NCERT Class 9 History Chapter 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे|भारत और समकालीन विश्व-I
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9th Class History Chapter 5 Pastoralists in the Modern World Notes in Hindi | कक्षा 9 इतिहास नोट्स हिंदी में उपलब्ध करा रहे हैं |Class 9 Itihaas Chapter 5 Aadhunik vishv men charavaahe Notes PDF Hindi me Notes PDF 2023-24 New Syllabus ke anusar.
Textbook | NCERT |
Class | Class 9 |
Subject | History | इतिहास |
Chapter | Chapter 5 |
Chapter Name | आधुनिक विश्व में चरवाहे |
Category | Class 9 History Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
Class 09 इतिहास
अध्याय = 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे
Pastoralists in the Modern World
आधुनिक विश्व में चरवाहे
परिचय
1. घुमंतू चरवाहे और उनकी आवाजाही
• पहाड़, पठार, मैदान और रेगिस्तान में
2. औपनिवेशिक शासन और चरवाहों का जीवन
• जिन्दगी में बदलाव तथा बदलाव का सामना
3. अफ्रीका में चरवाहा जीवन
• स्थिति , देशों का बँटवारा
• घुमंतू – ऐसे लोग जो रोजी-रोटी के जुगाड़ में एक जगह टिककर रहने के बजाय, घूमते रहते हैं।
• देश के कई हिस्सों में हम घुमंतू चहवाहों को भेड़-बकरियों, ऊँट या अन्य पशुओं के साथ देख सकते हैं।
• भारत और अफ्रीका जैसे समाजों में चरवाही का कितना महत्त्व है।
• पूर्वी गढ़वाल के बुग्याल ऊँचे पहाड़ों पर 12,000 फुट से भी ज्यादा ऊँचाई पर स्थित विशाल प्राकृतिक चरागाह होते हैं।
• जाड़ों में ये बर्फ में से ढके रहते हैं और अप्रैल के बाद हरे-भरे हो जाते हैं।
• इस समय पहाड़ियों की तलहटी तरह-तरह की घास, जड़ों और जड़ी-बूटियों से भरी रहती है।
• मॉनसून तक इन चरागाहों में घनी हरियाली छा जाती है और चारों तरफ फूल ही फूल दिखाई देने लगते हैं।
घुमंतू चरवाहे और उनकी आवाजाही :-
पहाड़ों में –
• गुज्जर बकरवाल समुदाय –
- 19वीं सदी में अपने मवेशियों हेतु चरागाहों की तलाश में आए, व जम्मू और कश्मीर में ही बस गए।
- • मौसमी परिवर्तन का सामना करने के लिए वे सर्दी-गर्मी के हिसाब से अलग-अलग चरागाहों में जाने लगे।
- • जाड़ों में (सितम्बर के अंत) जब ऊँची पहाड़ियाँ बर्फ से ढक जातीं तो वे शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आकर डेरा डाल लेते। वहाँ की सूखी झाड़ियाँ ही उनके जानवरों के लिए चारा बन जाती।
- • अप्रैल के अंत तक वे उत्तर दिशा में जाने लगते है, गर्मियों के चरागाहों के लिए पीर पंजाल के दरों को पार करते हुए इनके काफिले कश्मीर की घाटी में पहुँच जाते।
- • क्योंकि गर्मियाँ में वहाँ बर्फ की मोटी चादर पिघलने लगती व हरियाली छा जाती थी।
- • यहाँ उगने वाली घास से मवेशियों को सेहतमंद खुराक मिलती थी।
- • गद्दी समुदायय के लोग –
हिमाचल प्रदेश का यह समुदाय भी पास के ही पहाड़ों में चरवाहों का एक और समुदाय रहता था। हिमाचल प्रदेश के इस समुदाय को गद्दी कहते हैं। यह समुदाय भी सर्दी-गर्मी के हिसाब से अपनी जगह बदलते रहते थे।
• सर्दियों – इस समय शिवालिक की निचली पहाड़ियों में अपने मवेशियों को झाड़ियों में चराते है।
• अप्रैल – में उत्तर की तरफ चल पड़ते और पूरी गर्मियाँ लाहौल और स्पीति में बिता देते।
• जब बर्फ पिघलती और ऊँचे दर्रे खुल जाते तो उनमें से बहुत सारे ऊपरी पहाड़ों में स्थित घास के मैदानों में जा पहुँचते थे।
जी सी बार्न्स, सेटलमेंट रिपोर्ट ऑफ काँगड़ा 1850 -55
• 1850 के दशक में जी.सी.बार्न्स ने काँगड़ा के गुज्जरों का वर्णन इस प्रकार किया था ‘पहाड़ियों में रहने वाले गुज्जर शुद्ध चरवाहा कबीले के लोग हैं वे लगभग न के बराबर खेती करते है गद्दियों के पास भेड़-बकरियाँ होती हैं तो गुज्जर गाय-भैंस पालते हैं ये लोग जंगलों के किनारे रहते हैं और दूध, घी और मवेशियों से मिलने वाली दूसरी चीजें बेच कर अपना पेट पालते है घर के मर्द मवेशियों को चराने ले जाते हैं और
कई बार हफ्तों तक घर नहीं लौटते इस बीच वे जंगल में अपने रेवड़ के साथ ही रहते हैं औरतें सिर पर टोकरियाँ और कंधे पर हाँडियाँ लटका कर रोज बाजार चली जाती है उनकी हाँडियों में दूध, मक्खन और घी आदि होता है वे सिर्फ इतनी चीजें ही बाजार में ले जा पाती है जितनी घर चलाने के लिए काफी हो गर्मियों में गुज्जर अपने रेवड़ों को लेकर प्राय: ऊपरी इलाकों में चले जाते हैं
जहाँ उनकी भैंसों को न केवल बहुत सारी हरी-भरी बरसाती घास मिल जाती है और वे शीतोष्ण (न ज्यादा ठंडा, न ज्यादा गरम)’ मौसम के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं बल्कि उन जहरीली मक्खियों से भी छुटकारा मिल जाता है जो मैदानों में उनका जीना मुहाल किए रहते हैं।
मध्य गढ़वाल के ऊँचे पहाड़ों में एक गुज्जर मंडप
• गुज्जर गड़रिये बुग्याल में मिलने वाले रिंगल (एक तरह का पहाड़ी बाँस) और घास से बने मंडपों में रहते हैं। इन्हीं मंडपों का इस्तेमाल कार्यस्थल के रूप में भी होता था। यहाँ गुज्जर घी निकालते थे और उसे बेचते थे। हाल के सालों में वे बसों और ट्रकों में भर कर भी दूध ले जाने लगे हैं। ये मंडप 10,000 से 11,000 फुट की ऊँचाई पर होते हैं भैंसें इससे ज्यादा ऊँचाई पर नहीं जा सकती।
• सितंबर में दोबारा वापस चल पड़ते वापसी में वे लाहौल और स्पीति के गाँव में एक बार फिर कुछ समय के लिए रुकते। गर्मियों की फसलें काटते और सर्दियों की फसलों की बुवाई करके आगे बढ़ जाते।
• यहाँ से अपने रेवड़ सहित शिवालिक की पहाड़ियों में जाड़ों वाले चरागाहों में चले जाते थे और अगली अप्रैल में भेड़-बकरियाँ लेकर वे दोबारा गर्मियों के चरागाहों की तरफ रवाना हो जाते।
गढ़वाल और कुमाऊँ के गुज्जर चरवाहे –
- • ये चरवाहे सर्दियों में भाबर (पहाड़ियों के निचले हिस्से) के सुखे जंगलों की तरफ व गर्मियों में ऊपरी घास के मैदानों बुग्याल की तरफ चले जाते थे।
- • ये 19वीं सदी में हरे-भरे चरागहों की तलाश में जम्मु से उत्तरप्रदेश की पहाड़ियों में आकर बसे थे।
- • हिमालय के पर्वतों में रहने वाले बहुत सारे चरवाहा समुदायों जैसे भोटिया, शेरपा और किन्नौरी में भी सर्दी-गर्मी के हिसाब से हर साल चरागाह बदलते रहने का चलन था।
- • समुदाय के लोग भी इस तरह के चरवाहे थे।
- • ये सभी समुदाय मौसमी बदलावों के हिसाब से खुद को ढालते थे वे अलग-अलग इलाकों में पड़ने वाले चरागाहों का इस्तेमाल करते थे।
- • इससे चरागाह जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल से भी बच जाते थे और उनमें दोबारा हरियाली व जिंदगी भी लौट आती थी।
- • गद्दी भेड़ों की ऊन – सितंबर तक गद्दी ऊँचे मैदानों (धार) से नीचे आने लगते हैं। रास्ते में कुछ समय रुक कर वे अपनी भेड़ों की ऊन उतरवाते हैं। ऊन काटने से पहले भेड़ों को नहला- धुला कर साफ किया जाता है।
पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में
- • चरवाहें सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं रहते थे वे पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में भी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे।
- • धंगर- ये महाराष्ट्र का एक जाना-माना चरवाहा समुदाय है।
- • 20 वीं सदी की प्रारम्भ में इस समुदाय की आबादी लगभग 4,67,000 थी।
- • अधिकांश धंगर समुदाय के लोग गड़िरयों या चरवाहे थे कुछ लोग कम्बल और चादरें भी बनाते थे कुछ भैंस पालते थे।
- • धंगर गड़रियें बरसात के दिनों में महाराष्ट्र के मध्य पठारों में रहते थे।
- • यहाँ बारिश बहुत कम होती थी और मिट्टी भी खास उपजाऊ नहीं थी।
- • मॉनसून में यह पट्टी धंगरों के जानवरों के लिए विशाल चरागाह बन जाती थी
- • अक्टूबर के आसपास धंगर बाजरे की कटाई करते थे और चरागाहों की तलाश में पश्चिम की तरफ चल पड़ते थे करीब महीने भर पैदल चलने के बाद वे अपने रेवड़ों के साथ कोंकण के इलाके में जाकर डेरा डाल देते थे।
- • अच्छी बारिश और उपजाऊ मिट्टी की बदौलत इस इलाके में खेती खूब होती थी।
- • कोंकणी किसान भी इन चरवाहों का दिल खोलकर स्वागत करते थे। जिस समय धंगर कोंकण पहुँचते थे उसी समय कोंकण के किसानों को खरीफ की फसल काट कर अपने खेतों को रबी की फसल के लिए दोबारा उपजाऊ बनाना होता था
- • धंगरों के मवेशी खरीफ की कटाई के बाद खेतों में बची रह गई ठूँठों को खाते थे और उनके गोबर से खेतों को खाद मिल जाती थी।
- • कोंकणी किसान धंगरों को चावल भी देते थे जिन्हें वे वापस अपने पठारी इलाके में ले जाते थे क्योंकि वहाँ इस तरह के अनाज बहुत कम होते थे।
- • मॉनसून की बारिश शुरू होते ही धंगर कोंकण और तटीय इलाके छोड़कर सूखे पठारों की तरफ लौट जाते थे क्योंकि भेड़ें गीले मॉनसूनी हालात को बर्दाश्त नहीं कर पातीं।
- • कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के गोल्ला, कुरुमा व कुरुबा समुदाय – यहाँ मवेशियों, भेड़-बकरियों और गड़रियों का बसेरा रहता था
- • यहाँ गोल्ला समुदाय के लोग गाय-भैंस पालते थे कुरुमा और कुरुबा समुदाय भेड़ बकरियाँ पालते थे और हाथ के बुने कम्बल बेचते थे।
- • ये लोग जंगलों और छोटे छोटे खेतों के आसपास रहते थे वे अपने जानवरों की देखभाल के साथ साथ कई दूसरे काम – धंधे भी करते थे।
- • पहाड़ी चरवाहों के विपरीत यहाँ के चरवाहों का एक स्थान से दूसरे स्थान जाना सर्दी-गर्मी से तय नहीं होता था।
- • ये लोग बरसात और सूखे मौसम के हिसाब से अपनी जगह बदलते थे। सूखे महीनों में वे तटीय इलाकों की तरफ चले जाते थे जबकि बरसात शुरू होने पर वापस चल देते थे।
- • मॉनसून के दिनों में तटीय इलाकों में जिस तरह के गीले दलदली हालात पैदा हो जाते थे वे सिर्फ भैंसों को ही रास आ सकते थे।
- • ऐसे समय में बाकी जानवरों को सूखे पठारी इलाकों में ले जाना जरूरी था।
- • बंजारा समुदाय – चरवाहों में एक जाना-पहचाना नाम बंजारों का भी है। बंजारे उत्तरप्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाकों में रहते थे।
- • ये लोग बहुत दूर-दूर तक चले जाते थे और रास्ते में अनाज और चारे के बदले गाँव वालों को खेत जोतने वाले जानवर और दूसरी चीजें बेचते थे।
- • राइका समुदाय – राजस्थान के रेगिस्तानों में राइका समुदाय रहता था इस इलाके में बारिश का कोई भरोसा नहीं था होती भी थी तो बहुत कम।
- • इसीलिए खेती की उपज हर साल घटती-बढ़ती रहती थी बहुत सारे इलाकों में तो दूर-दूर तक कोई फसल होती ही नहीं थी।
- • इसके चलते राइका खेती के साथ-साथ चरवाही का भी काम करते थे
- • बरसात में तो बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर के राइका अपने गाँवों में ही रहते थे क्योंकि इस दौरान उन्हें वहीं चारा मिल जाता था।
- • अक्टूबर आते आते ये चरागाह सूखने लगते थे नतीजतन ये लोग नए चरागाहों की तलाश में दूसरे इलाकों की तरफ निकल जाते थे और अगली बरसात में ही वापस लौटते थे।
- • राइकाओं का एक तबका ऊँट पालता था जबकि कुछ भेड़-बकरियाँ पालते थे।
- • चरवाहा समुदायों की जिंदगी कई चीजों के बारे में काफी सोच-विचार करके आगे बढ़ती थी उन्हें इस बात का हमेशा खयाल रखना पड़ता था कि उनके रेवड़ एक इलाके में कितने दिन तक रह सकते हैं और उन्हें कहाँ पानी और चरागाह मिल सकते हैं।
- • उन्हें न केवल एक इलाके से दूसरे इलाके में जाने का सही समय चुनना पड़ता था बल्कि यह भी देखना पड़ता था कि उन्हें किन इलाकों से गुजरने की छूट मिल पाएगी और किन इलाकों से नहीं।
- • सफर के दौरान उन्हें रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के किसानों से भी अच्छे संबंध बनाने पड़ते थे ताकि उनके जानवर किसानों के खेतों में घास चर सकें और उनको उपजाऊ बनाते चलें।
- • अपनी रोजी रोटी के जुगाड़ में उन्हें खेती, व्यापार और चरवाही, ये सारे काम करने पड़ते थे।
- • औपनिवेशिक शासन के दौरान यानी अंग्रेजों के जमाने में चरवाहों का जीवन किस तरह बदला?
- • पश्चिमी राजस्थान में बालोतरा स्थित ऊँट मेला, पुष्कर का ऊँट मेला – ऊँटपालक यहाँ ऊँटों की खरीद-फरोख्त के लिए आते हैं मेले में मारू राइका ऊँटों के प्रशिक्षण में अपनी महारत का भी प्रदर्शन करते है इस मेले में गुजरात से घोड़े भी लाए जाते हैं।
- • मारू राइकों की वंशावली बताने वाला – वंशावली बताने वाला समुदाय का इतिहास बताता है इस तरह की मौखिक परंपराओं से चरवाहा समुदायों को अपनी पहचान का भाव मिलता है इन परंपराओं से हम यह पता लगा सकते है कि कोई समूह अपने अतीत को किस तरह देखता है।
- • चरागाहों की तलाश में निकले मालधारी चरवाहे उनके गाँव कच्छ की रन में स्थित है।
औपनिवेशिक शासन के दौरान यानी अंग्रेजों के जमाने में चरवाहों का जीवन किस तरह बदला?
• औपनिवेशिक शासन के दौरान चरवाहों की जिंदगी में गहरे बदलाव आए।
• उनके चरागाह सिमट गए, इधर-उधर आने –जाने पर बंदिशें लगने लगीं और उनसे जो लगान वसूल किया जाता था उसमें भी वृद्धि हुई।
• खेती में उनका हिस्सा घटने लगा और उनके पेशे और हुनरों पर भी बहुत बुरा असर पड़ा
1. चरागाहों को खेती की जमीन में तब्दील कर देना चाहती थी।
- • जमीन से मिलने वाला लगान उसकी आमदनी का एक बड़ा स्रोत था।
- • खेती का क्षेत्रफल बढ़ने से सरकार की आय में और बढ़ोतरी हो सकती थी।
- • जूट (पटसन), कपास, गेहूँ और अन्य खेतिहर चीजों के उत्पादन में भी इजाफा हो जाता जिनकी इंग्लैंड में बहुत ज्यादा जरूरत रहती थी।
- • अंग्रेज अफसरों को बिना खेती की जमीन का कोई मतलब समझ में नहीं आता था उससे न तो लगान मिलता था और न ही उपज।
- • अंग्रेज ऐसी जमीन को बेकार मानते थे उसे खेती के लायक बनाना जरूरी था।
- • इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्नीसवी शताब्दी के मध्य से देश के विभिन्न भागों में परती भूमि विकास के लिए नियम बनाए जाने लगे।
- • इन कायदे-कानूनों के जरिए सरकार गैर-खेतिहर जमीन को अपने कब्जे में लेकर कुछ खास लोगों को सौंपने लगी।
- • इन लोगों को कई तरह की रियायतें दी गईं और इस जमीन को खेती के लायक बनाने और उस पर खेती करने के लिए जम कर बढ़ावा दिया गया।
2. देश के विभिन्न प्रांतों में वन अधिनियम भी पारित करना –
- 19वीं सदी के मध्य तक आते-आते देश के विभिन्न प्रांतों में वन अधिनियम भी पारित किए जाने लगे थे।
- • इन कानूनों की आड़ में सरकार ने ऐसे कई जंगलों को ‘आरक्षित’ वन घोषित कर दिया जहाँ देवदार या साल जैसी कीमती लकडह़ी पैदा होती थी।
- • इन जंगलों में चरवाहों कुछ परंपरागत अधिकार तो दे दिए गए लेकिन उनकी आवाजाही पर फिर भी बहुत सारी बंदिशें लगी रहीं।
- • औपनिवेशिक अधिकारियों को लगता था कि पशुओं के चरने से छोटे जंगली पौधे और पेड़ों की नई कोपलें नष्ट हो जाती हैं।
- • उनकी राय में, चरवाहों के रेवड़ छोटे पौधों को कुचल देते हैं और कोंपलों को खा जाते हैं जिससे नए पेड़ों की बढ़त रुक जाती है।
- • वन अधिनियमों ने चरवाहों की जिंदगी बदल डाली। अब उन्हें उन जंगलों में जाने से रोक दिया गया जो पहले मवेशियों के लिए बहुमूल्य चारे का स्रोत थे।
- • जिन क्षेत्रों में उन्हें प्रवेश की छूट दी गई वहाँ भी उन पर कड़ी नजर रखी जाती थी जंगलों में दाखिल होने के लिए उन्हें परमिट लेना पड़ता था।
- • जंगल में उनके प्रवेश और वापसी की तारीख पहले से तय होती थी और वह जंगल में बहुत कम ही दिन बिता सकते थे।
- • अब चरवाहे किसी जंगल में ज्यादा समय तक नहीं रह सकते थे भले ही वहाँ चारा कितना ही हो, घास कितनी भी क्यों न हो, और चारों तरफ घनी हरियाली हो।
- • उन्हें इसलिए निकलना पड़ता था क्योंकि अब उनकी जिंदगी वन विभाग द्वारा जारी किए परमिटों के अधीन थी।
3. अंग्रेज अफसर घुमंतू किस्म के लोगों को शक की नजर से देखते थे।
- • वे गाँव – गाँव जाकर अपनी चीजें बेचने वाले कारीगरों व व्यापारियों और अपने रेवड़ के लिए हर साल नए-नए चरागाहों की तलाश मे रहने वाले, हर मौसम में अपनी रिहाइश बदल लेने वाले चरवाहों पर यकीन नहीं कर पाते थे।
- • वे चाहते थे कि ग्रामीण जनता गाँवों में रहे, उनकी रिहाइश और खेतों पर उनके अधिकार तय हों।
- • इस तरह की आबादी की पहचान करना और उसको नियंत्रित करना ज्यादा आसान था जो एक जगह टिक कर रहती हो।
- • ऐसे लोगों को शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाला माना जाता था घुमंतुओं को अपराधी माना जाता था।
- • 1871 में औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम पारित किया।
- • इस कानून की तरह दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में रख दिया गया।
- • उन्हें कुदरती और जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया गया।
- • इस कानून के लागू होते ही ऐसे सभी समुदायों को कुछ खास अधिसूचित गाँवों, बस्तियों में बस जाने का हुक्म सुना दिया गया।
- • उनकी बिना परमिट आवाजाही पर रोक लगा दी गई।
- • ग्राम्य पुलिस उन पर सदा नजर रखने लगी।
4. आय में वृद्धि हेतु लगान में वसूली –
- • अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने लगान वसूलने का हर संभव रास्ता अपनाया।
- • उन्होंने जमीन, नहरों के पानी, नमक, खरीद-फरोख्त की चीजों और यहाँ तक कि मवेशियों पर भी टैक्स वसूलने का एलान कर दिया।
- • चरवाहों से चरागाहों में चरने वाले एक एक जानवर पर टैक्स वसूल किया जाने लगा।
- • देश के ज्यादातर चरवाही इलाकों में 19वी सदी के मध्य से ही चरवाही टैक्स लागू कर दिया गया था।
- • प्रति मवेशी टैक्स की दर तेजी से बढ़ती चली गई और टैक्स वसूली की व्यवस्था दिनोंदिन मजबूत होती गई।
- • 1850 से 1880 के दशकों के बीच टैक्स वसूली का काम बाकायदा बोली लगा कर ठेकेदारों को सौंपा जाता था।
- • ठेकेदारी पाने के लिए ठेकेदार सरकार को जो पैसा देते थे उसे वसूल करने और साल भर में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बनाने के लिए वे जितना चाहे उतना कर वसूल सकते थे।
- • 1880 के दशक तक आते आते सरकार ने अपने कारिंदों के माध्यम से सीधे चरवाहों से ही कर वसूलना शुरू कर दिया।
- • हरेक चरवाहे को एक ‘पास’ जारी कर दिया गया।
- • किसी भी चरागाह में दाखिल होने के लिए चरवाहों को पास दिखाकर पहले टैक्स अदा करना पड़ता था।
- • चरवाहे के साथ कितने जानवर हैं और उसने कितना टैक्स चुकाया है इस बात को उसके पास में दर्ज कर दिया जाता था।
इन बदलावों ने चरवाहों की जिंदगी को किस तरह प्रभावित किया?
- • इन चीजों की वजह से चरागाहों की गंभीर कमी पैदा हो गई। जैसे जैसे ज्यादा से ज्यादा चरागाहों को सरकारी कब्जे में लेकर उन्हें खेतों में बदला जाने लगा, वैसे – वैसे चरागाहों के लिए उपलब्ध इलाका सिकुड़ने लगा। इसी तरह, जंगलों के आरक्षण का नतीजा यह हुआ कि गड़रिये और पशुपालक अब अपने मवेशियों को जंगलों में पहले जैसी आजादी से नहीं चरा सकते थे।
- • जब चरागाह खेतों में बदलने लगे तो बचे-खुचे चरागाहों में चरने वाले जानवरों की तादाद बढ़ने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि चरागाह सदा जानवरों से भरे रहने लगे।
- • अब तक तो घुमंतू चरवाहे अपने मवेशियों को कुछ दिन तक ही एक इलाके में चराते थे और उसके बाद किसी और इलाके में चले जाते थे। इस अदला-बदली की वजह से पिछले चरागाह भी फिर से हरे-भरे हो जाते थे।
- • लेकिन चरवाहों की आवाजाही पर लगी बंदिशों और चरागाहों के बेहिसाब इस्तेमाल से चरागाहों का स्तर गिरने लगा। जानवरों के लिए चारा कम पड़ने लगा। फलस्वरूप जानवरों की सेहत और तादाद भी गिरने लगी।
- • चारे की कमी और जब-तब पड़ने वाले अकाल की वजह से कमजोर और भूखे जानवर बड़ी संख्या में मरने लगे।
चरवाहों ने इन बदलावों का सामना कैसे किया?
- • इन बदलावों पर चरवाहों की प्रतिक्रिया कई रूपों में सामने आई।
- • कुछ चरवाहों ने तो अपने जानवरों की संख्या ही कम कर दी।
- • अब बहुत सारे जानवरों को चराने के लिए पहले की तरह बड़े-बड़े और बहुत सारे मैदान नहीं बचे थे।
- • जब पुराने चरागाहों का इस्तेमाल करना मुश्किल हो गया तो कुछ चरवाहों ने नए-नए चरागाह ढूँढ़ लिए।
- • मिसाल के तौर पर ऊँट और भेड़ पालने वाले राइका 1947 के बाद न तो सिंध में दाखिल हो सकते थे और न सिंधु नदी के किनारे अपने जानवरों को चरा सकते थे।
- • भारत और पाकिस्तान के बीच खींच दी गई नई सीमारेख ने उन्हें उस तरफ जाने से रोक दिया। जाहिर है अब उन्हें जानवरों को चराने के लिए नई जगह ढूँढ़नी थी।
- • अब वे हरियाणा के खेतों में जाने लगे हैं जहाँ कटाई के बाद खाली पड़े खेतों में वे अपने मवेशियों को चरा सकते हैं।
- • इसी समय खेतों को खाद की भी जरूरत रहती है जो उन्हें इन जानवरों के मल-मूत्र से मिल जाती है।
- • समय गुजरने के साथ कुछ धनी चरवाहे जमीन खरीद कर एक जगह बस कर रहने लगे। उनमें से कुछ नियमित रूप से खेती करने लगे जबकि कुछ व्यापार करने लगे।
- • जिन चरवाहों के पास ज्यादा पैसा नहीं था वे सूदखोरों से ब्याज पर कर्ज लेकर दिन काटने लगे। इस चक्कर में बहुतों के मवेशी भी हाथ से जाते रहे और वे मजदूर बन कर रह गए।
- • वे खेतों या छोटे-मोटे कस्बों में मजदूरी करते दिखाई देने लगे।
- • इस सबके बावजूद चरवाहे न केवल आज भी जिंदा है बल्कि हाल के दशाकों में कई जगह तो उनकी संख्या में वृद्धि भी हुई है। जब भी किसी इलाकें के चरागाहों में उनकी दाखिले पर रोक लगा दी जाती वे अपनी दिशा बदल लेते, रेवड़ छोटा कर लेते और नई दुनिया के मिजाज से तालमेल बिठाने के लिए दूसरे काम-धंधे भी करने लगते। बहुत सारे पारिस्थिति विज्ञानी मानते हैं कि सूखे इलाकों और पहाड़ों में जिंदा रहने के लिए चरवाहों ही सबसे व्यावहारिक रास्ता है।
- • बहरहाल, चरवाहों पर इस तरह के बदलाव सिर्फ हमारे देश में ही नहीं थोपे गए थे।
- • दुनिया के बहुत सारे इलाकों में नए कानूनों और बसाहट के नए तौर-तरीकों ने उन्हें आधुनिक दुनिया में आ रहे बदलावों के मुताबिक अपनी जिंदगी का ढर्रा बदलने पर मजबूर किया है।
- • आधुनिक विश्व मे आए इन बदलावों से निपटने के लिए बाकी देशों के चरवाहों ने क्या रास्ते अपनाए?
अफ्रीका में चरवाहा जीवन :-
- • अफ्रीका की तरफ चलें जहाँ दुनिया की आधी से ज्यादा चरवाहा आबादी रहती है।
- • आज भी अफ्रीका के लगभग सवा दो करोड़ लोग रोजी-रोटी के लिए किसी न किसी तरह की चरवाही गतिविधियों पर ही आश्रित हैं।
- • इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना जैसे जानेमाने समुदाय भी शामिल हैं।
- • इनमें से ज्यादातर अब अर्ध-शुष्क घास के मैदानों या सूखे रेगिस्तानों में रहते हैं जहाँ वर्षा आधारित खेती करना बहुत मुश्किल है।
- • यहाँ के चरवाहे गाय-बैक, ऊँट, बकरी, भेड़ व गधे पालते हैं और दूध, माँस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं।
- • कुछ चरवाहे व्यापार और यातायात संबंधी काम भी करते हैं।
- • कुछ चरवाही के साथ साथ खेती भी करते हैं कुछ लोग चरवाही से होने वाली मामूली आय से गुजर नहीं हो पाने पर कोई भी धंधा कर लेते हैं।
- • हिंदुस्तान की तरह अफीकी चरवाहों की जिंदगी में भी औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल में गहरे बदलाव आए हैं। आखरि क्या थे ये बदलाव?
- • इन परिवर्तनों को हम चरवाहों के एक खास समुदाय के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगे।
- • इसके लिए मसाई नाम के समुदाय को चुन लेते हैं
- • मासाई पशुपालक मोटे तौर पर पूर्वी अफ्रीका के निवासी हैं इनमें से लगभग 3,00,000 दक्षिणी कीनिया में और करीब 1,50,000 तंजानिया में रहते हैं।
- • नए कानूनों और बंदिशों ने किस तरह ने केवल उनकी जमीन उनसे छीन ली बल्कि उनकी आवाजाही पर भी बहुत सारी पाबंदियों थोप दी हैं।
- • इन कानूनों के कारण सूखे के दिनों में उनकी जिंदगी गहरे तौर पर बदल गई और उनके सामाजिक संबंध भी एक नई शक्ल में ढल गए हैं।
चरागाहों का क्या हुआ?
- • मासाइयों की सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि उनके चरागाह दिनोंदिन सिमटते जा रहे हैं।
- • औपनिवेशिक शासन से पहले मासाईलैंड का इलाका उत्तरी कीनिया से लेकर तंजानिया के घास के मैदानों (स्तेपीज) तक फैला हुआ था।
- • 19वीं सदी के आखिर में यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों ने अफ्रीका में कब्जे के लिए मारकाट शुरू कर दी और बहुत सारे इलाकों को छोटे छोटे उपनिवेशों में तब्दील करके अपने अपने कब्जे में ले लिया 1885 में ब्रिटिश कीनिया और जर्मन तांगान्यिका के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय सीमा खींचकर मासाईलैंड के दो बराबर-बराबर टुकड़े कर दिए गए। बाद के सालों में सरकार ने गोरों को बसाने के लिए बेहतरीन चरागाहों को अपने कब्जे में ले लिया।
- • मासाइयों को दक्षिणी कीनिया और उत्तरी तंजानिया के छोटे से इलाके में समेट दिया गया।
- • औपनिवेशिक शासन से पहले मासाइयों के पास जितनी जमीन थी उसका लगभग 60 फीसदी हिस्सा उनसे छीन लिया गया।
- • उन्हें ऐसे सूखे इलाकों में कैद कर दिया गया जहाँ न तो अच्छी बारिश होती थी और न ही हरे भरे चरागाह थे।
- • 19वीं सदी के अंतिम सालों से ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार पूर्वी अफ्रीका में भी स्थानीय किसानों को अपनी खेती के क्षेत्रफल को ज्यादा से ज्यादा फैलाने के लिए प्रोत्साहित करने लगी।
- • खेती का प्रसार हुआ चरागाह खेतों में तब्दील होने लगे। अंग्रेजों के आने से पहले मासाई आर्थिक और राजनीतिक दोनों स्तर पर अपने किसान पड़ोसियों पर भारी पड़ते थे।
- • औपनिवेशिक शासन के अंत तक आते-आते यह समीकरण बिल्कुल उलट चुका था।
- • बहुत सारे चरागाहों को शिकारगाह बना दिया गया। कीनिया में मासाई मारा व साम्बूरू नैशनल पार्क और तंजानिया में सेरेन्गेटी पार्क जैसे शिकारगाह इसी तरह अस्तित्व में आए थे।
- • इन आरक्षित जंगालों में चरवाहों का आना मना था। इन इलाकों में न तो वे शिकार कर सकते थे और न अपने जानवरों को चरा सकते थे।
- • ऐसे बहुत सारे आरक्षित जंगलों में अब तक मासाई अपने ढोर-डंगर चराया करते थे। मिसाल के तौर पर सेरेन्गेटी नैशनल पार्क का 14,760 वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा क्षेत्रफल मासाइयों के चरागहों पर कब्जा करके बनाया गया था।
- • अच्छे चरागाहों और जल संसाधनों के हाथ से निकल जाने की वजह से उस छोटे से इलाके पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया जिसमें मासाइयों को धकेल दिया गया था।
- • एक छोटे से इलाके में लगातार चरायी का नतीजा यह हुआ कि चरागाहों का स्तर गिरने लगा। चारे की हमेशा कमी रहने लगी मवेशियों का पेट भरना एक स्थायी समस्या बन गया।
सरहदें बंद हो गईं
- • 19वीं सदी में चरवाहे चरागाहों की खोज में बहुत दूर दूर तक चले जाते थे।
- • जब एक जगह के चरागाह सूख जाते थे तो वे अपने रेवड़ लेकर किसी और जगह चले जाते थे।
- • लेकिन 19वीं सदी के आखिरी दशकों से औपनिवेशिक सरकार उनकी आवाजाही पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाने लगी।
- • मासाइयों की तरह अन्य चरवाहों को भी विशेष आरक्षित इलाकों की सीमाओं में कैद कर दिया गया।
- • अब ये समुदाय इन आरक्षित इलाकों की सीमाओं के पार आ-जा नहीं सकते थे।
- • वे विशेष परमिट लिए बिना अपने जानवरों को लेकर बाहर नहीं जा सकते थे।
- • लेकिन परमिट हासिल करना भी कोई आसान काम नहीं था।
- • इसके लिए उन्हें तरह-तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता था और उन्हें तंग किया जाता था।
- • अगर कोई नियमों का पालन नहीं करता था तो उसे कड़ी सजा दी जाती थी।
- • चरवाहों को गोरों के इलाके में पड़ने वाले बाजारों में दाखिल होने से भी रोक दिया गया।
- • बहुत सारे इलाकों में तो वे कई तरह के व्यापार भी नहीं कर सकते थे।
- • बाहर से आए गोरे और यूरोपीय औपनिवेशिक अफसर उन्हें खतरनाक और बर्बर स्वभाव वाला मानते थे।
- • उनकी नजर में ये ऐसे लोग थे जिनके साथ कम से कम संबंध रखना ही उचित था।
- • लेकिन इन स्थानीय लोगों से किसी भी तरह के संबंध न रखना भी मुमकिन नहीं था।
- • आखिर खानों से माल निकालने, सड़कें बनाने और शहर बसाने के लिए गोरों को इन कालों के श्रम का ही तो भरोसा था।
- • नई सरहदों ने चरवाहों की जिंदगी रातों-रात बदल डाली। नई पाबंदियों और बाधाओं की आड़ में उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा और वे छोटे – से इलाके में खुद को कैद-सा महसूस करने लगे।
- • इससे उनकी चरवाही और व्यापारिक, दोनों तरह की गतिविधियों पर बहुत बुरा असर पड़ा।
- • अब तक चरवाहे न केवल मवेशी चराते थे बल्कि तरह-तरह के व्यवसाय भी किया करते थे।
- • औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत थोप दी गई बंदिशों से उनका व्यापार बंद तो नहीं हुआ लेकिन अब उस पर तरह-तरह के अंकुश जरूर लग गए।
जब चरागाह सूख जाते हैं
- • सूखा दुनिया भर के चरवाहों की जिंदगी पर असर डालता है। जिस साल बारिश नहीं होती और चरागाह सूख जाते हैं अगर उस साल मवेशियों को किसी हरे-भरे इलाके में न ले जाया जाए तो उनके सामने भुखमरी का संकट पैदा हो जाता है।
- • इसीलिए परंपरागत तौर पर चरवाहे घुमंतू स्वभाव के लोग होते हैं, वे यहाँ से वहाँ जाते ही रहते हैं।
- • इसी घुमंतूपने की वजह से वे बुरे वक्त का सामना कर पाते हैं और संकट तो बच निकलते हैं।
- • लेकिन औपनिवेशिक शासन की स्थापना के बाद तो मासाइयों को एक निश्चित इलाके में कैद कर दिया गया था।
- • उनके लिए एक इलाका आरक्षित कर दिया गया और चरागाहों की खोज मे यहाँ-वहाँ भटकने पर रोक लगा दी गई।
- • उन्हें बेहतरीन चरागाहों से महरूम कर दिया गया और एक ऐसी अर्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर मजबूर कर दिया गया जहाँ सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी।
- • क्योंकि ये लोग संकट के समय भी अपने जानवरों को लेकर ऐसी जगह नहीं जा सकते थे जहाँ उन्हें अच्छे चरागाह मिल सकते थे।
- • इसलिए सूखे के सालों में मासाइयों के बहुत सारे मवेशी भूख और बीमारियों की वजह से मारे जाते थे।
- • 1930 की एक जाँच से पता चला कि कीनिया में मासाइयों के पास 7,20,000 मवेशी, 8,20,000 भेड़ और 1,71,000 गधे थे।
- • 1933 और 1934 में पड़े केवल दो साल के सूखे के बाद इनमें से आधे से ज्यादा जानवर मर चुके थे।
- • जैसे-जैसे चरने की जगह सिकुड़ती गई सूखे के दुष्परिणाम भयानक रूप लेते चले गए।
- • बार-बार आने वाले बुरे सालों की वजह से चरवाहों के जानवरों की संख्या में लगातार गिरावट आती गई।
सब पर एक जैसा असर नहीं पड़ा
- • औपनिवेशिक काल में अफ्रीका के बाकी स्थानों की तरह मासाईलैंड में भी आए बदलावों से सारे चरवाहों पर एक जैसा असर नहीं पड़ा।
- • उपनिवेश बनने से पहले मासाई समाज दो सामाजिक श्रेणियों में बँटा हुआ था।
- 1. वरिष्ठ जन (ऐल्डर्स)
- 2. योद्धा (वॉरियर्स)
- • वरिष्ठ जन शासन चलाते थे। समुदाय से जुड़े मामलों पर विचार-विमर्श करने और अहम फैसले लेने के लिए वे समस-समय पर सभा करते थे।
- • योद्धाओं में ज्यादातर नौजवान होते थे जिन्हें मुख्य रूप से लड़ाई लड़ने और कबीले की हिफाजत करने के लिए तैयार किया जाता था।
- • वे समुदाय की रक्षा करते थे और दूसरे कबीलों के मवेशी छीन कर लाते थे जहाँ जानवर ही संपत्ति हो वहाँ हमला करके दूसरों के जानवर छीन लेना एक महत्त्वपूर्ण काम होता था।
- • अलग-अलग चरवाहा समुदायों की ताकत इन्हीं हमलों से तय होती थी। युवाओं को योद्धा वर्ग का हिस्सा तभी माना जाता था जब वे दूसरे समूह के मवेशियों को छीन कर और युद्ध में बहादुरी का प्रदर्शन करके अपनी मर्दानगी साबित कर देते थे। फिर भी वे वरिष्ठ जनों के नीचे रह कर ही काम करते थे।
- • मासाइयों के मामलों की देखभाल करने के लिए अंग्रेज सरकार ने कई ऐसे फैसले लिए जिनसे आने वाले सालों में बहुत गहरे असर पड़े।
- • उन्होनें कई मासाई उपसमूहों के मुखिया तय कर दिए और अपने-अपने कबीले के सारे मामलों की जिम्मेदारी उन्हें ही सौंप दी।
- • इसके बाद उन्होंने हमलों और लड़ाइयों पर पाबंदी लगा दी इस तरह वरिष्ठ जनों और योद्धाओं, दोनों की परंपरागत सत्ता बहुत कमजोर हो गई।
- • जैसे-जैसे समय बीता, औपनिवेशिक सरकार द्वारा नियुक्त किए गए मुखिया माल इकट्ठा करने लगे।
- • उनके पास नियमित आमदनी थी जिससे वे जानवर, साजो-सामान और जमीन खरीद सकते थे।
- • वे अपने गरीब पडोसियों को लगान चुकाने के लिए कर्ज पर पैसा देते थे। उनमें से ज्यादातर बाद में शहरों में जाकर बस गए और व्यापार करने लगे।
- • उनके बीवी-बच्चे गाँव में ही रहकर जानवरों की देखभाल करते थे उनहें चरवाही और गैर-चरवाही दोनों तरह की आमदनी होती थी।
- • अगर उनके जानवर किसी वजह से घट जाएँ तो वे और जानवर खरीद सकते थे।
- • जो चरवाहे सिर्फ अपने जानवरों के सहारे जिंदगी बसर करते थे उनकी हालत अलग थी।
- • उनके पास बुरे वक्त का सामना करने के लिए अकसर साधन नहीं होते थे। युद्ध और अकाल के दौरान उनका सब कुछ खत्म हो जाता था।
- • तब उन्हें काम की तलाश में आसपास के शहरों की शरण लेनी पड़ती थी।
- • कोई कच्चा कोयला जलाने का काम करने लगता था तो कोई कुछ और करता था।
- • जिनकी तकदीर ज्यादा अच्छी थी उन्हें सड़क या भवन निर्माण कार्यों में काम मिल जाता था।
- • इस तरह मासाई समाज में दो स्तरों पर बदलाव आए।
- 1. वरिष्ठ जनों और योद्धाओं के बीच उम्र पर आधारित परंपरागत फर्क पूरी तरह खत्म भले न हुआ हो पर बुरी तरह अस्त-व्यस्त जरूर हो गया।
- 2. अमीर और गरीब चरवाहों के बीच नया भेदभाव पैदा हुआ।
निष्कर्ष
- • आधुनिक विश्व में आए बदलावों से दुनिया के अलग-अलग चरवाहा समुदायों पर अलग-अलग तरह के असर पड़े हैं।
- • नए कानूनों और सीमाओं ने उनकी आवाजाही का ढर्रा बदल दिया जैसे जैसे चरागाह खत्म होते गए, जानवरों को चराना एक मुश्किल काम होता चला गया और जो चरागाह बचे थे वे भी अत्यधिक इस्तेमाल की वजह से बेकार हो गए।
- • सूखे के समय उनकी समस्याएँ पहले से भी ज्यादा बढ़ गई क्योंकि तब उनके जानवर बड़ी तादाद में दम तोड़ने लगते थे।
- • अब उनके आने जाने पर बहुत सारी बंदिशें थोप दी गई थीं इसलिए वे नए चरागाहों की तलाश भी नहीं कर सकते थे।
- • फिर भी चरवाहे बदलते वक्त के हिसाब से खुद को ढालते हैं। वे अपनी सालाना आवाजाही का रास्ता बदल लेते हैं, जानवरों की संख्या कम कर लेते हैं
- • नए इलाकों में अपने अधिकारों को बचाए रखने के लिए अपना संघर्ष जारी रखते हैं जहाँ से उन्हें खदेड़ने की कोशिश की जाती है और जंगलों के रखरखाव और प्रबंधन में अपना हिस्सा माँगते हैं।
- • चरवाहे अतीत के अवशेष नहीं हैं। वे ऐसे लोग नहीं हैं जिनके लिए आज की आधुनिक दुनिया में कोई जगह नहीं है।
- • पर्यावरणवादी और अर्थशास्त्री अब इस बात को काफी गंभीरता से मानने लगे हैं कि घुमंतू चरवाहों की जीवनशैली दुनिया के बहुत सारे पहाड़ी ओर सूखे इलाकों में जीवनयापन के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त है।
महत्त्वपूर्ण प्रश्नउत्तर
1. बुग्याल का क्या अर्थ है?
उत्तर- बुग्याल ऊँचे पर्वतों में 12000 फुट की ऊंचाई पर स्थित घास के मैदान (चारागाह) है। उदाहरण के लिए पूर्वी गढ़वाल के बुग्याल। यहाँ प्रायः भेड़ चराई जाती है।
2. बुग्याल के प्रमुख लक्षणों को लिखें।
उत्तर- बुग्याल के प्रमुख लक्षण निम्न है –
• बुग्याल सर्दियों में बर्फ से ढके रहते हैं तथा अप्रैल के बाद वहाँ जीवन दिखाई देता है।
• अप्रैल के बाद सारे पर्वतीय क्षेत्र में घास ही घास दिखाई देती है।
• मानसून आने पर ये चरागाह वनस्पति से ढक जाते है तथा जंगली फूलों की चादर फैल जाती है।
3. घुमंतू चरवाहे कौन है?
उत्तर- घुमंतू वे लोग हैं जो एक स्थान पर नहीं ठहरते अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। भारत के कई भागों में घुमंतू चरवाहे हैं जो अपनी भेड़ तथा बकरियों के साथ घूमते हैं।
4. जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश-उत्तरांखण्ड के पाँच चलवासी चरवाहों के नाम लिखें।
उत्तर- गुज्जर बक्करवाल, गद्दी गुज्जर, भोटिया, शेरपा और किन्नौरी।
5. पाँच भौगोलिक भागों के नाम लिखें जहाँ चरवाही कार्य होता है।
उत्तर- पर्वत, पठार, मैदान, मरुस्थल और वन।
6. बंजारे कौन थे?
उत्तर- बंजारे चरवाहों का प्रसिद्ध कबीला माना जाता है जो देश के एक लम्बे-चौड़े भाग जैसे- उत्तरप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र आदि में आम पाए जाते थे।
7. चरवाहा कबीलों के मुख्य व्यवसाय क्या होते है?
उत्तर- चरवाही, व्यापार और कृषि।
8. एक ऐसे समुदाय का नाम बताएं जिनके सदस्य आज भी बड़ी मात्रा में भेड़, बकरियों पालने का काम करते है।
उत्तर- जम्मू और कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय।
9. गद्दी चरवाहे कौन है?
उत्तर- हिमाचल प्रदेश में जो लोग अपने रेवड़ों के साथ पहाड़ों में ऊपर नीचे घूमते रहते है उन्हें गद्दी चरवाहे कहते है।
10. गुज्जर मंडप किसे कहते है?
उत्तर- गुज्जर चरवाहों के कार्यस्थल (एक तरह का पहाड़ी बाँस और घास से बने ) मंडपों को गुज्जर मंडप कहा जाता है जहाँ वे रहते हैं और दूध एवं घी निकालते है और बेचने का काम करते हैं।
11. भाबर किसे कहा जाता है?
उत्तर- गढ़वाल और कुमाऊँ में निचली पहाड़ियों में शुष्क वनों के क्षेत्र को भाबर कहा जाता है।
12. महाराष्ट्र के एक चरागाह कबीले का नाम लिखें।
उत्तर- धगर।
13. कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के चरवाहा कबीलों के नाम लिखें।
उत्तर- गोल्ला. कुरूमा और कुरबा आदि।
14. पहाड़ी चरवाहों की गतिविधियों को कौन-सा ऋतु चक्र प्रभावित करता है?
उत्तर- सर्दी-गर्मी।
15. राजस्थान के एक चरवाहा कबीले का नाम लिखें।
उत्तर- राइका।
16. मासाई कौन है?
उत्तर- मासाई अफ्रीका का सबसे पुराना चरवाहा कबीला है जो दूध और माँस पर अपना निर्वाह करता है।
17. अफ्रीका के कुछ चरवाहा-कबीलों के नाम लिखें।
उत्तर- बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना।
18. अकाल चरवाहों को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर- अकाल चरवाहे का जानी दुश्मन होता है क्योंकि अकाल पड़ने पर चरवाहों के पशु मरने लगते है और वे स्वयं अकाल मुखमरी की स्थिति में आ जाते हैं।
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