Class 12 Biology [जीव विज्ञान]Chapter 1 जीवों में जनन Notes in Hindi PDF

Class 12 Biology Chapter 1 Reproduction in Organism Notes in Hindi PDF Download

जिस प्रक्रम द्वारा जीव अपनी संख्या में वृद्धि करते हैं, उसे प्रजनन (Reproduction) कहते हैं। प्रजनन जीवों का सर्वप्रमुख लक्षण है। इस पृथ्वी पर जीव-जातियों की सततता प्रजनन के फलस्वरूप ही संभव हो पायी है।

मानव प्रजनन तंत्र (Human reproductive system):

मानव एकलिंगी (Unisexual) प्राणी है, अर्थात् नर और मादा लिंग अलग-अलग जीवों में पाये जाते हैं। जो जीव केवल शुक्राणु ( स्पर्म ) उत्पन्न करते हैं उसे नर कहते हैं। जिन जीवों से केवल अण्डाणु की उत्पत्ति होती है, उन्हें मादा कहते हैं।

मानव नर जनन तंत्र

  • ♦ मुख्य अंग → वृषण
  • ♦ सहायक → अधिवृषण, शुक्रवाहिनी, बाह्य जननेद्रिंया
  • ♦ नर जनन ग्रंथिया → शुक्राशय, प्रोस्टेट ग्रंथि
  • बल्वोयूरोथ्रिल ग्रंथि

मादा जनन तंत्र

  • ♦ मुख्य → अण्डाशय
  • ♦ साहयक → अण्डवाहिनी, गर्भाशय, गर्भाशय ग्रीवा, योनि एवं बाह्य
  • जननोन्द्रिया
  • ♦ मादा जनन ग्रंथि → स्तन ग्रंथि बार्थोलिन गृंथि

लैंगिक जनन :-

  • ⇒ जब दो जनक (विपरीत लिगं वाले) जनन प्रक्रिया में भाग लेते है। तथा नर व मादा युग्मक में युग्मन होता है। तो यह लैंगिक जनन कहलाता हैं।

⇒ लैंगिक जनन में प्राणी नर व मादा युग्मक पैदा करते है। जिनके संयुक्त होने पर नये जीव विकसित होते हैं।

⇒ मानव में नर जननांग व मादा जननांग अलग – अलग प्राणियों में होते है। अर्थात् मानव एकलिंगी प्राणी होता हैं। जिसमें लैंगिक द्विरूपता पाई जाती हैं।

⇒ सजीव (विवि – पोरस) प्राणी है। क्योंकि यह अपने समान बच्चों को जन्म देता हैं।

⇒ मानव में जनन प्रक्रिया के मुख्य चरण निम्न है –

  • 1. युग्मक जनन :- युग्मको की रचना / निर्माण
  • 2. वीर्य सेचन (Insamination) :- नर द्वारा शुक्राणुओ को मादा के जनन मार्ग में स्थानान्तरित करना।
  • 3. निषेचन (Fertilization) :- युग्मको का संलयन
  • 4. युग्मनज निर्माण (Zygote Formation) :- निषेचन के फलस्वरूप बनने वाली द्विगुणित संरचना
  • 5. विदलन(Cleavage) :- युग्मनज में होने वाले विशिष्ट प्रकार के समसुत्री विभाजन को विदलन कहते है। इसमें युग्मनज से मोरूला, मोरूला से ब्लास्टूला, ब्लास्टूला से गैस्टूला बनता है।
  • 6. अंतर्रोपण (Implantation) :- भ्रूण के मादा की गर्भाशय की दीवार से चिपकने की प्रक्रिया को अंतर्रोपण कहते है।
  • 7. गर्भावधि (Gestation Period) :- निषेचन से लेकर प्रसव तक कि समयावधि को गर्भावधि कहते हैं। मानव में गर्भावधि 270 दिन (9 माह) की होती हैं।
  • 8. प्रसव (पारट्यूरिशन) :- मानव में बच्चे या शिशु के जन्म की क्रिया को प्रसव कहते हैं।

किशोरावस्था (Adolescence ) :-       

  • जीवों में लैंगिक परिपक्वता × – या योग्यता की शुरूआत किशोरावस्था कहलाती है।
  • जीवों में पाई जाने वाली वह प्रावस्था जिसके बाद जीव जनन योग्य होते है। किशोरावस्था कहलाती है।

योवनारम्भ (Puberty) :-

  • लैंगिक परिपक्वता या योग्यता की शुरुआत यौवनारभ कहलाता हैं। इस अवस्था में जीव जनन योग्य होता हैं।
  • इस अवस्था में भिन्न भिन्न हार्मोनो का स्त्रवण होता हैं। जिससे जीव में द्वितीयक गौण लैंगिक लक्षणों का विकास होता हैं।

मानव नर के द्वितीयक लैंगिक लक्षण :-

  •           पुरूष – 13 – 14
  • स्त्री – 10 – 12

मानव नर में वृषण द्वारा टेस्टोस्टेरॉन (नर हार्मोन) का स्त्रवण होता है जो नर द्वितीयक लैंगिक लक्षण विकसित करता हैं। ये लक्षण निम्नलिखित है-

  • आवाज का भारी होना
  • दाढ़ी – मूँछों का होना
  • मांसपेशियों का मजबूत होना
  • कण्ठ का उभरा होना
  • शरीर पर तुलनात्मक रूप से अधिक बालों का पाया जाना।

मानव मादा के द्वितीयक लैंगिक लक्षण :-

मानव मादा में अण्डाशय द्वारा मादा हार्मोन प्रोजेस्टेरॉन का स्त्रवण होता है। जिसके द्वारा निम्न द्वितीयक लैंगिक लक्षण विकसित होते है-

  • आवाज का पतला होना
  • मांसपेशियों का लचीलापन
  • श्रौणी क्षेत्र का अधिक विस्तार।

नर जननांग :- 

1. प्राथमिक जननांग :- वृषण (Testis) :-

  • मानव नर में एक जोड़ी, हल्के गुलाबी रंग के वृषण, उदर गुहा के बाहर वृषणकोष (स्क्रोटम) में पाये जाते हैं। ये वृषण वृषणकोण में आंतरिक रूप से डारटोस पेशियो से जुड़े रहते हैं।
  • डारटोस पेशियां स्क्रोटम को ताप नियंत्रित करने में सहायता करती हैं। (स्क्रोटम के संकुचन एवं शिथिलन क्रिया द्वारा)
  • वृषणकोष का तापमान उदरगुहा के तापमान से 2-30C कम होता है। जो शुक्राणु उत्पादन के लिए अनूकूल होता हैं।
  • प्रत्येक वृषण कई शुक्रजन नलिकाओं का बना होता है। इन नलिकाओं के मध्य अंतराली कोशिकाएँ या लीडिंग कोशिकाये होती है जो नर हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन का स्त्राव करती है।
  • मानव वृषण का आकार 4-5 cm लम्बे से 2-3 cm चौड़े व 1.5cm मोटे होते है।

वृषण की संरचना :-

वृषण 3 आवरण से घिरी हुई संरचना होती है।

  1. ट्यूनिका वेजिनेलिस
  2. ट्यूनिका एल्बूजिनिया
  3. ट्यूनिका वेसिकुलोसा

1. ट्यूनिका वेजिनेलिस :-

 यह वृषण की सबसे बाहरी परत होती हैं। जो दो स्तरों से बनी होती हैं।

          (i) पेराइटल

          (ii) विसरल पेरिटोनियम

          ये दोनों परते वृषण को घेरे रहती हैं। इनके मध्य गुहा होती हैं।

2. ट्यूनिका एल्बूजिनिया :- 

यह ट्यूनिका वेजिनेलिस के नीचे पाई जाने वाली परत है। जो संयाजी ऊतक की बनी होती हैं। यह वृषण के अन्दर की और वलित होकर अनेक पटो का निर्माण करती हैं। जिसे मध्य विभाजक वृषण या वृषण पटिका कहते हैं।

3. ट्यूनिका वेस्क्यूलोसा :-

 यह वृषण को सबसे आन्तरिक आवरण है।

  • ट्यूनिका एल्बुजिनिया द्वारा वृषणपटिकाओं का निर्माण किया जाता है। जिससे 250 वृषणकोष्ठ बनते हैं। प्रत्येक कोष्ठ में 2-3 शुक्रनलिकाएँ होती हैं। अर्थात् वृषण में कुल 750 – 900 शुक्राजन नलिकाएँ होती है। ये नलिकाएँ 750-900 कोष्ठ के शीर्ष पर एकत्रित होकर एक जालनुमा संरचना बनाती है। जिसे वृषण जालक कहते हैं।
  • वृषण जालक आपस में संयुक्त् होकर 12-20 अपवाही नलिकाएँ बनाती हैं। जो एकत्रित होकर एक नलिका में खुलती हैं। जिसे एपिडिडाइमस या अधिवृषण कहते हैं।

वृषण की अनुदैर्ध्य काट :-

2. अधिवृषण :-

 इसके 3 भाग होते हैं।

          (i) शीर्ष भाग – काउपट (Caupat)

          (ii) मध्य भाग – कार्पस (Carpus)

          (iii) पुच्छ भाग – कोडा (Cauda)

काउपट :- यह भाग अधिवृषण का सबसे मोटा भाग होता है एवं वृषण के ऊपरी भाग पर ढके रहता है।

          कार्पस :- यह वृषण की पश्च सतह पर फैला रहता हैं।

          कोडा :- यह सबसे पतला वह निचला भाग होता हैं।

  • अधिवृषण में शुक्राणुओं को तब तक सरंक्षित रखा जाता है जब तक इनका स्खलन नहीं हो जाता।
  • इनमें संग्रहित शुक्राणुओं को पोषण प्रदान किया जाता है।
  • अधिवृषण का कार्य वृषण से शुक्राणुओं को शुक्रवाहक तक पहुँचाने का कार्य करता हैं। इसकी आंतरिक सतह में पक्ष्माभी उपकला कोशिकाएँ पाई जाती है जो शुक्राणुओं का गति प्रदान करती हैं।


               “नर जनन तंत्र का नामांकित चित्र”

3.  शुक्रजनक नलिका :-

         शुक्रजन नलिका की अनुप्रस्थ काट

  • शुक्रजनक नलिका (सेमिनिफेरस ट्यूब) की संख्या 1 – 3 होती है। इन नलिकाओं के चारों और संयोजी ऊत्तक से निर्मित परत पायी जाती है। जिसे ट्यूनिका प्रोपिया कहते है इसके नीचे जर्मिनल एपिथीलियम (जननिक उपकला) पाई जाती है।
  • इन नलिकाओं में दो प्रकार की कोशिकाएँ पाई जाती हैं।

          1. शुक्राणुजन कोशिकाएँ (स्पर्मेटोगोनिया)

          2. सर्टोलि कोशिकाएँ (आलम्बक कोशिका)

1. शुक्राणुजन कोशिकाएँ :- 

ये कोशिकायें द्विगुणित होती हैं। तथा इन कोशिकाओं में समसूत्री विभाजन एवं अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा शुक्राणुओं का निर्माण होता है।

          शुक्राणुओ के निर्माण की प्रक्रिया को शुक्राजनन (स्पर्मेटोजिनेसिस) कहते हैं।

2. सर्टोली कोशिका :-

 इन्हें पोष या नर्स कोशिका भी कहते है। बहुभुजीय, लम्बी, गुम्बदनुमा संरचना होती है। जिसके निम्नलिखित कार्य है।

  • विकासशील शुक्राणुओं को पोषण प्रदान करना।
  • (एड्रोजन बाइडिंग प्रोटीन) ABP जो टेस्टोस्टेरोन हार्मोन के स्त्रवण तथा शुक्राणुओं के निर्माण को नियंत्रित करता है। सरटोली कोशिकाओं से इनहिबीन हार्मोन का स्त्रवण होता हैं। जो पुटिका, प्रेरक हार्मोन (FSH) का नियत्रंण करता हैं।

वृषणकोष या स्क्रोटम :-

  • वृषणकोष एक थैलीनुमा संरचना होती है जो वृषणीय पट्ट द्वारा दो अर्द्धाशों में विभक्त होता है।
  • वृषणकोष में डारटोस पेशियाँ पाई जाती है जो वातावरणीय तापमान के अनुसार वृषण को शरीर के पास एवं शरीर से दूर ले जाकर ताप का नियंत्रण करती हैं।
  • वृषणकोष का ताप शरीर के ताप से 2-5oc कम होता है। अर्थात् इनका ताप 34-35oc होता है जो शुक्राणु निर्माण (शुक्रजनन क्रिया) के लिए अनुकूल तापमान माना जाता हैं।

प्रश्न. क्या कारण है कि मानव वृषण उदरगुहा के बाहर वृषणकोष या स्क्रोटम में पाये जाते हैं।

– वृषण का निर्माण भ्रूणीय अवस्था में उदरगुहा में होता है। लेकिन सातवें महीने में वृषण वृषणरज्जु द्वारा वृषणकोष में आ जाते है। जहाँ से स्थायी रूप से पाये जाते हैं। कभी कभी वृषण जन्म के दौरान ही उदरगुहा से वृषणकोष में नहीं आ पाते। अर्थात् उदरगुहा में ही रहते हैं। इस स्थिति को गोपिक वृषणता (क्रिप्टोचिडिज्म) कहते है।

जिसके कारण शुक्राणुओं का निर्माण नहीं होता। और ऐसे नर बंध्य होते हैं।

आर्किडेक्टोमी (Orchiectomy) :- वृषण को शल्य क्रिया द्वारा शरीर से बाहर निकालना।

कैस्ट्रैशन (जनद नाशन):- वृषणों को कुचलना हाथी और व्हेल ऐसे जीव है जिसमें शुक्राणु Permanent  वृषणकोष में ही रहते हैं।

शुक्रवाहिनी (वासा इफ्रेंशिया) (Vasa efferentia):-

  • प्रत्येक वृषण में स्थित वृषण जालक से (रेटे टेरस्टिस) सुक्ष्म नलिकाएँ निकलती है जिन्हें 15 – 20 वासा एफरेंशिया/ इफ्रेंशिया कहते है। ये नलिकायें शुक्राणुओं को वृषण से अधिवृषण में स्थानांतरित करने का कार्य करती है।
  • शुक्रवाहिनियों में पक्ष्माभी उपकला ऊतक होता है जो शुक्राणुओं को आगे धकेलने का कार्य करती है।

शुक्रवाहक (वासा डेफरेंशिया) :– (Vasa deferens)

  • यह लम्बी नलिका होती है। जो 4-0cm कौडा अधिवृषण के अकुण्डलित होने से बनती है। वृषणरज्जु से होते हुए उदरगुहा में प्रवेश करती है।
  • नसबन्दी के समय इसी शुक्रवाहक का एक टुकूडा काटकर निकाल दिया जाता है। तथा खुलें सिरे को बांध दिया जाता है। इसे शुक्रवाहक विच्छेदन (Vasectomy) कहते है।

प्रश्न. शुक्रवाहिनी एवं शुक्रवाहक में कोई चार अन्तर कीजिए –

शुक्रवाहिनीशुक्रवाहक
1. यह शुक्राणुओं को वृषणजालक से अधिवृषण में स्थानांतरित करती हैं।यह शुक्राणुओं को अधिवृषण से स्खलन नलिका में स्थानांतरित करती हैं।
2. ये संख्या में 15 – 20 होती है।ये संख्या में 2 होती है।
3. शुक्रवाहिनी वृषणकोप में पायी जाती है।शुक्रवाहक वृषणकोष व उदरगुहा दोनों में पायी जाती है।
4. ये नलिकायें सुक्ष्म व कुण्डलित होती है।ये नलिकायें सीधी व अकुण्डलित होती है।

स्खलन नलिका :-

यह छोटी 20cm लम्बी नलिका होती है। यह सीधी एवं पेशीय – नलिका होती है। इसमें शुक्राशय खुलते हैं।

यूरिथ्रा (मूत्रजनन नलिका) :-

यह 20cm लम्बी नलिका होती है। जो मूत्र व वीर्य (सीमन) दोनों का स्त्रवण करती हैं।

शिश्न (पेनिस) :-

यह मानव जनन अंग की बेलनाकार संरचना होती है। जो मैथुन में सहायक होती है।

सहायक ग्रंथियाँ :-

मानव नर में लैंगिक जनन के लिए काम आने वाली ग्रंथियाँ नर जनन सहायक ग्रंथियाँ कहलाती है।

ये ग्रंथियाँ निम्नलिखित है –

1. शुक्राशय (सेमिनल वेसीकल) :-

 ये पेशी युक्त लम्बी नलिका होती है। जिससे शुक्राणुओं को सक्रिय रखने वाले द्रव का स्त्रवण होता है।

प्रत्येक शुक्राशय स्खलन नलिका में खुलता हैं।

  • शुक्राशय द्वारा वीर्य या सीमन का 60% भाग बनता है। जिसमें फक्टोज सिट्रेट, प्रोस्टाग्लेन्ड्रिन, फाइब्रिनोजन, सेमिनाजेलीन, ca+ इत्यादि पाये जाते है।
  • वीर्य में पाया जाने वाला फ्रक्टोज शुक्राणुओं को पोषण प्रदान करता है। जबकि प्रोस्टाग्लेंन्ड्रिन शुक्राणुओं को गति प्रदान करने में सहायक होता हैं।
  • सेमिनोजेलिन व फाइब्रीनोजन वीर्य के (जमना) स्कन्दन को रोकते हैं।

2. प्रोस्टेट ग्रंथि (पुरस्थ ग्रंथि) :-

 यह त्रिभुज के आकार की ग्रंथि होती हैं। जो मूत्र नलिका पर स्थित होती है। और इसके द्वारा वीर्य का 30% भाग बनाया जाता है। इस ग्रंथि से फॉस्फेट, प्रोटियोलाइटिक अम्ल सिट्रेट, कौल्शियम आयन आदि स्त्रावित होते हैं। जिससे स्त्रावित तरल का PH 6.5 प्रोस्टेट ग्लैण्ड से स्त्रावित फाइब्रेनोलाइसिन के कारण वीर्य तरल रूप में बना रहता हैं।

3. बल्बोयूरिथ्रल (काउपर ग्रंथि) :-

 यह एक जोड़ी ग्रंथि मेब्ररेनस यूरिथ्रा में पाई जाती है। इस ग्रंथि से क्षारीय द्रव का स्त्रवण होता है जो मूत्र जनन नलिका की अम्लीयता को नष्ट करता हैं। काउपर ग्लैण्ड से स्त्रावित द्रव स्नेहक का कार्य भी करता हैं। तथा इससे स्त्रावित द्रव वीर्य स्खलन से पहले स्त्रावित होते हैं।

  • यदि प्रोस्टेट ग्रंथि को हटा दिया जाए तो नर में बंधता आ जाता हैं। क्योंकि इससे स्त्रावित तरल द्वारा ही वीर्य को पुन: तरल में बदला जाता हैं। अत: प्रोस्टेट ग्रंथि को हटा देने पर शुक्राणुओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ समाप्त हो जाएगी। अत: शुक्राणु मर जायेंगे।

वीर्य (सीमन) :-

 वृषण एवं शुक्राशय व अन्य ग्रंथियों से स्त्रावित द्रव के साथ, शुक्राणुओं का मिश्रण वीर्य कहलाता हैं।

  • मैथुन क्रिया के दौरान वीर्य का बाहर आना वीर्य स्खलन कहलाता है।
  • वीर्य एक सान्द्र, हल्का, श्वेत, क्षारीय (7.2 – 7.4) PH वाला द्रव होता हैं।

मानव नर तंत्र का हार्मोन नियंत्रण :-

नर में हाइपोथैलेमूस द्वारा Gn.RH का स्त्रवण होता है जो पीयूष ग्रंथि की अग्रपालि से ICSH / LH एवं FSH हार्मोन का स्त्रवण प्रेरित करता है। यहाँ से ये दोनों हार्मोन वृषण पर कार्य करते है। तथा वृषण की लीडिंग या अंतराली ICSH कोशिकाओं को टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन के स्त्रवण के लिए प्रेरित करता हैं। जिससे द्वितीयक लैंगिक लक्षण विकसित होते हैं। जबकि FSH सर्टोली कोशिकाओं को इनहिबिन व Abp के निर्माण के लिए प्रेरित करता है।

इनहिबिन की अधिक मात्रा FSH को नियंत्रित करती है। तथा Abp शुक्रजनन क्रिया को प्रेरित करता हैं।

मादा जनन तंत्र :–

  • मादा जनन तंत्र में प्राथमिक जननांग एक जोड़ी अण्डाशय होता है तथा इसमें सहायक जननांग के रूप में एक जोड़ी अण्डवाहिनी होती है तथा एक गर्भाशय ग्रीवा (सविक्स) एवं एक योनि (वेजाइना) तथा बाह्य जननोन्द्रियाँ पाई जाती है।

अण्डाशय :–

⇒ यह स्त्री का प्राथमिक लैंगिक अंग हैं। जिसका कार्य अण्डाशयी हार्मोन – प्रोजेस्टेरॉन व रिलैक्सिन का स्त्रावण तथा अण्डाणुओं को उत्पन्न करना हैं।

⇒ अण्डाशय उदरगुहा के निचले भाग में दोनो ओर संख्या में दो स्थित होते है।

⇒ अण्डाशय की लम्बाई 2 – 4 सेमी. होती है।

⇒ अण्डाशय श्रौणि भित्ति व गर्भाशय से स्नायु की सहायता से जुड़ा होता है।

⇒ अण्डाशय की संरचना में सबसे बाहर एक पतली उपकला होती है जिससे जनन उपकला कहते हैं।

⇒ इसके नीचे कॉर्टेक्स व मध्यांश क्षेत्र पाया जाता हैं।

सहायक अंग :–

1. अण्डवाहिनी :-

  1. ⇒ इसे डिम्बवाहिनी या फेलोपियन नलिका भी कहते है।                
    ⇒ प्रत्येक अण्डवाहिनी लगभग 10 – 12 सेमी लम्बी होती है।
  2. ⇒ अण्डवाहिनी अण्डाशय से परिधि से चलकर गर्भाशय तक जाती हैं।
  3. ⇒ अण्डाशय के निकट अण्डवाहिनी का सिरा कीप के आकार का हो जाता है जिसे कीपक इंफन्डीबुलम कहते हैं।
    ⇒ इस कीपक के किनारों पर उंगलीनुमा प्रवर्ध पाये जाते हैं। जिसे झालर (फिम्ब्री) कहते है।
    ⇒ जब अण्डाणु ग्राफियन पुटक से बाहर निकलता है तो अण्डाणु को अण्डवाहिनी में पहुंचाने के लिए फ्रिम्ब्री इसे संगृहीत करने का कार्य करती हैं।

प्रश्न. अण्डोत्सर्ग के दौरान अण्डाशय से उत्सार्जित अण्डाणु को अण्डवाहिनी में भेजने के लिए कौनसी संरचना पाई जाती है।

– फ्रिम्बी (इनालर)

अण्डावाहिनी का चौड़ा मुहँ तुम्बिका (एंपुला) कहलाता हैं।

अण्डवाहिनी का अंतिम सिरा जो गर्भाशय में खुलता है उसे इस्थमस (संकीर्ण पथ) कहते हैं।

गर्भाशय :–

मानव में एक गर्भाशय होता है जिसे बच्चनादानी या वुम्ब  भी कहते हैं।

गर्भाशय की संरचना :–

⇒ गर्भाशय का आकार उल्टी नाशपाती बच्चा दानी के समान होता है। यह श्रौणि भित्ति से जुड़ा रहता है।

⇒ गर्भाशय की भित्ति ऊत्तको की तीन परतो वाली होती है।

  1. परिगर्भाशयी (पेरीमेट्रियम)
  2. गर्भाशय पेशी स्तर (मायोमेट्रियम)
  3. गर्भाशय अन्त: भित्ति (एण्डोमेट्रियम)

1. पेरीमेट्रियम – यह गर्भाशय की सबसे बाहरी परत होती है जो एक झिल्ली के रूप में होती है।

2. मायोमेट्रियम – यह भित्ति मध्य में होती है। जो चिकनी पेशियों से बनी होती हैं।

गर्भाशय में होने वाले संकुचन एवं प्रसरण इन्हीं पेशियाँ के कारण संम्पन्न होते हैं।

3. एण्डोमेट्रियम – यह गर्भाशय का सबसे आन्तरिक ग्रन्थिल स्तर होता है जो गर्भाशय गुहा को ढके हुए रहता हैं।
आर्वत चक्र के दौरान एण्डोमेट्रियम में चक्रिय परिवर्तन होते हैं।

गर्भाशय ग्रीवा (सर्विक्स) –

⇒ गर्भाशय एक पतली ग्रीवा द्वारा योनि में खुलता हैं। जिसे गर्भाशय ग्रीवा कहते है।

⇒ गर्भाशय ग्रीवा की गुहा को ग्रीवा नाल (सर्वाईकल केनाल) कहते हैं।

⇒ ग्रीवा नाल व योनि एक साथ मिलकर जन्मनाल या बर्थकेनाल बनाते है।

योनि :–

⇒ यह मादा जनन तंत्र का अन्तिम भाग है जिसके बाद बाह्य जननेन्द्रियाँ पाई जाती है।

⇒ यह नलिकाकार संरचना होती हैं।

बाह्य जननेन्द्रियाँ :–

प्रश्न स्त्री जनन तंत्र में पाई जाने वाली बाह्य जननेन्द्रियाँ के नाम लिखिए –

उत्तर- 

  1. जघन शैल (माँस प्यूबिस)
  2. वृहद्  भृगोष्ठ (लेबिया मेजोरा)
  3. लघु भगाष्ठ (लेबियों माइनोरा)
  4. योनिच्छाद (हाइमेन)
  5. भगशेफ (क्लाइटेरिस)

1. जघन शैल (मांस प्यूबिस) – यह वसीय ऊत्तकों से निर्मित संरचना होती है। जो त्वचना व जघन रोमो से आवरित होती है।

2. वृहद भगोष्ठ – यह ऊत्तको का मांसल तलने टलने होता हे जो योनि द्वारा को घेरे हुए रहता है।

3. लघु भगोष्ठ – यह वृहद् भगोष्ठ के नीचे पाइर जाने वाली द्विमासंल वलन होते हैं।

4. योनिच्छद – योनि के द्वार पर एक पतली झिल्लीनुमा संरचना पाई जाती है। जो  योनिद्वार को आंशिक रूप से ढके रहती हैं, हाइमेन कहलाती है।          

5. भगशेफ (क्लाइटेरिस) – यह मूत्र द्वार के ऊपरी हिस्से में दो वृहद भगोष्ठ के संधि स्थल पर पाई जाने वाली एक छोटी सी प्रवर्धनुमा संरचना होती हे जिसे क्लाइटोरिस कहते है।

सहायक ग्रंथियाँ –

1. बार्थोलीन ग्रंथि – यह योनि के दोनो ओर पायी जाती है। इसके द्वारा एक क्षारीय तरल द्रव का स्त्रवण होता है जो योनि मार्ग की अम्लीयता को नष्ट करता हैं।

2. स्तन ग्रंथि – मादा में कार्यशील स्तन ग्रंथि का पाया जाना एक अभिलाक्षणिक गुण है।

⇒ मानव मादा में स्तन ग्रंथि एक युग्म में पायी जाती है।

⇒ स्तन ग्रंथियों में वसीय संयोजी ऊत्तक व ग्रंथिल ऊत्तक पाये जाते है।

⇒ प्रत्येक स्तन ग्रंथि में ग्रंथिल ऊत्तक (दुग्ध ग्रंथियाँ) 15 – 20 स्तन पालियों में बटी होती है। इससे कोशिकाओं का एक गुच्छा बन जाता है। जिसे स्तन कूपिका कहते है।

⇒ स्तन कूपिकाअं की कोशिकाओं से ही दुग्ध का स्त्राव होता है तथा यह दुग्ध कूपिकाअं की गुहा (अवकाशिका) में एकत्रित होता है।

⇒ स्तन कूपिकायें स्तन नलिकाओं में खुलती हैं।

⇒ प्रत्येक पालि की नलिकायें मिलकर स्तनवाहिनी (मैमरीडस्ट्) का निर्माण करती हैं।

⇒ कई स्तनवाहिनीयाँ मिलकर एक वृहद स्तन तुंबिका बनाती हैं। ये स्तन तुंबिकायें दुग्ध वाहिनी में खुलती हैं।

⇒ इन्हीं दुग्धवाहिनीयों द्वारा दुध स्तन से बाहर निकलता हैं।

⇒ मानव दुग्ध में वसा, लेक्टोज, शर्करा, लाइसोजाइम एंजाइम, केसिन प्रोटीन कैल्शियम विटामिन व कई महत्वपूर्ण पोषक पदार्थ पाये जाते है।

⇒ माता के दुग्ध में प्रतिरक्षीयाँ भी देखी जाती हैं।

⇒ दुग्ध स्त्रवण के प्रारम्भिक दिनो के दौरान शिशु की माँ द्वारा स्त्रावित पीले दुग्ध का पीयूष (कोलस्ट्रम) कहते हैं। जिसमें IgA (इम्यूनो ग्लोबिन – A) प्रतिरक्षी प्रचुर मात्रा में पायी जाती हैं।

मादा जनन तंत्र का हार्मोनल नियन्त्रण :-

युग्मक जनन :-

 जनन कोशिकाओं द्वारा नर व मादा युग्मकों के निर्माण की क्रिया को युग्मक जनन कहते हैं।

यह दो प्रकार का होता हैं।

1. शुक्रजनन (spermato genesis)

2. अण्डजनन (Oogenesis genesis)

शुक्रजनन :-

  • वृषण में शुक्राणुओं के निर्माण की क्रिया को शुक्रजनन कहते है
  • वृषण में अनेक शुक्रजनन नलिकायें होती है। इन शुक्रजनन नलिकाओं में शुक्राणुजन कोशिका (स्पर्मेटोगोनिया) एवं सर्टोली कोशिकायें पाई जाती है।
  • नर जनन कोशिकाओं या शुक्राणुजन कोशिकाओं से शुक्राणुओं का निर्माण होता है जबकि सर्टोली कोशिकायें शुक्राणुओं का पोषण प्रदान करने का कार्य करती हैं।

शुक्राणुजनन को दो भागों में बाँटा गया है –

1. शुक्राणुपूर्वी प्रावस्था :- इस प्रावस्था को तीन भागों में बांटा जाता हैं।

          1. गुणन प्रावस्था

          2. वृद्धि प्रावस्था

          3. परिपक्वन

1. गुणन प्रावस्था :- इसके अन्तर्गत जनन कोशिकायें निरन्तर समसूत्री विभाजन द्वारा शुक्राणुजन कोशिकाओं का निर्माण करती हैं। तथा कोशिकाओं की सं. में वृद्धि करती हैं।

  • प्रत्येक शुक्राणुजन कोशिका द्विगुणीत होती हैं। जिसमें 46 गुणसूत्र पाये जाते है।

2. वृद्धि प्रावस्था :- इस प्रावस्था में प्रत्येक शुक्राणुजन कोशिका पोषण प्राप्त कर अपने आकार में कई गुना वृद्धि करती है अत: अब इसे प्राथमिक शुक्राणु कोशिका कहते है।

3.      परिपक्वन प्रावस्था :- इस प्रावस्था में प्राथमिक शुक्राणु कोशिका में अर्द्धसूत्री विभाजन होता है जिसके अर्द्धसूत्री विभाजन I (न्यूनकारी विभाजन) में दो समान अगुणीत कोशिकाये बनती है जिन्हें द्वितीयक शुक्राणु कोशिकायें कहते हैं।

  • द्वितीयक शुक्राणु कोशिका अगुणित होती है। अत: इन कोशिकाओं में 23 गूणसूत्र होते है। द्वितीयक शुक्राणुकोशिका में अर्द्धसूत्री विभाजन – II होता है। जिससे 4 शुक्राणु प्रसू या शुक्राणुपूर्वी (स्पर्मेटिड्स) का निर्माण होता हैं।

शुक्र कायान्तरण :- इस प्रावस्था में शुक्राणुओं या स्पर्मोटिड्स में परिपक्वन होता हैं। और इससे सक्रिय गतिशील शुक्राणुओं का निर्माण होता है।

  • शुक्रकायान्तरण के अन्तर्गत स्परमेटिड का केन्द्रक एक सिरे पर चला जाता है। और कोमेटिन संघनित हो जाता हैं। जिससे केन्द्रक हल्का हो जाता हैं। और तर्कू का आकार गृहण कर लेता है।
  • अनेक गोल्जी पुटिकाएँ केन्द्रक के ठीक ऊपर आकर व्यवस्थित हो जाती है। इनमें से कुछ पुटिकाओं में एक कणिका विकसित होती है जिसे एक्रोसोमल कणिका कहते है।
  • इन कणिकाओं से एकोस्लास्ट का निर्माण होता है ये एक्रोस्लास्ट केन्द्रक के ऊपर जमा हो जाती है।
  • शुक्राणूपूर्वी या स्पर्मेटिड का कोशिका दव्य पीछे की ओर हटने लगता हैं। जिससे प्लाज्मा झिल्ली पास-पास आती है। अत: एक्रोस्लास्ट व केन्द्रक चिपक जाते हैं। इस प्रकार शुक्राणु के सिर का निर्माण होता है।
  • स्पर्मेटिड में दो सेन्ट्रियोल केन्द्र के ठीक नीचे समकोण पर उप. होते हैं। जिसमें दुरस्थ सेन्ट्रियोल एक्रोसोम की झिल्ली पर उप. होता हैं।
  • स्पर्मेटिड के सभी माइट्रोकॉन्डिया सर्पिलाकार रूप में व्यवस्थित हो जाते है। इस प्रकार शुक्राणु का मध्य भाग बनता हैं।
  • एक्सोनिमा के दीर्घाकरण से शुक्राणु की पूँछ बनती है।

शुक्रकायान्तरण (शुक्राणुपूर्वी से शुक्राणू का निर्माण) :-

निम्नलिखित को परिभाषित कीजिए –

स्पर्मिएशन सेमिनेशन, स्खलन, वीर्यसेचन (इनसेमीनेशन)

र्स्पमिएशन :- सर्टोली कोशिकाओं से परिपक्व शुक्राणु का मुक्त होना स्पार्मिएशन कहलाता हैं।

सेमिनेशन :- वृषणो से शुक्राणुओं के मुक्त होने की क्रिया सेमिनेशन कहलाती हैं।

स्खलन :- नर के शरीर से शुक्राणुओं का मुक्त होना स्खलन कहलाता है।

इनसेमिनेशन :- मादा के शरीर में शुक्राणुओं को मुक्त करना वीर्यसेचन या इनसेमिनेशन कहलाता हैं।

♦ शुक्राणु की संरचना :-

 शुक्राणु की सरंचना में तीन भाग होते है।

          1. सिर (Head)

          2. मध्य भाग (Middle Piece)

          3. पुच्छ (Tail)

1. सिर :- सिर के अन्तर्गत दो संरचनाएँ आती है।

          A :- एक्रोसोम                                                       B :- केन्द्रक

A. Acrosome :- एक्रोसोम टोपी के समान दोहरी झिल्ली युक्त संरचना होती है। जिसमें जल अपघटनी (हाइड्रोलाइटिक) एंजाइम – हाइलूरोनिडेज, एक्रोसिन, एक्रोसिमिन, इत्यादि एजाइम होते है जिन्हें सामूहिक रूप से Spermlysin (स्पर्मलाइसिन) कहते हैं।

इन एंजाइमों में अण्डे को भेदने की क्षमता होती हैं।

प्रश्न :- स्तनियों के एक्रोसोम में मुख्यत: कौनसे एंजाइम होते है

उत्तर :- हाइलरोनिडेज, एक्रोसिन (यह एंजाइम असक्रिय रूप (प्रोएक्रोसीन) में पाया जाता है जो अण्डे के सपंर्क में आने पर सक्रिय रूप एक्रोसिन मे बदल जाता हैं।

B. केन्द्रक :- शुक्राणु का केन्द्रक अण्डाकार चपटा तकूनुमा होता हैं। इसमें गूणसूत्र पायें जाते हैं। शुक्रकायान्तरण के दौरान केन्द्रक में से जल, प्रोटीन एवं RNA निष्कासित हो जाते हैं। जिससे शुक्राणु हल्का हो जाता हैं।

2. मध्य भाग :- इसका अग्र भाग संकरा होता हैं। जिसे शुक्राणु की ग्रीवा कहते हैं। इसमें दो सेट्रियोल पाये जाते हैं।

1. समीपस्थ तारककेन्द्र (प्रोर्क्समल) दुरस्थ सेट्रियोल

समीपस्थ सेंट्रियोल :- यह केन्द्रक के ठीक पीछे स्थित होता है जो युग्मनज में विदलन क्रिया को प्रेरित करता हैं।

2. दुरस्थ सेंट्रियोल :- यह समीपस्थ तारककेन्द्र के ठीक पीछे स्थित होता है। और शुक्राणु पूँछ के अक्षीय तन्तु का निर्माण करता हैं।

  • शुक्राणु के मध्य भाग में माइट्रोकॉन्डिया सर्पिलाकार रूप में व्यवस्थित हो जाता है जिसे निबेर कर्ण कहते हैं।
  • शुक्राणु का मध्य भाग ऊर्जा कक्ष कहलाता है। क्योंकि यह शुक्राणु का गति प्रदान करने के लिए पुच्छ को ऊर्जा प्रदान करता हैं।
  • शुक्राणु के मध्य भाग की परिधि पर कोशिका द्रव्य की एक पतली परत पायी जाती है। जिसे मैन्चेट कहते हैं।
  • पुच्छ (टैल) :- यह शुक्राणु का सबसे लम्बा भाग होता हैं। जिसमें कशभिका होता हैं। पूंछ को दो भागों में विभाजित किया जाता है।

          1. मुख्य भाग

          2. अन्तिम भाग

पूछँ के मुख्य भाग में कोशिका द्रव्य की एक पतली परत उव होती हैं। पूँछ के अन्तिम भाग में तंत्रिका तंतुओं की 9 + 2 व्यवस्था पाई जाती हैं।

  • मनुष्य में शुक्राणुओं का निर्माण 7 घंटे में पूरा होता हैं।
  • एक स्खलन में 4 ml वीर्य में 400 मिलियन (20-30 करोड़) शुक्राणु होते हैं।
  • यदि शुक्राणु की सं. प्रति स्खलन 20 मिलियन से कम हो तो इसे ओलिगा स्पर्मिया कहते हैं।
  • यदि शुक्राणु अनु. हो तो एजोस्पर्मिया कहलाती हैं7
  • स्तनधारियों (मनुष्य) के शुक्राणुओं के सिर का आकार (चम्मच के आकार) Spoonshape कहलाती हैं।
  • सबसे छोटे शुक्राणु मगरमच्छ में 0.502 mm शुक्राणु ड्रोसोफिला 5.8 om होता है।

अण्ड जनन (Googenesis) :- 

अण्डाशय की जनन उपकला कोशिकाओं से अण्डाणु निर्माण एवं परिपक्व की क्रिया का अण्डजनन कहते हैं। अण्डजनन की तीन प्रावस्थाएँ होती है।

          1. गुणन प्रावस्था

          2. वृद्धि प्रावस्था

          3. परिपक्वन प्रावस्था

1. गुणन प्रावस्था :- इस प्रावस्था में अण्डाशय में आदिजनन कोशिका नियमित रूप से कई समसूत्री विभाजन करती है। अण्डजनन कोशिका (ऊगानिया) 2n का निर्माण करती है।

Imp. मानव में यह अवस्था पूर्व भ्रूणीय अवस्था में संपूर्ण हो जाती हैं। जिसमें परिपक्वन से अण्डाणु बनते हैं।

2. वृद्धि प्रावस्था :- इस प्रावस्था में कोई एक अण्ड जन कोशिका या ऊगोनिया कोशिका भोजन को एकत्रित कर अपने आकार में वृद्धि करती हैं। और अपने आकार को कई गुना बढ़ा देती हैं। अब इसे प्राथमिक अण्ड कोशिका कहते हैं।

3. परिपक्वन प्रावस्था :- इस प्रावस्था में प्रा. अण्ड कोशिका में पहला अर्द्धसूत्री विभाजन होता हैं। जिसे प्रथम परिपक्वन विभाजन कहते हैं। जिसके फलस्वरूप दा अगुणीत कोशिकाएँ बनती है।

  • बड़ी कोशिका को द्वितीयक अण्ड कोशिका कहते हैं। जबकि छोटी कोशिका को प्राथमिक ध्रुवकाय (प्रथम पॉलर बॉडी) कहते है।
  • द्वितीयक अण्डकोशिका में अर्द्धसूत्री – II विभाजन होता है। जिसे द्वितीयक परिपक्वन विभाजन कहते हैं। जो समसूत्री विभाजन के समान होता हैं। इससे दो अगुणित कोशिकायें बनती है।
  • एक बड़ी कोशिका जिसे अण्डाणु या डिम्ब कोशिका कहते है। जबकि छोटी कोशिका का द्वितीयक ध्रुवकाय कहते हैं।
  • अण्डाणु ही केवल निषेचन में भाग लेता हैं शेष ध्रुवकाय नष्ट हो जाते हैं।

प्रश्न.1 स्तनधारी के अण्डाशय की आरेखित काट का नामांकित चित्र बनाइए – एवं एक परिपक्व मादा युग्मक के निर्माण की प्रक्रिया को समझाइए –

प्रश्न.2 शुक्रजनन एवं अण्डजनन में अंतर कीजिए –

शुक्रजननअण्डजनन
1. यह क्रिया नर के वृषण में होती है।यह क्रिया के अण्डाशय में होती है।
2. इस क्रिया से शुक्राणु का निर्माण होता है।इस क्रिया से अण्डाणु का निर्माण होता है।
3. इसमें शुक्राणु का परिपक्वन निर्माण शुक्रजनक कोशिकाओं से होता है।इसमें अण्डाणु का निर्माण परिपक्वन केवल एक अण्डजनक कोशिका से होता है।
4. इसमें वृद्धि अवस्था छोटी होती हैं।इसमें वृद्धि अवस्था लम्बी होती है।
5. इस क्रिया में एक शुक्र जनक कोशिका से 4 शुक्राणु बनते है।इस क्रिया में एक अण्ड (ऊगोनिया) कोशिका से एक ही अण्डाणु बनता है।
6. शुक्रजनन की क्रिया वृषण में जीवन भर होती है।अण्डजनन की क्रिया निश्चित समयान्तराल के बाद होती हैं।
7. इसमें गुणन प्रावस्था पूर्व भ्रूणीय प्रावस्था होती है।इसमें गुणन प्रावस्था जनन प्रावस्था में देखी जाती है।
8. इसमें शुक्राणु छोटे एवं गतिशील होते है।इसमें बनने वाले अण्डाणु बड़े एवं अगतिशील होते है।
9. इसमें ध्रुवकाय का निर्माण नहीं होता है।ध्रुवक्राय का निर्माण होता है।

प्रश्न.3 शुक्रजन नलिका की आरेखीय काट का नामांकित चित्र बनाइये –

उत्तर 1 :- अण्डजनन की शुरूआत, भ्रूणीय परिवर्धन के दौरान हो जाती हैं। इस अवस्था में आदिजनन कोशिकाओं से कई लाखों की सं. में अण्डजनन कोशिका (ऊगोनिया) मादा युग्मक मातृ कोशिका के रूप में बनती हैं। जिनसें अण्डाणुओं का निर्माण होता हैं। जन्म के बाद ऊगोनिया या अण्ड जनन कोशिका का निर्माण नहीं होता।

इन कोशिकाओं में केवल अर्द्धसूत्री विभाजन होता है। ऊगोनिया जब अर्द्धसूत्री विभाजन – I की प्रोफेज I अवस्था में प्रवेश करती है तो इस अवस्था में प्राथमिक ऊसाइट, (प्राथमिक अण्ड कोशिका) का निर्माण होता है।

  • प्राथमिक अण्ड कोशिका के चारो और एक ग्रेन्यूल्स कणिकामय आवरण बन जाता है इस आवरण को ग्रेन्युलोसा आवरण कहते हैं। इस प्रकार निर्मित संरचना प्राथमिक पुटक (Primary Folical ) कहलाती हैं।
  • इस पुटक की बहुत बड़ी मात्रा जन्म से यौवनारम्भ समय तक नष्ट हो जाती है। केवल 60-80000 शेष बचत हैं। ग्रेन्यूलोसा परत से आगरित प्राथमिक पुटक और अधिक कोशिकाओं से आवरत जाता हैं। अब यह द्वितीयक पुटक कहलाता हैं।
  • द्वितीयक पुटक बहुत जल्द ही तृतीयक पुटक में परिवर्तित हो जाता हैं।
  • तृतीयक पुटक में तरल से भरी एक गुहा बन जाती हैं। जिसे ऐन्ट्रम (ग्हवर) कहते हैं। इस पुटक का बाहरी आवरण थीका एक्सटरना कहलाता हैं तथा आन्तरिक आवरण थीका इन्टरना कहलाता है।
  • तृतीयक पुटक के भीतर प्राथमिक अण्ड कोशिका पाई जाती है। इस कोशिका में वृद्धि होती है। और पहला समसूत्री विभाजन होता है। जिसके फलस्वरूप एक ध्रुवीय कोशिका और एक द्वितीयक अण्ड जनन कोशिका का निर्माण होता हैं।
  • तृतीयक पुटक में परिवर्धन व परिपक्वन से ग्राफियन पुटक का निर्माण होता है जिसे परिपक्व पुटक भी कहते हैं। इस पुटक की सबसे बाहरी परत जाना पेल्यूसिडा कहलाती हैं।
  • ग्राफियन पुटक के परिपक्व होने के बाद इसमें अण्डोत्सर्ग की क्रिया देखी जाती है। जिसके फलस्वरूप ग्राफियन पुटक फटकर अण्डाणु को निर्युक्त करता है।
  • अण्डाणु की संरचना में प्राथमिक झिल्ली जोना पेल्यूसिडा की परत होती है। तथा कोरोना रेडिएटा कहलाती हैं। द्वितीयक झिल्ली
  • आवर्त चक्र स्त्रियों व (मादा) में अण्डाशय तथा गर्भाशय की भित्तियों एवं हार्मोनो में होने वाले चक्रीय परिवर्तन आतर्व चक्र कहलाते हैं।
  • आतर्व चक्र की अवधि 28 दिन होती हैं।
  • रजोदर्शन (मेनार्क) :- स्त्रियों में यौवनारम्भ के समय जब पहली बार ऋतुस्त्राव या रजोधर्म शुरू होता है। तो इसे रजोदर्शन या मेनार्क कहते है।
  • रजोनिवृत्ति (मिनीपोज) :- स्त्रियों में 50 वर्ष की उम्र होने पर आतर्व चक्र या ऋतुस्त्राव चक्र बदं हो जाता हैं। इसे रजोनिवृत्ति कहते हैं।

आतर्व चक्र की निम्नलिखित चार प्रावस्थाएँ होती है।

          1. आर्तव प्रावस्था (ऋतुस्त्राव प्रावस्था)

          2. पश्च आर्तव प्रावस्था (पुटकीय प्रावस्था)

          3. अण्डोत्सर्ग प्रावस्था

          4. पश्च अण्डोत्सर्ग प्रावस्था (पीत पिण्ड प्रावस्था)

  • 1. आर्तव प्रावस्था (स्त्रावी प्रावस्था) :- इस प्रावस्था के अंतर्गत गर्भाशय की आन्तरिक परत (एण्डोमेट्रियम) की रक्त कोशिकाएँ नष्ट हो जाती है। वह रक्त का स्त्राव होता हैं।

रक्त स्त्राव के दौरान गर्भाशय की जो अस्थायी परत नष्ट होती हैं उसे स्ट्रेटम फंक्शनेलिस कहते हैं।

इस अवस्था के दौरान रक्त में एस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरॉन हार्मोन की कमी हो जाती हैं। यह प्रावस्था एक से तीन या पाँच दिन की होती हैं।

  • 2. पश्च आतर्व प्रावस्था :- इस प्रावस्था के अन्तर्गत रक्त कोशिकाये तथा एण्डोमेट्रियम परत की मरम्मत होती है। अर्थात् इस परत का पुननिर्माण होता हैं।

          इस अवस्था के दौरान अण्डाशयी हार्मोन एस्ट्रोजन का स्तर बढ़ने लगता हैं।

          पीयूष ग्रंथि द्वारा स्त्रावित FSH हार्मोन पुटिकाओं के परिपक्वन को प्रेरित करता हैं। जिसके फलस्वरूप ग्राफियन पुटिका का निर्माण होता हैं।

          अण्डाशय की पुटिकायें एस्ट्रोजन हार्मोन का स्त्रवण करती हैं।

  • 3. अण्डोत्सर्ग प्रावस्था :- आतर्व चक्र के 14 वें दिन अण्डाशय में स्थित ग्राफियन पुटिका से अण्डाणु मुक्त होता है। इस क्रिया को अण्डोत्सर्ग कहते हैं।

          अण्डोत्सर्ग की क्रिया पीयूष ग्रंथि के LH (ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन) द्वारा नियंत्रित होती हैं।

  • 4. पश्च अण्डोत्सर्ग प्रावस्था :- यह प्रावस्था 15-28 दिन चलती हैं। इस अवस्था के दौरान ग्राफियन पुटिका से पीत पिण्ड (कपिस ल्युटियम) का निर्माण होता हैं। कपिस ल्युटियम एक अंत: स्त्रावी ग्रंथि का कार्य करती हैं। जो रक्त में प्रोजेस्टेरान हार्मोन स्त्रावित करती है।

यदि इस अवस्था के दौरान शुक्राणु व अण्डाणु का संलयन (निषेचन) होता है तो बनने वाली द्विगुणीत कोशिका युग्मनज परिवर्धन कर गर्भाशय में आरोपित हो जाती है और यदि निषेचन नहीं होता है या कपिस ल्यूटियम अपघटित होकर कपिस एल्बिकेंस का निर्माण करती हैं। जिससे प्रोजेस्टेरॉन व एस्ट्रोजन हार्मोन का स्तर कम हो जाता है। आंतरिक भित्ति में विघटन शुरू हो जाता हैं।

निषेचन :- नर व मादा युग्मकों के केन्द्रकों के संलयन को निषेचन कहते हैं।

निषेचन की क्रिया में शुक्राणु गति करते हुए अण्डावाहिनी में पहुँचते है।

Imp. :- निषेचन की क्रिया अण्डवाहिनी के संकीर्ण पथ (इस्थमस) तथा एंपुला (तुंबिका) के संधि स्थल पर होता है।

निषेचन की क्रिया में शुक्राणु का एकोसोम अण्डावरण (जोना पेल्युसिडा) को भेदरक शुक्राणु के प्रवेश को सुगम बनाता हैं।

जब शुक्राणु अण्डाणु के सम्पर्क में आता है तब अण्डाणु का आवस्था जोना पेल्यूसिडा की झिल्ली में परिवर्तन हो जाता हैं। जिससे यह सुनिश्चित हो जाता है एक अण्डाणु को केवल एक ही शुक्राणु निषेचित कर सकता हैं।

  • शुक्राणु प्रवेश के बाद द्वितीयक अण्ड कोशिका में अर्द्धसूत्री विभाजन – II प्रेरित होता है। जिससे अण्डाणु व द्वितीयक ध्रुवाणु (ध्रुव कोशिका) का निर्माण होता हैं।
  • इसी दौरान शुक्राणु व अण्डाणु के केन्द्रको के मध्य संलयन होता हैं। जिसके फलस्वरूप एक द्विगुणीत कोशिका बनती है जिसे युग्मनज कहते हैं।

प्रश्न :- एक युग्मनज में कितने गुणसूत्र होते है?

उत्तर :- 46 गुणसूत्र (23 जोड़ो में)

भ्रूणीय परिवर्धन :-

भ्रूण के परिवर्धन का 4 भागों में बाँटा गया हैं।

          1. विदलन

          2. ततक (र्मोरूला)

          3. कोरकपुटी (ब्लास्टूला), 4 अन्तर्रोपण

          4. गैस्टूला 6 अपरा

1. विदलन :

– विदलन की क्रिया अण्डावाहिनी में प्रारम्भ होती हैं। निषेचन क्रिया द्वारा निर्मित युग्मनज मंत समसूत्री विभाजन होता है। जिससे दो, चार, आठ, सोलह, संतति कोशिकाओं का निर्माण होता हैं। इन कोशिकाओं का कोरकखण्ड (ब्लास्टोमीयर्स) कहते है। इस क्रिया को विदलन कहते हैं।

विदलन को परिभाषित कीजिए :-

युग्मनज में समसूत्री विभाजन द्वारा मोरूला, ब्लास्टूला, गेस्ट्रला से भ्रुण का निर्माण विदलन कहलाता हैं।

ब्लास्टोमियर क्या है?

युग्मनज में समसूत्री विभाजन से दो से चार, चार से आठ, आठ से सौलह कोशिकाओं का निर्माण होता है। उसे ब्लास्टोमीयर कहते है।

2. मोरूला :- 8 – 16 कोरक खंडो वाली भ्रूण को मोरूला कहते हैं।

3. कोरकपुटी का निर्माण :- मोरूला अवस्था के गर्भाशय में पहुँचने पर जाना पेल्यूसिडा परत विलुप्त हो जाती हैं। जिसके पश्चात् मोरूला की बाहरी कोशिकायें चपटी होकर पोषकोरक (ट्रोफोब्लास्ट) का निर्माण करती है।

पोषकोरक क्या हैं?

मोरूला अवस्था के दौरान प्रांरभिक भ्रूण की जोना पेल्यूसिडा परत अपघटित हो जाती है। और इसके स्थान पर मोरूला की बाहरी कोशिकायें चपटी कोशिका परत बन जाती है जिसे पोषकोरक (ट्रोफोस्लास्ट) कहलाती हैं।

11 कोरकपुटी में कोरकखण्ड बाहरी परत में व्यवस्थित होते है जिसे पोषकोरक कहते हैं। तथा कोशिकाओं के भीतरी समूह जो पोषकोरक से जुडे होते हैं। उन्हें अन्तकोशिकीय समूह कहते हैं।

इस प्रकार ट्रोफोब्लास्ट व अन्तकोशिकीय समूह के मध्य एक गुहा बन जाती है जिसे ब्लास्टो (कोरक गुहा) सील गुहा कहते हैं।

अंतर्रोपण (इम्प्लांटेशन) :-

  • भ्रूण का पोषुण प्राप्त करने के लिए गर्भाशय की भित्ति से चिपकना अंतर्रोपण कहलाता है। यह (ब्लास्टूल) कोरकपुटी अवस्था में होता है। जिसमें भ्रूण गर्भाशय की एण्डोमेट्रियम से चिपक जाता है।

रोपण की क्रिया निषेचन के चार से लेकर 10 वें दिन के बीच होता है। इसी के साथ सगर्भता (प्रेगनेन्सी) की शुरूआत होती हैं।

कन्दूकभवन (गेस्टूलेशन) :

  • – अन्तर्रोपण कोशिकीय के पश्चात् कोरक पुटी के अन्त: कोशिकीय समूह द्वारा त्रिस्तरीय भ्रूण का निर्माण होता है। जिसे कन्दूक भवन (गेस्टूलेशन) कहते हैं।

इसमें बाहर से भीतर की ओर तीन परते पाई जाती है। जो कमश: बाह्य चर्म, मध्यचर्म अन्त: चर्म (एण्डोडर्म) है। इन तीनों परतो को सम्मिलित रूप से जननिक स्तर कहते है। क्योंकि इन्हीं से भिन्न – भिन्न अंगो का निर्माण होता हैं।

स्टेमसेल्स (स्तंभ कोशिकायें) :-

  • भ्रूण में पाई जाने वाली अंतकोशिकीय समूह की ऐसी विशिष्टअविभेदित कोशिकाएँ जिनमें सम्पूर्ण जीव के निर्माण की क्षमता होती है उन्हें स्टेमसेल्स कहते हैं। ये कोशिकायें जन्म के पश्चात् अस्थिमज्जा में पाई जाती हैं।

अपरा (प्लेसेन्टा) :-

  • जरायु तकरक, भ्रूण और गर्भाशय के साथ एक संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई का निर्माण करते है जिसे अपरा (प्लेसेन्टा) कहते है।

कार्य :- अपरा भ्रूण को ऑक्सीजन तथा पोषण की आपूर्ति करता है। अपरा कार्बनडाईऑक्साइड व भ्रूण द्वारा उत्पन्न् उत्सर्जी अवशिष्ट पदार्थो का बाहर निकालने का कार्य करता है।

अपरा एक नाभि रज्जु अमबिलिकल कोड द्वारा भ्रूण से जुड़ा रहता है। जो भ्रूण तक सभी आवश्यक पदार्थो को लाने ले जाने का कार्य करता है।

Imp. अपरा से स्त्रावित हार्मोन :- अपरा एक अंत: स्त्रावी ग्रंथि का कार्य करती है। जिसके द्वारा निम्न हार्मोन उत्पादित किये जाते है-

          1. मानव जरायज (गोनेड्रोट्रोपिन) (hcG)

          2. मानव अपरा लेक्टोजन (hpL)

          3. एस्ट्रोजन

          4. प्रोजेस्टेरोन

भ्रूण में होने वाले संरचनात्मक परिवर्तन :-

  • मानव मे गर्भावधि 1 माह की होती हैं।
  • मानव में एक महीने की सगर्भता के बाद भ्रूण के हृदय का निर्माण होता हैं।
  • तथा वृद्धि करते हुए भ्रूण का पहला संकेत हृदय धड़कने होती हैं।
  • सगर्भता के दूसरे माह के अंत तक भ्रूण में पाद और अंगुलियाँ विकसित हो जाती हैं।
  • भ्रूण में सगर्भता के तीसरे व चौथे महीने के अंत तक सभी प्रमुख अंग की रचना हो जाती है।
  • गर्भावस्था के पाँचवे माह के दौरान गर्भ में भ्रूण की गतिशीलता देखी जाती है। और सिर पर बाल उग आते है।
  • 24 वें सप्ताह के अंत तक पूरे शरीर पर कोमल रोम निकल आते हैं। आँखो की पलक अलग हो जाती हैं। एवं परोनिया (eyebrow) बन जाती है।
  • गर्भावस्था के अंतिम माह नवें महीने के अंत तक गर्भ पूरी तरह से विकसित हो जाता हैं।
  • प्रसव (पारट्यूरिशन) :- मानव में सगर्भता की औसत अवधि 9.5 महीने होती है। जिसे गर्भावधि या स्टेशन पीरियड कहते हैं।
  • सगर्भता के अंत में (उत्तरोत्तर) या (उत्तरार्ध) की अवधि में अण्डाशय द्वारा रिलैक्सन हार्मोन स्त्रावित होता है।
  • इस दौरान गर्भाशय की पेशियों में संकुचन उत्पन्न होता हैं।
  • गर्भाशय से गर्भ के बाहर निकलने की क्रिया को शिशुजन्म या प्रसव कहते हैं।
  • प्रसव एक जटिल तंत्रि अंत: स्त्रावी क्रियाविधि द्वारा प्रेरित होती हैं। जिसमें तंत्रिका तत्रं एवं अन्त: स्त्रावी तंत्र मुख्य भूमिका निभाते हैं।
  • पीयूष ग्रंथि से ऑक्सीटोसिन हार्मोन का स्त्रवण होता है। जो गर्भाशय की पेशियों में संकुचन उत्पन्न करता हैं एवं गर्भाशय की पेशियों में संकुचन ऑक्सीटोसिन के अधिक स्त्रवण को प्रेरित करता हैं।

Imp. गर्भ उत्क्षेपन प्रतिवर्त (फीटल इंजेक्शन रिक्लेक्स) :- प्रसव से पूर्व पूर्ण विकसित गर्भ व अपरा से उत्पन्न संकेत जिनके कारण गर्भाशय की पेशियों में संकुचन, होता हैं। उसे फीटल इंजेक्शन रिक्लेक्स कहते हैं।

दुग्ध स्त्रवण :- (लैक्टेशन) :- सगर्भता ग्रांथियों द्वारा दुग्ध उत्पन्न करने की प्रक्रिया दुग्ध स्त्रवण या लैक्टेशन कहलाती हैं।

दुग्ध स्त्रवण की क्रिया प्रौलेक्टिन तथा प्रोजेस्टेरोन हार्मोन द्वारा नियंत्रित होती हैं।

कोलोस्ट्रम :-

 दुग्ध स्त्रवण के आंरभिक कुछ दिनों तक जो दूध निकलता है उसे प्रथम स्तनीय दुग्ध या खीस या कोलोस्ट्रम कहते है।

इस प्रथम स्तनीय दुध में कई प्रकार की प्रतिरक्षियाँ पाई जाती है जो नवजात शिशु में प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने के लिए अत्यन्त आवश्यक होता हैं।

जरायु अंकूरक या कोरिऑनिक विलाई किसे कहते हैं

भ्रूण के अंतर्रोपण के पश्चात् पोषकोरक पर अंगुलीनुमा संरचनाएँ उभरती है जिन्हें जरायु अंकूरक कहते है। ये जरायु अंकूरक गर्भाशयी ऊत्तक व मास रक्त से आवरित होते है।

प्रश्न:- ऐसे मादा हार्मोनो के नाम लिखिए जो स्त्रियों में केवल सगर्भता की स्थिति में ही उत्पादित होते है।

उत्तर:- hcG C human careonic gonadro, hPL human placenta of Lectogen

प्रश्न:- सगर्भता को बनाए रखने के लिए आवश्यक हार्मोनो के नाम लिखिए –

उत्तर:- प्रोजेस्ट्रोजन, कार्टिसोल, प्रौलेक्सिन, थायराँक्सिन एस्ट्रोजन

प्रश्न:- मादा के अण्डाशय से अण्डोत्सर्ग के लिए ग्राफी पुटक फटने के लिए कौनसा हार्मोन स्त्रावित होता है।

उत्तर:- LH (ल्यूटिनाइंजिंग हार्मोन)

प्रश्न:- भ्रूण की उस अवस्था का नाम बताइए जो मादा के गर्भाशय में अंतर्रोपित होता है।

उत्तर:- ब्लास्टूला (कोरकपुटी)

प्रश्न:- स्त्री के योनि द्वारा को आंशिक रूप से ढकने वाले पतली झिल्ली का नाम बताइए।

उत्तर:- हाइमेन (योनिच्छद)

प्रश्न:-  स्त्री के. एक स्तन में ग्रंथिल ऊत्तक कितनी स्तनपालियों में विभेद्रित रहता है।

उत्तर:- 15-20 स्तनपालियों में

प्रश्न:-  गर्भावस्था के दौरान ऋतुस्त्राव चक्र क्यों अनुपस्थित रहता है?

उत्तर:- गर्भावस्था के दौरान कार्पस ल्युटियम बनी रहती हैं। जिससे स्त्रावित प्रोजेस्टोजन हार्मोन पुटिका परिपक्वन एवं अण्डोत्सर्ग को अवरूद्ध कर देता है। अत: गर्भावस्था के दौरान ऋतुस्त्राव चक्र अनुपस्थित रहता हैं।

प्रश्न:-  यदि किसी महिला की अण्डवाहिनियाँ अवरूद्ध हो तो कौनसा कार्य प्रभावित होगा?

उत्तर:- निषेचन नहीं होगा।

प्रश्न:-  यदि पीत पिण्ड निष्क्रिय हो जाए तो भ्रूण परिवर्धन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

उत्तर:- प्रोजेस्टेरोन का स्त्राव नहीं होंगा जिससे परिवर्धनशील भ्रुण का अंतर्रोपण व सगर्भता की स्थिति नहीं बनेगी।

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