NCERT Class 10 History Chapter 2 भारत में राष्ट्रवाद Notes in Hindi

NCERT 10 Class History Chapter 2 भारत में राष्ट्रवाद Notes in hindi

NCERT Class 10 History Chapter 2 भारत में राष्ट्रवाद Notes in hindi. जिसमे हम प्रथम विश्व युद्ध, खिलाफत, भारत में महात्मा गाँधीजी द्वारा किए गए प्रमुख आंदोलन-असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन I

नमक सत्याग्रह , किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों के आंदोलन , विभिन्न राजनीतिक समूहों की गतिविधियां आदि के बारे में पढ़ेगे।

TextbookNCERT
ClassClass 10
SubjectHistory
ChapterChapter 2
Chapter Nameभारत में राष्ट्रवाद
CategoryClass 10 History Notes in Hindi
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Class 10 History Chapter 2 भारत में राष्ट्रवाद Notes in hindi

📚 अध्याय = 2 📚
💠 भारत में राष्ट्रवाद 💠

भारत में राष्ट्रवाद

  • यूरोप में आधुनिक राष्ट्रवाद के साथ ही राष्ट्र-राज्यों का भी उदय हुआ।
  • इससे अपने बारे में लोगों की समझ बदलने लगी। वे कौन है? उनकी पहचान किस बात से परिभाषित होती हैं, यह भावना बदल गई।
  • उनमें राष्ट्र के प्रति लगाव का भाव पैदा होने लगा।
  • नए प्रतीको और चिन्हों ने, नए गीतों और विचारों ने नए संपर्क स्थापित किए और समुदायों की सीमओं को दोबारा परिभाषित कर दिया।
  • अधिकांश देशों में इन नयी राष्ट्रीय पहचान का निर्माण एक लंबी प्रक्रिया में हुआ।

► भारत में राष्ट्रवाद की चेतना का उदय

  • वियतनाम और दूसरे उपनिवेशों की तरह भारत में भी आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय की परिघटना उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई।
  • औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ संघर्ष के दौरान लोग आपसी एकता को पहचानने लगे थे।
  • उत्पीड़न और दमन के साझा भाव ने विभिन्न समूहों को एक-दूसरे से बाँध दिया था। लेकिन हर वर्ग और समूह पर उपनिवेशवाद का असर एक जैसा नहीं था।
  • उनके अनुभव भी अलग थे और स्वतंत्रता के मायने भी भिन्न थे।
  • महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इन समूहों को इकट्‌ठा करके एक विशाल आंदोलन खड़ा किया। परंतु इस एकता में टकराव के बिंदु भी निहित थे।

पहला विश्वयुद्ध, खिलाफत और सहयोग

  • 1919 के बाद राष्ट्रीय आंदोलन नए इलाकों तक फैल गया था।
  • उसमें नए सामाजिक समूह शामिल हो गए थे और संघर्ष की नयी पद्धतियों सामने आ रही थी।
  • इन बदलावों को हम कैसे समझेंगे? उनके क्या परिणाम हुए?
  • विश्वयुद्ध ने एक नयी आर्थिक और राजनैतिक स्थिति पैदा कर दी थी। इसके कारण रक्षा व्यय में भारी इजाफ़ा हुआ।
  • इस खर्चे की भरपाई करने के लिए युद्ध के नाम पर क़र्ज लिए गए और करों में वृद्धि की गई।
  • सीमा शुल्क बढ़ा दिया गया और आयकर शुरू किया गया।
  • युद्ध के दौरान कीमतें तेजी से बढ़ रही थी
  • 1913 से 1918 के बीच कीमतें दोगुना हो चुकी थी जिसके कारण आम लोगों की मुश्किलें बढ़ गई थीं।
  • गाँवों में सिपाहियों को जबरन भर्ती किया जाने लगा जिसके कारण ग्रामीण इलाकों में व्यापक गुस्सा था।
  • 1918-19 और 1920-21 में देश के बहुत सारे हिस्सों में फसल खराब हो गई। जिसके कारण खाद्य पदार्थों का भारी अभाव पैदा हो गया।
  • उसी समस फ्लू की महामारी फैल गई। 1921 की जनगणना के मुताबिक दुर्भिक्ष और महामारी के कारण 120-130 लाख लोग मारे गए।
  • लोगों को उम्मीद थी कि युद्ध खत्म होने के बाद उनकी मुसीबतें कम हो जाएँगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

महात्मा गाँधी का भारत आगमन व सत्याग्रह का विचार

  • महात्मा गांधी जनवरी 1915 में भारत लौटे। इससे पहले वे दक्षिण अफ्रीका में थे।
  • उन्होनें एक नए तरह के जनांदोलन के रास्ते पर चलते हुए वहाँ की नस्लभेदी सरकार से सफलतापूर्वक लोहा लिया था।
  • इस पद्धति को वे सत्याग्रह कहते थे। सत्याग्रह के विचार से सत्य की  शक्ति पर आग्रह और सत्य की खोज पर जोद दिया जाता था।

► सत्याग्रह :-  इसका अर्थ यह था कि अगर आपका उद्देश्य सच्चा है, यदि आपका संघर्ष अन्याय के खिलाफ है तो उत्पीड़न से मुकाबला करने के लिए आपको किसी शारीरिक बल की आवश्यकता नहीं है।

  • प्रतिरोध की भावना या आक्रामकता का सहारा लिए बिना सत्याग्रही केवल अहिंसा के सहारे भी अपने संघर्ष में सफल हो सकता है।
  • इसके लिए दमनकारी शत्रु की चेतना को झिंझोड़ना चाहिएद्ध
  • उत्पीड़न शत्रु को ही नहीं बल्कि सभी लोगों को हिंसा के जरिए सत्य को स्वीकार करने पर विवश करने की बजाय सच्चाई को देखने और सहज भाव से स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
  • इस संघर्ष में अतत: सत्य की ही जीत होती है।
  • गांधीजी का विश्वास था की अहिंसा का यह धर्म सभी भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँध सकता है।


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 10 History Chapter 2 PDF

► भारत में महात्मा गाँधीजी द्वारा किए गए प्रमुख आंदोलन

चम्पारण आन्दोलन

  • 1917 में उन्होनें बिहार के चंपारन इलाके का दौरा किया और दमनकारी बागान व्यवस्था के खिलाफ किसानों को संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
  • नील की खेती करने वाले किसानों के पक्ष में महात्मा गांधी का भारत में प्रथम सत्याग्रह किया।

खेड़ा किसान आन्दोलन

  • 1918 में गाँधीजी ने गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की मदद के लिए सत्याग्रह का आयोजन किया।
  • फसल खराब हो जाने और प्लेग की महामारी के कारण खेड़ा जिले के किसान लगान चुकाने की हालत में नहीं थे।
  • वे चाहते थे कि लगान वसूली में ढील दी जाए।

अहमदाबाद मील मजदुर आन्दोलन

  • 1918 में गांधीजी सूती कपड़ा कारखानों के मजदूरों के बीच सत्याग्रह आंदोलन चलाने अहमदाबाद जा पहुँचे।
  • यहाँ मजदूरों को कम वेतन, अनिश्चित व अधिक समय तक कार्य करवाने व प्लेग का बोनस बंद कर देने के कारण महात्मा गाँधी द्वारा भारत में प्रथम अनशन (भुख हड़ताल) किया गया।

रॉलट एक्ट

  • गांधीजी ने 1919 में रॉलट एक्ट के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह आंदोलन चलाने का फैसला लिया।
  • भारतीय सदस्यों के भारी विरोध के बावजूद इस कानून को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ने बहुत जल्दबाजी में पारित कर दिया था।
  • इस कानून के जरिए सरकार को राजनीतिक गतिविधियों को कुचलने और राजनीतिक कैदियों को दोल साल तक बिना मुकदमा चलाए जेल में बंद रखने का अधिकार मिल गया।
  • महात्मा गांधी ऐसे अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ अहिंसक ढंग से नागरिक अवज्ञा चाहते थे। इसे 6 अप्रैल को एक हड़ताल से शुरु करने का निर्णय लिया गया।
  • विभिन्न शहरों में रैली-जुलूसों का आयोजन किया गया।
  • रेलवे वर्कशॉप्स में कामगार हड़ताल पर चले गए। दुकानें बंद हो गई।
  • इस व्यापक जन-उभार से चिंतित तथा रेवले व टेलीग्राफ जैसी संचार सुविधाओं के भंग हो जाने की आंशका से भयभीत अंग्रेजो ने राष्ट्रवादियों पर दमन शुरू कर दिया।

जलियावाला बाग हत्याकाण्ड 13 अप्रैल 1919

  • अमृतसर में बहुत सारे स्थानीय नेताओं को राष्ट्रएक्ट के विरोध करने के कारण हिरासत में ले लिया गया।
  • गांधीजी के दिल्ली में प्रवेश करने पर पाबंदी लगा दी गई।
  • 10 अप्रैल को पुलिस ने अमृतसर में एक शांतिपूर्ण जुलूस पर गोली चला दी।
  • इसके बाद लोग बैंकों, डाकखानों और रेलवे स्टेशनों पर हमले करने लगे।
  • मार्शल लॉ सैनिक शासन लागू कर दिया गया और जनरल डायन ने कमान सँभाल ली।
  • 13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग का हत्याकांड हुआ।
  • उस दिन अमृतसर मे बहुत सारे गाँव वाले सालाना वैसाखी मेले में शिरकत करने के लिए जलियाँवाला बाग मैदान में जमा हुए थे।
  • काफी लोग तो सरकार द्वारा लागू किए गए दमनकारी कानून का विरोध प्रकट करने के लिए एकत्रित हुए।
  • यह मैदान चारों तरफ बंद था। शहर से बाहर होने के कारण वहाँ जुटे लोगों को यह पता नहीं था कि इलाके में मार्शल लॉ लागू किया जा चुका हैं।
  • जनरल डायर हथियाबंद सैनिकों के साथ वहाँ पहुँचा और जाते ही उसने मैदान से बाहर निकलने के सारे रास्तों को बंद कर दिया। और गोली चलाने का आदेश दिया।
  • इसके बाद उसके सिपाहियों ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ चला दी। सैकड़ों लोग मारे गऐ।
  • बाद में उसने बताया कि वह सत्याग्रहियों के जहन में दहशत और विस्मय का भाव पैदा करके एक नैतिक प्रभाव उत्पन्न करना चाहता था।
  • जैसे जैसे जलियाँवाला बाग की खबर फैली, उत्तर भारत के बहुत सारे शहरों में लोग सड़कों पर उतरने लगे।
  • हड़तालें होने लगीं, लोग पुलिस से मोर्चा लेने लगे और सरकारी इमारतों पर हमला करने लगे।
  • सरकार ने इन कार्रवाइयों को निर्ममता से कुचलने का रास्ता अपनाया। सरकार लोगों को अपमानित और आतंकित करना चाहती थी।
  • सत्याग्रहियों को ज़मीन पर नाक रगड़ने के लिए, सड़क पर घिसट कर चलने और सारे साहिबों को सलाम मारने के लिए मजबूर किया गया।
  • लोगों को कोड़े मारे गए और गाँवों (गुजराँवाला, पंजाब) पर बम बरसाए गए। हिंसा फैलते देख महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया।

खिलाफत आन्दोलन

  • जलीयावाला बाग हत्याकाण्ड के बाद महात्मा गांधी पूरे भारत में और भी ज्यादा जनाधार वाला आंदोलन खड़ा करना चाहते थे।
  • लेकिन उनका मानना था कि हिंदू-मुसलमानों को एक-दूसरे के नज़दीक लाए बिना ऐसा कोई आंदोलन नहीं चलाया जा सकता।
  • उन्हें लगता था कि खिलाफत का मुद्दा उठाकर वे दोनों समुदायों को नजदीक ला सकते हैं। पहले विश्वयुद्ध में ऑटोमन तुर्की की हार हो चुकी थी।
  • इस आशय की अफवाहें फैली हुई थीं कि इस्लामिक विश्व के आध्यात्मिक नेता (ख़लीफ़ा) ऑटोमन सम्राट पर एक बहुत सख्त शांति संधि थोपी जाएगी।
  • ख़लीफ़ा की तात्कालिक शक्तियों की रक्षा के लिए मार्च 1919 में बंबई में एक खिलाफत समिति का गठन किया गया था।
  • मोहम्मद अली और शौकत (अली बंधुओं) के साथ-साथ कई युवा मुस्लिम नेताओं ने इस मुद्दे पर संयुक्त जनकार्रवाई की संभावना तलाशने के लिए महात्मा गांधी के साथ चर्चा शुरू कर दी थी।
  • सितंबर 1920 में। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भी दूसरे नेताओं को इस बात पर राजी कर लिया कि ख़िलाफत आंदोलन के समर्थन और स्वराज के लिए एक असहयोग आंदोलन शुरू किया जाना चाहिए।

असहयोग ही क्यों?

  • गांधी जी की प्रसिद्ध पुस्तक हिंद स्वराज (1909) में महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत में ब्रिटिश शासन भारतीयों के सहयोग से ही स्थापित हुआ था और यह शासन इसी सहयोग के कारण चल पा रहा है।
  • अगर भारत के लोग अपना सहयोग वापस ले लें तो साल भर के भीतर ब्रिटिश शासन ढह जाएगा और स्वराज की स्थापना हो जाएगी।

► असहयोग खिलाफत आन्दोलन

  • सबसे पहले लोगों को सरकार द्वारा दी गई पदवियाँ लौटा देनी चाहिए और सरकारी नौकरियों, सेना, पुलिस, अदालतों, विधायी परिषदों, स्कूलों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना चाहिए।
  • अगर सरकार दमन का रास्ता अपनाती है तो व्यापक सविनय अवज्ञा अभियान भी शुरू किया जाए। 1920 की गर्मियों में गांधीजी और शौकत अली आंदोलन के लिए समर्थन जुटाते हुए देश भर में यात्राएँ करते रहे।

असहयोग आन्दोलन की स्वीकृति

  • कांग्रेस में बहुत सारे लोग इन प्रस्तावों पर सशंकित थे।
  • वे नवंबर 1920 में विधायी परिषद के लिए होने वाले चुनावों का बहिष्कार करने में हिचकिचा रहे थे। उन्हें भय था कि इस आंदोलन में लोग हिंसा कर सकते हैं।
  • सितंबर से दिसंबर तक कांग्रेस में भारी खींचतान चलती रही। कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि आंदोलन के समर्थकों और विरोधियों के बीच सहमति नहीं बन पाएगी।
  • आखिरकार दिसंबर 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में एक समझौता हुआ और असहयोग कार्यक्रम पर स्वीकृति की मोहर लगा दी गई।

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आंदोलन के भीतर अलग-अलग धाराएँ (असहयोग आन्दोलन का स्वरूप)

  • असहयोग-खिलाफ़त आंदोलन जनवरी 1921 में शुरू हुआ।
  • इस आंदोलन में विभिन्न सामाजिक समूहों ने हिस्सा लिया लेकिन हरेक की अपनी-अपनी आकांक्षाएँ थीं।
  • सभी ने स्वराज के आहवान को स्वीकार तो किया लेकिन उनके लिए उसके अर्थ अलग-अलग थे।

शहरों में आंदोलन

  • आंदोलन की शुरुआत शहरी मध्यवर्ग की हिस्सेदारी के साथ हुई।
  • हजारों विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए। हेडमास्टरों और शिक्षकों ने इस्तीफे सौंप दिए।
  • वकीलों ने मुक़दमे लड़ना बंद कर दिया। मद्रास के अलावा ज़्यादातर प्रांतों में परिषद् चुनावों का बहिष्कार किया गया।
  • मद्रास में गैर-ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई जस्टिस पार्टी का मानना था कि काउंसिल में प्रवेश के ज़रिए उन्हें वे अधिकार मिल सकते हैं
  • जो सामान्य रूप से केवल ब्राह्मणों को मिल पाते हैं इसलिए इस पार्टी ने चुनावों का बहिष्कार नहीं किया।
  • आर्थिक मोर्चे पर असहयोग का असर और भी ज्यादा नाटकीय रहा।
  • विदेशी सामानों का बहिष्कार किया गया, शराब की दुकानों की पिकेटिंग की गई, और विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाने लगी।
  • 1921 से 1922 के बीच विदेशी कपड़ों का आयात आधा रह गया था उसकी कीमत 102 करोड़ से घटकर 57 करोड़ रह गई।
  • बहुत सारे स्थानों पर व्यापारियों ने विदेशी चीजों का व्यापार करने या विदेशी व्यापार में पैसा लगाने से इनकार कर दिया।
  • जब बहिष्कार आंदोलन फैला और लोग आयातित कपड़े को छोड़कर केवल भारतीय कपड़े पहनने लगे तो भारतीय कपडा मिलों और हथकरघों का उत्पादन भी बढने लगा।

शहरों में असहयोग आन्दोलन की सीमाएँ

  • कुछ समय बाद शहरों में यह आंदोलन धीमा पड़ने लगा। इसके कई कारण थे।
  • खादी का कपड़ा मिलों में भारी पैमाने पर बनने वाले कपड़ों के मुकाबले प्रायः मँहगा होता था और गरीब उसे नहीं खरीद सकते थे।
  • वे मिलों के कपड़े का लंबे समय तक बहिष्कार नहीं कर सकते थे। ब्रिटिश संस्थानों के बहिष्कार से भी समस्या पैदा हो गई।
  • आंदोलन की कामयाबी के लिए वैकल्पिक भारतीय संस्थानों की स्थापना जरूरी थी ताकि ब्रिटिश संस्थानों के स्थान पर उनका प्रयोग किया जा सके परन्तु ऐसा नहीं हो पाया।
  • वैकल्पिक संस्थानों की स्थापना की प्रक्रिया बहुत धीमी थी। फलस्वरूप, विद्यार्थी और शिक्षक सरकारी स्कूलों में लौटने लगे और वकील दोबारा सरकारी अदालतों में दिखाई देने लगे।

ग्रामीण इलाकों में विद्रोह

  • शहरों से बढ़कर असहयोग आंदोलन देहात में भी फैल गया था।
  • युद्ध के बाद देश के विभिन्न भागों में चले किसानों व आदिवासियों के संघर्ष भी इस आंदोलन में समा गए।
  • अवध में संन्यासी बाबा रामचंद्र किसानों का नेतृत्व कर रहे थे।
  • बाबा रामचंद्र इससे पहले फिजी में गिरमिटिया मजदूर के तौर पर काम कर चुके थे। उनका आंदोलन तालुकदारों और जमींदारों के खिलाफ था जो किसानों से भारी भरकम लगान और तरह तरह के कर वसुल कर रहे थे किसानों को बेगार करनी पड़ती थी
  • पट्टेदार के तौर पा उनके पट्टे निश्चित नहीं होत थे। उन्हें बार बार पट्टे की जमीन से हरा दिया जाता था ताकि जमीन पर उनका कोई अधिकार स्थापित न हो सके किसानों की माँग थी कि लगान कम किया जाए, बेगार खत्म हो और दमनकारी ज़मींदारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए।
  • बहुत सारे स्थानों पर जमींदारों को नाई धोबी की सुविधाओं से भी वंचित करने के लिए पंचायतों ने नाई-धोबी बंद का फैसला लिया
  • जून 1920 में जवाहर लाल नेहरू ने अवध के गाँवों का दौरा किया, गाँववालों से बातचीत की और उनकी व्यथा समझने का प्रयास किया?

अवध किसान सभा

  • अक्टूबर तक जवाहर लाल नेहरू, बाबा रामचंद्र तथा कुछ अन्य लोगों के नेतृत्व में अवध किसान सभा का गठन कर लिया गया।
  • महीने भर में इस पूरे इलाके के गाँवों में संगठन की 300 से ज्यादा शाखाएँ बन चुकी थीं

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गाँवों में असहयोग आन्दोलन की सीमाएँ

  • जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो कांग्रेस ने अवध के किसान संघर्ष को इस आदोलन में शामिल करने का प्रयास किया लेकिन किसानों के आंदोलन में ऐसे स्वरूप विकसित हो चुके थे जिनसे कांग्रेस का नेतृत्व खुश नहीं था।
  • 1921 में जब आंदोलन फैला तो तालुकदारों और व्यापारियों के मकानों पर हमले होने लगे, बाज़ारों में लूटपाट होने लगी और अनाज के गोदामों पर कब्जा कर लिया गया।
  • बहुत सारे स्थानों पर स्थानीय नेता किसानों को समझा रहे थे कि गांधीजी ने ऐलान कर दिया है कि अब कोई लगान नहीं भरेगा और जमीन गरीबों में बाँट दी जाएगी।
  • महात्मा गांधी का नाम लेकर लोग अपनी सारी कार्रवाइयों और आकांक्षाओं को सही ठहरा रहे

आदिवासी या जंगली क्षेत्रों में असहयोग आन्दोलन

  • आदिवासी किसानों ने महात्मा गांधी के संदेश और स्वराज के विचार का कुछ और ही मतलब निकाला। उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश की गुडेम पहाड़िय में 1920 के दशक की शुरुआत में एक उग्र गुरिल्ला आंदोलन फैल गया
  • अन्य वन क्षेत्रों की तरह यहाँ भी अंग्रेजी सरकार ने बड़े-बड़े जंगलों में लोगों  होने पर पाबंदी लगा दी थी। लोग इन जंगलों में न तो मवेशियों को चरा सकते थे न ही जलावन के लिए लकड़ी और फल बीन सकते थे।
  • इससे पहाड़ों के लोग परेशान और गुस्सा थे। न केवल उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ रहा था बल्कि उन्हें लगता था कि उनके परंपरागत अधिकार भी छीने जा रहे हैं।
  • जब सरकार ने उन्हें सड़कों के निर्माण के लिए बेगार (बिना दाम काम) करने पर मजबूर किया तो लोगों ने बगावत कर दी।
  • उनका नेतृत्व करने वाले अल्लूरी सीताराम राज एक दिलचस्प व्यक्ति थे।
  • उनका दावा था कि उनके पास बहुत सारी से विशेष शक्तियाँ हैं : वह सटीक खगोलीय अनुमान लगा सकते हैं, लोगों को स्वस्थ कर सकते हैं तथा गोलियाँ भी उन्हें नहीं मार सकतीं।
  • राजू के व्यक्तित्व से चमत्कृत विद्रोहियों को विश्वास था कि वह ईश्वर का अवतार है।
  • राजू महात्मा गांधी की महानता के गुण गाते थे। उनका कहना था कि वह असहयोग आंदोलन से प्रेरित हैं।
  • उन्होंने लोगों को खादी पहनने तथा शराब छोड़ने के लिए प्रेरित किया। साथ ही उन्होंने यह दावा भी किया कि भारत अहिंसा के बल पर नहीं बल्कि केवल बलप्रयोग के जरिए ही आज़ाद हो सकता है।
  • गूडेम विद्रोहियों ने पुलिस थानों पर हमले किए, ब्रिटिश अधिकारियों को मारने की कोशिश की और स्वराज प्राप्ति के लिए गुरिल्ला युद्ध चलाते रहे।
  • 1924 में राजू को फाँसी दे दी गई। राजू अपने लोगों के बीच लोकनायक बन चुके।

बागानों में असहयोग आन्दोलन

  • महात्मा गांधी के विचारों और स्वराज की अवधारणा के बारे में बागान मजदूरों की अपनी  अलग सोच थी।
  • असम के बागानी मजदूरों के लिए आजादी का मतलब यह था कि वे उन चारदीवारियों से जब चाहे आ-जा सकते हैं जिनमें उनको बंद करके रखा गया था उनके लिए आजादी का मतलब था कि वे अपने गाँवों से संपर्क रख पाएँगे।
  • 1859 के इनलैंड इमिग्रेशन एक्ट के तहत बागानों में काम करने वाले मजदूरों को बिना इजाजत बागान से बाहर जाने की छूट नहीं होती थी और यह इजाज़त उन्हें कभी कभी ही मिलती थी।
  • जब उन्होंने असहयोग आंदोलन के बारे में सुना तो हज़ारों मजदूर अपने अधिकारियों की अवहेलना करने लगे। उन्होंने बागान छोड़ दिए और अपने घर को चल दिए।
  • उनको लगता था कि अब गांधी राज आ रहा है इसलिए अब तो हरेक को गाँव में ज़मीन मिल जाएगी।

असहयोग आन्दोलन की बागानों की सीमाएँ

  • लेकिन वे अपनी मंजिल पर नहीं पहुँच पाए। रेलवे और स्टीमरों की हड़ताल के कारण वे रास्ते में ही फंसे रह गए। उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया और उनकी बुरी तरह पिटाई हुई।
  • इन स्थानीय आंदोलनों की अपेक्षाओं और दृष्टियों को कांग्रेस के कार्यक्रम में परिभाषित नहीं किया गया था। उन्होंने तो स्वराज शब्द का अपने-अपने हिसाब से अर्थ निकाल लिया था।
  • उनके लिए यह एक ऐसे युग का प्रतीक था जब सारे कष्ट और सारी मुसीबतें खत्म हो जाएंगी।
  • फिर भी, जब आदिवासियों  ने गांधीजी के नाम का नारा लगाया और स्वतंत्र भारत की हुंकार भरी तो वे एक अखिल भारतीय आंदोलन से भी भावनात्मक स्तर पर जुड़े हुए थे।
  • जब बागानी मजदूर महात्मा गांधी का नाम लेकर काम करते थे या अपने आंदोलन को कांग्रेस के आंदोलन से जोड़कर देखते थे तो वास्तव में एक ऐसे आंदोलन का अंग बन जाते थे जो उनके इलाके तक ही सीमित नहीं था।

► सविनय अवज्ञा की ओर (चौरी-चौरा काण्ड फरवरी 1922)

  • गौरखपुर स्थित चौरी-चौरा बाजार से गुजर रहे एक शांतिपूर्ण जुलूस पर पुलिस ने लाढी चार्ज कर दिया तथा हिंसा फैलने लगी तो इस घटना के बाद
  • फ़रवरी 1922 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला कर लिया।
  • उनको लगता था कि आंदोलन हिंसक होता जा रहा है और सत्याग्रहियों को व्यापक प्रशिक्षण की जरूरत है।
  • कांग्रेस के कुछ नेता इस तरह के जनसंघर्षों से थक चुके थे। वे 1919 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत गठित की गई प्रांतीय परिषदों के चुनाव में हिस्सा लेना चाहते थे।
  • सुधारों की वकालत करना और यह दिखाना भी महत्त्वपूर्ण है कि ये परिषदें लोकतांत्रिक संस्था नहीं हैं।

स्वराज पार्टी :- सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने परिषद् राजनीति में वापस लौटने के लिए कांग्रेस के भीतर ही स्वराज पार्टी का गठन कर डाला।

  • जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे युवा नेता ज़्यादा उग्र जनांदोलन और पूर्ण स्वतंत्रता के लिए दबाव बनाए हुए थे।
  • आंतरिक बहस व असहमति के इस माहौल में दो ऐसे तत्व थे जिन्होंने बीस के दशक के आखिरी सालों में भारतीय राजनीति की रूपरेखा एक बार फिर बदल दी।

आर्थिक मन्दी का असर

  • पहला कारक था विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का असर। 1926 से कृषि उत्पादों की कीमतें गिरने लगी थीं और 1930 के बाद तो पूरी तरह धराशायी हो गई।
  • कृषि उत्पादों की माँग गिरी और निर्यात कम होने लगा तो किसानों को अपनी उपज बेचना और लगान चुकाना भी भारी पड़ने लगा।
  • 1930 तक ग्रामीण इलाके भारी उथल-पुथल से गुजरने लगे थे।

साइमन कमीशन

  • ब्रिटेन की नयी टोरी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक वैधानिक आयोग का गठन कर दिया।
  • राष्ट्रवादी आंदोलन के जवाब में गठित किए गए इस आयोग को भारत में संवैधानिक व्यवस्था की कार्यशैली का अध्ययन करना था और उसके बारे में सुझाव देना था। साइमन आयोग में 7 सदस्य थे उनमें से एक भी भारतीय सदस्य नहीं था सारे अंग्रेज़ थे।
  • 1928 में जब साइमन कमीशन भारत पहुँचा तो उसका स्वागत ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ (साइमन कमीशन गो बैक) के नारों से किया गया।
  • कांग्रेस और मुस्लिम लीग, सभी पार्टियों ने प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। इस विरोध को शांत करने के लिए वायसराय लॉर्ड इरविन ने अक्तूबर 1929 में भारत के लिए ‘डोमीनियन स्टेटस’ का गोलमोल सा ऐलान कर दिया।
  • उन्होंने इस बारे में कोई समय सीमा भी नहीं बताई। उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि भावी संविधान के बारे में चर्चा करने के लिए गोलमेज़ सम्मेलन आयोजित किया जाएगा।
  • इस प्रस्ताव से कांग्रेस के नेता संतुष्ट नहीं थे। जवाहरलाल महात्मा गांधी नेहरू और सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में कांग्रेस का तेज़-तर्रार खेमा आक्रामक तेवर अपनाने लगा था। उदारवादी और
  • मध्यमार्गी नेता ब्रिटिश डोमीनियन के भीतर ही संवैधानिक व्यवस्था के पक्ष में थे। लेकिन इस खेमे का प्रभाव घटता जा रहा था।

कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन व पूर्ण स्वराज की माँग

  • दिसंबर 1929 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज’ की माँग को औपचारिक रूप से मान लिया गया।
  • तय किया गया कि 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा और उस दिन लोग पूर्ण स्वराज के लिए संघर्ष की शपथ लेंगे। इस उत्सव की ओर बहुत कम ही लोगों ने ध्यान दिया।
  • अब स्वतंत्रता के इस अमूर्त विचार को रोजमर्रा जिन्दगी के ठोस मुद्दों से जोड़ने के लिए महात्मा गांधी को कोई और रास्ता ढूँढ़ना था।

नमक यात्रा और सविनय अवज्ञा आंदोलन

  • देश को एकजुट करने के लिए महात्मा गांधी को नमक एक शक्तिशाली प्रतीक दिखाई दिया।
  • 31 जनवरी 1930 को उन्होंने वायसराय इरविन को एक खत लिखा। इस खत में उन्होंने 11 माँगों का उल्लेख किया था।
  • इनमें से कुछ सामान्य माँगें थीं जबकि कुछ माँगें उद्योगपतियों से लेकर किसानों तक विभिन्न तबकों से जुड़ी थीं।
  • गांधीजी इन माँगों के ज़रिए समाज के सभी वर्गों को अपने साथ जोड़ना चाहते थे ताकि सभी उनके अभियान में शामिल हो सकें।
  • इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण माँग नमक कर को खत्म करने के बारे में थी। नमक का अमीर-गरीब, सभी इस्तेमाल करते थे। यह भोजन का एक अभिन्न हिस्सा था।
  • इसीलिए नमक पर कर और उसके उत्पादन पर सरकारी इज़ारेदारी को महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन का सबसे दमनकारी पहलू बताया था।
  • महात्मा गांधी का यह पत्र एक अल्टीमेटम (चेतावनी) की तरह था। उन्होंने  लिखा था कि अगर 11 मार्च तक इनकी माँगें नहीं मानी गई तो कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ देगी।

दाण्डी यात्रा (12 मार्च 1930)

  • इरविन झुकने को तैयार नहीं थे। फलस्वरूप, महात्मा गांधी ने अपने 78 विश्वस्त वॉलंटियरों के साथ नमक यात्रा शुरू कर दी।
  • यह यात्रा साबरमती में गांधीजी के आश्रम से 240 किलोमीटर दूर दांडी नामक गुजराती तटीय कस्बे में जाकर खत्म होनी थी।
  • गांधीजी की टोली ने 24 दिन तक हर रोज़ लगभग 10 मील का सफ़र तय किया।
  • गांधीजी जहाँ भी रुकते हज़ारों लोग उन्हें सुनने आते। इन सभाओं में गांधीजी ने स्वराज का अर्थ स्पष्ट किया और आह्वान किया कि लोग अंग्रेजों की शांतिपूर्वक अवज्ञा करें यानी अंग्रेज़ों का कहना मानें।
  • 6 अप्रैल को वह दांडी पहुँचे और उन्होंने समुद्र का पानी उबालकर नमक बनाना शुरू कर दिया।
  • यह कानून का उल्लंघन था। यहीं से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होता है।

सविनय अवज्ञा आंदोलन का स्वरूप

  • यह आंदोलन असहयोग आंदोलन के मुकाबले किस तरह अलग था? इस बार लोगों को न केवल अंग्रेज़ों का सहयोग न करने के लिए बल्कि औपनिवेशिक कानूनों का उल्लंघन करने के लिए आह्वान किया जाने लगा।
  • देश के विभिन्न भागों में हजारों लोगों ने नमक कानून तोड़ा, और सरकारी नमक कारखानों के सामने प्रदर्शन किए।
  • आंदोलन फैला तो विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जाने लगा। शराब की दुकानों की पिकेटिंग होने लगी।
  • किसानों ने लगान और चौकीदारी कर चुकाने से इनकार कर दिया।
  • गाँवों में तैनात कर्मचारी इस्तीफे देने लगे। बहुत सारे स्थानों पर जंगलों में रहने वाले वन कानूनों का उल्लंघन करने लगे। वे लकड़ी बीनने और मवेशियों को चराने के लिए आरक्षित वनों में घुसने लगे।
  • इन घटनाओं से चिंतित औपनिवेशिक सरकार कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार करने लगी। बहुत सारे स्थानों पर हिंसक टकराव हुए।

असहयोग को वापस लेने का कारण

  • अप्रैल 1930 में जब महात्मा गांधी के समर्पित साथी भब्दुल गफ्फार खान को गिरफ्तार किया गया तो गुस्साई भीड़ सशस्त्र बख़्तरबंद गाड़ियों और पुलिस की गोलियों का, सामना करते हुए सड़कों पर उतर आई। बहुत सारे लोग मारे गए।
  • महीने भर बाद जब महात्मा गांधी को भी गिरफ्तार कर लिया गया तो शोलापुर के औद्योगिक मजदूरों ने अंग्रेज़ी शासन का प्रतीक पुलिस चौकियों, नगरपालिका भवनों, अदालतों और रेलवे स्टेशनों पर हमले शुरू कर दिए।
  • भयभीत सरकार ने निर्मम दमन का रास्ता अपनाया। शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों पर हमले किए गए, औरतों व बच्चों को मारा-पीटा गया और लगभग एक लाख लोग गिरफ्तार किए गए।
  • महात्मा गांधी ने एक बार फिर आंदोलन वापस ले लिया।

गांधी इरविन समझौता :- 5 मार्च 1931 को उन्होंने इरविन के साथ एक समझौते पर दस्तखत कर दिए।

  • इस गांधी-इरविन समझौते के ज़रिए गांधीजी ने लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी। पहले गोलमेज सम्मेलन का कांग्रेस बहिष्कार कर चुकी थी।
  • इसके बदले व साकार राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राजी हो गई।
  • दिसंबर 1931. में सम्मेलन के लिए गांधीजी लंदन गए।
  • यह वार्ता बीच में ही टूट गई और मे जिन्हें निराश वापस लौटना पड़ा।
  • यहाँ आकर उन्होंने पाया कि सरकार ने  नए सिर से दमन शुरू कर दिया है।
  • गफ्फार ख़ान और जवाहरलाल नेहरू, दोनों जेल में थे।
  • कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था।
  • सभाओं, प्रदर्शनों और बहिष्कार जैसी गतिविधियों को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए जा रहे थे।
  • भारी आशंकाओं के बीच महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आदोलन दोबारा शुरू कर दिया।
  • साल भर तक चला लेकिन 1934 तक  आते-आते उसकी गति मंद पड़ने लगी थी।

लोगों ने दुबारा शुरु होने पर सविनय अवज्ञा आंदोलन को कैसे लिया

किसानों की आन्दोलन में भूमिका :-

  • गांवों में संपन्न किसान समुदाय-जैसे गुजरात के पटीदार और उत्तर प्रदेश के जाट-आंदोलन में सक्रिय थे।
  • व्यावसायिक फसलों की खेती करने के कारण व्यापार में मंदो और गिरती कीमतों से वे बहुत परेशान थे।
  • जब उनकी नकद आय खत्म होने लगी तो उनके लिए सरकारी लगान चुकाना नामुमकिन हो गया।
  • सरकार लगान कम करने को तैयार नहीं थी। चारों तरफ असंतोष था।
  • संपन्न किसानों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का बढ़-चढ़ कर समर्थन किया।
  • उन्होंने अपने समुदायों को एकजुट किया और कई बार अनिच्छुक सदस्यों को बहिष्कार के लिए मजबूर किया।
  • उनके लिए स्वराज की लड़ाई भारी लगान के खिलाफ लड़ाई थी।
  • लेकिन जब 1931 में लगानों के घटे बिना आंदोलन वापस ले लिया गया तो उन्हें बड़ी निराशा हुई।
  • फलस्वरूप, जब 1932 में आंदोलन दुबारा शुरू हुआ तो उनमें से बहुतों ने उसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया।
  • गरीब किसान केवल लगान में कमी नहीं चाहते थे। उनमें से बहुत सारे किसान जमींदारों से पट्टे पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे।
  • महामंदी लंबी खिंची और नकद आमदनी गिरने लगी तो छोटे पट्टेदारों के लिए जमीन का किराया चुकाना भी मुश्किल हो गया।
  • वे चाहते थे कि उन्हें ज़मींदारों को जो भाड़ा चुकाना था उसे माफ़ कर दिया जाए।
  • इसके लिए उन्होंने कई रेडिकल आंदोलनों में हिस्सा लिया जिनका नेतृत्व अकसर समाजवादियों और कम्युनिस्टों के हाथों में होता था।
  • अमीर किसानों और ज़मींदारों की नाराजगी के भय से कांग्रेस ‘भाडा विरोधी’ आंदोलनों को समर्थन देने में प्रायः हिचकिचाती थी।
  • इसी कारण गरीब किसानों और कांग्रेस के बीच संबंध अनिश्चित बने रहे।

महिलाओं की भूमिका

  • विदेशी कपड़ो व शराब की दुकानों की पिकेटिंग की बहुत सारी महिलाएँ जेल भी गई शहरी इलाकों में ज्यादातर ऊँची जातियों की महिलाएँ आंदोलन में हिस्सा ले रही थीं
  • गांधीजी के आहवान के बाद औरतों को राष्ट्र की सेवा करना अपना पवित्र दायित्व दिखाई देने लगा था
  • लेकिन सार्वजनिक भूमिका में इस इजाफें का मतलब यह नहीं था लेकिन सार्वजनिक भूमिका बदलाव आने वाला था।
  • गांधीजी का मानना था कि घर चलाना चूल्हा-चौका सँभालना, अच्छी माँ व अच्छी पत्नी की भूमिकाओं का निर्वाह करना ही औरत का असली कर्त्तव्य है।
  • इसीलिए लंबे समय तक कांग्रेस संगठन में किसी भी महत्वपूर्ण पद पर औरतों को जगह देने से हिचकिचाती रही।
  • कांग्रेस को उनकी प्रतीकात्मक उपस्थिति में ही दिलचस्पी थी।

सविनय अवज्ञा की सीमाएँ

  • सभी सामाजिक समूह स्वराज की अमूर्त अवधारणा से प्रभावित नहीं थे।
  • ऐसा ही एक समूह राष्ट्र के अछूतों का था।
  • वे 1930 के बाद खुंद को दलित या उत्पीड़ित कहने लगे थे।
  • कांग्रेस ने लंबे समय तक दलितों पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि कांग्रेस रूढ़िवादी सवर्ण हिंदू सनातनपंथियो से डरी हुई थी।
  • लेकिन महात्मा गांधी ने ऐलान किया की अस्पृश्यता छुआछुत को खत्म किए बिना सौ साल तक भी स्वराज की स्थापना नहीं की जा सकती ।
  • उन्होंने  ‘अछूतों’ को हरिजन यानी ईश्वर की संतान बताया उन्हें मंदिरों, सार्वजनिक तालाबों, सड़कों और कुओं पर समान अधिकार दिलाने के लिए सत्याग्रह किया।
  • मैला ढोनेवालों के काम को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए वे साफ़ करने लगे उन्होंने ऊँची जातियों का आहवान किया कि वे अपना हृदय परिवर्तन करें और ‘अस्पृश्यता के पाप’ को छोडें लेकिन बहुत सारे दलित नेता अपने समुदाय की समस्याओं का अलग राजनीतिक हल ढूँढना चाहते थे।
  • वे खुद को संगठित करने लगे. उन्होंने शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के लिए आवाज़ उठाई और अलग निर्वाचन क्षेत्रों की बात कही ताकि वहाँ से विधायी परिषदों के लिए केवल दलितों को ही चुनकर भेजा जा सके। उनका मानना था कि उनकी सामाजिक अपंगता केवल राजनीतिक सशक्तीकरण से ही दूर हो सकती है।
  • इसलिए सविनय अवज्ञा आंदोलन में दलितों की हिस्सेदारी काफ़ी समित थी महाराष्ट्र और नागपुर क्षेत्र में यह बात खासतौर से दिखाई देती थी जहाँ उनके संगठन काफी मज़बूत थे।
  •  डॉ. अंबेडकर ने 1930 में दलितों को दमित वर्ग एसोसिएशन (Depressed Classes Association) में संगठित किया।
  • दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों के सवाल पर दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में महात्मा गांधी के साथ उनका काफ़ी विवाद हुआ
  • जब ब्रिटिश सरकार ने अंबेडकर की माँग मान ली तो गांधीजी आमरण अनशन पर बैठ गए।
  • उनका मत था कि दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था से समाज में उनके एकीकरण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाएगी

पुना पैक्ट :- अंबेडकर ने गांधीजी की राय मान ली और सितंबर 1932 में गांधी जी व अम्बेडकर के बीच एक समझौता हुआ जिसे पुना पैक्ट कहते है।

  • जिन्हें बाद में अनुसूचित जाति के नाम से जाना गया) को प्रांतीय एवं केंद्रीय विधायी परिषदों में आरक्षित सीटें मिल गई हालाँकि उनके लिए मतदान सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में ही होता था फिर भी, दलित आंदोलन कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन को शंका की दृष्टि से ही देखता रहा।

मुस्लिमों की समस्या

  • भारत के कुछ मुस्लिम राजनीतिक संगठनों ने भी सविनय अवज्ञा आंदोलन  के प्रति को खास उत्साह नहीं दिखाया
  • असहयोग – खिलाफत आदोलन के शांत पड़ जाने के बाद मुसलमानों का एक बहुत बड़ा तबका कांग्रेस से कटा हुआ महसूस करने लगा था
  • 1920 के दशक के मध्य से कांग्रेस हिंदू महासभा जैसे हिंदू धार्मिक राष्ट्रवादी संगठनों के काफी करीब दिखने लगी थी।
  • जैसे-जैसे हिंदू-मुसलमानों के बीच संबंध खराब होते गए, दोनों समुदाय उग्र धार्मिक जुलूस निकालने लगे।
  • इससे कई शहरों में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक टकराव व दंगे हुए। हर दंगे के साथ दोनों समुदायों के बीच फासला बढ़ता गया।
  • कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने एक बार फिर गठबंधन का प्रयास किया।
  • 1927 में ऐसा लगा भी कि अब एकता स्थापित हो ही जाएगी।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण मतभेद भावी विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व के सवाल पर थे।
  • मुस्लिम लीग नेताओं में से एक मोहम्मद अली जिन्ना का कहना था कि अगर मुसलमानों को केंद्रीय सभा में आरक्षित सीटें दी जाएँ और मुस्लिम बहुल प्रातों बगांल और पंजाब में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचिका के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाए तो वे मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचिक की माँग छोड़ने के लिए तैयार है ।
  • प्रतिनिधित्व के सवाल पर यह बहस-मुबाहिसा चल ही रहा था कि 1928 में आयोजित किए गए सर्वदलीय सम्मेलन में हिंदू महासभा के एम.आर. जयकर ने इस समझौते के लिए किए जा रहे प्रयासों की खुलेआम निंदा शुरू कर दी जिससे इस मुद्दे के समाधान की सारी संभावनाएँ समाप्त हो गई।
  • सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ उस समय समुदायों के बीच संदेह और अविश्वास का माहौल बना हुआ था कांग्रेस से कटे हुए मुसलमानों का बड़ा तबका किसी संयुक्त संघर्ष के लिए तैयार नहीं था।
  • बहुत सारे मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवी भारत में अल्पसंख्यकों के रूप में मुसलमानों की हैसियत को लेकर चिंता जता रहे थे।
  • उनको भय था कि हिंदू बहुसंख्या के वर्चस्व की स्थिति में अल्पसंख्यकों की संस्कृति और पहचान खो जाएगी।

सामुहिक अपनेपन का भाव

  • राष्ट्रवाद की भावना तब पनपती है जब लोग ये महसूस करने लगते हैं कि वे एक ही राष्ट्र के अंग हैं जब वे एक-दूसरे को एकता के सूत्र में बाँधने वाली कोई साझा बात ढूँढ़ लेते हैं।
  • सामूहिक अपनेपन की यह भावना आंशिक रूप से संयुक्त संघर्षो के चलते पैदा हुई थी।
  • इनके अलावा बहुंत सारी सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ भी थीं जिनके जरिए राष्ट्रवाद लोगों की कल्पना और दिलोदिमाग पर छा गया था।
  • इतिहास व साहित्य लोक कथाएँ व गीत, चित्र व प्रतीक सभी ने राष्ट्रवाद को साकार करने में अपना योगदान दिया था।
  • लोगों को एक ऐसी छवि गढ़ने में मदद मिलती है जिसके जरिए वे राष्ट्र को पहचान सकते हैं।

भारत माता की छवि का निर्माण

  • बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद के विकास के साथ भारत की पहचान भी भारत माता की छवि का रूप लेने लगी यह तसवीर पहली बार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने बनाई थी।1870 के दशक में उन्होंने मातृभूमि की स्तुति के रूप में ‘वन्दे मातरम्’ गीत लिखा था।
  • बाद में इसे उन्होंने अपने उपन्यास आनन्दमठ में शामिल कर लिया यह गीत बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन में खूब गाया गया।
  • स्वदेशी आंदोलन की प्रेरणा से अबनीन्द्रनाथ टैगोर ने भारत माता की विख्यात छवि को चित्रित किया। इस पेंटिग में भारत माता संन्यासिनी के रूप में दर्शाया गया है।
  • वह शांत, गंभीर, दैवी और अध्यात्मिक गुणों से युक्त दिखाई देती है।
  • आगे चल कर जब इस छवि को बड़े पैमाने पर तसवीरों में उतारा जाने लगा और विभिन्न कलाकार यह तसवीर बनाने लगे तो भारत माता की छवि विविध रूप ग्रहण करती गई।
  • इस मातृ छवि के प्रति श्रद्धा को राष्ट्रवाद में आस्था का प्रतीक माना जाने लगा।
  • राष्ट्रवाद का विचार भारतीय लोक कथाओं को पुनर्जीवित करने के आंदोलन से भी मज़बूत हुआ

लोकगीतों का राष्ट्रवाद में योगदान

  • उन्नीसवीं सदी के आखिर में राष्ट्रवादियों ने भाटों व चारणों द्वारा गाई-सुनाई जाने वाली लोक कथाओं को दर्ज करना शुरू कर दिया
  • वे लोक गीतों व जनश्रुतियों को इकट्ठा करने के लिए गाँव-गाँव घूमने लगे उनका मानना था कि यही कहानियाँ हमारी उस परंपरागत संस्कृति की सही तसवीर पेश करती हैं जो बाहरी ताकतों के प्रभाव से भ्रष्ट और दूषित हो चुकी है
  • अपनी राष्ट्रीय पहचान को ढूंढने और अपने अतीत में गौरव का भाव पैदा करने के लिए इस लोक परंपरा को बचाकर रखना जरूरी था।
  • बंगाल में खुद रबीन्द्रनाथ टैगोर भी लोक-गाथा गीत, बाल गीत और मिथकों को इकट्ठा करने निकल पड़े।
  • उन्होंने लोक परंपराओं को  वाले आंदोलन का नेतृत्व किया मद्रास में नटेसा शास्त्री ने द फोकलोर्स ऑफ सदर्न इंडिया के नाम से तमिल लोक कथाओं का विशाल संकलन चार खंडों में प्रकाशित किया उनका मानना था
  • कि लोक कथाएँ राष्ट्रीय साहित्य होती हैं; यह ‘लोगों के असली विचारों और विशिष्टताओं की सबसे विश्वसनीय ‘ अभियक्ति है।
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राष्ट्रीय प्रतीकों का निर्माण

  • जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलन आगे बढ़ा, राष्ट्रवादी नेता लोगों को एकजुट और उनमें राष्ट्रवाद की भावना भरने के लिए इस तरह के चिह्नों और प्रतीकों के बारे में और ज़्यादा जागरूक होते गए.
  • बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के दौरान एक तिरंगा झंडा (हरा, पीला, लाल) तैयार किया गया
  • इसमें ब्रिटिश भारत के आठ प्रांतों का प्रतिनिधित्व करते कमल के आठ फूल और हिंदुओं व मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता एक अर्धचंद्र दर्शाया गया था
  • 1921 तक गांधीजी ने भी स्वराज का झंडा तैयार कर लिया था यह भी तिरगा (सफेद, हरा और लाल) था।
  • इसके मध्य में गांधीवादी प्रतीक चरखे को जगह दी गई थी जो स्वावलंबन का प्रतीक था।
  • जुलूसों में यह झंडा थामे चलना शासन के ‘प्रति अवज्ञा का संकेत था।

राष्ट्रवादी भावना के विस्तार में इतिहास की भूमिका

  • इतिहास की पुनर्व्याख्या राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने का एक और साधन थी।
  • उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते बहुत सारे भारतीय यह महसूस करने लगे थे कि राष्ट्र के प्रति गर्व का भाव जगाने के लिए भारतीय इतिहास को अलग ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए अंग्रेजों की नज़र में भारतीय पिछड़े हुए और आदिम लोग थे जो अपना शासन खुद नहीं सँभाल सकते।
  • इसके जवाब में भारत के लोग अपनी महान उपलब्धियों की खोज में अतीत की ओर देखने लगे उन्होंने उस गौरवमयी प्राचीन युग के बारे में लिखना शुरू कर दिया।
  • जब कला और वास्तुशिल्प, विज्ञान और गणित, धर्म और संस्कृति, कानून और दर्शन, हस्तकला और व्यापार फल-फूल रहे थे।
  • उनका कहना था की इस महान युग के बाद पतन का समय आया और भारत को गुलाम बना लिया गया।
  • इस राष्ट्रवादी इतिहास में पाठकों को अतीत में भारत की महानता व उपलब्धियों पर गर्व करने और ब्रिटिश शासन के तहत दुर्दशा से मुक्ति के लिए संघर्ष का मार्ग अपनाने का आह्वान किया जाता था।
  • लोगों को एकजुट करने की इन कोशिशों की अपनी समस्याएँ थीं।
  • जिस अतीत का गौरवगान किया जा रहा था। वह हिंदुओं का अतीत था।
  • छवियों का सहारा गौरवगान किया जा रहा था वह हिंदुओं का अतीत था।
  • जिन छवियों का सहारा लिया जा रहा था वे हिंदू प्रतीक थे।
  • इसलिए अन्य समुदायों के लोग अलग-अलग महसूस करने लगे थे।

निष्कर्ष :-

  • अंग्रेज सरकार के खिलाफ बढ़ता गुस्सा विभिन्न भारतीय समूहों और वर्गों को स्वतंत्रता के साझा संघर्ष में खींच रहा था।
  • महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने लोगों के असंतोष  और परेशानियों को स्वतंत्रता के संगठित आंदोलन में समाहित करने का प्रयास किया।
  • उन्होंने आंदोलन के जरिए पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने का प्रयास किया।
  • लेकिन जैसा कि हमने देखा, इन आंदोलनों में हिस्सा लेने वाले विभिन्न समूह और वर्ग अलग-अलग आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के साथ हिस्सा ले रहे थे।
  • उनकी शिकायतें बहुत व्यापक थीं इसलिए औपनिवेशिक शासन से मुक्ति का भी सबके लिए अपना-अपना अर्थ था।
  • कांग्रेस ने इन विभेदी को हल करने और यह सुनिश्चित करने के लिए हमेशा प्रयास किया कि एक समूह की माँगों के कारण कोई दूसरा समूह दूर न चला जाए।
  • यही वजह है कि आंदोलन के भीतर अकसर बिखराव आ जाता था।
  • कांग्रेस की सरगर्मियों और राष्ट्रीय एकता के शिखर को दूने के बाद बिखराव और आंतरिक टकरावों के चरण आ जाते थे।
  • संक्षेप में, जो राष्ट्र उभर रहा था वह औपनिवेशिक शासन से मुक्ति की चाह रखने वाली बहुत सारी आवाजों का पुंज था।
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