NCERT Class 10 Science Chapter 14 ऊर्जा के स्रोत Notes in Hindi

NCERT 10 Class Science Chapter 14 ऊर्जा के स्रोत notes in hindi

NCERT Class 10 Science Chapter 14 ऊर्जा के स्रोत notes in hindi. जिसमे हम ऊर्जा के विभिन्न रूप, ऊर्जा के पारंपरिक और गैर-पारंपरिक स्रोत , जीवाश्म ईंधन, सौर ऊर्जा , जैव गैस , हवा, पानी और ज्वारीय ऊर्जा , परमाणु ऊर्जा आदि के बारे में पढ़ेगे ।

TextbookNCERT
ClassClass 10
Subjectविज्ञान
ChapterChapter 14
Chapter Nameऊर्जा के स्रोत
CategoryClass 10 Science Notes
MediumHindi
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NCERT Class 10 Science Chapter 14 ऊर्जा के स्रोत Notes in hindi

📚 Chapter = 14 📚
💠 ऊर्जा के स्रोत💠

ऊर्जा के स्त्रोत

ऊर्जा संरक्षण का नियम :- ऊर्जा संरक्षण के नियम के अनुसार “ऊर्जा का न तो सृजन किया जा सकता है और नहीं इसका विनाश किया जा सकता है, इसे केवल इसे एक रूप से दूसरे रूप में रूपांतरित किया जा सकता है।”

मुख्य बिंदु:-

  1. किसी भौतिक अथवा रासायनिक प्रक्रम के समय कुल ऊर्जा संरक्षित रहती है।
  2. ऊर्जा के विविध रूप है तथा ऊर्जा के एक रूप को दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी प्लेट को ऊँचाई से गिराए तो प्लेट कि स्थितिज ऊर्जा का अधिकांश भाग फर्श से टकराते समय ध्वनि ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है।
  3. यदि हम किसी मोमबती को जलाते हैं तो यह प्रक्रम अत्यधिक ऊष्माक्षेपी होती है और इस प्रकार जलाने पर मोमबत्ती की रासायनिक ऊर्जा, ऊष्मीय ऊर्जा का प्रकाश ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है।

ऊर्जा की आवश्यकता :-

  • 1. खाना बनाने के लिए
  • 2. प्रकाश उत्पन्न करने के लिए
  • 3. यातायात के लिए
  • 4. मशीनों को चलाने के लिए
  • 5. उद्योगों एवं कृषि कार्य में ।

ऊर्जा के उत्तम स्रोत के लक्षण –

  • 1. प्रति एकांक द्रव्यमान, अधिक कार्य करें
  • 2. सस्ता एवं सरलता से सुलभ हो।
  • 3. भण्डारण तथा परिवहन में आसानी हो।
  • 4. प्रयोग करने में आसानी तथा सुरक्षित हो।
  • 5. पर्यावरण को प्रदूषित न करें।

उत्तम ईधन : वह ईधन जो प्रति एकांक आयतन अथवा प्रति एकांक द्रव्यमान पर अधिक कार्य करें, सरलता से सुलभ हो एवं जिसका परिवहन आसान हो उत्तम ईधन कहलाता है।

उत्तम ईधन के गुण :

  • i. वह जो धुंआ कम दे व  ऊष्मा अधिक दे।
  • ii. प्रति एकांक आयतन अथवा प्रति एकांक द्रव्यमान पर अधिक कार्य करने वाला हो।
  • iii. जो सरलता से सुलभ  हो।
  • iv. जिसका भंडारण एवं परिवहन आसान हो ।
  • v. जो सस्ता हो।

उपलब्धता के आधार पर ऊर्जा के स्त्रोत के प्रकार:-

1. नवीकरणीय स्त्रोत :- ऊर्जा के स्त्रोत जो असीमित मात्रा में उपलब्ध है एवं जिनका उत्पादन और उपयोग असीमित समय तक किया जा सके ऊर्जा के नवीकरणीय स्त्रोत कहलाते हैं।
जैसे- हवा, जल, बायो-मास, सौर ऊर्जा, महासागरीय ऊर्जा आदि ।

2. अनवीकरणीय स्त्रोत :- ऊर्जा के वे स्रोत जो समाप्य है, जो सीमित मात्रा में उपलब्ध है एवं जिनका उपयोग लंबे समय तक नहीं  किया जा सके ऊर्जा के अनवीकरणीय स्त्रोत कहलाते है।
जैसे- कोयला, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस आदि ।

नवीकरणीय स्त्रोत एवं अनवीकरणीय स्त्रोत में अंतर : –

नवीकरणीय स्त्रोत

अनवीकरणीय स्त्रोत

1. वे स्रोत जो असीमित मात्रा में उपलब्ध है।
2. इनका उत्पादन एवं उपयोग असीमित समय तक किया जा सकता है।
3. ये समाप्य स्त्रोत नहीं है।
4. उदाहरण : हवा, जल, बायो-मास, सौर ऊर्जा, महासागरीय तंरग आदि।

1. वे स्त्रोत जो सीमित मात्रा में उपलब्ध है।
2. इनका उत्पादन एवं उपयोग सीमित समय तक नहीं किया जा सकता है।
3. ये समाप्य स्त्रोत है।
4. उदाहरण : कोयला, पेट्रोलियम एंव प्राकृतिक गैस आदि।

आप पढ़ रहे है – NCERT Class 10 Science Chapter 14 NOTES

ऊर्जा के स्त्रोत:

उपयोग के आधार पर ऊर्जा के स्त्रोत:
1. ऊर्जा के पारंपरिक स्त्रोत:
2. ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्त्रोत या वैकल्पिक स्त्रोत :

(I) ऊर्जा के पारंपरिक स्त्रोत :-


ऊर्जा के वे स्रोत जो लम्बे समय से उपयोग में लाया जा रहा है, ऊर्जा के पारंपरिक स्त्रोत कहलाते है।

ऊर्जा के पारंपरिक स्रोत निम्नलिखित है।
1. जीवाश्मी ईधन
2. तापीय विद्युत संयंत्र
3. जल विद्युत संयंत्र
4. जैव-मात्रा (बायो-मास)
5. पवन ऊर्जा

(II) ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्त्रोत या वैकल्पिक स्त्रोत :

ऊर्जा के वे स्त्रोत जिनका उपयोग वर्तमान दिनों से वैकल्पिक स्रोत के रूप में किया जा रहा है ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्त्रोत या वैकल्पिक स्त्रोत कहलाते है।

ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्त्रोत या वैकल्पिक स्त्रोत निम्नलिखित है।
1. सौर ऊर्जा
2. समुद्रों से प्राप्त ऊर्जा (a) ज्वारीय ऊर्जा (b) तरंग ऊर्जा (c) महासागरीय तापीय  ऊर्जा
3. भूतापीय ऊर्जा
4. नाभिकीय ऊर्जा

ऊर्जा के पारंपरिक स्त्रोत :

1. जीवाश्मी ईधन:
उत्पत्ति – वे ईधन-जिनका निर्माण सजीव प्राणियों के अवशेषों से करोड़ों वर्षों कि जैविक प्रक्रिया के बाद होता है। जीवाश्मी ईधन कहते है।
जैसे-कोयला, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस आदि ।

ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में कोयले पर निर्भरता :
i. कोयले के उपयोग ने औद्योगिक क्राति  को संभव बनाया है।
ii. ऊर्जा के बढ़ती मांग की पूर्ति के लिए आज भी हम जीवाश्मी ईधन-कोयला तथा पेट्रोलियम पर निर्भर है।
iii. आज भी ऊर्जा के कुल खपत का अधिकांश भाग (लगभग 70%) कोयले से पूरी की जाती है।

ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में जीवाश्मी ईधन की उपयोगिता (Merits):
i. घरेलु ईधन के रूप में – कोयला, केरोसिन एवं प्राकृतिक गैस।
ii. वाहनों में प्रयोग-पेट्रोल डीजल एवं CNG आदि।
iii. तापीय विद्युत संयंत्र में कोयले एवं अन्य जीवाश्मी ईधनों का प्रयोग।

जीवाश्म ईधन को जलाने से होने वाली हानियाँ
i. ये जलने पर धुँआ उत्पन्न करते हैं। जिससे वायु प्रदुषण होता है।
ii. इनको जलाने से कार्बन, नाइट्रोजन एवं सल्फर के ऑक्साइड छोड़ते है जो अम्लीय वर्षा के मुख्य कारण है।
iii. ये CO2, मीथेन एवं कार्बन मोनोऑक्साइड छोड़ते हैं जो ग्रीन हाउस प्रभाव को बढ़ाते है।

अम्लीय वर्षा :

 जीवाश्मी ईंधनों को जलाने से ये कार्बन, नाइट्रोजन एवं सल्फर के ऑक्साइड छोड़ते हैं जिनसे अम्लीय वर्षा होती है।

अम्लीय वर्षा की हानियाँ :-

  • i. फसलों को क्षति पहुँचाते हैं।
  • ii. ये जलीय जीवों को नुकसान पहुँचाते है जिससे कई जीव मर जाते है।
  • iii. ये साथ ही साथ मृदा को भी नुकसान पहुँचाते है, जिससे मृदा की प्रकृति अम्लीय हो जाती है।

जीवाश्मी ईधनों से उत्पन्न प्रदूषकों के कम करने के उपाय :

i. दहन प्रक्रम की दक्षता में वृद्धि करके कम किया जा सकता है।
ii. दहन के फलस्वरूप निकलने वाली हानिकारक गैसों तथा राखों के वातावरण में पलायन को कम करने वाली विविध तकनीकों द्वारा।
iii. हमें जीवाश्मी ईधनों का संरक्षण करना चाहिए।

जीवाश्मी ईधनों का संरक्षण करने के कारण :

  • i. जीवाश्मी ईधन ऊर्जा के अनवीकरणीय स्त्रोत है।
  • ii. प्रकृति में जीवाश्मी ईधनों का सीमित भंडार है।
  • iii. जीवाश्मी ईधनों के बनने में करोड़ों वर्ष लग जाते है।

टरबाइन का सिद्धांत :

टरबाइन यांत्रिक ऊर्जा से कार्य करता है इसके रोटर-ब्लेड को घुमाने के लिए एक गति देनी होती है जो इसे गतिशील पदार्थ जैसे जल,वायु अथवा भाप से प्राप्त होता है जिससे यह रोटर को ऊर्जा प्रदान करते है। वह इस यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपान्तरित करने के लिए डायनेमों के शैफ्ट को घुमा देता है। यही टरबाइन का सिद्धांत है।

ताप विद्युत की प्रक्रिया :-

ताप विद्युत की प्रक्रिया में टरबाइन को घुमाने के लिए ऊर्जा के विभिन्न स्त्रोतों का उपयोग किया जाता है। ये ऊर्जा के विभिन्न स्त्रोत निम्नलिखित हैं:
i. ऊँचाई से गिरता हुआ पानी द्वारा ।
ii. ऊष्मा देकर जल से भप उत्पन्न् कर ।
iii. पवन के तेज झोकों द्वारा ।

यह प्रक्रिया निम्न है :-

2. तापीय विद्युत संयंत्र

  •  विद्युत संयंत्रों में प्रतिदिन विशाल मात्रा में जीवाश्मी ईधन का  का दहन करके जल उबालकर भाप बनाई जाती है जाती है टरबाइनों घुमाकर विद्युत उत्पन्न करती है।
  •  इन संयंत्रो में ईधन के दहन द्वारा ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न कि जाती है जिसे विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित किया जाता है। इसलिए इसे तापीय विद्युत संयंत्र कहते है।
  •  बहुत से तापीय संयंत्र के कोयले तथा तेल के क्षेत्रों के निकट की स्थापित इसलिए किये जाते है जिससे  समान दूरियों तक कोयले तथा पेट्रोलियम के परिवहन कि तुलना में विद्युत संचरण होता है।

3. जल विद्युत संयंत्र

  •  जल विद्युत संयंत्र में बहते जल कि गतिज ऊर्जा अथवा किसी ऊँचाई पर स्थिति जल की स्थितिज ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित किया जाता है।
  •  ऐसे जल-प्रपातों की संख्या बहुत कम है इसलिए कृत्रिम जल प्रपात का निर्माण किया जाता है। जिसमें नदियों या जलाशयों की बहाव को रोककर बड़े जलाशयों (कृत्रिम झीलों) में जल को एकत्र करने के लिए बड़े-बड़े बांध बनाए जाते हैं। जब इसमें जल का स्तर ऊँचा हो जाता है तो पाइप द्वारा जल की धार से बांध के आधार के पास स्थापित टरबाइन के ब्लेड को घुमाया जाता है जनित्र द्वारा विद्युत उत्पादन होता है।

बांध निर्माण एवं  उससे समस्याएँ :

  •  टिहरी बांध तथा सरदार सरोवर बांध जिसकी निर्माण परियोजना का विरोध हुआ था ।
  •  बाँधों के टूटने पर भंयकर बाढ़ आने का खतरा रहता है।
  •  इससे पेड़-पौधे, वनस्पत्ति आदि जल में डूब जाते हैं वे अवायवीय परिस्थितियों में सड़ने लगते हैं और विघटित होकर विशाल मात्रा में मीथेन गैस उत्पन्न करता है जो कि एक ग्रीन हाउस गैस है।

बाँधों के निर्माण से होने वाले नुकसान :

  • i. बाँधों के निर्माण से बहुत से कृषि योग्य भूमि नष्ट हो जाती है।
  • ii. मानव आवास नष्ट हो जाते हैं।
  • iii. इससे पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचता है।

ऊर्जा के पारंपरिक स्त्रोत के लिए प्रौद्योगिकी में सुधार:

ऊर्जा के पांरपरिक स्त्रोतों के लिए प्रौद्योगिकी में सुधार के क्रम में दो प्रमुख प्रौद्योगिकी प्रचलित है जो निम्न है:
(i) जैव-मात्रा (बायो-मास)
(ii) पवन ऊर्जा

  • 1. जैव-मात्रा
  • वे ईधन जो हमें पादप एवं जंतु उत्पाद से प्राप्त होते हैं उन्हें जैव-मात्रा कहते हैं। जैसे-लकड़ी, गोबर, सूखे, पत्ते और तने आदि ।
  • 1. यह ज्वाला के साथ जलते है।
  • 2. इन्हें जलाने पर अत्यधिक धुँआ निकालता है।
  • 3. ये ईधन अधिक ऊष्मा उत्पन्न नहीं करते  हैं।
  • 4. ये स्वास्थय के लिए हानिकारक है।
  • 5. जैव-मात्र ऊर्जा का नवीनीकरणीय स्त्रोत है।

चारकोल (काष्ठ कोयला) : जब लकड़ी को वायु की सीमित आपूर्ति में जलाते है तो उसमें उपस्थित जल एवं वाष्पशील पदार्थ बाहर निकल जाते हैं तथा इसके अवशेष के रूप में चारकोल रह जाता है।

चारकोल के गुण :
(i) चारकोल बिना ज्वाला के जलता है।
(ii) इससे अपेक्षाकृत कम धुँआ निकलता है।
(iii) इसकी ऊष्मा उत्पन्न करने की दक्षता भी अधिक होती है।

जैव गैस या गोबर गैस :


जैव गैस का प्रचलित नाम गोबर गैस है क्योंकि इस गैस को बनाने में उपयोग होने वाला मुख्य पदार्थ गोबर है।

  • इसकी विशेषता निम्न है:
  •  जैव गैस एक संयंत्र में उत्पन्न किया जाता है।
  •  इस संयंत्र को जैव गैस संयंत्र या गोबर गैस संयंत्र कहते है।
  •  इस गैस का उपयोग ईधन व प्रकाश स्रोत के रूप में गाँवों में किया जाता हैं।
  •  यह एक उत्तम ईधन है क्योंकि इसमें 75 प्रतिशत मेथेन(CH4) गैस होती है।
  •  इसकी तापमान क्षमता अधिक होती है।
  •  यह धुँआ उत्पन्न किये बिना जलती है।
  •  इसका उपयोग प्रकाश स्त्रोत के रूप में भी किया जाता है।
  •  तकनीक के प्रयोग से यह एक सस्ता ईधन बन गया है।
  •  इसमें उत्पन्न् शेष बची स्लरी का उपयोग एक उत्तम खाद के रूप में किया जाता है क्योंकि इसमें प्रचुर मात्रा में नाइट्रोजन  एवं फास्फोरस होता है।

बायो गैस का निर्माण


 गोबर, फसलों के काटने के पश्चात बचे अपशिष्ट सब्जियों के अपशिष्ट जैसे विविध पादप तथा वाहित मल जब ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में अपघटित होते हैं तो बायो-गैस / जैव गैस का निर्माण होता है।

कदर्म (Slurry) : जैव गैस बनाने के लिए मिश्रण टंकी में गोबर तथा जल का एक गाढ़ा घोल डाला जाता है, जिसे कर्दम या स्तरी (Shurry) कहते है।

संपाचित्र (digester) : संपाचित्र चारो और से बंद एक कक्ष होता है जिसमें ऑक्सीजन नहीं होता है। यह बायो गैस संयंत्र का सबसे बड़ा एवं प्रमुख भाग होता है। इसी भाग में अवायवीय सूक्ष्म जीव गोबर कि स्तरी के जटिल यौगिकों का अपघटन कर देते हैं।


बायो गैस निर्माण प्रक्रिया :
मिश्रण टंकी में कर्दम (स्लरी) का डाला जाना
                          ↓
अवायवीय सूक्ष्म जीवों द्वारा गोबर कि स्तरी के जटिल यौगिकों का अपघटन करना
                                             
अपघटन के पश्चात मीथेन, CO2, हाइड्रोजन सल्फाइड गैसों का उत्पन्न होना
                                  
बनी हुई गैस का गैस टंकी में संचित होना
                            ↓

प्रक्रम द्वारा शेष बची स्लरी का निर्गम टंकी में इक्कठा होना

बायों गैस के लाभ:-

  • 1. जैव गैस एक उत्तम ईधन हैं क्योंकि इसमें 75% तक मेथेन गैस होती है।
  • 2. धुआँ उत्पन्न किए बिना जलती हैं।
  • 3. जलने के पश्चात कोयला तथा लकड़ी की भांति राख जैसा अपशिष्ट शेष नहीं बचता हे।
  • 4. तापन क्षमता का उच्च होना।
  • 5. बायो गैस का प्रयोग प्रकाश के स्रोत के रूप में किया जाता है।
  • 6. संयंत्र में शेष बची स्लरी में नाइट्रोजन तथा फास्फोरस प्रचुर मात्रा में होते हैं जो कि उत्तम खाद के रूप में काम आती है।
  • 7. अपशिष्ट पदार्थों के निपटारे का सुरक्षित उपाय  

संयंत्र में बनने वाली गैसे :-
(i) मीथेन (ii) CO2 (iii) हाइड्रोजन (iv) हाइड्रोजन सल्फाइड

जैव-गैस निर्माण से निम्न उद्देश्य पूर्ति होती है:
(i) इसके निर्माण से ऊर्जा का सुविधाजनक दक्ष स्त्रोत मिलता है।
(ii) इसके  निर्माण से उत्तम खाद मिलती है।
(iii) इसके निर्माण से अपशिष्ट पदार्थों के निपटारे का सुरक्षित उपाय भी मिल जाता है।

शेष बची स्लरी का उपयोग :
(i) इस स्लेरी में नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में होता है इसलिए यह एक उत्तम खाद के रूप में काम आता है।

पवन ऊर्जा


आजकल पवन ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पन्न करने में किया जा रहा है।

पवन : गतिशीज वायु को पवन कहते हैं। इसलिए इनमें गतिज ऊर्जा होती है और इनमें कार्य करने की क्षमता होती है।

पवन की उत्पत्ति : सूर्य के विकिरणों द्वारा भूखंडों तथा जलाशयों के असमान तप्त होने के कारण वायु में गति उत्पन्न होती है तथा पवनों का प्रवाह होता है।

पवन-चक्की: पवन – चक्की एक संयंत्र है जिससे पवन की गतिज ऊर्जा का उपयोग कर विद्युत ऊर्जा बनाई जाती है।

पवन-चक्की की संरचना : पवन चक्की किसी ऐसे विशाल विद्युत पंखे के समान होती है जिसे किसी दृढ़ आधार पर कुछ ऊँचाई पर खड़ा कर दिया जाता है।

पवन-ऊर्जा फार्म :  किसी विशाल  क्षेत्र में बहुत सी पवन चक्कियाँ लगाई जाती है, इस क्षेत्र को पवन ऊर्जा फार्म कहते है।

पवन चक्की द्वारा व्यापारिक स्तर पर विद्युत निर्माण :
व्यापारिक स्तर पर विद्युत प्राप्त करने के लिए किसी पवन ऊर्जा फार्म की सभी पवन चक्कियों को परस्पर (एक दूसरे से ) युग्मित कर लिया जाता है जिसके फलस्वरूप प्राप्त नेट ऊर्जा सभी पवन चक्कियों द्वारा उत्पन्न विद्युत ऊर्जाओं के योग के बराबर होती है।

पवन – ऊर्जा की विशेषताएँ :


(i) पवन ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा का एक दक्ष एवं पर्यावरणीय-हितैषी स्रोत है।
(ii) इसके द्वारा विद्युत उत्पादन के लिए बार-बार धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं है।

पवन ऊर्जा की उपयोगी की सीमाएँ :

  • (i) पवन ऊर्जा फार्म केवल उन्हीं क्षेत्रों में स्थापित किये जाते है जहाँ वर्ष के अधिकांश दिनों में तीव्र पवन चलती हो।
  • (ii) टरबाइन की आवश्यक चाल को बनाए रखने के लिए पवन की चाल 15 km/h से अधिक होनी चाहिए।
  • (iii) पवन ऊर्जा फार्म स्थापित करने के लिए एक विशाल भूखंड की आवश्यक होती है।
  • (iv) 1 MW (मेगावाट) के जनित्र के लिए पवन फार्म की भूमि लगभग 2 हैक्टेयर होनी चाहिए ।
  • (v) पवन ऊर्जा फार्म स्थापित करने के लिए आंरभिक लागत अत्यधिक है।

पवन ऊर्जा में भारत

  •  डेनमार्क पवन-ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी है इसलिए इसे पवनों का देश कहते हैं। यहाँ देश की 25 प्रतिशत से भी अधिक विद्युत की पूर्ति पवन-चक्कियों के विशाल नेटवर्क द्वारा विद्युत उत्पन्न की जाती है।
  •  पवन ऊर्जा में जर्मनी अग्रणी देश हैं।
  •  भारत का पवन ऊर्जा द्वारा विद्युत उत्पन्न करने में 5 वाँ स्थान है।
  •  तमिलनाडु में कन्याकुमारी के निकट भारत का विशालतम पवन ऊर्जा फार्म स्थापित किया गया है जो 380 MW विद्युत उत्पन्न करता है।

वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत अथवा गैर-परंपरागत ऊर्जा स्त्रोत :

वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत अथवा गैर – परंपरागत ऊर्जा स्त्रोत का तात्पर्य ऊर्जा के उन स्रोतों से हैं जिसे हम पहले कभी प्रयोग नही किया परन्तु वर्त्तमान में उसे नई प्रौद्योगिकी द्वारा ऊर्जा के एक वैकल्पिक स्रोत के रूप देख रहे है या अब प्रयोग कर रहे हैं।

1. सौर ऊर्जा (Solar Energy) : सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को सौर ऊर्जा कहते हैं। ये दृश्य प्रकाश, अवरक्त किरणों ,पराबैगनी किरणों के रूप में होती है।
सौर स्थिरांक पृथ्वी के वायुमंडल की परिरेखा पर सूर्य की किरणों के लंबवत स्थित खुले क्षेत्र के प्रति क्षेत्रफल पर प्रति सैकण्ड पहुँचने वाली सौर ऊर्जा को सौर-स्थिरांक कहते हैं। इसका मान 1.4 kJ/m2 होता है।

2. सौर ऊर्जा से चलने वाली युक्तियाँ :- इन युक्तियों में सूर्य से प्राप्त ऊष्मा का उपयोग ऊष्मक के रूप में  किया जाता है जो ऊष्मा को एकत्र कर कार्य करती है।

सौर ऊर्जा से चलने वाली युक्तियाँ :- इन युक्तियों में सूर्य से प्राप्त ऊष्मा का उपयोग ऊष्मक के रूप में किया जाता है जो ऊष्मा को एकत्र कर कार्य करती है।

1. सौर ऊर्जा को ऊष्मा के रूप में :
(i) सौर कुकर
(ii) सौर जल तापक (सौर गीजर)
(iii) सौर जल पम्प

1. सौर कुकर : यह वह युक्ति है जिसमें सूर्य की किरणों को फोकसित करने के लिए दर्पणों का उपयोग एक बॉक्स के ऊपर लगाकर किया जाता है जो एक बढ़िया उष्मक की भांति कार्य करता है।

इसमें काँच की शीट की एक ढक्कन होता है जेा इसके अंदर प्रवेश करने वाली ऊष्मा को बाहर नहीं निकलने देता है। यह भोजन पकाने के लिए उपयोग में लाया जाता है।
2-3 घंटे में बाक्स के अन्दर का ताप 100oC-140oC तक हो जाता है।

सौर कुकर का सिद्धांत : सौर कुकर मुख्यत: दो सिद्धांतों पर कार्य करता है।

(i) काला रंग ऊष्मा को अधिक सोंखता है:
इस सिद्धांत के आधार पर ही सौर कुकर को चारों तरफ से काला रंग से रंग जाता है जिससे ये अपने ऊपर पड़ने वाले ऊष्मा को अधिक से अधिक सोंख सके ।

(ii) ग्रीन हाउस प्रभाव : इस सिद्धांत के अनुसार सौर कुकर में एक काँच की शीट ढक्कन के ऊपर लगाया जाता है ताकि उसके अंदर प्रवेश करने वाला विकिरण (ऊष्मा) बाहर न आ सके और अंदर ऊष्मा लगातार बनी रहे ।

  • सौर कुकर के लाभ :
  • (i) भारत में सौर ऊर्जा लगभग सभी जगहों पर प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है।
  • (ii) यह पर्यावरण हितैषी है।
  • (iii) इन कुकर के उपयोग से एक साथ एक से अधिक खाना बनाया जा सकता है।
  • (iv) कोयला/ पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईधनों की बचत ।
  • (v) प्रदूषण नहीं फैलता ।
  • (vi) खाद्य पदार्थों के पोषक तत्व नष्ट नहीं होते है।
  • सौर कुकर की हानियाँ :
  • (i) यह सभी प्रकार के भोजन बनाने के लिए उपयुक्त नहीं है।
  • (ii) इसका प्रयोग केवल तेज धुप वाले दिनों में ही किया जा सकता है।
  • (iii) ध्रुवीय क्षेत्रों में तथा उन क्षेत्रों में जहाँ सूर्य बहुत कम दिखाई देता है उपयोग सीमित है।
  • (iv) रात के समय और कुकर का उपयोग नहीं किया जा सकता ।
  • (v) बारिश के समय इसका उपयेाग नहीं किया जा सकता ।
  • (vi) सूर्य के प्रकाश का निरंतर समायोजन करना आवश्यक है ताकि यह उसके दर्पण पर सीधा पड़े।

2. सौर सेल (Solar Cell) : ये सौर ऊर्जा से चलने वाली एक युक्ति है जो सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित करते हैं।

  • सौर सैल को बनाने में प्रयुक्त पदार्थ :
  • सौर सेलों को बनाने के लिए सिलिकॉन का उपयोग किया जाता है। जो प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, परंतु सौर सेलों को बनाने में उपयोग होने वाले विशिष्ट श्रेणी के सिलिकॉन की उपलब्धता सीमित है।
  • • धुप में रखे जाने  पर किसी  प्ररूपी और सेल से 0.5-1.0 V तक वोल्टता विकसित होती है तथा लगभग 0.7W विद्युत उत्पन्न कर सकते हैं।

सौर पैनल : जब बहुत अधिक संख्या में सौर सेलों को संयोजित करते हैं तो यह व्यवस्था सौर पैनल कहलाती है।
सौर सेलों को एक दूसरे से जोड़कर सौर पैनल बनाया जाता है। इसे जोड़ने के लिए चाँदी (सिल्वर) का उपयोग किया जाता है।

  • सौर सेलों का उपयोग :-
  • (i) सौर ऊर्जा से विद्युत ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
  • (ii) सौर सेलों का उपयोग बहुत से वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक अनुप्रयोग के लिए किया जाता है।
  • (iii) ट्रैफिक सिग्नलों, परिकलन यन्त्र (Calculator) तथा बहुत से खिलौनों में सौर सेल लगे होते हैं।
  • (iv) मानव-निर्मित उपग्रहों में सौर सेल का उपयोग होता है।
  • (v) रेडियों तथा वायरलेस सिस्टम, सुदूर क्षेत्रों के टी.वी. रिले केन्द्रों में सौर सेल पैनल का उपयोग होता है।
  • सौर सेलों के लाभ :
  • (i) इसमें कोई गतिमान पुर्जा नहीं होता है तथा इनका रखरखाव सस्ता है।
  • (ii) ये बिना किसी फोकसन युक्ति के काफी संतोषजनक कार्य करते है।
  • (iii) इन्हें सुदूर तथा अगम्स स्थानों में स्थापित किया जा सकता है।
  • (iv) यह ऊर्जा का नवीकरणीय स्त्रोत है।
  • (v) इससे प्रदूषण नहीं होता हे ये पर्यावरण हितैसी है।
  • सौर सेल की सीमाएँ :
  • (i) सौर सेलों के उत्पादन की समस्त प्रक्रिया बहुत महँगी है।
  • (ii) सौर सेलों को बनाने में उपयोग होने वाले विशिष्ट श्रेणी के सिलिकॉन की उपलब्धता सीमित है।
  • (iii) सौर पैनल बनाने में सिल्वर (चाँदी) का उपयोग होता है जिसके कारण लागत में और वृद्धि हो जाती है।
  • (iv) मँहगा होने के कारण सौर सेलों का घरेलू उपयोग अभी तक सीमित है।

समुद्रों से ऊर्जा (Sea Energy):-
समुद्रों से प्राप्त ऊर्जा को हम तीन वर्गों में विभाजित करते हैं :
1. ज्वारीय ऊर्जा
2. तरंग ऊर्जा
3. महासागरीय तापीय ऊर्जा

1. ज्वारीय ऊर्जा :- समुद्रों से उत्पन्न ज्वार-भाटा के कारण प्राप्त ऊर्जा को ज्वारीय ऊर्जा कहते हैं।
यह ज्वार – भाटे में जल के स्तर को चढ़ने तथा गिरने से हमें ज्वारीय ऊर्जा प्राप्त होती है।

ज्वार-भाटा (Tide) : समुद्र के जल स्तर को दिन में परिवर्तन होने की परिघटना को ज्वार-भाटा कहते है।

ज्वारीय ऊर्जा के कारण :-
(i) पृथ्वी की घूर्णन गति
(ii) चन्द्रमा का गुरुत्वीय खिंचाव

ज्वारीय ऊर्जा का दोहन :
ज्वारीय ऊर्जा का दोहन सागर के किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके किया जाता है। बाँध के द्वारा पर स्थापित टरबाइन ज्वारीय ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित कर देती है।

2. तंरग ऊर्जा:
महासागरों के पृष्ठ पर आर-पार बहने वाली प्रबल पवन तंरगें उत्पन करती है। इन विशाल तरंगों की गतिज ऊर्जा को भी विद्युत उत्पन्न करने के लिए इन उत्पन्न तरंगों को ट्रेप किया जाता है। तंरग ऊर्जा को ट्रेप  करने के लिए विविध युक्तियाँ विकसित की गई है जो टरबाइन को घुमाकर विद्युत उत्पन्न करती है।

तंरग ऊर्जा की सीमाएँ :
तंरग ऊर्जा वहीं पर व्यावहारिक उपयोग हो सकता है जहाँ तंरग अत्यंत प्रबल हों।

3. महासागरीय तापीय ऊर्जा :- समुद्रों तथा महासागरों के पृष्ठ के जल का ताप में अंतर से प्राप्त तापीय ऊर्जा का उपयोगी विद्युत संयंत्रों के उपयोग से विद्युत ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
महासागरीय तापीय ऊर्जा रूपांतरण विद्युत संयंत्र (Ocean Thermal Energy Conversion Plant या OTEC विद्युत संयंत्र) : यह एक यन्त्र है जो समुद्रों तथा महासागरों के पृष्ठ तथा गहराई के तापों का अन्तर से प्राप्त ऊष्मा का उपयोग कर विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करता है।

महासागरीय तापीय ऊर्जा का दोहन :
इसके दोहन के लिए OTEC विद्युत संयंत्र का उपयोग किया जाता है। यह संयंन्त्र महासागर के पृष्ठ पर जल का ताप तथा 2 km तक की गहराई पर जल के ताप में जब 20oC का अंतर हो तो ही OTEC संयंत्र कार्य करता है।

पृष्ठ के तप्त जल का उपयोग अमोनिया जैसे वाष्पशील द्रवों को उबालने में किया जाता है। इस प्रकार बनी द्रवों की वाष्प फिर जनित्र (Generator) के टरबाइन को घुमाती है। महासागर की गहराइयों से ठंडे जल को पंपों से खींचकर वाष्प को ठंडा करके फिर से द्रव में संघनित किया जाता है। टरबाइन घूमने से विद्युत उत्पन्न होता है।  

OTEC विद्युत संयंत्र की सीमाएँ :
(i) महासागर के पृष्ठ पर जल का ताप तथा 2 km तक की गहराई पर जल के ताप में जब 20oC का अंतर हो तो ही OTEC संयंत्र कार्य करता है।
(ii) इसके दक्षतापूर्ण व्यापारिक दोहन में कठिनाइयाँ है।

  • भूतापीय ऊर्जा (Geothermal Energy):
  • • ‘भू’ का अर्थ है ‘धरती’ तथा ‘तापीय’ का अर्थ है ‘ऊष्मा’
  • • पृथ्वी के तप्त स्थानों पर भू-गर्भ में उपस्थित ऊष्मीय ऊर्जा को भूतापीय ऊर्जा कहते हैं।
  • जब भूमिगत जल तप्त स्थलों के संपर्क में आता है तो भाप उत्पन्न होती है।
  • जब यह भाप चट्‌टानों के बीच फंस जाती है तो इसका दाब बढ़ जाता है। उच्च दाब पर यह भाप पाइपों द्वारा निकाल ली जाती है, यह भाप विद्युत जनरेटर की टरबाइन को घुमाती है तथा विद्युत उत्पन्न की जाती है।
  • तप्त स्थल: भौमिकीय परिवर्तनों के कारण भूपर्पटी में गहराइयों पर तप्त क्षेत्रों में पिघली चट्‌टानों ऊपर धंकेल दी जाती है जो कुछ क्षेत्रों में एकत्र हो जाती है, इन क्षेत्रों को तप्त स्थल कहते हैं।

गरम चश्मा अथवा ऊष्ण स्त्रोत : तप्त जल को पृथ्वी के पृष्ठ से बाहर निकलने के लिए जो निकास मार्ग होता है। इन निकास मार्गों को गरम चश्मा अथवा ऊष्ण स्रोत कहते हैं।

लाभ :
(i) इसके द्वारा विद्युत उत्पादन की लागत अधिक नहीं है।
(ii) व्यापारिक दृष्टिकोण से इस ऊर्जा का दोहन करना व्यावहारिक है।

सीमाएँ :
(i) पृथ्वी पर भूतापीय ऊर्जा के क्षेत्र बहुत कम हैं।
(ii) ऐसे तप्त स्थलों की गहराई में पाइप पहुँचना मुश्किल एवं महँगा होता है।

नाभिकीय ऊर्जा
नाभिकीय अभिक्रिया के दौरान मुक्त होने वाली ऊर्जा को नाभिकीय ऊर्जा कहते है।
नाभिकीय ऊर्जा दो प्रकार के अभिक्रिया से प्राप्त होती है-

(i) नाभिकीय विखंडन – एक भारी नाभिक का दो या दो से अधिक हल्के नाभिकों में टूटना नाभिकीय विखंडन कहलाता है।
उदाहरण: जैसे- यूरेनियम, प्लूटोनियम अथवा थोरियम जैसे भारी नाभिक के परमाणुओं के नाभिक को निम्न ऊर्जा वाले तापीय न्यूट्रॉन से बमबारी कराकर हल्के नाभिकों में तोड़ा जाता है। जिसके दौरान भारी मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है।

तापीय न्यूट्रॉन (निम्न ऊर्जा का न्यूट्रॉन) :-  ये वो न्यूट्रॉन है जो नाभिकीय रिएक्टर में उपस्थित भारी जल या मंदक के टकराकर अपनी ऊर्जा खो देते हैं ऐसे न्यट्रॉन को तापीय न्यूट्रॉन कहा जाता है।

इनका उपयोग : परमाणु के नाभिक को तोड़ने के लिए किया जाता है, इन्हीं न्यूट्रॉन से नाभिक पर बमबारी की जाती है।

(ii) नाभिकीय संलयन – दो हल्के नाभिकों को टूटकर एक भारी नाभिक में संलयित होना नाभिकीय संलयन कहलाता है। उदाहरण : दो हल्के सामान्यत: हाइड्रोजन नाभिक संलयित होकर एक भारी नाभिक हीलियम का निर्माण करता है जिसमें भारी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न होती है।
1H2 + 1H2         →       2He3  + 0n1  +  ऊष्मा
यहाँ हाइड्रोजन के समस्थानिक डयुट्रियम का नाभिकीय संलयन के लिए उपयोग हुआ है जबकि हाइड्रोजन का सामान्यत: परमाणु भार 1 होता है, से तीन भार हीलियम का निर्माण हुआ है और एक न्यूट्रॉन ऊर्जा के रूप में मुक्त हुआ है।
नाभिकीय संलयन को संयत्र कराने के लिए अत्यधिक ताप व दाब की जरुरत होती है।

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Chapter 1 रासायनिक अभिक्रियाएँ एवं समीकरण
Chapter 2 अम्ल क्षारक एवं लवण
Chapter 3 धातु एवं अधातु
Chapter 4 कार्बन एवं उसके यौगिक
Chapter 5 तत्वों का आवर्त वर्गीकरण
Chapter 6 जैव प्रक्रम
Chapter 7 नियंत्रण एवं समन्वय
Chapter 8 जीव जनन कैसे करते हैं
Chapter 9 आनुवंशिकता एवं जैव विकास
Chapter 10 प्रकाश परावर्तन तथा अपवर्तन
Chapter 11 मानव नेत्र तथा रंगबिरंगा संसार
Chapter 12 विद्युत
Chapter 13 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव
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