2023-24 NCERT Class 9 History Chapter 1 फ्रांसीसी क्रांति Notes in Hindi

NCERT Class 9 History Chapter 1 फ्रांसीसी क्रांति |भारत और समकालीन विश्व-I

प्रिय विद्यार्थियों आप सभी का स्वागत है आज हम आपको सत्र 2023-24 के लिए NCERT Class 9 History Chapter 1   फ्रांसीसी क्रांति Notes in Hindi | कक्षा 9 इतिहास के नोट्स उपलब्ध करवा रहे है |

9th Class History Chapter 1 The French Revolution Notes in Hindi | कक्षा 9 इतिहास नोट्स हिंदी में उपलब्ध करा रहे हैं |Class 9 Itihaas Chapter 1 Phraansiisii kraanti Notes PDF Hindi me Notes PDF 2023-24 New Syllabus ke anusar.

भारत और समकालीन विश्व-I India and the Contemporary World – I

TextbookNCERT
ClassClass 9
SubjectHistory | इतिहास
ChapterChapter 1
Chapter Nameफ्रांसीसी क्रांति
CategoryClass 9 History Notes in Hindi
MediumHindi
class-9-History-chapter-1-The French Revolution notes-in-hindi

Class 09 इतिहास
अध्याय = 1
फ्रांसीसी क्रांति

The French Revolution

फ्रांस की क्रांति के कारण :-

1. निरंकुश राजतंत्र :-

  • फ्रांस में बूर्बों राजवंश का शासन था। लुई 14 ने अनेक युद्ध लड़े तथा फ्रांस की सीमाओं का अत्यधिक विस्तार किया। फ्रांस को यूरोप में सर्वाधिक शक्तिशाली देश के रूप स्थापित किया।
  • लुई 14 कहा करता था – “मैं ही राज्य हूँ।” उसके द्वारा निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की गई। उसने  राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।
  • लुई 15 अत्यधिक विलासी तथा अदूरदर्शी शासक था।
  • सन् 1774 में बूर्बों राजवंश का लुई 16 फ्रांस की राजगद्दी पर आसीन हुआ। लुई 16 भी एक निरंकुश तथा अत्याचारी शासक था। जनता इस कारण से लुई 16 से नाराज थी।

2. ऑस्ट्रिया की राजकुमारी से विवाह :-

  • लुई 16 का विवाह ऑस्ट्रिया की राजकुमारी मेरी एन्तोएनेत से हुआ थाउस समय उसकी उम्र केवल बीस साल थी।
  • ऑस्ट्रिया फ्रांस का शत्रु राष्ट्र था।
  • इस कारण से फ्रांस की प्रजा राजा द्वारा आस्ट्रिया की राजकुमारी के साथ विवाह से नाराज हुई।

3. रिक्त राजकोष :-

  • राज्यारोहण के समय फ्रांस का राजकोष खाली था।
  • इसका कारण लंबे समय तक चलने वाले युद्ध थे।
  • इन युद्धों के कारण फ़्रांस के वित्तीय संसाधन नष्ट हो चुके थे।

4.  वर्साय का महल :-

  • फ्रांस की राजधानी पेरिस से 12 मील की दूरी पर वर्साय का विशाल महल था।
  • जहाँ हजारों की संख्या में नौकर थे। राजदरबार की शानोंशौकात बनाए रखने की फिज़ूलखर्ची का बोझ अलग से था।

5. अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम में फ्रांस द्वारा सहायता :-

  • लुई 16 के शासनकाल में फ़्रांस ने अमेरिका के 13 उपनिवेशों को साझा शत्रु ब्रिटेन से आज़ाद कराने में सहायता दी थी।
  • इस युध्द के चलते फ़्रांस पर दर अरब लिव्रे से भी अधिक का कर्ज़ और जुड़ गया जबकि उस पर पहले से ही दो अरब लिव्रे का बोझ चढ़ा हुआ था।

6. फ्रांसीसी सरकार द्वारा करों में वृद्धि :-

  • सरकार से कर्ज़दाता 10 प्रतिशत ब्याज की माँग करने लगे थे।
  • फलस्वरूप फ़्रांसीसी सरकार अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा दिनोंदिन बढ़ते जा रहे कर्ज़ को चुकाने पर मजबूर थी। अपने नियमित खर्चों जैसे – सेना के रखरखावराजदरबारसरकारी कार्यालयों  या विश्वविद्यालयों को चलाने के लिए फ़्रांसीसी सरकार करों में वृद्धि के लिए बाध्य हो गई।

महत्वपूर्ण शब्दावलियाँ :-

1. एस्टेट  : क्रांतिपूर्व फ्रांसीसी समाज में सत्ता और सामाजिक हैसियत को अभिव्यक्त करने वाली श्रेणी।

2. पादरी वर्ग  : चर्च के विशेष कार्यों को करने वाले व्यक्तियों का समूह।

3. टाइद  : चर्च द्वारा वसूल किया जाना कर। यह कर कृषि उपज के दसवें हिस्से के बराबर  होता था।

4. टाइल  : सीधे राज्य को अदा किया जाने वाला कर।

5. लिव्रे  : फ्रांस की मुद्रा जिसे 1794 में समाप्त कर दिया गया।

6. 

7. सामाजिक असमानता :-

  • अठारहवीं सदी में फ़्रांसीसी समाज तीन एस्टेट्स में बँटा था।
  • केवल तीसरे एस्टेट के लोग (जनसाधारण) ही कर अदा करते थे।
  • वर्गों में विभाजित फ़्रांसीसी समाज मध्यकालीन सामंती व्यवस्था का अंग था।
  • पूरी आबादी में लगभग 90 प्रतिशत किसान थे। लेकिन, ज़मीन के मालिक किसानों की संख्या बहुत कम थी। लगभग 60 प्रतिशत ज़मीन पर कुलीनों, चर्च और तीसरे एस्टेट्स के अमीरों का अधिकार था।

8. प्रथम दो एस्टेट्स का महत्वपूर्ण विशेषाधिकार :-

  • प्रथम दो एस्टेट्स, कुलीन वर्ग एवं पादरी वर्ग के लोगों को कुछ विशेषाधिकार जन्मना प्राप्त थे। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषाधिकार था – राज्य को दिए जाने वाले करों से छूट।

9. कुलीन वर्ग के विशेषाधिकार :-

  • कुलीन वर्ग को कुछ अन्य सामंती विशेषाधिकार भी हासिल थे।
  • वह किसानों से सामंती कर वसूल करता था।
  • किसान अपने स्वामी की सेवा-स्वामी के घर एवं खेतों में काम करना, सैन्य सेवाएँ देना अथवा सड़कों के निर्माण में सहयोग आदि करने के लिए बाध्य थे।

10. चर्च के विशेषाधिकार :-

  • चर्च भी किसानों से करों का एक हिस्सा, टाइद नामक धार्मिक कर के रूप में वसूलता था। इसके अनुसार जनता को कृषि उपज का दसवाँ हिस्सा चर्च को देना पड़ता था।

11. राज्य द्वारा कर वसूली :-

  • तीसरे एस्टेट्स के तमाम लोगों को सरकार को तो कर चुकाना ही होता था।
  • इन करों में टाइल नामक प्रत्यक्ष कर और अनेक अप्रत्यक्ष कर शामिल थे।
  • अप्रत्यक्ष कर नमक और तम्बाकू जैसी रोजाना उपभोग की वस्तुओं पर लगाया जाता था।
  • इस प्रकार राज्य के वित्तीय कामकाज का सारा बोझ करों के माध्यम से जनता वहन करती थी।

12. जीने का संघर्ष :-

  • फ्रांस की जनसंख्या सन् 1715 में 2.3 करोड़ थी जो  सन‌ 1789 में बढ़कर 2.8 करोड़ हो गईँ परिणामत: अनाज उत्पादन की तुलना में उसकी माँग काफी तेजी से बढ़ी।
  • अधिकांश लोगों के मुख्य खाद्य-पावरोटी-की कीमत में तेजी से वृद्धि हुई।
  • मजदूरी महँगाई की दर से नहीं बढ़ रही थी। फलस्वरूप, अमीर-गरीब की खाई चौड़ी होती गई।
  • स्थितियाँ तब और बदतर हो जातीं जब सूखे या ओले के प्रकोप से पैदावार गिर जाती।
  • इससे रोजी-रोटी का संकट पैदा हो जाता था। ऐसे जीविका संकट प्राचीन राजतंत्र के दौरान फ्रांस में काफी आम थे।

उभरते मध्यम वर्ग का योगदान :-

  • अठारहवीं सदी में एक नए सामाजिक समूह का उदय हुआ जिसे मध्य वर्ग कहा गया, जिसने फैलते समुद्रपारीय व्यापार और ऊनी तथा रेशमी वस्त्रों के उत्पादन के बल पर संपत्ति अर्जित की थी।
  • तीसरे एस्टेट के इन समृद्ध तथा शिक्षित वर्ग जिसे मध्यम वर्ग कहा गया उसका मानना था कि समाज के किसी भी समूह के पास जन्मना विशेषाधिकार नहीं होने चाहिए।
  • किसी भी व्यक्ति की सामाजिक हैसियत का आधार उसकी योग्यता ही होनी चाहिए।  
  • स्वतंत्रता, समान नियमों तथा समान अवसरों के विचार पर आधारित समाज की यह परिकल्पना जॉन लॉक और ज्याँ जाक रूसों जैसे दार्शनिकों ने प्रस्तुत की थी।

जॉन लॉक  :-

अपने टू ट्रीटाइजेज ऑफ गवर्नमेंट में लॉक ने राजा के देवी और निरंकुश अधिकारों के सिद्धांत का खंडन किया था।

रूसो :-

  • रूसो ने इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए जनता ओर उसके प्रतिनिधियों के बीच एक सामाजिक अनुबंध पर आधारित सरकार का प्रस्ताव रखा।

मॉन्तेस्क्यू :-

  • मॉन्तेस्क्यू ने द रिपरिट ऑफ द लॉज नामक रचना में सरकार के अंदर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता विभाजन की बात कही।

अमेरिका की स्वतंत्रता :-

  • जब संयुक्त राज्य अमेरिका में 13 उपनिवेशों ने ब्रिटेन से खुद को आजाद घोषित कर दिया तो वहाँ इसी मॉडल की सरकार बनी।
  • फ्रांस के राजनीतिक चिंतकों के लिए अमेरिकी संविधान और उसमें दी गई व्यक्तिगत अधिकारों की गारंटी प्रेरणा का एक महत्त्वपूर्ण स्त्रोत थी।

गोष्ठियाँ :-

  • दार्शनिकों के इन विचारों पर कॉफी हाउसों व सैलॉन की गोष्ठियों में गर्मागर्म बहस हुआ करती थी।
  • पुस्तकों एवं अखबारों के माध्यम से इनका व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ।
  • पुस्तकों एवं अखबारों को लोगों के बीच जोर से पढ़ा जाता ताकि अनपढ़ भी उन्हें समझ सकें।
  • इसी समय लुई XVI द्वारा राज्य के खर्चों को पूरा करने के लिए फिर से कर लगाये जाने की खबर से विशेषाधिकार वाली व्यवस्था के विरुद्ध गुस्सा भड़क उठा।

क्रांति की शुरुआत :-

एस्टेट्स जेनराल का अर्थ :-

  • एस्टेट्स जेनराल एक राजनीतिक संस्था थी जिसमें तीनों एस्टेट अपने-अपने प्रतिनिधि भेजते थे।
  • प्राचीन राजतंत्र के तहत फ्रांसीसी सम्राट अपनी मर्ज़ी से कर नहीं लगा सकता था। इसके लिए उसे एस्टेट्स जेनराल प्रतिनिध सभा की बैठक बुला कर नए करों के अपने प्रस्तावों पर मंज़ूरी लेनी पड़ती थी। ।
  • सम्राट ही यह निर्णय करता था कि इस संस्था की बैठक कब बुलाई जाए।
  •  इसकी अंतिम बैठक सन् 1614 में बुलाई गई थी।

एस्टेट्स जेनराल की बैठक (5 मई, 1789):-

  • फ्रांसीसी सम्राट लुई XVI ने 5 मई, 1789 को नये करों के प्रस्ताव के अनुमोदन के लिए एस्टेट्स जेनराल की बैठक बुलाई।
  • पहले और दूसरे एस्टेट ने इस बैठक में अपने 300-300 प्रतिनिधि भेजे जो आमने-सामने की कतारों में बिठाए गए।
  • तीसरे एस्टेट के 600 प्रतिनिधि उनके पीछे खड़े किए गए।
  • तीसरे एस्टेट का प्रतिनिधित्व इसके अपेक्षाकृत समृद्ध एवं शिक्षित वर्ग कर रहे थे।
  • नोट :- किसानों, औरतों एवं कारीगरों का सभा में प्रवेश वर्जित था। फिर भी लगभग 40,000 पत्रों के माध्यम से उनकी शिकायतों एवं मांगों की सूची बनाई गई, जिसे प्रतिनिधि अपने साथ लेकर आए थे।

तृतीय एस्टेट की माँग :-

  • एस्टेट जेनराल के नियमों के अनुसार प्रत्येक वर्ग को एक मत देने का अधिकार था। इस बार भी लुई XVI इसी प्रथा का पालन करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था।
  • तीसरे वर्ग के प्रतिनिधियों ने मांग रखी कि अबकी बार पूरी सभा द्वारा मतदान कराया जाना चाहिए, जिसमें प्रत्येक सदस्य को एक मत देने का अधिकार होगा।
  •  यह एक लोकतांत्रिक सिद्धांत था जिसे मिसाल के तौर पर रूसो ने अपनी पुस्तक “द सोशल कॉन्ट्रैक्ट” में प्रस्तुत किया था।
  • जब सम्राट ने इस प्रस्ताव केा अस्वीकार कर दिया तो तीसरे तो एस्टेट के प्रतिनिधि विरोध जताते हुए सभा से बाहर चले गए। 

टेनिस कोर्ट की शपथ(20 जून, 1789) :-

  • तीसरे एस्टेट के प्रतिनिधि के खुद को संपूर्ण फ्रांसीसी राष्ट्र का प्रवक्ता मानते थे।
  •  20 जून को ये प्रतिनिधि वर्साय के इंडोर टेनिस कोर्ट में जमा हुए।
  • उन्होंने अपने आप को नैशनल असेंबली घोषित कर दिया और शपथ ली कि जब तक सम्राट की शक्तियों को कम करने वाला संविधान तैयार नहीं किया जाएगा। तब तक असेंबली भंग नहीं होगी।
  • उनका नेतृत्व मिराब्यो और आबे सिए ने किया।

 मिराब्यो :-

  • मिराब्यो का जन्म कुलीन परिवार में हुआ था लेकिन वह सामंती विशेषाधिकारों वाले समाज को खत्म करने की ज़रूरत से सहमत था।
  • उसने एक पत्रिका निकाली और वर्साय में जुटी भीड़ के समक्ष जोरदार भाषण भी दिए।

आबे सिए :-

  • आबे सिए मूलत: पादरी था।
  • आबे सिए ने “तीसरा एस्टेट क्या है?” शीर्षक से एक अत्यंत प्रभावशाली प्रचार-पुस्तिका (पैम्फ़्लेट) लिखी।

बेकरी की दुकानों पर धावा :-

  • जिस वक्त नैशनल असेंबली संविधान का प्रारूप तैयार करने में व्यस्त थी, पूरा फ्रांस आंदोलित हो रहा था।
  • कड़ाके की ठंड के कारण फ़सल मारी गई थी और पावरोटी की कीमतें आसमान छू रही थीं।
  • बेकरी मालिक स्थिति का फायदा उठाते हुए जमाखोरी में जुटे थे।
  •  बेकरी की दुकानों पर घंटों के इंतज़ार के बाद गुस्सायी औरतों की भीड़ ने दुकान पर धावा बोल दिया।

बास्तील दुर्ग का पतन :-

  • सम्राट ने सेना को पेरिस में प्रवेश करने का आदेश दिया था।
  • क्रुद्ध भीड़ ने 14 जुलाई को बास्तील पर धावा बोलकर उसे नेस्तनाबूद कर दिया।

किसानों द्वारा ग्रामीण किलों पर अधिकार :-

  • देहाती इलाकों में गाँव-गाँव यह अफवाह फैल गई कि जागीरों के मालिकों ने भाड़े पर लठैतों-लुटेरों के गिरोह बुला दिए गए हैं जो पकी फसलों को तबाह करने निकल पड़े हैं।
  • कई जिलों में भय से आक्रांत होकर किसानों ने कुदालों और बेलचों से ग्रामीण किलों पर आक्रमण कर दिए।
  • उन्होंने अन्न भंडारों को लूट लिया ।
  • लगान संबंधी दस्तावेजों को जलाकर राख कर दिया।
  • कुलीन बड़ी संख्या में अपनी जागीरें छोड़कर भाग गए, बहुतों ने तो पड़ोसी देशों में जाकर शरण ली।

नैशनल असेंबली को मान्यता :-

  • अपनी विद्रोही प्रजा की शक्ति का अनुमान करके, लुई XVI ने अंतत: नैशनल असेंबली को मान्यता दे दी।
  •  यह भी मान लिया कि उसकी सत्ता पर अब से संविधान का अंकुश होगा।
  •  4 अगस्त, 1789 की रात को असेंबली ने करों, कर्त्तव्यों और बंधनों वाली सामंती व्यवस्था के उन्मूलन का आदेश पारित किया।

पादरी वर्ग के विशेषाधिकार की समाप्ति :-

  • पादरी वर्ग के लोगों को भी अपने विशेषाधिकारों को छोड़ देने के लिए विवश किया गया। धार्मिक कर समाप्त कर दिया गया और चर्च के स्वामित्व वाली भूमि जब्त कर ली गई।
  • इस प्रकार कम से कम 20 अरब लिव्रे की संपत्ति सरकार के हाथ में आ गई।

फ्रांस में संवैधानिक राजतंत्र  की स्थापना :-

  • नैशनल असेंबली ने सन् 1791 में संविधान का प्रारूप पूरा कर लिया।
  • इसका मुख्य उद्देश्य था – सम्राट की शक्तियों को सीमित करना।
  •  एक व्यक्ति के हाथ में केंद्रीकृत होने के बजाय अब इन शक्तियों को विभिन्न संस्थाओं-विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका – में विभाजित एवं हस्तांतरित कर दिया गया।
  • इस प्रकार फ्रांस में संवैधानिक राजतंत्र की नींव पड़ी।

नैशनल असेंबली :-

  • सन् 1791 के संविधान ने कानून बनाने का अधिकार नैशनल असेंबली को सौंप दिया।

नैशनल असेंबली का चुनाव :-

  • नैशनल असेंबली अप्रत्यक्ष रूप से चुनी जाती थी।
  • सर्वप्रथम नागरिक एक निर्वाचक समूह का चुनाव करते थे।
  •  जो पुन: असेंबली के सदस्यों को चुनते थे।
  • निर्वाचक की योग्यता प्राप्त करने तथा असेंबली का सदस्य होने के लिए लोगों का करदाताओं की उच्चतम श्रेणी में होना जरूरी था।
  • सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार नहीं था।

सक्रिय नागरिक  :-

ऐसे नागरिक जो

  • पुरुष हो।
  • 25 वर्ष से अधिक उम्र वाले हो।
  • तथा कम-से-कम तीन दिन की मजदूरी के बराबर कर चुकाते थे।

इन्हीं को मत देने का अधिकार था।

निष्क्रिय नागरिक :-

  • शेष पुरुषों और महिलाओं को निष्क्रिय नागरिक के रूप में वर्गीकृत किया गया था।

संविधान :-

  • संविधान ‘पुरुष एवं नागरिक अधिकार घोषणपत्र’ के साथ शुरू हुआ था।
  • जीवन के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और कानूनी बराबरी के अधिकार को ‘नैसर्गिक एवं अहरणीय’ अधिकार के रूप में स्थापित किया गया।
  •  ये अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को जन्मना प्राप्त थे।
  • इन अधिकारों को छीना नहीं जा सकता।
  • राज्य का यह कर्त्तव्य माना गया कि वह प्रत्येक नागरिक के नैसर्गिक अधिकारों की रक्षा करे।

राजनीतिक प्रतीकों के मयाने :-

  • अठारहवीं सदी में ज्यादातर स्त्री-पुरुष पढ़े-लिखें नहीं थे इसलिए महत्वपूर्ण विचारों का प्रचार करने के लिए छपे

हुए शब्दों के बजाय अकसर आकृतियों एवं प्रतीकों का प्रयोग किया गया।

1. टूटी हुई ज़ंजीर :- दासों को बांधने के लिए ज़ंजीरों का प्रयोग होता था। टूटी हुई हथकड़ी उनकी आज़ादी का प्रतीक है।

2. छड़ों का बर्छीदार गट्ठर :- अकेली छड़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है पर पूरे गट्ठर को नहीं। एकता में ही बल है।

3. त्रिभुज के अंदर रोशनी बिखेरती आँख :- सर्वदर्शी आँख ज्ञान का प्रतीक है। सूर्य की किरणें अज्ञान रूप अंधेरे को मिटा देंगी।

4. राजदंड :- शाही सत्ता का प्रतीक।

5. अपनी पूछ मुँह में लिए साँप :- समानता का प्रतीक। अँगूठी का कोई ओर-छोर नहीं होता।

6. लाल फ्राइजियन टोपी :- दासों द्वारा स्वतंत्र होने के बाद पहनी जाने वाली टोपी।

7. नीला-सफेद-लाल :- फ्रांस के राष्ट्रीय रंग।

8. डैनों वाली स्त्री :- कानून का मानवीय रूप।

9. विधि पट :- कानून सबके लिए समान है और उसकी नज़र में सब बराबर हैं।


फ्रांस में राजतंत्र का उन्मूलन और गणतंत्र की  स्थापना :-

1. राजा द्वारा युद्ध की योजना :-
फ्रांस की स्थिति आने वाले वर्षों में भी तनावपूर्ण बनी रही। यद्यपि लुई XVI ने संविधान पर हस्ताक्षर कर दिए थे, परंतु प्रशा के राजा से उसकी गुप्त वार्ता भी चल रही थी। फ्रांस की घटनाओं से अन्य पड़ोसी देशों के शासक भी चिंतित थे। इसलिए 1789 की गर्मियों के बाद होने वाली ऐसी घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए इन शासकों ने सेना भेजने की योजना बना ली थी।

2. नेशनल असेंबली द्वारा युद्ध का प्रस्ताव पारित :-
अप्रैल 1792 में नैशनल असेंबली ने प्रशा एवं ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा का प्रस्ताव पारित कर दिया।

3. सेना का गठन :-
प्रांतों से हजारों स्वयंसेवी सेना में भर्ती होने के लिए जमा होने लगे। उन्होंने इस युद्ध को यूरोपीय राजाओं एवं कुलीनों के विरुद्ध जनता की जंग के रूप में लिया।

4. फ्रांस का राष्ट्रगान :-
उनके होंठों पर देशभक्ति के जो तराने थे उनमें कवि रॉजेट दि लाइल द्वारा रचित मार्सिले भी था। यह गीत पहली बार मार्सिलेस के स्वयंसेवियों ने पेरिस की ओर कूच करते हुए गया था। इसलिए इस गाने का नाम मार्सिले हो गया जो अब फ्रांस का राष्ट्रगान है।

5. महिलाओं की भूमिका :-
क्रांतिकारी युद्धों से जनता को भारी क्षति एवं आर्थिक कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं। पुरुषों के मोर्चे पर चले जाने के बाद घर-परिवार और रोजी-रोटी की जिम्मेवारी औरतों के कंधों पर आ पड़ी।

6. राजनीतिक क्लबों की स्थापना :-
देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को ऐसा लगता  था कि क्रांति के सिलसिले को आगे बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि 1791 के संविधान से सिर्फ अमीरों को ही राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुए थे। लोग राजनीतिक क्लबों में अड्डे जमा कर सरकारी नीतियों और अपनी कार्ययोजना पर बहस करते थे।

7. जैकोबिन क्लब की स्थापना :-
जैकोबिन क्लब सबसे सफल राजनैतक क्लब था, जिसका नाम पेरिस के भूतपूर्व “कॉन्वेंट ऑफ सेंट जेकब” के नाम पर पड़ा, जो अब इस राजनीतिक समूह का अड्डा बन गया था। जैकोबिन क्लब के सदस्य मुख्यत: समाज के कम समृद्ध हिस्से से आते थे। इनमें छोटे दुकानदार और कारीगर – जैसे जूता बनाने वाले, पेस्ट्री बनाने वाले, घडीसाज़, छपाई करने वाले और नौकर व दिहाड़ी मजदूर शामिल थे। उनका नेता “मैक्समिलियन रोबेस्प्येर” था।

 जैकोबिनों के एक बड़े वर्ग ने गोदी कामगारों की तरह धारीदार लंबी पतलून पहनने का निर्णय किया। ऐसा उन्होंने समाज के फैशनपरस्त वर्ग, खासतौर से घुटने तक पहने जाने वाले ब्रीचेस (घुटन्ना) पहनने वाले कुलीनों से खुद को अलग करने के लिए किया। यह ब्रीचेस पहनने वाले कुलीनों की सत्ता समाप्ति के एलान का उनका तरीका था।

जैकोबिनों को सौं कुलॉत के नाम से जाना गया जिसका शाब्दिक अर्थ होता है – बिना घुटन्ने वाले। सौं कुलॉत पुरुष लाल रंग की टोपी भी पहनते थे जो स्वतंत्रता का प्रतीक थी। लेकिन महिलाओं को ऐसा करने की अनुमति नहीं थी।

8. जैकोबिनों द्वारा हिंसक विद्रोह :- 
सन् 1792 की गर्मियों में जैकोबिनों ने खाद्य पदार्थों की महँगाई एवं अभाव से नाराज पेरिसवासियों को लेकर एक विशाल हिंसक विद्रोह की योजना बनायी। 10 अगस्त की सुबह उन्होंने ट्यूलेरिए के महल पर धावा बोल दिया, राजा के रक्षकों को मार डाला और खुद राजा को कई घंटों तक बंधक बनाये रखा।

9. नए चुनाव तथा मताधिकार :-
असेंबली ने शाही परिवार को जेल में डाल देने का प्रस्ताव पारित किया। नये चुनाव कराये गए। 21 वर्ष से अधिक उम्र वाले सभी पुरुषों – चाहे उनके पास संपत्ति हो या नहीं – को मतदान का अधिकार दिया गया।

 10. राजतंत्र का अंत तथा गणतंत्र की स्थापना :-

नवनिर्वाचित असेंबली को कन्वेंशन का नाम दिया गया। 21 सिंतबर 1792 को इसने राजतंत्र का अंत कर दिया और फ्रांस को एक गणतंत्र घोषित किया। गणतंत्र सरकार का वह रूप है जहां सरकार एवं उसके प्रमुख का चुनाव जनता करती है। यह वंशानुगत राजशाही नहीं है।

लुई XVI को न्यायालय द्वारा देशद्रोह के आरोप में मौत की सजा सुना दी गई। 21 जनवरी 1793 को प्लेस डी लॉ कॉन्कॉर्ड में उसे सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गई। जल्द ही रानी मेरी एन्तोएनेत का भी वह हश्र हुआ।

आतंक राज:-

  • सन् 1793 से 1794 तक के काल को आतंक का युग कहा जाता है।
  • रोबेस्प्येर ने नियंत्रण एवं दंड की सख्त नीति अपनाई।
  • उसके हिसाब से गणतंत्र के जो भी शत्रु थे – कुलीन एवं पादरी, अन्य राजनीतिक दलों के सदस्य, उसकी कार्यशैली से असहमति रखने वाले पार्टी सदस्य – उन सभी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया और एक क्रांतिकारी न्यायालय द्वारा उन पर मुकदमा चलाया गया।
  • गिलोटिन :- यदि न्यायालय उन्हें दोषी पाता तो गिलोटिन पर चढ़ाकर उनका सिर कलम कर दिया जाता था। गिलोटिन दो खंभों के बीच लटकते आरे वाली मशीन था जिस पर रख कर अपराधी का सिर धड़ से अलग कर दिया जाता था। इस मशीन का नाम इसके आविष्कारक डॉ. गिलोटिन के नाम पर पड़ा।
  • रोबेस्प्येर सरकार ने कानून बना कर मजदूरी एवं कीमतों की अधिकतम सीमा तय कर दी।
  • गोश्त एवं पावरोटी की राशनिंग कर दी गई।
  • किसानों को अपना अनाज शहरों में ले जाकर सरकार द्वारा तय कीमत पर बेचने के लिए बाध्य किया गया।
  • अपेक्षाकृत महंगे सफेद आटे के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई।
  • सभी नागरिकों के लिए साबुत गेहूँ से बनी और बराबरी का प्रतीक मानी जाने वाली, समता रोटी खाना अनिवार्य कर दिया गया।  बोलचाल और संबोधन में भी बराबरी का आचार-व्यवहार लागू करने की कोशिश की गई। परंपरागत “मॉन्स्यूर” (महाशय) एवं “मदाम” (महोदया)के स्थान पर अब सभी फ्रांसीसी पुरुषों एवं महिलाओं को “सितोयेन” (नागरिक) एवं “सितोयीन” (नागरिका) नाम से संबोधित किया जाने लगा। चर्चों को बंद कर दिया गया और उनके भवनों को बैरक या दफ्तर बना दिया गया।

रोबस्प्येर ने अपनी नीतियों को इतनी सख्ती से लागू किया कि उसके समर्थक भी त्राहि-त्राहि करने लगे। अंतत: जुलाई 1794 में न्यायालय द्वारा उसे दोषी ठहराया गया और गिरफ्तार करके अगले ही दिन उसे गिलोटिन पर चढ़ा दिया गया।

डिरेक्ट्री शासित फ्रांस :-
1. जैकोबिन सरकार के पतन के बाद मध्य वर्ग के संपन्न तबके के पास सत्ता आ गई।
2. नए संविधान के तहत सम्पत्तिहीन तबके को मताधिकार से वंचित कर दिया गया।
3. संविधान में दो चुनी गई विधान परिषदों का प्रावधान था।
 4. परिषदों ने पाँच सदस्यों वाली एक कार्यपालिका – डिरेक्ट्री – को नियुक्त किया।
 5. एक प्रावधान के जरिए जैकोबिनों के शासन वाली एक व्यक्ति-केंद्रित कार्यपालिका से बचने की कोशिश की गई।
6. डिरेक्टरों का झगड़ा अकसर विधान परिषदों से होता और तब परिषद् उन्हें बर्खास्त करने की चेष्टा करती।
7. डिरेक्ट्री की राजनीतिक अस्थिरता ने सैनिक तानाशाह – नेपोलियन बोनापार्ट – के उदय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

परिणाम :-
सरकार के स्वरूप में हुए सभी परिवर्तनों के दौरान स्वतंत्रता, विधिसम्मत समानता और बंधुत्व प्रेरक आदर्श बन रहे। इन मूल्यों ने आगामी सदी में न सिर्फ फ्रांस बल्कि बाकी यूरोप के राजनीतिक आंदोलनों को भी प्रेरित किया।

क्या महिलाओं के लिए भी क्रांति हुई?

  • महिलाएँ शुरू से ही फ्रांसीसी समाज में इतने अहम परिवर्तन लाने वाली गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल थीं। महिलाओं को उम्मीद थी कि उनकी भागीदारी क्रांतिकारी सरकार को उनका जीवन सुधारने हेतु ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरित करेगी।

1. महिलाओं की स्थिति :-

  • तीसरे एस्टेट की अधिकांश महिलाएँ जीविका निर्वाह के लिए काम करती थीं।
  • वे सिलाई-बुनाई, कपड़ों की धुलाई करती थीं।
  • बाजारों में फल-फूल-सब्जियाँ बेचती थीं।
  • संपन्न घरों में घरेलू काम करती थीं।
  • बहुत सारी महिलाएँ वेश्यावृत्ति करती थीं।
  • अधिकांश महिलाओं के पास पढ़ाई-लिखाई तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण के मौके नहीं थे। केवल कुलीनों की लड़कियाँ अथवा तीसरे एस्टेट के धनी परिवारों की लड़कियाँ ही कॉन्वेंट में पढ़ पाती थीं, इसके बाद उनकी शादी कर दी जाती थी।
  •  कामकाजी महिलाओं को अपने परिवार का पालन-पोषण भी करना पड़ता था – जैसे खाना पकाना, पानी लाना, लाइन लगा कर पावरोटी लाना और बच्चों की देख-रेख आदि करना।
  • महिलाओं की मजदूरी पुरुषों की तुलना में कम थी।

2. महिलाओं द्वारा राजनीतिक क्लबों की स्थापना :-

  • महिलाओं ने अपने हितों की हिमायत करने और उन पर चर्चा करने के लिए खुद के राजनीतिक क्लब शुरू किए और अखबार निकाले।
  • फ्रांस के विभिन्न नगरों में महिलाओं के लगभग 60 क्लब अस्तित्व में आए। उनमें ‘द सोसाइटी ऑफ रेवलूशनरी एंड रिपब्लिकन विमेन’ सबसे मशहूर क्लब था।
  • महिलाओं की एक प्रमुख मांग यह थी कि महिलाओं को पुरुषों के समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए।
  • महिलाएँ इस बात से निराश हुईं कि 1791 के संविधान में उन्हें निष्क्रिय नागरिक का दर्जा दिया गया था।

महिलाओें की मांगें :-
i. महिलाओं के मताधिकार
ii. असेंबली के लिए चुने जाने
iii. राजनीतिक पदों की प्राप्ति।

  • महिलाओं का मानना था कि तभी नई सरकार में उनके हितों का प्रतिनिधित्व हो पाएगा।

3. महिलाओं के जीवन में सुधार :-

  • प्रारंभिक वर्षों में क्रांतिकारी सरकार ने महिलाओं के जीवन में सुधार लाने वाले कुछ कानून लागू किए।
  • सरकारी विद्यालयों की स्थापना के साथ ही सभी लड़कियों के लिए स्कूली शिक्षा को अनिवार्य बना दिया गया।
  • अब पिता उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ शादी के लिए बाध्य नहीं कर सकते थे।
  • शादी को स्वैच्छिक अनुबंध माना गया।
  • नागरिक कानूनों के तहत विवाह का पंजीकरण किया जाने लगा।
  • तलाक को कानूनी रूप दे दिया गया और मर्द-औरत दोनों को ही इसकी अर्जी देने का अधिकार दिया गया।
  • अब महिलाएँ व्यावसायिक प्रशिक्षण ले सकती थीं, कलाकार बन सकती थीं।
  • महिलाएँ छोटे-मोटे व्यवसाय चला सकती थीं।

4. आतंक राज में महिलाओं की स्थिति :-

  • आतंक राज के दौरान सरकार ने महिला क्लबों को बंद करने और उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने वाला कानून लागू किया।
  • कई जानी-मानी महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
  • कुछ महिलाओं को फांसी पर चढ़ा दिया गया।

5. महिलाओें को मताधिकार की प्राप्ति :-

  • मताधिकार और समान वेतन के लिए महिलाओं का आंदोलन अनेक देशों में चलता रहा।
  • मताधिकार का संघर्ष उन्नीसवीं सदी के अंत एवं बीसवीं सदी के प्रारंभ तक अंतर्राष्ट्रीय मताधिकार आंदोलन के जरिए जारी रहा।
  • क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान फ्रांसीसी महिलाओं की राजनीतिक सरगर्मियों को प्रेरक स्मृति के रूप में जिंदा रखा गया।
  • अंतत: सन् 1946 में फ्रांस की महिलाओं ने मताधिकार हासिल कर लिया।
  • फ्रांसीसी उपनिवेशों में दास-प्रथा का उन्मूलन जैकोबिन शासन के क्रांतिकारी सामाजिक सुधारों में से एक था।

दास व्यापार :-

  • कैरिबिआई उपनिवेश-मार्टिनिक, गॉडेलोप और सैन डोमिंगों – तम्बाकू, नील, चीनी एवं कॉफी जैसी वस्तुओं के महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता थे लेकिन अपरिचित एवं दूर देश जाने और काम करने के प्रति यूरोपियों की अनिच्छा के कारण – बागानों में श्रम की कमी थी। इस कमी को यूरोप, अफ्रीका एवं अमेरिका के बीच त्रिकोणीय दास-व्यापार द्वारा पूरा किया गया। दास-व्यापार सत्रहवीं शताब्दी में शुरू हुआ।
  • फ्रांसीसी सौदागर बोर्दे या नान्ते बंदरगाह से अफ्रीका तट पर जहाज ले जाते थे, जहाँ वे स्थानीय सरदारों से दास खरीदते थे।
  • दासों को दाग कर एवं हथकड़ियाँ डाल कर अटलांटिक महासागर के पार कैरिबिआई देशों तक तीन माह की लंबी समुद्री-यात्रा के लिए जहाजों में ठूँस दिया जाता था।
  •  वहाँ उन्हें बागान-मालिकों को बेच दिया जाता था। दास-श्रम के बल पर यूरोपीय बाजारों में चीनी, कॉफी एवं नील की बढ़ती मांग को पूरा करना संभव हुआ।
  • बोर्दे और नान्ते जैसे बंदरगाह फलते-फूलते दास-व्यापार के कारण ही समृद्ध नगर बन गए।

दास-प्रथा की समाप्ति :-

  • अठारहवीं सदी में फ्रांस में दास-प्रथा की ज्यादा निंदा नहीं हुई।
  • नैशनल असेंबली में लंबी बहस हुई कि व्यक्ति के मूलभूत अधिकार उपनिवेशों में रहने वाली प्रजा सहित समस्त फ्रांसीसी प्रजा को प्रदान किए जाएँ या नहीं। परंतु दास-व्यापार पर निर्भर व्यापारियों के विरोध के भय से नैशनल असेंबली में कोई कानून पारित नहीं किया गया।
  • सन् 1794 के कन्वेंशन ने फ्रांसीसी उपनिवेशों में सभी दासों की मुक्ति का कानून पारित कर दिया।
  • यह कानून एक छोटी-सी अवधि तक ही लागू रहा।
  • दस वर्ष बाद नेपोलियन ने दास-प्रथा पुन: शुरू कर दी।
  • बागान-मालिकों को अपने आर्थिक हित साधने के लिए अफ्रीकी नीग्रो लोगों को गुलाम बनाने की स्वतंत्रता मिल गयी।
  •  फ्रांसीसी उपनिवेशों से अंतिम रूप से दास-प्रथा का उन्मूलन 1848 में किया गया।

क्रांति और रोजाना की जिंदगी :-

  • सन् 1789 से बाद के वर्षों में फ्रांस के पुरुषों, महिलाओं एवं बच्चों के जीवन में ऐसे अनेक परिवर्तन आए।
  •  क्रांतिकारी सरकारों ने कानून बनाकर स्वतंत्रता एवं समानता के आदर्शों को रोजाना की जिंदगी में उतारने का प्रयास किया।
  • बास्तील के विध्वंस के बाद सन् 1789 की गर्मियों में जो सबसे महत्वपूर्ण कानून अस्तित्व में आया, वह था – सेंसरशिप की समाप्ति।
  • प्राचीन राजतंत्र के अंतर्गत तमाम लिखित सामग्री और सांस्कृतिक गतिविधियों – किताब, अखबार, नाटक-को राजा के सेंसर अधिकारियों द्वारा पास किए जाने के बाद ही प्रकाशित या मंचित किया जा सकता था।
  • क्रांति के पश्चात् अधिकारों के घोषणापत्र ने भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नैसर्गिक अधिकार घोषित कर दिया।
  • परिणामस्वरूप फ्रांस के शहरों में अखबारों, पर्चों, पुस्तकों एवं छपी हुई तस्वीरों की बाढ़ आ गई जहाँ से वह तेजी से गाँव-देहात तक जा पहुंची।
  • उनमें फ्रांस में घट रही घटनाओं एवं परिवर्तनों का ब्यौरा और उन पर टिप्पणी होती थी।
  •  प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब यह था कि किसी भी घटना पर परस्पर विरोधी विचार भी व्यक्त किए जा सकते थे।
  •  प्रिंट माध्यम का उपयोग करके एक पक्ष ने दूसरे पक्ष को अपने दृष्टिकोण से सहमत कराने की कोशिश की।
  •  नाटक, संगीत और उत्सवी जुलूसों में असंख्य लोग जाने लगे। स्वतंत्रता और न्याय के बारे में राजनीतिज्ञों व दार्शनिकों के पांडित्यपूर्ण लेखन को समझने और उससे जुड़ने का यह लोकप्रिय तरीका था क्योंकि किताबों को पढ़ाना तो मुट्‌ठी भर शिक्षितों के लिए ही संभव था।

नेपोलियन बोनापार्ट :-

  • 1804 में नेपोलियन बोनापार्ट ने खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया।
  • नेपोलियन  ने पड़ोस के यूरोपीय देशों की विजय यात्रा शुरू की।
  • पुराने राजवंशों को हटा कर उसने नए साम्राज्य बनाए और उनकी बागडोर अपने खानदान के लोगों के हाथ में दे दी।
  •  नेपोलियन खुद को यूरोप के आधुनिकीकरण का अग्रदूत मानता था।
  • उसने निजी संपत्ति की सुरक्षा के कानून बनाए और दशमलव पद्धति पर आधारित नाप-तौल की एक समान प्रणाली चलायी।
  • शुरू-शुरू में बहुत सारे लोगों को नेपोलियन मुक्तिदाता लगता था और उससे जनता को स्वतंत्रता दिलाने की उम्मीद थी। पर जल्दी ही उसकी सेनाओं को लोग हमलावर मानने लगे।
  • आखिरकार 1815 में वॉटरलू में उसकी हार हुई।
  • यूरोप के बाकी हिस्सों में मुक्ति और आधुनिक कानूनों को फैलाने वाले उसके क्रांतिकारी उपायों का असर उसकी मृत्यु के काफी समय बाद सामने आया।

स्वतंत्रता और जनवादी अधिकारों के विचार फ्रांसीसी क्रांति की सबसे महत्वपूर्ण विरासत थे। ये विचार उन्नीसवीं सदी में फ्रांस से निकल कर बाकी यूरोप में फैले और इनके कारण वहाँ सामंती व्यवस्था का नाश हुआ। औपनिवेशक समाजों में संप्रभु राष्ट्र-राज्य की स्थापना के अपने आंदोलनों में दासता से मुक्ति के विचार को नयी परिभाषा दी। टीपू सुल्तान और राजा सममोहन रॉय क्रांतिकारी फ्रांस में उपजे विचारों से प्रेरणा लेने वाले दो ठोस उदाहरण थे।

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प्रश्न 1 फ्रांस में क्रान्ति की शुरुआत किन परिस्थितियों में हुई?

उत्तर – फ्रांस में क्रान्ति की शुरुआत निम्न परिस्थितियों में हुई-

  1. राजनैतिक कारण- तृतीय स्टेट के प्रतिनिधियों ने मिराब्यो एवं आबेसिए के नेतृत्व में स्वयं को राष्ट्रीय सभा घोषित कर इस बात की शपथ ली कि जब तक वे लोग सम्राट की शक्तियों को सीमित करने तथा अन्यायपूर्ण विशेषाधिकारों वाली सामंतवादी प्रथा को समाप्त करने वाला संविधान नहीं बना लेंगे तब तक राष्ट्रीय सभा को भंग नहीं करेंगे। राष्ट्रीय सभा जिस समय संविधान बनाने में व्यस्त थी, उस समय सामंतों को विस्थापित करने के लिए अनेक स्थानीय विद्रोह हुए। अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1774 ई. में ‘लुईस सोलहवाँ ‘ फ्रांस का राजा बना था। वह एक सज्जन परन्तु अयोग्य शासक था। राजा पर उसकी पत्नी ‘मैरी एंटोइनेट’ को भारी प्रभाव था। प्रांतीय प्रशासन दो भागों में बँटा हुआ था जिन्हें क्रमश: ‘गवर्नमेंट’ तथा ‘जनरेलिटी’ के नामों से जाना जाता था। फ्रांसीसी शासन में एकरूपता का अभाव था। देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार के कानून लागू थे। इसी बीच खाद्य संकट गहरा गया तथा जनसाधारण का गुस्सा गलियों में फूट पड़ा। 14 जुलाई को सम्राट ने सैन्य टुकड़ियों को पेरिस में प्रवेश करने के आदेश दिये। इसके प्रत्युत्तर में सैकड़ों क्रुद्ध पुरुषों एवं महिलाओं ने स्वयं की सशस्त्र टुकड़ियाँ बना लीं। ऐसे ही लोगों की एक सेना बास्तील किले की जेल (सम्राट की निरंकुश शक्ति का प्रतीक) में जा घुसी और उसको नष्ट कर दिया। इस प्रकार फ्रांसीसी क्रांति का प्रारंभ हुआ और व्यवस्था बदलने को आतुर लोग क्रांति में शामिल हो गए।
  2. फ्रांस की आर्थिक परिस्थितियाँ- बूळू वंश का लुई सोलहवाँ 1774 में फ्रांस का राजा बना। उसने ऑस्ट्रिया की राजकुमारी मैरी एंटोइनेट से विवाह किया। उसके सत्तासीन होने के समय फ्रांस का कोष रिक्त था। राज्य पर कर्ज का बोझ निरंतर बढ़ रहा था। राज्य की कर व्यवस्था असमानता और पक्षपात के सिद्धांत पर निर्मित होने के कारण अत्यंत दूषित थी। कर दो प्रकार के थे- प्रत्यक्ष कर (टाइल) और धार्मिक कर (टाइद)। पादरी वर्ग और कुलीन वर्ग जिनका फ्रांस की लगभग 40% भूमि पर स्वामित्व था, प्रत्यक्ष करों से पूर्ण मुक्त थे तथा अप्रत्यक्ष करों से भी प्रायः मुक्त थे। ऐसे समय में अमेरिका के ब्रिटिश उपनिवेशों के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के सरकारी निर्णय ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया।

सेना का रखरखाव, दरबार का खर्च, सरकारी कार्यालयों या विश्वविद्यालयों को चलाने जैसे अपने नियमित खर्च निपटाने के लिए सरकार कर बढ़ाने पर बाध्य हो गई। कर बढ़ाने के प्रस्ताव को पारित करने के लिए फ्रांस के सम्राट लुई सोलहवें ने 5 मई, 1789 ई. को एस्टेट के जनरल की सभा बुलाई। प्रत्येक एस्टेट को सभा में एक वोट डालने की अनुमति दी गई। तृतीय एस्टेट ने इस अन्यायपूर्ण प्रस्ताव का विरोध किया। उन्होंने सुझाव रखा कि प्रत्येक सदस्य का एक वोट होना चाहिए। सम्राट ने इंस अपील को ठुकरा दिया तथा तृतीय एस्टेट के प्रतिनिधि सदस्य विरोधस्वरूप सभा से वाक आउट कर गए। फ्रांसीसी जनसंख्या में भारी बढ़ोत्तरी के कारण इस समय खाद्यान्न की माँग बहुत बढ़ गई थी। परिणामस्वरूप, पावरोटी (अधिकतर लोगों के भोजन का मुख्य भाग) के भाव बढ़ गए। बढ़ती कीमतों व अपर्याप्त मजदूरी के कारण अधिकतर जनसंख्या जीविका के आधारभूत साधन भी वहन नहीं कर सकती थी। इससे जीविका संकट उत्पन्न हो गया तथा अमीर और गरीब के मध्य दूरी बढ़ गई।

  • दार्शनिकों का योगदान- इस काल में फ्रांसीसी समाज में मांटेस्क्यू, वोल्टेयर तथा रूसो आदि विचारकों के विचारों के कारण तर्कवाद का प्रसार आरम्भ हुआ। इन विचारकों ने अपने साहित्य द्वारा पादरियों, चर्च की सत्ता तथा सामंती व्यवस्था की जड़ों को हिला दिया। अठारहवीं सदी के दौरान मध्यम वर्ग शिक्षित एवं धनी बन कर उभरा। सामंतवादी समाज द्वारा प्रचारित विशेषाधिकार प्रणाली उनके हितों के विरुद्ध थी। शिक्षित होने के कारण इस वर्ग के सदस्यों की पहुँच फ्रांसीसी एवं अंग्रेज राजनैतिक एवं सामाजिक दार्शनिकों द्वारा सुझाए गए समानता एवं आजादी के विभिन्न-विचारों तक थी। ये विचार सैलून एवं कॉफीघरों में जनसाधारण के बीच चर्चा तथा वाद-विवाद के फलस्वरूप पुस्तकों एवं अखबारों के द्वारा लोकप्रिय हो गए। दार्शनिकों के विचारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जॉन लॉक, जीन जैक्स रूसो एवं मांटेस्क्यू ने राजा के दैवीय सिद्धान्त को नकार दिया।
  • सामाजिक परिस्थितियाँ- फ्रांस में सामंतवादी प्रथा प्रचलित थी, जो तीन वर्गों में प्रचलित थी। इन वर्गों को एस्टेट कहते थे। प्रथम एस्टेट में पादरी वर्ग आता था। इनका देश की 10% भूमि पर अधिकार था। द्वितीय एस्टेट में फ्रांस का कुलीन वर्ग सम्मिलित था। इनका देश की 30% भूमि पर अधिकार था। तृतीय एस्टेट में फ्रांस की लगभग 94% जनसंख्या आती थी। इस वर्ग में मध्यम वर्ग (लेखक, डॉक्टर, जज, वकील, अध्यापक, असैनिक अधिकारी आदि), किसानों, मजदूरों और दस्तकारों को सम्मिलित किया जाता था। यह केवल तृतीय एस्टेट ही थी जो सभी कर देने को बाध्य थी। पादरी एवं कुलीन वर्ग के लोगों को सरकार को कर देने से छूट प्राप्त थी परन्तु सरकार को कर देने के साथ-साथ किसानों को चर्च को भी कर देना पड़ता था। यह एक अन्यायपूर्ण स्थिति थी जिसने तृतीय एस्टेट के सदस्यों में असंतोष की भावना को बढ़ावा दिया।
  • तात्कालिक कारण- लुई सोलहवें ने 5 मई, 1789 ई. को नए करों के प्रस्ताव हेतु 1614 ई. में निर्धारित संगठन के आधार पर तीनों एस्टेट की एक बैठक बुलाई। तृतीय एस्टेट की माँग थी कि सभी एस्टेट की एक संयुक्त बैठक बुलाई जाए तथा ‘एक व्यक्ति एक मत’ के आधार पर मतदान कराया जाए। लुई सोलहवें ने ऐसा करने से मना कर दिया। अतः 20 जून को तृतीय एस्टेट के प्रतिनिधि टेनिस कोर्ट में एकत्रित हुए तथा नवीन संविधान बनाने की घोषणा की।

प्रश्न 2 फ्रांसीसी समाज के किन तबकों को क्रांति से फ़ायदा मिला? कौन-से समूह सत्ता छोड़ने के मजबूर हो गए? क्रांति के नतीजों से समाज के किन समूहों को निराशा हुए होगी?

उत्तर – तृतीय एस्टेट्स के धनी सदस्यों (मध्यम वर्ग) को फ्रांसीसी क्रांति से सर्वाधिक लाभ हुआ। इन समूहों में किसान, मजदूर, छोटे अधिकारीगण, वकील, अध्यापक, डॉक्टर एवं व्यवसायी शामिल थे। पहले इन्हें सभी कर अदा करने पड़ते थे व पादरियों एवं कुलीन लोगों द्वारा उन्हें हर कदम पर सदैव अपमानित किया जाता था किन्तु क्रांति के बाद उनके साथ समाज के उच्च वर्ग के समान व्यवहार किया जाने लगा। पादरियों एवं कुलीनों को शक्ति त्यागने पर बाध्य होना पड़ा तथा उनसे सभी विशेषाधिकार छीन लिए गए। समाज के अपेक्षाकृत निर्धन वर्गों तथा महिलाओं को क्रांति के परिणाम से निराशा हुई होगी क्योंकि क्रांति के बाद समानता की प्रतिज्ञा पूर्ण रूप से फलीभूत नहीं हुई।

प्रश्न 3 उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की दुनिया के लिए फ़्रांसिसी क्रांति कौन-सी विरासत छोड़ दी?

उत्तर – इस क्रान्ति से विश्व के लोगों को निम्न विरासत प्राप्त हुई-

  1. फ्रांसीसी क्रान्ति वैश्विक स्तर पर मानव इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक है।
  2. यह विश्व का पहला ऐसा राष्ट्रीय आंदोलन था जिसने स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारे जैसे विचारों को अपनाया। 19वीं व 20वीं सदी के प्रत्येक देश के लोगों के लिए ये विचार आधारभूत सिद्धान्त बन गए।
  3. राजा राममोहन राय जैसे नेता फ्रांसीसियों द्वारा राजशाही एवं उसके निरंकुशवाद के विरुद्ध प्रचारित विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे।
  4. इस क्रान्ति ने जनता की आवाज को प्रश्रय दिया। जनता उस समय दैवी अधिकार की धारणा, सामंती विशेषाधिकार, दास प्रथा एवं नियंत्रण को समाप्त करके योग्यता को सामाजिक उत्थान का आधार बनाना चाहती थी।
  5. इसने यूरोप के लगभग सभी देशों सहित दक्षिण अमेरिका में प्रत्येक क्रान्तिकारी आंदोलन को प्रेरित किया।
  6. इसने ‘राष्ट्रवादी आंदोलन’ को बढ़ावा दिया। इस क्रांति ने पोलैण्ड, जर्मनी, नीदरलैण्ड तथा इटली के लोगों को अपने देशों में राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हेतु प्रेरित किया।
  7. इसने राजतंत्रात्मक स्वेच्छाचारी शासन का अन्त कर यूरोप तथा विश्व के अन्य भागों में गणतंत्र की स्थापना को बढ़ावा दिया।

इसने देश के सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार की अवधारणा का प्रचार किया जो बाद में कानून के सम्मुख लोगों की समानता की धारणा का आधार बना।

प्रश्न 4 उन जनवादी आदिकारों की सूचि बनाएँ जो आज हमें मिले हुए है और जिनका उद्गम फ़्रांसिसी क्रांति में है।

उत्तर – वे लोकतांत्रिक अधिकार जिन्हें हम आज प्रयोग करते हैं तथा जिनका उद्गम फ्रांसीसी क्रांति से हुआ है, इस प्रकार हैं-

  1. विचार अभिव्यक्ति का अधिकार,
  2. समानता का अधिकार,
  3. स्वतंत्रता का अधिकार,
  4. एकत्र होने तथा संगठन बनाने का अधिकार,
  5. सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार,
  6. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार,
  7. शोषण के विरुद्ध अधिकार,
  8. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 5 क्या आप इस तर्क से सहमत हैं कि सार्वभौमिक अधिकारों के सन्देश में नाना अंतर्विरोध थे?

उत्तर – पुरुषों एवं नागरिकों के अधिकारों की घोषणा इतने विशाल स्तर पर सार्वभौमिक अधिकारों का खाका तैयार करने का विश्व में शायद प्रथम प्रयास था। इसने स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारे के तीन मौलिक सिद्धांतों पर बल दिया। सभी लोकतांत्रिक देशों द्वारा ऐसे सिद्धांतों को अपनाया गया है। किन्तु यह सत्य है कि सार्वभौमिक अधिकारों का संदेश विरोधाभासों से घिरा था। पुरुष एवं नागरिक अधिकार घोषणापत्र में कई आदर्श संदिग्ध अर्थों से भरे पड़े थे।

  1. घोषणा में कहा गया था कि “कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति है। सभी नागरिकों को व्यक्तिगत रूप से या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से इसके निर्माण में भाग लेने का अधिकार है। कानून के नजर में सभी नागरिक समान हैं।” किन्तु जब फ्रांस एक संवैधानिक राजशाही बना तो लगभग 30 लाख नागरिक जिनमें 25 वर्ष से कम आयु के पुरुष एवं महिलाएँ शामिल थे, उन्हें बिल्कुल वोट ही नहीं डालने दिया गया।
  2. फ्रांस ने उपनिवेशों पर कब्जा करना व उनकी संख्या बढ़ाना जारी रखा।
  3. फ्रांस में उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक दासप्रथा जारी रही।

प्रश्न 6 नेपोलियन के उदय को कैसे समझा जा सकता है?

उत्तर – नेपोलियन का उदय 1796 में निर्देशिका के पतन के बाद हुआ। निदेशकों का प्राय: विधान सभाओं से झगड़ा होता था जो कि बाद में उन्हें बर्खास्त करने का प्रयास करती। निर्देशिका राजनैतिक रूप से अत्यधिक अस्थिर थी; अत: नेपोलियन सैन्य तानाशाह के रूप में सत्तारूढ़ हुआ। सन् 1804 में नेपोलियन बोनापार्ट ने स्वयं को फ्रांस का सम्राट बना लिया। 1799 ई. में डायरेक्टरी के शासन का अंत करके वह फ्रांस का प्रथम काउंसल बन गया। शीघ्र ही शासन की समस्त शक्तियाँ उसके हाथों में केंद्रित हो गईं।

सन् 1793-96 के मध्य फ्रांसीसी सेनाओं ने लगभग सम्पूर्ण पश्चिमी यूरोप पर विजय हासिल कर ली। जब नेपोलियन माल्टा, मिस्र और सीरिया की ओर बढ़ा (1797-99) तथा इटली से फ्रांसीसियों को बाहर ढकेल दिया गया तब सत्ता पर नेपोलियन का कब्जा हुआ, फ्रांस ने अपने खोए हुए भूखण्ड पुन: वापस ले लिए। उसने आस्ट्रिया को 1805 में, प्रशा को 1806 में और रूस को 1807 में परास्त किया। समुद्र के ऊपर ब्रिटिश नौ सेना पर फ्रांसीसी अपना प्रभुत्व कायम नहीं कर सके। अंतत: लगभग सारे यूरोपीय देशों ने मिलकर 1813 ई. में लिव्जिंग में फ्रांस को परास्त किया। बाद में इन मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने पेरिस (फ्रांस की राजधानी) पर अधिकार कर लिया। जून, 1815 ई. में नेपोलियन ने वाटरलू में पुन: विजय प्राप्त करने का असफल प्रयास किया। नेपोलियन ने अपने शासन काल में निजी संपत्ति की सुरक्षा और नाप-तोल की एक समान दशमलव प्रणाली सम्बन्धी कानून बनाए।

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