के अल्पविकसित भाग उपनिवेशों के रूप में पश्चिमी साम्राज्यों के अधीन रहे थे। विडंबना यह थी कि नवस्वाधीन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं पर भूतपूर्व औपनिवेशिक शक्तियों का ही नियंत्रण बना हुआ था।
➤ जो देश ब्रिटेन और फ्रांस के उपनिवेश रह चुके थे या जहाँ कभी उनका राजनीतिक प्रभुत्व रह चुका वहाँ के महत्वपूर्ण संसाधनों, जैसे खनिज संपदा और जमीन पर अभी भी ब्रिटिश और फ्रांसीसी कंपनियों का ही नियंत्रण था और वे इस नियंत्रण को छोड़ने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थीं।
➤ कई बार अमेरिका जैसे अन्य शक्तिशाली देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत कम कीमत पर दोहन करने लगती थीं।
➤ G-77 देशों का समुह – ज्यादातर विकासशील देशों को पचास और साठ के दशक में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की तेज प्रगति से कोई लाभ नहीं हुआ। इस समस्या को देखते हुए विकासशील देशों ने  एक नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणली (एन.आई.ई.ओ) प्रणाली के लिए आवाज उठाई और समूह 77 (जी -77) के रूप में संगठित हो गए।
➤ एन.आई.ई.ओ. से उनका आशय एक ऐसी व्यवस्था से था जिसमें उन्हें अपने संसाधनों पर सही मायनों में नियंत्रण मिल सके, जिसमें उन्हें विकास के लिए अधिक सहायता मिले, कच्चे माल क सही दाम मिलें, और अपने तैयार मालों को विकसित देशों के बाजारों में बेचने के लिए बेहतर पहुँच मिले।

❖ ब्रेटन वुड्स का समापन और ‘वैश्वीकरण’ की शुरुआत


➤ सालों की स्थिर और तेज वृद्धि के बावजूद युद्धोत्तर दुनिया में सब कुछ सही नहीं चल रहा था। साठ के दशक से ही विदेशों में अपनी गतिविधियों की भारी लागत ने अमेरिका की वित्तीय और प्रतिस्पर्धा को कमजोर कर दिया था
➤ अमेरिकी डॉलर अब दुनिया की प्रधान मुद्रा के रूप में पहले जितना सम्मानित और निर्विवाद नहीं रह गया था।
➤ सोने की तुलना में डॉलर की कीमत गिरने लगी थी। अंत: स्थिर विनियम दर की व्यवस्था विफल हो गई और प्रवाहमयी या अस्थिर विनिमय दर की व्यवस्था शुरू की गई।
➤ सत्तर के दशक के मध्य से अंतर्राष्ट्रीय वितीय संस्थानों में भी भारी बदलाव आ चुके थे। अब तक विकासशील देश कर्जे और विकास संबंधी सहायता के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की शरण ले सकते थे लेकिन अब उन्हें पश्चिम के व्यावसायिक बैंकों और निजी ऋणदाता संस्थानों से कर्ज न लेने के लिए बाध्य किया जाने लगा।
➤ विकासशील विश्व में समय-समय पर कर्ज संकट पैदा होने लगा जिसके कारण आय में गिरावट आती थी और गरीबी बढ़ने लगती थी। अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में यह समस्या सबसे ज्यादा दिखाई दी।
➤ औद्योगिक विश्व भी बेरोजगारी की समस्या में फँसने लगा था।

❖ बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ का उद्भव


➤ सत्तर के दशक के मध्य से बेरोजगारी बढ़ने लगी। नब्बे के दशक के प्रांरभिक वर्षों तक वहाँ काफी बेरोजगारी रही। सत्तर के दशक के आखिर सालों से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी एशिया के ऐसे देशों में उत्पादन केंद्रित करने लगी जहाँ वेतन कम थे।
➤ चीन 1949 की क्रांति के बाद विश्व अर्थव्यवस्था से अलग-थलग ही था। परंतु चीन में नयी आर्थिक नीतियों और सोवियत खेमे के बिखराव तथा पूर्वी यूरोप में सोवियत शैली की व्यवस्था समाप्त हो जाने के पश्चात बहुत सारे देश दोबारा विश्व अर्थव्यवस्था का अंग बन गए।
➤ चीन जैसे देशों में वेतन तुलनात्मक रूप से कम थे। फलस्वरूप विश्व बाजारों पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने वहाँ जमकर निवेश करना शुरू कर दिया।
➤ हमारे ज्यादातर टेलीविजन, मोबाईल फोन और खिलौने चीन में बने होते है या वहाँ के जैसे ही लगते हैं।
➤ यह चीनी अर्थव्यवस्था की अल्प लागत अर्थव्यवस्था और खास तौर से वहाँ के कम वेतनों का नतीजा है।
➤ उद्योगों को कम वेतन वाले देशों में ले जाने से वैश्विक व्यपार और पूँजी प्रवाहों पर भी असर पड़ा।
➤ पिछले दो दशक में भारत, चीन और ब्राजील आदि देशों की अर्थव्यवस्थाओं में आए भारी बदलावों के कारण दुनिया का आर्थिक भूगोल पूरी तरह बदल चुका है।

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